दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का हाल वही हो रहा है जो ममता बनर्जी की सरकार का पश्चिम बंगाल में हो रहा था. पश्चिम बंगाल में कभी सारदा चिटफंड घोटाले या कभी छात्र विवाद को ले कर यह दिखाने की कोशिश की जा रही थी कि तृणमूल कांगे्रस राज करने के काबिल नहीं है, और आज दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को आंतरिक व प्रशासनिक मुद्दों पर उलझाया जा रहा है. यह कोई नई बात नहीं है. जब भी वर्षों तक सत्ता में रहे शक्तिशाली लोगों को हटा कर नए लोग काम संभालते हैं तो यही दर्शाया जाता है कि नए लोग काम नहीं, काम तमाम करना जानते हैं. अरविंद केजरीवाल को नौसिखिया साबित करने की हर कोई कोशिश कर रहा है और यह कोशिश बनावटी है, यह साफ दिखता भी है.
अरविंद केजरीवाल ने पिछले दिनों में कोई चमत्कार किया हो, ऐसा नहीं है. सरकारों से चमत्कार की उम्मीद करना ही गलत है. न नरेंद्र मोदी ने चमत्कार किया है, न तेलंगाना में चंद्रशेखर राव ने, न हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने. ये सब रोजमर्रा की कठिनाइयों में उलझे हैं. पर जब तक नीयत ठीकठाक हो, फिर भी इन पर ज्यादा तोहमत लगे तो बेचैन नहीं होना चाहिए. जो लोग राजनीति में हैं उन्हें इस तरह के निरंतर प्रहारों की आदत डालनी चाहिए क्योंकि अखबारों का तो कर्म ही है खामियां निकालने वाली खबरें प्रकाशित करना. जनता को उपलब्धियां तो सरकार अपने भारीभरकम प्रचार माध्यम से बताती ही रहती है. गलतियों को वह छिपाना चाहती है. अगर अरविंद केजरीवाल जनता को ऐसे मौके दे रहे हैं तो यह उन की अपनी जिम्मेदारी है और उन का साहस है. अरविंद केजरीवाल की सब से बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के रौकेट को फुस कर दिया और उस में कुछ पानी ममता बनर्जी ने भी डाल दिया. इन दोनों को जो भारी बहुमत मिला वह साबित करता है कि चूंचूं बिरादरी जितना चाहे शोर मचा ले, उस के बस में कुछ करनाधरना नहीं. जैसे प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की कहानी समाप्तप्राय हो गई है वैसे ही केजरीवाल बनाम नजीब जंग (उपराज्यपाल) की लड़ाई ठंडी हो जाएगी. इन का प्रशासन पर कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि प्रशासन तो वैसे ही कछुए की खाल वाला है और उसी चाल चलता रहेगा.
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