हाल ही में बिहार में बच्चों को चमकी बुखार होने के कारण कोहराम मच गया है. यह बुखार बच्चों को अपनी चपेट में लेता है और अगर समय पर इस का इलाज न हो तो पीड़ित बच्चे की जान पर बन आती है. ऐसा नहीं है कि बच्चों को और बीमारियां नहीं होती हैं. बहुत सी तो ऐसी होती हैं जिन के बारे में लोग आज भी अनजान हैं या लापरवाही बरतते हैं. आइए, जानते हैं कुछ ऐसी ही बीमारियों में बारे में.

मम्प्स

मम्प्स वायरसजन्य बीमारी है जो ज्यादातर बचपन में होती है. यह रोग किशोर बच्चों को कम होता देखा गया है लेकिन अगर यह बीमारी युवावस्था में हो तो इस के गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

कर्णपूर्वग्रंथि शोथ यानी मम्प्स रोग में कर्णपूर्वग्रंथि में सूजन आ जाती है. यह ग्रंथि जबड़े की गोलाई और कान के नीचे स्थित होती है तथा यह शरीर की सब से बड़ी लार ग्रंथि है.

मम्प्स के लक्षण

वायरस के संपर्क में आने के 2 या 3 सप्ताह बाद ही रोगी में इस रोग के लक्षण उभर कर सामने आते हैं. इस के वायरस हवा द्वारा फैलते हैं. मम्प्स से प्रभावित व्यक्ति रोग के लक्षणों के उभरने से एक सप्ताह पहले और

2 सप्ताह बाद तक इस बीमारी को फैलाने का माध्यम बना रहता है.

लार उत्पन्न करने वाली एक या दोनों पैरोटिड ग्लैंड्स यानी कर्णपूर्वग्रंथियों में सूजन उत्पन्न होना ही इस रोग की सब से पहली पहचान है. इस ग्रंथि में सूजन और दर्द उत्पन्न होने से बच्चे को मुंह खोलने, चबाने और निगलने में बहुत तकलीफ होती है.

बच्चा बुखार और सिरदर्द की भी शिकायत करता है. बुखार 2 या 3 दिन बाद कम हो जाता है और पैरोटिड ग्रंथि की सूजन कम होने में लगभग 10 दिन का समय लग जाता है. अगर चेहरे के एक ही तरफ की ग्रंथि में सूजन है तो कभीकभी दूसरी ग्र्रंथि में सूजन तब आती है जब पहली ग्रंथि की सूजन कम हो जाती है.

कुछ बच्चों में मम्प्स के लक्षण बिलकुल भी दिखाई नहीं देते. उन्हें केवल थोड़ी अस्वस्थता और पैरोटिड ग्रंथि के पास बेचैनी महसूस होती है. लार ग्रंथि में आई सूजन और दर्द को देख कर डाक्टर दर्दनिवारक गोलियों के सेवन की सलाह देता है. खाने के लिए तरल पदार्थों का सेवन ही बच्चे के लिए सही रहता है. इस रोग में डाक्टरों द्वारा आराम करने की हिदायत खासतौर पर दी जाती है.

मम्प्स का अनजाना सच

कई किशोरों व पुरुषों में मम्प्स होने पर आर्काइटिस की समस्या उत्पन्न हो जाती है. इस में शुक्रग्रंथि में शोथ उत्पन्न हो जाता है. इस दशा में पुरुषों की एक या दोनों जनन ग्रंथियों में दर्दनाक सूजन हो जाती है. यह तकलीफदेह स्थिति 2 से 4 दिनों तक रहती है. इस के बाद प्रभावित शुक्र्रग्रंथि पहले से छोटी हो जाती है. अगर दोनों शुक्र्रग्रंथियां इस से प्रभावित हो जाएं तो पुरुषों में बंध्यता की समस्या उत्पन्न हो जाती है.

मम्प्स कभीकभी मैनिनजाइटिस का रूप भी ले लेता है, लेकिन किसी गंभीर समस्या का सामना नहीं करना पड़ता. लड़कों को किशोरावस्था में पहुंचने से पहले मम्प्स का टीका लगवाना फायदेमंद रहता है. ऐसा करने से उस का आर्काइटिस से भी बचाव होता है.

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खसरा

खसरा रुबैला विषाणु द्वारा उत्पन्न एक अत्यधिक संक्रामक रोग है जो वसंत ऋ तु में ज्यादातर 5-7 साल की आयु के बच्चों को होता है. इस बीमारी के होने पर नेत्र श्लेष्मला शोथ हो जाता है, छींकें आती हैं, नाक बंद हो जाती है, घबराहट होती है और तेज बुखार भी हो जाता है.

मुख की श्लेष्मिक झिल्ली पर कोपलिक के धब्बे बन जाते हैं. खांसीं आती है तथा घमौरी जैसे दाने पूरे शरीर पर फैल जाते हैं. खसरा अधिकतर बचपन में ही होता है, लेकिन अगर यह रोग वयस्क होने पर हो तो भयंकर रूप ले लेता है.

रोगी के वायरस से संक्रमित हो जाने के एक से दो हफ्तों के बीच रोग के लक्षण दिखाई देने लग जाते हैं. रोग के अन्य लक्षणों के साथसाथ कई बार रोगी तेज बुखार के कारण बेहोश भी हो जाता है.

रोग संक्रमित होने के 3-4 दिनों बाद बच्चे के गाल के अंदर की तरफ लाल सतह पर सफेद धब्बे नजर आते हैं. बच्चे को सिरदर्द भी हो सकता है व उस का बुखार 100 से 102 डिगरी तक जा सकता है.

डाक्टरों का कहना है कि कुछ बच्चों की लसिका वाहिनियों में सूजन आ जाती है और वे रोशनी से संवेदनशील हो जाती हैं. भूरापन लिए गुलाबी धब्बे पहले माथे और गरदन पर उभरते हैं और फिर शरीर के निचले भाग पर फैल जाते हैं.

कभीकभी धब्बे इतने अधिक फैल जाते हैं कि वे बड़ेबड़े चकत्तों की शक्ल ले लेते हैं. 6 दिनों के बाद धब्बे धीरेधीरे फीके पड़ कर मुरझाने लगते हैं. बच्चों में अधिकतर 10 दिनों के बाद रोग पूरी तरह लुप्त हो जाता है जबकि वयस्कों में यह रोग ठीक होने में 4 हफ्ते का समय ले लेता है.

उपचार

इस रोग में सब से अधिक ध्यान देने की बात यह है कि परिवार के सभी सदस्यों को संक्रमण से अपना बचाव करना चाहिए, खासकर उम्रदराज महिलाओं और गर्भवती महिलाओं को. रोगी को तरल पदार्थों का अधिक से अधिक सेवन करने को दें व उसे पूरी तरह आराम दें. खसरे में बुखार पर नियंत्रण के लिए उम्र के अनुसार बुखार की दवा दी जा सकती है.

बच्चा अगर रोशनी से घबराए तो उसे थोड़ी कम रोशनी वाले कमरे में रहने दें. इस बात का विशेष ध्यान रखें कि खसरा होने पर एंटीबायोटिक दवा नहीं दी जाती है. खसरा से टीकाकरण द्वारा बचा जा सकता है, लेकिन बचपन में खसरा हो जाने के बाद व्यक्ति के शरीर में जीवन भर के लिए इस रोग के लिए प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाती है.

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जटिलताएं

डाक्टरों के अनुसार, खसरा बच्चे को बचपन में एक बार तो होना ही है, यह सोच कर भी अभिभावक इस रोग के प्रति ज्यादा चिंतित नहीं होते. परिवार में सब की चिंता बीमारी के संक्रमण के फैलने से जुड़ी होती है और सभी इस से बचाव के लिए प्रयत्नशील भी रहते हैं.

खसरे का एक जटिल पक्ष भी है जिस के अंतर्गत इस के रोगी को छाती और कान में इन्फैक्शन हो सकता है. कई बार कनजंक्टिवाइटिस भी हो जाता है. खसरे के रोगी को अतिसार, उलटियां, पेटदर्द भी हो सकता है. कभीकभी खसरे के बाद निमोनिया भी हो सकता है.

सावधानियां

गर्भवती महिला का खसरे से बचना बहुत जरूरी है. गर्भवती महिला यदि खसरे के संक्रमण का शिकार हो जाए तो उस का भू्रण नष्ट हो सकता है या उसे भारी नुकसान पहुंच सकता है. शिशु में कई तरह की विकलांगता आ सकती है. आजकल डाक्टर गर्भवती महिला को खसरा होने पर गर्भपात तक की सलाह देते हैं.

छोटी चेचक

छोटी चेचक यानी चिकनपौक्स एक तीव्र विषाणुजनक रोग है जो बहुत तेजी के साथ संक्रामक होता है. इस के होने पर सिरदर्द होता है व तेज बुखार भी आ जाता है, जिस के बाद शरीर पर दाने निकल आते हैं. दानों का आकार छोटाबड़ा दोनों तरह का होता है. इस रोग को मसूरिका भी कहते हैं.

चिकनपौक्स होने का कारण वेरिसेला जोस्टर वायरस होता है जो हर्पीज रोग की श्रेणी का वायरस है. आमतौर पर बच्चों में इस रोग के कारण कोई गंभीर समस्या पैदा नहीं होती, इसीलिए इस रोग के चलते जटिल परिस्थितियां कभीकभार ही उत्पन्न होती हैं. लेकिन इस रोग का एक बार हो जाना जीवनभर के लिए इस के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है.

इस रोग के विषाणु हवा के माध्यम से एकदूसरे व्यक्ति में पहुंचते हैं. इस रोग से बच्चों में बेचैनी बढ़ जाती है, हलका बुखार और सिरदर्द होता है. बच्चे का मन मिचलाता है.

शरीर में लाल चकत्तेदार धब्बे या पानीभरे दाने सिर व गरदन पर होने शुरू होते हैं, और फिर टांगों, बांहों तक फैल जाते हैं. कुछ दिनों के बाद ये दाने ढल कर सूख जाते हैं और उन पर पपड़ी जम जाती है. 12-15 दिनों बाद ये धब्बेदाने पूरी तरह गायब हो जाते हैं और बहुत कम ही अपना निशान छोड़ते हैं.

रोगी से रोग के संक्रमित होने का अंदेशा रैश शुरू होने के एक दिन पहले से ले कर उस के पूरी तरह समाप्त होने तक के समय तक बना रहता है. इस रोग में आराम की सब से अधिक आवश्यकता होती है. कभीकभी दानों में खुजली होने से वे छिल जाते हैं और उन में इन्फैक्शन हो जाता है. अगर बच्चा खुजली करने से न रुके तो उस के नाखूनों को काट कर छोटा रखें जिस से शरीर को नुकसान न पहुंचे.

रोग से जुड़ी सावधानियां

बच्चे को पूरी तरह शाकाहारी भोजन दें.

खाने में नमक की मात्रा बिलकुल कम कर दें. इस से शरीर में दानों के कारण होने वाली खुजली में कमी आएगी.

दानों पर कैलेमाइन या एलोवेरा लोशन लगाया जा सकता है.

एरोमाथेरैपी के अंतर्गत टी-ट्री औयल बहुत थोड़ी मात्रा में चिकनपौक्स के रैशे पर लगाया जा सकता है.

बीमार बच्चे को थोड़ा गरम मगर हवादार कमरे में रखें. रोगी की परिवार के अन्य सदस्यों से दूरी बनाए रखना आवश्यक है.

बच्चे के चेहरे या गरदन पर आए पसीने को कुनकुने पानी में नरम कपड़े को भिगो कर पोंछें.

बीमार व्यक्ति द्वारा पहने गए कपड़े व बिस्तर की चादर रोज बदलें.

रोगी को दवा दे कर उस का बुखार नियंत्रण में रखें. 6 माह से छोटे बच्चे का बुखार अगर  101 डिगरी है या बड़े बच्चे का बुखार 104 डिगरी तक पहुंच जाए तो तुरंत डाक्टर की सलाह लें.

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विशेष सावधानी

चिकनपौक्स होने के दौरान कभीकभी यह वायरस रीढ़ की हड्डी की नस की जड़ में सुसुप्तावस्था में रह जाता है जो दोबारा विसर्पी छाजन (शिंगिल्स) रोग का रूप ले कर उभरता है. यह समस्या खासतौर पर बूढ़ों या उन लोगों में उत्पन्न होती है जिन की रोग प्रतिरोधक शक्ति किसी बीमारी या तनाव के कारण कमजोर पड़ जाती है.

श्ंिगिल्स रोग के इस तरह उभरने से प्रभावित नस में बहुत तेज दर्द होता है और त्वचा के ऊपर छोटेछोटे छालों का झुंड सा बन जाता है. छालों के ठीक हो जाने के बाद भी दर्द कई सप्ताह तक बना रहता है. इस में डाक्टरी सलाह और इलाज की आवश्यकता तुरंत पड़ती है.

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