मैं और मेरी सहेली सुनयना स्कूल से ले कर कालेज में भी साथसाथ पढ़े हैं. सभी हमारी दोस्ती की मिसाल देते. एक साल पहले सुनयना के पापा ने नया घर बनवाया तो वह दूसरी कालोनी में चली गई. हम पहले एक ही स्कूटी से कालेज जाते थे. एक दिन के अंतराल से अपनीअपनी स्कूटी ले लेते थे. यह हमारा अघोषित नियम था. नई कालोनी में घर बन जाने के चलते मुझे घूम कर उसे लेने जाना पड़ता था. मैं ने उसे सलाह दी कि मेरा घर कालेज के रास्ते में है, वह रोज मेरे घर आ जाए और मैं ही अपनी गाड़ी से रोज उसे कालेज ले जाऊंगी. उसे यह बात बुरी लगी. उस ने मना कर दिया और अकेले ही, कभी बस, कभी टैक्सी से आनेजाने लगी. और फिर जल्दी ही उस ने नई ऐक्टिवा ले ली. अब तो हमारे बीच हायहैलो भी बंद हो गई. सभी हैरान थे ऐसा क्या हो गया. हम दोनों एकदूसरे को बहुत मिस करते थे. एक बार संयोग से पार्किंग में हम दोनों की गाड़ी फंस गई. हैंडिल लौक होने से हम हटा भी नहीं पा रहे थे. चौकीदार था नहीं. एकदूसरे की मदद के बिना गाड़ी निकालना आसान नहीं था. सो, हम फिर से दोस्त बन गए.

मोनाली हरीश जैन, गोंदिया (महा.)

*

हम लोग कानपुर में एक सरकारी कार्यालय में काम करते थे. हम लोगों के एक दोस्त की शादी तय हुई. लड़के ने पहले ही बता दिया कि उसे दानदहेज के नाम पर कुछ भी नहीं चाहिए. मगर लड़की वालों ने सोचा कि वर पक्ष के लोग ऐसे ही कहते हैं, अपनी इज्जत व उन की इज्जत तो देखनी ही पड़ती है. आज की इस दहेजलोलुप दुनिया में कौन ऐसा है जो दहेज लेना न चाहे.

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