”  2009-10 के एच1एन1 इंफ्लुएंजा वायरस महामारी के प्रकोप के दौरान इंटेसिंव केयर की आवश्यकता वाले संक्रमित रोगियों का उपयोग किया गया. निष्क्रिय एंटीबाडी उपचार के बाद, सीरम उपचारित रोगियों ने नैदानिक सुधार प्रदर्शित किया. वायरल को बोझ कम हुआ और मृत्यु दर में कमी किया जा सका. यह प्रक्रिया 2018 में इबोला प्रकोप के दौरान भी उपयोगी रही. ”

पूरा विश्व कोरोना संक्रमण से जूझ रहा है, भारत में भी यह संक्रमण तेजी से फैलता जा रहा है. इस समय पुरे विश्व में इस महामारी को मात देने के लिए खोज और अनुसंधान का दौर अपने दुरत गति से कार्य कर रहा है. एक खोज हमारे देश में भी हुआ है , जिसने कोरोना संक्रमण को हारने दिशा में एक उम्मीद का किरण जगा है, देश में कोविड-19 को हारने के लिए नवीन ब्लड प्लाज्मा थेरेपी की खोज हुई है. तो आइये जानते है इसके बारे में …

शनिवार को केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आने वाली एक संस्थान श्री चित्र तिरुनल इंस्टीच्यूट फार मेडिकल साईंसेज एंड टेक्नोलाजी ने बताया कि संस्थान ने कोरोना  (कोविड-19 ) संक्रमित मरीजों के बेहतर उपचार प्रदान करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उसे एक नवीन उपचार करने के लिए मंजूरी दे दी है . इस उपचार पद्धति को तकनीकी रूप से ‘ कन्वलसेंट-प्लाज्मा थेरेपी‘  कहा जाता है . इस पद्धति द्वारा ‘किसी बीमार व्यक्ति के उपचार के लिए , ठीक हो चुके व्यक्ति द्वारा हासिल प्रतिरक्षी शक्ति का उपयोग कर के बीमार व्यक्ति को ठीक किया जाता है.

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* यह उपचार किस प्रकार दिया जाता है : – जो व्यक्ति (कोविड-19) कोरोना सक्रमण से  ठीक हो चुका है, उससे व्यक्ति से जाँच कर खून निकाला जाता है. इस से पहले यह पूरी तरह जाँच ठीक हुए व्यक्ति के कम से कम 28 दिनों तक पूर्ण स्वस्थ्य हो , साथ ही उसके सभी टेस्ट निगेटिव होनी चाहिए. डोनर से खून निकने के बाद वायरस को बेअसर करने वाले एंटीबाडीज के लिए सीरम को अलग किया जाता है और जांचा जाता है.  देखा जाता है , खून में कन्वलसेंट सीरम कितना है, जो कि किसी संक्रामक रोग से ठीक हो चुके व्यक्ति से प्राप्त ब्लड सीरम है और विशेष रूप से उस पैथोजेन के लिए एंटीबाडीज में समृद्ध होगा . सब सही पाया जाता है तो यह खून कोविड-19 के रोगी को दिया जाता है. कुछ ही दिनों में संक्रमित रोगी निष्क्रिय प्रतिरक्षण क्षमता प्राप्त कर लेता है और वह जल्द ही ठीक हो जाता है .

* कौन यह उपचार प्राप्त करेगा : – संस्थान द्वारा बताया जाता है कि ‘ वर्तमान में इसकी अनुमति केवल बुरी तरह से संक्रमित रोगियों के उपचार तक ही सीमित है .

* क्या है कन्वलसेंटप्लाज्मा थेरेपी :-  जब एक पैथोजेन की तरह का नोवेल कोरोना वायरस संक्रमित करता है ,तो हमारी प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज का उत्पादन करती है. एंटीबाडीज आक्रमणकारी वायरस की पहचान करते हैं और चिन्हित करते हैं. श्वेत रक्त कोशिकाएं पहचाने गए घुसपैठियों को संलगन करती हैं और शरीर संक्रमण से मुक्त हो जाता है. ब्लड ट्रांसफ्यूजन की तरह ही यह थेरेपी ठीक हो चुके व्यक्ति से एंटीबाडी को एकत्रित करती है और बीमार व्यक्ति में समावेशित कर देती है.

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* एंटीबाडीज क्या होते हैं :- एंटीबाडीज किसी माइक्रोब द्वारा किसी संक्रमण की अग्रिम पंक्ति प्रतिरक्षी अनुक्रिया होते हैं. वे नोवेल कोरोना वायरस जैसे किसी आक्रमणकारी का सामना करते समय बी लिम्फोसाइट्स नामक प्रतिरक्षी कोशिकाओं द्वारा स्रावित विशेष प्रकार के प्रोटीन होते हैं. प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज की रूपरेखा तैयार करते हैं जो प्रत्येक आक्रमणकारी पैथोजेन के प्रति काफी विशिष्ट होते हैं. एक विशिष्ट एंटीबाडी और इसका साझीदार वायरस एक दूसरे के लिए बने होते हैं.

* यह टीकाकरण से अलग कैसे है:-  यह  थेरेपी निष्क्रिय टीकाकरण के समान है. जब कोई टीका दिया जाता है तो प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज का निर्माण करती है. इस प्रकार, बाद में जब टीका प्राप्त कर चुका व्यक्ति उस पैथोजेन से संक्रमित हो जाता है तो प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज स्रावित करती है और संक्रमण को निष्प्रभावी बना देती है. टीकाकरण जीवन पर्यंत प्रतिरक्षण देता है. निष्क्रिय एंटीबाडी थेरेपी के मामले में, इसका प्रभाव तभी तक रहता है, जब तक इंजेक्ट किए गए एंटीबाडीज खून की धारा में रहते हैं. दी गई सुरक्षा अस्थायी होती है.

* क्या यह प्रभावी पद्धति है :- हमारे पास बैक्टिरियल संक्रमण के खिलाफ काफी एंटीबायोटिक्स हैं. तथापि, हमारे पास प्रभावी एंटीवायरल्स नहीं हैं. जब कभी कोई नया वायरल प्रकोप होता है तो इसके उपचार के लिए कोई दवा नहीं होती. इसलिए, कन्वलसेंट सीरम का उपयोग पिछले वायरल महामारियों के दौरान किया गया है.  2009-10 के एच1एन1 इंफ्लुएंजा वायरस महामारी के प्रकोप के दौरान इंटेसिंव केयर की आवश्यकता वाले संक्रमित रोगियों का उपयोग किया गया. निष्क्रिय एंटीबाडी उपचार के बाद, सीरम उपचारित रोगियों ने नैदानिक सुधार प्रदर्शित किया. वायरल को बोझ कम हुआ और मृत्यु दर में कमी किया जा सका. यह प्रक्रिया 2018 में इबोला प्रकोप के दौरान भी उपयोगी रही.

 * क्या इलाज का यह उपाय सुरक्षित है:-  आधुनिक ब्लड बैंकिंग तकनीक जो रक्त जनित पैथोजीन की जांच करते हैं, मजबूत है. डोनर एवं प्राप्तकर्ता के खून के प्रकारों को मैच करना मुश्किल नहीं है. इसलिए, अनजाने में ज्ञात संक्रमित एजेंटों को ट्रांसफर करने या ट्रांसफ्यूजन रियेक्शन पैदा होने के जोखिम कम हैं. संस्थान की निदेशक डा आशा किशोर बताती है कि  जैसाकि हम रक्तदान के मामलों में करते हैं, हमें ब्लड ग्रुप एवं आरएच अनुकूलता का ध्यान रखना होता है। केवल वही लोग जिनका ब्लड ग्रुप मैच करता है, खून दे या ले सकते हैं। खून देने की अनुमति दिए जाने से पूर्व डोनर की सख्ती से जांच की जाएगी तथा कुछ विशेष अनिवार्य कारकों का परीक्षण किया जाएगा. उनकी हेपाटाइटिस, एचआईवी, मलेरिया आदि की जांच की जाएगी जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे रिसीवर को अलग पैथोजेन न हस्तांतरित कर दे.

* एंटीबाडीज प्राप्तकर्ता में कितने समय तक बना रहेगा :- जब एंटीबाडी सीरम दिया जाता है तो तो यह प्राप्तकर्ता में कम से कम तीन से चार दिनों तक बना रहेगा.  इस अवधि के दौरान बीमार व्यक्ति ठीक हो जाएगा. अमेरिका एवं चीन की अनुसंधान रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि ट्रांसफ्यूजन प्लाज्मा के लाभदायक प्रभाव पहले तीन से चार दिनों में प्राप्त होते हैं, बाद में नहीं.

* क्या है इस पद्धति की चुनौतियां :-  मुख्य रूप से जीवित बचे लोगों से प्लाज्मा की उल्लेखनीय मात्रा प्राप्त करने में कठिनाई के कारण यह थेरेपी उपयोग में लाये जाने के लिए सरल नहीं है. कोविड-19 जैसी बीमारियों में, जहां अधिकांश पीड़ित उम्रदराज हैं और हाइपरटेंशन, डायबिटीज और ऐसे अन्य रोगों से ग्रसित हैं, ठीक हो चुके सभी व्यक्ति स्वेच्छा से रक्त दान करने के लिए तैयार नहीं होंगे. उसे इसके लिए तैयार करना होगा .  संस्थान की निदेशक डा आशा किशोर बताती है कि हमने ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया को रक्तदान के नियमों में ढील की अनुमति के लिए एज कटआफ हेतु आवेदन किया है।

* इस पद्धति का इतिहास है पुराना :- इस पद्धति की खोज जर्मनी के फिजियोलाजिस्ट इमिल वान बेहरिंग ने 1890 में की थी .  जब वह डिपथिरिया से संक्रमित एक खरगोश से प्राप्त सीरम से  डिपथिरिया संक्रमण को रोकने में कामयाब हुए थे.  बेहरिंग को 1901 में दवा के लिए सर्वप्रथम नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस समय एंटीबाडीज ज्ञात नहीं था.  कन्वलसेंट-प्लाज्मा थेरेपी कम प्रभावी था और इसके काफी साइड इफेक्ट थे. एंटीबाडीज फ्रैक्शन को अलग करने में कई वर्ष लगे.

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