बात पिछले वर्ष जून माह की है. मैं दुबई घूमने गया. दुबई जाने से पहले मैं ने मुंबई से राजनादगांव का टिकट 90 दिन पूर्व ही बुक करा लिया था. मुझे एसी थर्ड में वेटिंग 1 और 2 मिला. मैं ने सोचा कि 3 माह का समय है, वेटिंग क्लियर हो जाएगी. निश्ंिचत हो कर हम दुबई यात्रा से लौटे. प्लेन रात 1.30 बजे मुंबई आया और रेलवे स्टेशन आतेआते 3 बज गए. सुबह 6 बजे गीतांजली ऐक्सप्रैस में रिजर्वेशन था. 1 घंटे पूर्व चार्ट देखा तो होश उड़ गए, वेटिंग ज्यों की त्यों थी.

समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. आखिरकार ट्रेन में चढ़े. कल्याण स्टेशन तक सभी यात्री अपनीअपनी सीट पर काबिज हो गए और टीटीई ने आते ही हाथ खड़े कर दिए कि मैं कुछ नहीं कर सकता और आप लोगों को इस डब्बे से उतरना पड़ेगा.

हम लोगों की बातें सामने 4 लड़के- लड़कियों का ग्रुप बैठा सुन रहा था. ग्रुप में से एक लड़के ने कहा, ‘‘आप चिंता मत करो. हमारे पास साइड की 2 बर्थ हैं. उन पर आप अपना सामान रख दें. नीचे हम लोग साथ में बैठ जाते हैं और हमारी सीट में आप लोग बैठ जाइए,’’ इतने में मुझे दूसरा टीटीई दिखा. उस को मैं ने सारी बात बताई और सीट देने का आग्रह किया. उस ने मुझे 2 सीटें दे दीं. डब्बे में शिफ्ट होने से पूर्व हम दोनों ने उस लड़के व उस के साथियों का शुक्रिया अदा किया. उन के सहयोग के कारण ही हमारा सफर आसानी से पूरा हुआ.

आशीष जयकिशन, राजनादगांव (छ.ग.)

मैं इंदौर से मंदसौर जा रहा था. बस रात 9 बजे रतलाम पहुंची. वहां बताया गया कि बस आधा घंटा रुकेगी. रतलाम में मुझे मेरे पुत्र के लिए अपने मित्र से कुछ पुस्तकें लेनी थीं. पुस्तकें ले कर आने के लिए आधा घंटा पर्याप्त था. आटो किया, मित्र के घर पहुंचा, पुस्तकें लीं और आटो वाले से बस स्टैंड लौटने के लिए कहा. उस ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि घर पर मेहमान आने वाले हैं.

तभी एक तांगा दिखाई दिया. मैं उस से बस स्टैंड के लिए चल दिया. देखा, तांगे का घोड़ा काफी कमजोर था इसलिए तेज चल ही नहीं पा रहा था और जब बस स्टैंड पहुंचा तो बस निकल चुकी थी.

अगली बस रात 11 बजे थी. उस से मंदसौर के लिए निकला. रास्ते में रतलाम से लगभग 15 किलोमीटर दूर वह बस, जो मुझ से छूट गई थीं, एक मोटरसाइकिल वाले को बचाने में पुलिया से टकरा कर उलट गई थी. घोर अंधेरे में चीखनेचिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. कई यात्रियों को गंभीर चोटें आई थीं. एक वृद्ध महिला बेहोश पड़ी थी. कुछ राहगीर सहायता के लिए आ गए थे. हम सब भी उतर कर उन लोगों की मदद करने में जुट गए. मैं ने आटो वाले और घोड़े का मन ही मन आभार माना जिन्होंने उस दिन अनजाने में मुझे बचा लिया था.

मधुकर नाडकर्णी, उज्जैन (म.प्र.)

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