(तीन स्टार)
देश के प्रधानमंत्री इस लोकसभा चुनाव के दौरान हिंदू व मुसलिमों को बांटने की बात करते रहे,
वहीं फिल्मकार विशाल कुम्भार हिंदी और मराठी दो भाषाओं में उन्हीं के गुजरात के कच्छ की
पृष्ठभूमि में धर्म को देखने के नजरिए पर बात करने वाली विचारोत्तेजक फिल्म ‘मल्हार’ ले कर
आए हैं, जोकि 6 जून को सिनेमाघरों में पहुंची है.
यह फिल्म मोरपंख को ‘भगवान कृष्ण का मुकुट’ बताने के साथ ही मुसलिम धर्म में ‘इबादत व
दुआ के लिए पाक’ कह कर एक अद्भुत संदेश देती है. फिल्म धर्म के भेदभाव पर कटाक्ष करने,
सभी धर्म के इ्र्रश्वर एक हैं की बात करने के साथ ही झूठी सामाजिक मानमर्यादा से ले कर पुरूष
की नपुंसकता पर भी बिना किसी भाषणबाजी के चोट करती है.
यह एक एंथेलौजी वाली फिल्म है. यानी कि फिल्म में 3 कहानियां हैं जो कि समानांतर चलते हुए
भी एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं. कहानियां गुजरात के कच्छ के एक दूरदराज गांव की है, जिस में एक
कहानी दो बालकों की है, जो कि अच्छे दोस्त हैं. एक जावेद (विनायक पोतदार) है, जिस के पिता
परवेज मुसलिम कब्रिस्तान में शव दफन का काम कर के घर चलाते हैं. उस की बड़ी बहन
जस्मिन (अक्षता आचार्य) व छोटी बहन जमीला है. जबकि दूसरा हिंदू लड़का भैरव (श्रीनिवास
पोकले) है, जिस के दादाजी संगीतज्ञ हैं और अपने पोते भैरव को भी संगीत सिखाने का प्रयास
करते रहते हैं.
भैरव को सुनाई नहीं देता. वह कान में सुनने का यंत्र यानी कि श्रवण यंत्र लगा कर रखता है. गांव
के तालाब में भैरव का श्रवण यंत्र खराब हो जाता है, दोनों बालक अपने स्तर पर श्रवण यंत्र की
मरम्मत के लिए संघर्ष करते हैं तो पता चलता है कि इस की मरम्मत नहीं हो सकती. नया
खरीदने के लिए 1500 रूपए एकत्र करने के लिए दोनों बालकों के संघर्ष के साथ कहानी चलती
है.
दूसरी तरफ गांव के सरपंच (रवि झांकल) के परिवार की कहानी है. सरपंच के बेटे लक्ष्मण (ऋषि
सक्सेना) की शादी केसर (अंजली पाटिल) से हुई है, पर वह मां नहीं बन पाई है. लक्ष्मण की
कमजोरी के चलते केसर पर बांझ होने का आरोप लगता है. लक्ष्मण के मातापिता व दादी चाहते
हैं कि वह लक्ष्मण की दूसरी शादी करा दे. ऐसे में केसर अपनी शादी व अपने प्यार को बचाने के
साथ ही पति व परिवार की इज्जत को बचाने के लिए एक अनूठा कदम उठाती है. जिस में वह
एक सेल्समैन के रूप में कार्यरत मोहन (शारिब हाशमी) की मदद लेती है.
तीसरी कहानी गांव में दूध की डेयरी चलाने वाले शमशेर के बेटे जतिन (मोहम्मद सामद) और
जावेद की बहन जस्मिन की प्रेम कहानी है. यह तीनों कहानियां समानांतर चलते हुए भी एक
दूसरे से जुड़ी हुई हैं.
निर्देशक विशाल कुम्भार ने अपने कुशल निर्देशन के माध्यम से देश की ग्रामीण संरचना,
अंर्तविरोध, बच्चों की दिल को छू लेने वाली दोस्ती, मार्मिक संघर्ष, इंसानी जीवन की त्रासदी, सच्चे
प्यार की परिभाषा के साथ ही इस बात को भी रेखांकित किया है कि बच्चों के लिए सभी धर्म,
भगवान या अल्लाह एक ही हैं. मगर कुछ समाज व धर्म के ठेकेदार अपना वर्चस्व कायम रखने
के लिए धर्म के आधार पर ऐसी लकीर खींचते हैं, जो कि इंसान की जान ले लेती है.
बतौर निर्देशक विशाल कुम्भार ने फिल्म में भाषणबाजी नहीं की है, मगर कुछ खूबसूरत दृश्यों को
पिरो कर दर्शकों के दिलों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल रहे हैं. मसलन- भैरव के लिए नया
श्रवण यंत्र खरीदने में मदद की गुहार लगाने के लिए जावेद और भैरव का एक साथ हनुमान के
मंदिर जाना, हनुमान की मूर्ति से जावेद का अपने पिता की आर्थिक हालत सुधारने की मांग
करना हो या फिर हिंदू लड़के जतिन का अपनी प्रेमिका जस्मिन के साथ मजार पर जा कर
विनती करना हो. या अपनी मुसलिम प्रेमिका की खातिर जतिन द्वारा उर्दू जुब़ान सीखने व
साहिर को पढ़ने का दृश्य हो.
फिल्म की कमजोर कड़ी इस की पटकथा है. फिल्म की गति भी धीमी है. लेखकों ने कहानी तो
फैला दी, पर उसे समेटने में इतनी जल्दबाजी कर दी कि दर्शक को झटका सा लगता है. लेखकों
ने इस बात पर रोशनी नहीं डाली कि भैरव के पिता को कैसे पता चला कि भैरव का श्रवण यंत्र
खराब हो गया है. इसी तरह जस्मिन ने आत्महत्या की या… इस पर भी फिल्म खुल कर कुछ
नहीं कहती. पर पटकथा लेखकों ने केसर के बांझ होने की वजह पर अंत तक जिस तरह से
दर्शकों के मन में एक उत्सुकता जगा कर रखी है, वह काबिले तारीफ है, जिसे क्लाइमैक्स से पहले
उजागर किया जाता है कि लक्ष्मण में पुरूष या स्त्री किसी के प्रति कोई आकर्षण नहीं है. उस ने
तो अपने सरपंच पिता की इज्जत को तारतार होने से बचाने के लिए केसर से विवाह किया था.
फिल्मकार ने पति व परिवार की झूठी सामाजिक मानमर्यादा को बचाने के लिए केसर द्वारा
उठाए गए कदम की नैतिकता पर सवाल न उठाते हुए सामाजिक ढकोसले पर कटाक्ष किया है.
इतना ही नहीं लेखकों की इस बात के लिए सरहाना की जानी चाहिए कि वह दोस्ती, प्रेम, विवाह
और अल्पसंख्यक समुदाय के संघर्षों को बिना मेलोड्रामा के सूक्ष्म स्पर्श के साथ पेश करने में
सफल रहे हैं.
फिल्म के संवाद लेखकों सिद्धार्थ साल्वी और स्वप्निल सीताराम के चुतीले संवाद सीधे दिल पर
चोट करते हुए बहुत कुछ कह जाते हैं. फिल्म में जस्मिन का संवाद है, ‘‘प्यार दो तरफा होता है,
जान भी लेता है और जनाजे पर मातम भी मनाता है.’’ यह संवाद बहुत कुछ कह जाता है. तो
वहीं एक जगह चांद के संदर्भ में जतिन कहता है, ‘‘करवा चौथ का चांद हो या ईद का चांद हो,
चांद तो चांद ही होता है.’’ केसर का प्यार को ले कर कहा गया संवाद, ‘‘बिस्तर पर साथ होना ही
प्यार नहीं होता, एकदूसरे को स्वीकार करना भी प्यार होता है.’’ पतिपत्नी के बीच के रिश्ते पर
रोशनी डालता है.
दो अलगअलग धर्म के होने के चलते प्रेमियों के एक न होने पर प्रेमिका मरने से पहले अपने
प्रेमी को लिखे पत्र में अपने पिता को दोष देने या उन्हें गलत बताने की बजाय लिखती है-
“गलत तो वक्त था और वक्त से कोई नहीं जीत सकता.’’
क्लायमैक्स में जतिन के लिए जस्मीन द्वारा लिखा गया दिल दहला देने वाला पत्र दर्शकों के
दिलोंदिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ता है. फिल्म का क्लाइमैक्स सोचने पर विवश कर एक नए
समाज की संरचना का संकेत देता है. जस्मिन पत्र में लिखती है, ‘‘इस मोरपंख को न मंदिर में
रखना न मस्जिद में, इसे दफना देना…’’ अर्थात फिल्म अंत में इंसानों के बीच लकीर खींचने वाले
धर्म को दफनाने का संदेश देती है.
फिल्म में 3 कहानियां जरुर हैं, मगर फिल्म की कहानी के केंद्र में दो बालकों की दोस्ती व दोस्त
की मदद का संघर्ष ही है. भैरव के किरदार में श्रीनिवास रोकाले और जावेद के किरदार में
विनायक पोतदार अपने स्वाभाविक अभिनय से दर्शकों को अंत तक बांध कर रखते हैं. इन के बीच
की बचकानी मासूमियत, बचकानी शरारत और अटूट वफादारी का चित्रण दिल छू लेता है.
केसर के किरदार में अंजली पाटिल ने एक बार फिर अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवाने में
सफल रही है. इस से पहले दर्शक उन्हें ‘चक्रव्यूह’ और ‘न्यूटन’ जैसी फिल्मों में पसंद कर चुके हैं.
मोहन के छोटे किरदार में शारिब हाशमी अपनी छाप छोड़ जाते हैं. वैसे शारिब हाशमी के किरदार
को ठीक से गढ़ा नहीं गया. जतिन के किरदार में मोहम्मद समद व जस्मिन के किरदार में
अक्षता आचार्य ने साबित किया कि उन के अंदर अपार अभिनय क्षमता है. सरपंच के अति छोटे
किरदार में रवि झांकल और लक्ष्मण के किरदार में ऋषि सक्सेना ठीक ठाक रहे.
अति आवश्यक और ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को उकेरने वाली यह फिल्म कितने दर्शकों तक
पहुंच सकेगी, यह कहना मुश्किल है. इन दिनों बौलीवुड के हालात काफी गड़बड़ हैं. इस फिल्म को
मुंबई में बामुश्किल चारपांच शो ही मिले हैं.