मंडल आरक्षण का फायदा पिछड़ों का दबंग वर्ग ही न ले जाए, इस के लिए सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय पिछड़ा जाति आयोग पिछड़ों को 3 भागों में विभाजित करने की सिफारिश पर विचार कर रहा है. 20 साल का अनुभव कहता है कि पिछड़ों का एक वर्ग ही सरकारों और शिक्षण संस्थानों में घुसा है जबकि ज्यादातर पिछड़े इस सुविधा को छू भी नहीं पा रहे हैं. प्रस्तावित सिफारिश में है कि अति पिछड़ा वर्ग, अधिक पिछड़ा वर्ग व पिछड़ा वर्ग यानी 3 समूह बना दिए जाएं और मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण को तीनों में आबादी के हिसाब से बांट दिया जाए. अति पिछड़े वर्ग और अधिक पिछड़े वर्ग की शिकायत अपनेआप में सही हो सकती है कि वे पढ़ाई में सुविधाओं के अभाव में व घरेलू जरूरतों के कारण दबंग वर्गों की तरह अच्छे तरीके से प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग नहीं ले पाते हों, चयन में खरे न उतरते हों और कुछ पढ़ाई व कुछ सिफारिशों के बल पर दबंग पिछड़ा वर्ग ही आरक्षण का लाभ उठा रहा हो. पर पिछड़े वर्ग का विभाजन करना गलत है. देश वैसे ही जातिगत विभाजन के कारण कराह रहा है. शादीब्याह, आपस में उठनेबैठने, नौकरियों, व्यापारों यानी सब मामलों में जाति का स्थान घूमफिर कर आ ही नहीं जाता बल्कि यह हमारे समाज की सोच पर हावी होता जा रहा है.

धर्म ने इसे भुनाने की जम कर तैयरी शुरू कर दी है और हर जाति को अपने खुद के भगवान, मंदिर व आश्रम दे दिए हैं ताकि किसी तरह से भी सभी लोग समाज में घुलमिल न सकें. आयोग की संभावित सिफारिश पिछड़ी जातियों के आपसी सामाजिक विभाजन को असल में संवैधानिक विभाजन बना देगी और जैसे हिंदू व मुसलमानों के आपस में घुलनेमिलने की आशाएं शून्य हो चुकी हैं, वैसे ही पिछड़ी जातियों में होगा. अब चूंकि ऊपरी व निचली परतों को साथ पढ़ना होता है, साथ काम करना होता है, साथ सवर्णों से टक्कर लेनी होती है, इसलिए वे आपसी मतभेद को भुला देते हैं. उन्हें कानूनन लाइनों से विभाजित करना, पहले से ही टुकड़ेटुकड़े हुए देश को और छोटेछोटे हिस्सों में बांटना होगा. बिहार में जीतनराम मांझी को ले कर अति दलितों के नाम पर चली राजनीति इस बात का उदाहरण है कि किसी भी तरह का लेबल देश व समाज को अलगथलग ही करेगा.

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