अमेरिका में जातिगत विवाद एक बार फिर सिर उठाने लगा है जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा स्वयं अश्वेत हैं. हुआ यह था कि 26 फरवरी, 2012 को सैनफोर्ड शहर में रात को एक अश्वेत युवा ट्रेवौन मार्टिन को स्थानीय स्वयंसेवी रक्षक ने सड़क पर चलते हुए बुलाने की कोशिश की. मार्टिन ने क्या किया, यह स्पष्ट नहीं परंतु रक्षक जौर्ज जिम्मरमैन ने अपनी पिस्तौल उस पर चला दी और उस की मृत्यु हो गई.

विवाद अब खड़ा हुआ है जब एक अदालत में आम लोगों की एक जूरी ने जिम्मरमैन को रिहा कर दिया. अमेरिका में आम लोगों में से चुनी गई जूरी का आपराधिक मामलों में फैसला माना जाता है. भारत में भी ऐसा ही नियम था पर 1959 में कमांडर नानावटी द्वारा अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा को मारने के आरोप में बरी कर देने के बाद जूरी प्रणाली समाप्त कर दी गई. चूंकि इस अमेरिकी जूरी में केवल श्वेत महिलाएं थीं, इसलिए अभियुक्त को बरी करने को रंगभेद की सोच का नाम दिया जा रहा है.

बराक ओबामा ने भी इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 35 साल पहले वे खुद मार्टिन जैसे की जगह पर हो सकते थे. स्पष्ट है कि अमेरिका रंगभेद की नीति से डेढ़ सदियों में भी नहीं निकल पाया है और अभी?भी श्वेत नागरिक अश्वेतों को अपराधी, दूसरे दरजे का मानते हैं. उन्हें पूरी तरह बराबरी देने में आज भी आनाकानी की जाती है. यह लगभग हर देश में हो रहा है. नई सोच, बराबरी के मूल्यों की जोरदार वकालत, स्वतंत्रता, सभी को सामान्य एक जैसे अवसरों की बातें चाहे जितनी कर ली जाएं, लोग किसी न किसी वजह से ‘हम’ और ‘उन’ में?भेद निकाल ही लेते हैं और फिर उन के साथ स्पष्ट या छिपा हुआ भेदभाव होता है.

तमाम संविधानों, अदालतों, प्रस्तावों, अंतर्राष्ट्रीय मान्यताओं के बावजूद यह भेद निकल नहीं पाता और हर समाज में एक वर्ग अपने को दूसरों से?श्रेष्ठ समझता है. इस का एक बड़ा कारण धर्म है जो कट्टरता के बीज बोने में सब से आगे रहता है. कट्टरता का यह जहर रंग, जाति, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव पर भी फैल जाता है. जो जितना धार्मिक होगा वह उतना ज्यादा कट्टर व ‘हम’ और ‘उन’ में भेद करने वाला होगा क्योंकि उसे बचपन से सिखाया जाता है कि जो दूसरे धर्म का है, अलग है, बैरी है.

अमेरिका आधुनिक सोच, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भेदभाव रहित समाज के संकल्पों के बावजूद हार रहा है तो दूसरों का क्या कहना? 

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