तेलंगाना के गठन पर बवाल खड़ा कर आंध्र प्रदेश के नेता जगन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू फालतू में राज्य की शक्ति और पैसा बरबाद कर रहे हैं. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश के हाल के विभाजन और उस से पहले महाराष्ट्र, पंजाब, असम के विभाजनों से साबित हो गया है कि राज्यों के विभाजन से देश व राज्य को कोई विशेष लाभ न भी हो तो कम से कम नुकसान कुछ नहीं होता.
अगर किसी राज्य के कुछ लोग अलग राज्य पा कर अपनी स्वतंत्र नेतागीरी चलाना चाहते हैं और उन्हें जनता के काफी हिस्से का समर्थन भी मिल रहा है तो इस बात को तूल देना बुद्धिमानी नहीं है. अलग हुआ राज्य अलग राजधानी बनाता है और मंत्रियों के ठाटबाट रहते हैं. पर उस से पहले बड़े राज्य में मंत्री फिर भी उतने ही होते थे और उन के ठाटबाट भी वैसे ही होते थे. फर्क इतना है कि एक नया सचिवालय बनता है, एक नया विधानसभा भवन बनता है.
राज्य के विभाजन के बाद दोनों राज्यों के विधायकों की संख्या उतनी ही रहती है यानी मंत्रियों की संख्या भी नहीं बढ़ती. इस से मंत्रियों का तो नुकसान होता है क्योंकि उन का अधिकार क्षेत्र सीमित हो जाता है. छोटे राज्यों के मुख्यमंत्री तो बेचारे केंद्र सरकार के पास भीख का कटोरा लिए खड़े रहते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने के लिए समय तक जल्दी नहीं मिलता.
मुख्यमंत्री की ऐसी कुरसी भी किस काम की पर यदि आंध्र प्रदेश में राजशेखर रेड्डी तेलंगाना राज्य समिति के अंतर्गत राज्य की मांग कर रहे हैं और केंद्र सहमत है तो मान लेने में हर्ज क्या है? चंद्रबाबू नायडू, जगन रेड्डी आदि फालतू में जनता का समय बरबाद कर रहे हैं.
केंद्र इस में दोषी है तो सिर्फ इसलिए कि उस ने ढीलढाल बहुत की, अपने मुख्यमंत्री के रोबदाब के चक्कर में इस मामले को रबड़ की तरह खींच दिया. अब उस दोष की सजा भुगतने का समय आ गया है. कांगे्रस यदि सीमा और तेलंगाना क्षेत्रों, दोनों में चुनाव हार जाए तो बड़ी बात न होगी क्योंकि उस के खराब राजनीतिक मैनेजमैंट के कारण दोनों तरफ के लोग नाराज हो गए हैं. यह विभाजन तो खुशीखुशी, बिना आंसू बहाए हो सकता था.