Hindi Cinema : ‘अंकुर’ और ‘मंथन’ जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाले मशहूर फिल्मसर्जक श्याम बेनेगल का गंभीर बीमारी के चलते 23 दिसंबर निधन हो गया. श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में समाज के कई अनुछुए मुद्दों व सचाई को उजागर किया था.

ढह गया नेहरूवियन युग का अंतिम किला

23 दिसंबर की शाम साढ़े छह बजे मुंबई में 90 वर्ष की उम्र में मशहूर फिल्मसर्जक श्याम बेनेगल का निधन हो गया. इसी के साथ नेहरूवियन युग का अंतिम किला ढह गया. राजकपूर की ही तरह श्याम बेनेगल ने भी साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखते हुए भी समाजवाद को ही अपनी फिल्मों में परोसा. सब से बड़ा सच यह है कि श्याम बेनेगल गरीबों, वंचितों व सर्वहारा वर्ग के लोगों के फिल्मकार रहे हैं. उन्होंने हमेशा गरीबी, गैरबराबरी जैसे मुद्दों के साथ तमाम दूसरी सामाजिक समस्याओं पर फिल्में बनाईं.
उन्होंने सरकार की आलोचना करने से कभी भी परहेज नहीं किया. इस के बावजूद उन्हें सब से अधिक सरकारी डौक्यूमैंट्री आदि बनाने के अवसर मिले. उन्हें सरकार की कई कमेटियों में रखा जाता रहा. श्याम बेनेगल के कृतित्व की बात की जाए तो उन्होंने वह सिनेमा बनाया जिसे लोगों ने कला या समानांतर सिनेमा का नाम दिया, मगर जिस दौर में अमिताभ बच्चन की ऐक्शन फिल्में बौक्सऔफिस पर धन कमा रही थीं, उन्हीं दिनों श्याम बेनेगल की फिल्में भी बौक्सऔफिस पर धन कमा रही थीं.
यह श्याम बेनेगल के सिनेमा का ही जादू था कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार उन की तारीफ करते हुए कहा था कि उन की फिल्में इंसानियत को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं. सत्यजीत रे के गुजर जाने के बाद श्याम ने उन की विरासत को संभाला.

नेहरूवियन बनाम साम्यवादी

एक तरफ कुछ लोग उन्हें नेहरूवियन फिल्मकार की संज्ञा देते रहे तो वहीं उन पर साम्यवादी होने के भी आरोप लगे. इस के बावजूद वे विचलित नहीं हुए. कहा जाता है कि श्याम बेनेगल को फिल्में बनाने के लिए पश्चिम बंगाल के तमाम उद्योगपति तब तक पैसा देते रहे जब तक पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा और तभी तक ‘इप्टा’ भी जीवंत रूप में रहा. उस के बाद ‘इप्टा’ भी मरणासन्न हो चुका है.

उद्योगपतियों व संस्थाओं ने दिए पैसे

श्याम बेनेगल समय के बलवान थे कि उन्हें अपनी फिल्मों के निर्माण के लिए पश्चिम बंगाल के उद्योगपतियों का निजी समर्थन हासिल होने के साथ ही कुछ संस्थागत निगमों का साथ मिला. मसलन, फिल्म ‘मंथन’ के लिए गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ और 1987 में ‘सुस्मान’ के लिए हथकरघा सहकारी समितियां का सहयोग मिला.
‘इप्टा’ से जुड़े कलाकार व फिल्मकार भी अब तो पूरी तरह से व्यावसायिक फिल्मों के ही रंग में रंगे हुए हैं. मगर श्याम बेनेगल के अपने अंतिम वक्त तक, ‘अंकुर’ से मुजीब: द मेकिंग औफ अ नैशन’ तक, के सिनेमा में विचारों के स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ.
लेकिन पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार के अंत के साथ ही श्याम बेनेगल के फिल्म निर्माण पर अंकुश सा लग गया. उन्होंने अंतिम फिल्म ‘मुजीबः द मेकिंग औफ अ नैशन’ बनाई, जिसे राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) और बंगलादेश फिल्म विकास निगम (बीएफडीसी) ने मिल कर बनाया था.
फिल्म ‘मुजीबः मेकिंग औफ अ नैशन’ बंगलादेश के निर्माता बंगलादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता की जीवनी है. बंगाली के साथसाथ हिंदी भाषा में बनाई गई इस फिल्म में अभिनेता अरिफिन शुवो ने मुजीब का किरदार निभाया है.

स्टार कलाकारों की नहीं रही दरकार

श्याम बेनेगल उन फिल्मकारों में से रहे जिन्हें कभी भी स्टार कलाकारों या व्यावसायिक सिनेमा के सफलतम कलाकारों की जरूरत नहीं पड़ी. कलाकार उन के साथ काम करने के लिए उन के पीछे भागते रहे. वे कभी भी कलाकारों के पीछे नहीं भागे. श्याम बेनेगल ने कभी भी अपनी किसी भी फिल्म के लिए कलाकारों का चयन करते समय कलाकार का औडिशन या स्क्रीनटैस्ट नहीं लिया. उन की पारखी नजरें तो कलाकार से मिलते ही समझ जाती थीं कि इस के अंदर प्रतिभा है और फिर वे उस प्रतिभा को तराशकर स्टार बना देते थे. फिर चाहे वह नसीरुद्दीन शाह हों या शबाना आजमी या कोई अन्य.

सर्वहारा, ग्रामीण, गरीबी व उत्पीड़न की बात करने वाला सिनेमा

श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में हमेशा गरीब, गैरबराबरी, सर्वहारा, वंचितों के उत्पीड़न की बात की. जी हां, पहली फिल्म ‘अंकुर (द सीडलिंग) में श्याम बेनेगल के गृह राज्य तेलंगाना में आर्थिक और यौन शोषण का यथार्थवादी चित्रण था, जिस ने उन्हें रातोंरात जबरदस्त शोहरत दिलाई.
इस फिल्म ने अभिनेत्री शबाना आजमी और अभिनेता अनंत नाग को पेश किया और बेनेगल ने 1975 में दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. शबाना ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. जबकि 1980 के दशक की शुरुआत में न्यू इंडिया सिनेमा को जो सफलता मिली, उस का श्रेय काफी हद तक श्याम बेनेगल की चौकड़ी को दिया जा सकता है- ‘अंकुर’ (1973), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976) और ‘भूमिका’ (1977).
बेनेगल ने कई नए अभिनेताओं का प्रयोग किया, मुख्य रूप से एफटीआईआई और एनएसडी से, जैसे नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा और अमरीश पुरी. बेनेगल की अगली फिल्म ‘निशांत’ (नाइट्स एंड) (1975) में एक शिक्षक की पत्नी का 4 जमींदारों द्वारा अपहरण और सामूहिक बलात्कार किया जाता है; अधिकारी परेशान पति की मदद की गुहार को अनसुना कर देते हैं.
‘मंथन’ (द मंथन) (1976) ग्रामीण सशक्तीकरण पर एक फिल्म है और यह गुजरात के उभरते डेयरी उद्योग की पृष्ठभूमि पर आधारित है. पहली बार गुजरात में 5 लाख से अधिक ग्रामीण किसानों ने दोदो रुपए का योगदान इस फिल्म के निर्माण के लिए किया था. इस तरह वे इस फिल्म के निर्माता बने थे.
जब यह फिल्म रिलीज हुई तो ट्रकों में भरकर किसान इसे देखने आए, जिस से यह बौक्सऔफिस पर सफल रही. ग्रामीण उत्पीड़न पर इस त्रयी के बाद बेनेगल ने एक बायोपिक भूमिका (द रोल) (1977) बनाई, जो मोटेतौर पर 1940 के दशक की प्रसिद्ध मराठी मंच और फिल्म अभिनेत्री हंसा वाडकर (स्मिता पाटिल द्वारा अभिनीत) के जीवन पर आधारित थी, जिन्होंने चमकदार और अपरंपरागत जीवन मुख्य पात्र पहचान और आत्मसंतुष्टि के लिए व्यक्तिगत खोज पर निकलता है, साथ ही पुरुषों द्वारा शोषण से भी वह जूझता है.

सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार

1970 के दशक की शुरुआत में श्याम ने यूनिसेफ द्वारा प्रायोजित सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टैलीविजन एक्सपैरिमैंट के लिए 21 फिल्म मौड्यूल बनाए. इस से उन्हें सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टैलीविजन एक्सपैरिमैंट के बच्चों और कई लोक कलाकारों के साथ बातचीत करने का मौका मिला.
इस अनुभव के आधार पर श्याम बाबू ने 1975 में क्लासिक लोककथा ‘चरणदास चोर’ (चरणदास द थीफ) की अपनी फीचर लंबाई प्रस्तुति में इन में से कई बच्चों का उपयोग किया. उन्होंने इसे चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी, भारत के लिए बनाया था. इस फिल्म में श्याम बेनेगल ने एक प्रतिभाशाली सक्षम महिला यानी कि राज कुमारी (स्मिता पाटिल) की पीड़ा और दुर्दशा के प्रति संवेदनशील हो कर उस की सुरक्षा की आवश्यकता पर भी बल दिया.
श्याम बेनेगल की प्रतिभा के आगे झुक कर व्यावसायिक सिनेमा के मशहूर स्टार कलाकार शशि कपूर ने 1978 में फिल्म ‘जनून’ और 1981 में ‘कलियुग’ के निर्देशन की जिम्मेदारी श्याम बेनेगल को सौंपी. फिल्म ‘जनून’ 1857 की आजादी की क्रांति के अशांत काल के बीच स्थापित एक अंतरजातीय प्रेम कहानी थी जब कि ‘कलियुग’ महाभारत पर आधारित थी. जिस में व्यवसाय को ले कर 2 परिवारों के बीच हुए मतभेद को दर्शाया गया है. इस फिल्म में राज बब्बर, शशि कपूर, सुप्रिया पाठक, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा सेठ जैसे दिग्गज कलाकार मुख्य भूमिकाओं में नजर आए थे. इन दोनों फिल्मों ने फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीता था.
1983 में राजनीति और वेश्यावृत्ति पर व्यंग्यपूर्ण कौमेडी फिल्म ‘मंडी’ में श्याम बेनेगल ने दिखाया कि किस तरह राजनेता बस्ती को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए कोठे को शहर से दूर वीरान जगह पर भेज देते हैं. तो वहीं एक उद्योगपति का बेटा उस सुंदर वेश्या लड़की से शादी करना चाहता है जो कि उस के पिता व एक वेश्या की ही संतान है.

जुबैदा के साथ मुख्यधारा की बौलीवुड में प्रवेश

इस फिल्म में शबाना आजमी और स्मिता पाटिल का शानदार अभिनय है. 1985 में प्रदर्शित फिल्म ‘त्रिकाल’ में श्याम बेनेगल ने 1960 के दशक की शुरुआत में गोवा में पुर्तगालियों के आखिरी दिनों पर आधारित कहानी में मानवीय रिश्तों की खोज की. 1990 के दशक में श्याम बेनेगल ने भारतीय मुसलिम महिलाओं पर एक त्रयी बनाई, जिस की शुरुआत ‘मम्मो’ (1994), ‘सरदारी बेगम’ (1996) और ‘जुबैदा’ (2001) से हुई.
जुबैदा के साथ उन्होंने मुख्यधारा की बौलीवुड में प्रवेश किया, क्योंकि इस में शीर्ष बौलीवुड स्टार करिश्मा कपूर थीं और ए आर रहमान का संगीत था. पर इस के लिए करिश्मा कपूर को जोड़ने का काम फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद ने किया था.
1992 में उन्होंने धर्मवीर भारती के साहित्यिक उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ बनाई, जिस ने 1993 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. 1996 में उन्होंने फातिमा मीर की पुस्तक ‘द मेकिंग औफ द महात्मा’ पर आधारित एक और फिल्म, ‘द अप्रेंटिसशिप औफ अ महात्मा’ बनाई.
2005 में इंग्लिश भाषा में फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोसः द फौरगौटन हीरो’ बनाई. लेकिन एक बार फिर वे अपने पुराने दौर में लौटे, जब 1999 में फिल्म ‘समर’ के माध्यम से सिनेमा जगत में फैली जाति व्यवस्था के साथ ही भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना की, जिस ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता.

श्याम बेनेगल एक परिचय

14 दिसंबर, 1934 को हैदराबाद मे कोंकणीभाषी चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में श्याम बेनेगल के पिता श्रीधर बी बेनेगल मूलतया कर्नाटक निवासी फोटोग्राफर थे. बचपन से ही कुछ अलग करने की धुन के चलते महज 12 साल की उम्र में श्याम ने अपने पिता द्वारा उपहार में दिए गए कैमरे का उपयोग कर पहली फिल्म बनाई थी.
उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री हासिल की, जहां उन्होंने हैदराबाद फिल्म सोसाइटी की स्थापना की, जो सिनेमा में उन के शानदार सफर की शुरुआत थी.

पुरस्कार

कला के क्षेत्र में उन के अद्भुत योगदान को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्हें कुल 18 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले. इस के अलावा श्याम को 1976 में पद्मश्री और 1991 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया. 2007 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया.
श्याम बेनेगल की फिल्मों को 7 बार बेस्ट हिंदी फीचर फिल्म के लिए नैशनल अवार्ड मिला है, जिन में ‘अंकुर’ (1974), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977), ‘मम्मो’ (1994), ‘सरदारी बेगम’ (1996), ‘जुबैदा’ (2001) शामिल हैं.

पीएम को खुला पत्र लिख कर आए थे विवादों में

श्याम बेनेगल 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे गए एक खुलेपत्र की वजह से विवादों में आ गए थे और उन के खिलाफ राजद्रोह की एफआईआर भी दर्ज की गई थी. उस वक्त बेनेगल ने यह कहा था कि यह खुलापत्र है, एक अपील है प्रधानमंत्री से न कि कोई धमकी. हम सिर्फ यह मांग कर रहे थे कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा रुके और जय श्रीराम नारे को भड़काऊ नारे में न बदलने दिया जाए.
श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में समाज के कई अनुछुए मुद्दों व सचाई को उजागर किया था, समाज में व्याप्त जातिवाद, अंधविश्वास और स्त्रीपुरुष के संबंधों को उन्होंने बखूबी अपनी फिल्मों में दिखाया, जिन्हें दूसरे फिल्मकार उठाने से डरते हैं.

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