अमेरिका में 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में पैसे वालों और बिना पैसे वालों की लड़ाई होने की संभावनाएं बढ़ रही हैं. बराक ओबामा की डैमोक्रैटिक पार्टी की नंबर वन उम्मीदवार हिलेरी क्ंिलटन पर अभी तक स्वतंत्र बर्नी सैंडर्स भारी पड़ने लगे हैं क्योंकि वे कौर्पोरेट्स यानी अमीरों के खिलाफ मोरचा खोले हुए हैं. उन को महंगाई, बेरोजगारी, अमीरगरीब की बढ़ती खाई और कट्टरपंथ से त्रस्त आम जनता का खासा समर्थन मिल रहा है. दूसरी तरफ कौर्पोरेट घराने और अमेरिकी चर्च रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों को खूब पैसा दे रहे हैं, ताकि अमेरिका में अमीरों व कट्टरपंथियों का दबदबा बना रहे.
थोड़े दिन पहले तक यह पक्का था कि डैमोक्रैटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्ंिलटन ही होंगी पर अब उन की पैसे वालों के प्रति सहानुभूति देख कर अमेरिकी जनमानस बिदकने लगा है और बर्नी सैंडर्स को बहुत ज्यादा भीड़ व पैसा मिलने लगा है. उधर प्रतिक्रियास्वरूप खरबपति बिल्डर डोनाल्ड ट्रम्प को रिपब्लिकनों का समर्थन ज्यादा मिल रहा है, क्योंकि अमेरिका का पैसे वाला वर्ग किसी समझौतावादी को ह्वाइट हाउस में नहीं देखना चाहता. यह वही वर्ग है जो ओबामा की हैल्थकेयर यानी सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं और बीमा के विरुद्ध है और जो वैध या अवैध तरीके से अमेरिका में घुसे विदेशी मजदूरों को भगाने का समर्थक है. स्थिति तो जून 2016 तक स्पष्ट होगी पर यह लग रहा है कि दोनों पार्टियां अब सेमसेम यानी एकजैसी नहीं रह गईं और दोनों ने परस्पर विरोधी बिंदु अपना लिए हैं. एक तरह से देशभर में एक तरफ अमीर कट्टरवादियों की पार्टी है और दूसरी तरफ गरीबों की औक्यूपाई वाल स्ट्रीट मूवमैंटों का असर है.
इस बीच, श्वेतअश्वेत संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ गया है क्योंकि अमेरिका के गोरे पुलिस वाले हर अश्वेत को जन्मजात (जैसा हमारे यहां दलितों को माना जाता रहा है-पापी, अछूत) अपराधी मानते हैं और उसे शरीफ होने का प्रमाण सा देना होता है. कितने ही निहत्थे अश्वेतों को पुलिस वालों ने गोली से उड़ा दिया है और ज्यादातर मामलों में अदालतों, जिन में आम आदमियों की जूरी फैसला करती है (खापों की तरह), ने इन हत्यारे पुलिस वालों को छोड़ दिया है. भारत में तो यह स्थिति लगातार बनी रही है. आजादी के बाद से ही गांधी नेहरू की कांग्रेस और फिर भारतीय जनता पार्टी अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी की तरह धर्म और पैसे की नीति पर चलती आ रही है जबकि इंदिरा गांधी व सोनिया गांधी की कांग्रेस, जनता परिवार व दूसरी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां गरीबों की हमदर्द बनी रही हैं. अंतत: मजा तो वैसे पैसे वालों का ही होना है, अमेरिका में भी और भारत में भी.