रात के 8 बजे थे. काफी बारिश हो रही थी. मैं कार द्वारा कपूरथला से पूर्णिया की ओर जा रही थी. मोबाइल की घंटी बजी, आवश्यक कौल देख कर मैं ने कार किनारे खड़ी की और बात करने लगी. तभी मुझे लगा कि कार का अगला हिस्सा नीचे की ओर झुका जा रहा है. फोन बंद कर मैं कार से उतरी तो देखा कार के अगले पहिए बंपर समेत कीचड़ में धंस गए हैं. मैं ने गाड़ी स्टार्ट कर निकालने की कोशिश की लेकिन कार टस से मस न हुई. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. तभी एक संभ्रांत से सज्जन पैदल उधर से गुजरे. मुझे पानी में खड़े देख कर पूछा, ‘मैडम, क्या बात है?’ मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वे रुक गए और साइकिल पर जाते 2 लोगों को रोका व उन की सहायता से गाड़ी निकलवाने की कोशिश की पर गाड़ी निकल न सकी.

तभी एक मालवाहक टैंपो उधर से गुजरा. उन सज्जन ने उसे रोक कर सहायता मांगी. ड्राइवर राजी हो गया. उस ने एक रस्सी निकाली और बंपर से बांधने की कोशिश की लेकिन बंपर तो कीचड़ में धंसा था तो उस ने पीछे से रस्सी बांध कर खींचा तो रस्सी ही टूट गई. तब उस ने 4-5 आदमियों को बुला कर धक्का लगाने को कहा और खुद कार स्टार्ट कर गाड़ी को बाहर निकाल दिया. मैं ने खुशीखुशी टैंपो वाले और उस के साथियों को 400 रुपए दिए. वे सज्जन पूरे समय मेरे साथ खड़े रहे. घबराहट में मैं उन को धन्यवाद कह कर, गाड़ी ले कर चली आई. उन का परिचय नहीं पूछा. रास्ते में मैं सोचने लगी, स्वार्थ से भरी इस दुनिया में निस्वार्थ सहायता करने वाले लोग भी हैं.

ऋतु अरोरा, लखनऊ (उ.प्र.)

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कुछ दिन पहले मेरी दादी काफी बीमार हो गईं. उन्हें बिलासपुर के एक हौस्पिटल में भरती कराया गया. उन की शुगर एकदम डाउन हो गई थी. डाक्टरों ने मुझ से शक्कर लाने को कहा. रात के 12 बज रहे थे. मेरा घर हौस्पिटल से काफी दूर था. मैं आसपास दुकान में शक्कर की तलाश के लिए निकला. एक घर के सामने एक बुजुर्ग दंपती बैठे थे. मैं ने उन से जा कर अपनी समस्या बताते हुए पूछा, ‘‘आंटीजी, यहां कहीं आसपास किराने की दुकान है क्या?’’

उन्होंने कहा, ‘‘दुकानें तो सामने ही हैं पर वे बंद हो चुकी हैं.’’ उन के पति ने कहा, ‘‘शक्कर चाहिए तो हम से ले जाओ.’’ इतने में उन की पत्नी ने एक डब्बे में शक्कर के साथसाथ कुछ मिठाइयों के पीस भी ला कर मुझे दिए, जिस से मेरी दादी को काफी आराम मिला. मैं आज भी उन दंपती का हृदय से आभारी हूं.

सौरभ वर्मा, बिलासपुर (छ.ग.)

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