Hindi Family Story: सरिता, बीस साल पहले, नवंबर (द्वितीय) 2005 - लेखक: मनोज सिन्हा - गरीबी के बोझ तले दबे पिता रामप्यारे सहाय द्वारा एक दिन डांटे जाने के कारण ज्योति आत्महत्या करने को उद्यत हो गई. तभी ‘जीवन’ की पुकार ने उस के कदम रोक लिए. कौन था यह जीवन?

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की 12 घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं और उस पर से रोजरोज की फरमाइशें- आज किताब नहीं है, कल कौपियां खत्म हो गईं, किसी की यूनिफौर्म फट गई तो किसी का स्कूलबैग. तंग आ गया हूं इन सब की पढ़ाईलिखाई से.’’

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए शेर की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिनगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थीं. उन्होंने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी, और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का...’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है. नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलैक्टर या गवर्नर है.’’

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