सास और बहू के बीच झगड़ों की शुरुआत तब होती है जब वे दोनों यह समझने लगती हैं कि उन का एकदूसरे की सत्ता में अनाधिकृत प्रवेश हो रहा है. इस सोच के चलते उन के मन में प्रतिस्पर्धा का भाव जागता है, एकदूसरे के प्रति कटु आलोचना का जन्म होता है. इस स्थिति में दोनों ही एकदूसरे को अपने से कमतर आंकने की भूल करते हैं.
इस में संदेह नहीं कि एक परिवार में दोनों ही वयस्क होते हैं और उन का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, परंतु सास का अनुभव निश्चित तौर पर बहू से ज्यादा होता है और चूंकि परिवार में उस का पहले से प्रभुत्व होता है, वह बहू के आने के बाद भी घर में वैसा ही अधिकार और प्रभुत्व चाहती है. सासबहू के बीच झगड़े का दूसरा कारण मां और पुत्र का संबंध होता है.
वैसा संबंध सास और बहू के बीच कभी नहीं बन पाता है. सास को लगता है कि एक तीसरे शख्स ने उस के घर में आ कर उस के पुत्र के ऊपर उस से अधिक अधिकार जमा लिया है. दूसरी तरफ बहू समझती है कि उस का अपने पति के ऊपर विशेषाधिकार है और वह अपने पति के जीवन में अति विशिष्ट स्त्री का स्थान रखती है. जबकि इन दोनों के बीच पुरुष को एक ही समय पुत्र और पति दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है.
कटुता के दूसरे मुख्य कारण हैं : दहेज की मांग या इच्छा, बहू से पुत्र की कामना, पुत्री पैदा होने से नाराजगी आदि. दहेज का भयावह रूप 7वें-8वें दशक तक बहुत कम था. अगर था भी तो केवल उच्च या उच्चमध्य वर्ग में, परंतु धीरेधीरे इस ने निम्नवर्ग तक अपने पैर पसार लिए और आज इस के कारण अधिकांश परिवार दहेज की ज्वाला में जलने लगे हैं. खैर, दहेज की मांग एक विशेष कारण है और यह सामान्य व्यवहार की श्रेणी में नहीं आता.एक अनुमान के आधार पर भारत में लगभग 60 प्रतिशत परिवार दांपत्य जीवन में सासबहू के झगड़ों से प्रभावित होते हैं. सासबहू के झगड़ों के लिए केवल एक पक्ष को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा. आमतौर पर कहानियों के माध्यम से सासबहू संबंधों पर रोचक तथ्य देखे जा सकते हैं.
साहित्यिक सासबहुएं
प्रेमचंद के साहित्य में सासबहू के झगड़ों का बहुत क्षीण अस्तित्व दिखता है. उन की एक कहानी ‘तेंतर’ में सास अपनी बहू से तो कम, उस की जायी तीसरी पुत्री से ज्यादा नाराज रहती है, क्योंकि वह 3 पुत्रों के बाद जन्मी है और एक मान्यता के अनुसार, 3 पुत्रों के ऊपर जन्मी पुत्री अभागी होती है. सास मानती है कि वह परिवार के लिए अपशकुन ले कर आई है जिस से कोई न कोई अनहोनी होगी. परंतु जब कई महीनों तक कोई अनहोनी नहीं होती तो सास अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए उदरशूल का झूठा बहाना बना कर घर वालों को परेशान करती है. इस कहानी की पुत्रवधू बहुत सीधी है और वह सास की ज्यादतियां चुपचाप सहती रहती है.
प्रेमचंद की एक दूसरी कहानी ‘बूढ़ी काकी’ की सास एक उपेक्षित सास है. घर में भोज है, लोग दावत उड़ा कर चले जाते हैं, बेटा और बहू भी खापी कर सो जाते हैं, परंतु भूख से बिलबिलाती बूढ़ी काकी के बारे में कोई नहीं सोचता. उसी दौर की कहानीकार सुभद्राकुमारी चौहान की कहानियों में सासबहू के झगड़ों के बजाय उन के बीच प्रेम और सौहार्द्र का बंधन देखने को मिलता है. उन की कहानी ‘सोने की कंठी’ की बिंदो पढ़ीलिखी होने के कारण अपनी 2 जेठानियों और सास के बीच प्रेम और आदर की अधिकारिणी बन जाती है. उन के संयुक्त परिवार में कलह होने पर भी उस को कोई कुछ न कहता, बल्कि उस की जेठानियां अपने पतियों से पिट जातीं.50 से 60 के दशकों का जमाना हिंदी साहित्य में प्रयोगवादी कहानियों का जमाना था. उस दौरान अचेतन कहानी, सचेतन कहानी, नई कहानी, प्रगतिशील कहानी, अ-कहानी आदि के नाम से आंदोलन चले. इन कहानियों से परिवार और समा ज गायब हो गए, बस एक व्यक्ति जीवित रहा, जो पता नहीं कौन सी दुनिया में जीता था. लेकिन इसी बीच कुछ पत्रिकाओं ने परिवार और समाज को जिंदा रखा, जिन में सामाजिक और पारिवारिक कहानियां प्रमुखता के साथ प्रकाशित हो रही थीं.
इस संदर्भ में दामोदर दत्त दीक्षित की एक कहानी ‘बहू बेटी’ का उल्लेख जरूरी है. परिवार के बड़े बेटे की जब शादी की बात उठती है तो सभी चाहते हैं कि बहू संस्कारी आए, परंतु लड़का पढ़ीलिखी शहरी बहू पसंद करता है, जिसे घूंघट करना तो दूर, साड़ी पहनना तक नहीं आता, परंतु बेटे की खुशी के लिए पहले उस की मां मान जाती है, बाद में बाप भी यह कह कर मान जाता है, ‘चलो, मैं समझूंगा, घर में बहू नहीं बेटी आई है.’ यह आधुनिक साहित्य की कहानी है और आज के प्रगतिशील समाज में शिक्षित परिवारों में ऐसा बदलाव आया है. इस तरह आप देख सकते हैं कि 60-70 के दशक में सासबहू की कहानियों में प्रेमसौहार्द्र के साथसाथ एक आदर्शवादी परिवार की परिकल्पना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है. जबकि आधुनिक साहित्य में सासससुर के विचारों में उदारवादी दृष्टिकोण आया है. चित्रा मुद्गल की एक कहानी ‘दुलहिन’ में सासबहू के बीच इस बात को ले कर मनमुटाव रहता है कि सास और बहू दोनों एक ही समय गर्भवती हो जाती हैं. यह एक ऐसी समस्या है जो सार्वभौमिक या शाश्वत नहीं है, इसलिए इसे अपवादस्वरूप मानना ही ज्यादा अच्छा होगा.
बदलते कथानक
हिंदी कहानियों में समय के साथसाथ कथानक में बदलाव अवश्य आए हैं और कुछ समस्याएं आधुनिक कथा साहित्य में नए सिरे से उभर कर सामने आई हैं, जैसे दहेज की समस्या. इस दानव के कारण कितनी ही नववधुएं अग्नि की ज्वाला में जल कर राख हो गईं और कितने ही परिवार मुकदमों के चक्कर में बरबाद हो गए. ये प्रसंग कहानियों के मुख्य विषय बने. देश के कुछ भागों में अभी भी यह समस्या बनी हुई है, परंतु शिक्षा के प्रसार के साथसाथ इस में कमी आई है. संयुक्त परिवारों के टूटने से भी बहुत सी समस्याओं का समाधान हुआ है. अब बेटे और बहुएं अपने मांबाप या सासससुर से दूर अलगअलग शहरों या विदेशों में रहते हैं. सो, सास और बहू के विवाद अगर समाप्त नहीं तो कम अवश्य हुए हैं. शिक्षा के विस्तार के साथसाथ बहुएं अब नौकरियां करने लगी हैं और वे परिवार में पति के बराबर आर्थिक योगदान दे रही हैं. ऐसी स्थिति में कुछ मनमुटाव होते हुए भी सासें अपनी बहुओं से सामंजस्य बिठा कर चलने में ही अपनी और परिवार की भलाई समझती हैं. बहू भी सास को घर की जिम्मेदारी देने में हिचकती नहीं है क्योंकि वह बेफिक्र हो कर घर से बाहर रह पाती है. यह जरूरी भी है वरना घर में कलह और संबंधों में खटास आनी तय है.
आज ज्यादातर परिवार शिक्षित हैं. शहरों में परिवार का लगभग हर सदस्य नौकरीपेशे वाला है. ऐसे में उन के जीवन में झगडे़ के लिए कोई जगह नहीं है. व्यस्त जीवन में हम इस के लिए समय नहीं निकाल सकते. इसलिए सासबहू अगर अपनी भूमिका जिम्मेदारीपूर्वक निभाएंगी तो पारिवारिक जीवन में खुशियों के फूल महकते रहेंगे.