खुशवंत की पत्रकारिता
खुशवंत सिंह साहित्य और पत्रकारिता की सीमारेखा पर कलम चलाते रहने वाले लेखक थे. कह सकते हैं वे नास्तिक थे और वर्जनाओं में नहीं रहते थे, उन्मुक्तता उन के लिखे में साफ दिखती है. अखबारों में लिखा उन का एक स्तंभ 2 दशक तक देखा गया जिस में वे जब यात्रा करते थे तब उन्हें एक धनाढ्य और अभिजात्य महिला जरूर मिलती थी जो सैक्सी भी होती थी. हैरानी की बात यह है कि अकसर उस महिला को सीट भी खुशवंत के पास ही मिलती थी.
खुशवंत सिंह के लेखन पर संस्मरण हमेशा हावी रहे लेकिन इस से इतर गांधीनेहरू परिवार के विवाद से नाम कमाने वाले इस अनुभवी पत्रकार की खूबी यह भी थी कि वे दायरों में नहीं बंधे और यथासंभव सच बोलते रहे.
 
उमा की अजबगजब परिस्थिति
लोकसभा चुनाव में हर कोई कुछ न कुछ ड्रामा कर रहा है. कोई टिकट न मिलने पर आंसू बहा रहा है तो कोई बहीखाता पेश कर अपनी सेवाओं का वास्ता दे रहा है. कई इसलिए खुश हैं कि बैठेबिठाए टिकट मिलने की लौटरी लग गई.
बोलने के लिए चर्चित रही फायरब्रांड साध्वी उमा भारती चुप हैं. वे झांसी से चुनाव लड़ रही हैं. अपनी पार्टी में मची उठापटक पर वे खामोश क्यों रहीं, इस का पहला जवाब तो यह है कि उन के बोलने न बोलने के कोई माने नहीं रह गए हैं, दूसरा यह है कि झांसी जा कर वे फंस गई हैं. बुंदेलखंड के लोगों को समझ यह आ रहा है कि उमा भारती न अब उत्तर प्रदेश की रहीं, न मध्य प्रदेश की और न मोदी की हैं न आडवाणी की. ऐसे में उन के लिए वे कुछ खास नहीं कर पाएंगी.
 
पुराना फर्नीचर
जसवंत सिंह का कद एक झटके में छोटा कर देने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने उन का टिकट बाड़मेर सीट से कटवा कर पुराने हिसाब चुकता कर लिए हैं. जसवंत सिंह की तिलमिलाहट भाजपा से टिकट न मिलने के साथ कल की लड़की के हाथों पटखनी खाने की भी है. इस प्रकरण में वसुंधरा की प्रतिक्रिया यह थी कि कभीकभी कड़वी दवा भी पीनी पड़ती है. लेकिन एक सेहतमंद आदमी को दवा क्यों पिलाई गई, यह उन्होंने नहीं बताया. जसवंत की दुर्दशा पर क्या करें और क्या कहें, सोचने वालों की हिचक, खुद उन्होंने ‘फर्नीचर नहीं हूं’, कह कर दूर कर दी.
 
हम थे जिन के सहारे 
अमर सिंह और जयाप्रदा नाम की फोटो अब अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के फ्रेम में फिट हो गई है जो किसानों की हिमायती पार्टी समझी जाती है. इन दोनों को अब बरगद का दूसरा पेड़ मिल गया है पर उन की हालत खराब है. अनुभव बताते हैं कि मुलायम सिंह ने जिन्हें छोड़ा वे ज्यादा कामयाब नहीं रहे क्योंकि मैदानी राजनीति का तजरबा उन्हें नहीं था. सपाकी पालकी पर सवार हो कर क्षेत्र से संसद तक का सफर कब, कैसे पूरा हो जाता था, उन्हें पता ही नहीं चला. लेकिन इस दफा बात कुछ अलग यानी मुश्किल वाली है.
-भारत भूषण श्रीवास्तव द्य 

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