Bihar Politics : बिहार को ले कर जब भी चर्चा होती है तो उस के पिछड़ेपन और गरीबी की होती है. सवाल यह कि इन समस्याओं का असल जिम्मेदार है कौन? आखिर क्यों बिहार की स्थिति में वे बदलाव नहीं आ पाए जो उस की इस छवि को बदल पाते.
बिहार, भारत का एक ऐसा राज्य जो ऐतिहासिक महत्त्व, सांस्कृतिक विरासत और अपनी उपजाऊ भूमि के लिए जाना जाता है. चंपारण सत्याग्रह, जिसे भारत में गांधीजी के पहले सत्याग्रह के रूप में जाना जाता है, 1917 में बिहार के चंपारण जिले में हुआ था, लेकिन आज देश को आजाद हुए दशकों बीत गए फिर भी बिहार और बिहारी आजाद नहीं हुए. ऐसा इसलिए क्योंकि न तो बिहार अशिक्षा से आजादी मिली, न बंधुआ मजदूरी से आजादी मिली और न गरीबी से.
वोट देने की मशीन
12 करोड़ बिहारीयों के भविष्य की चिंता सत्ता धारियों को बिलकुल भी नहीं है. वे बिहार की जनता को बस एक वोट देने की मशीन समझते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर भाजपा और उस के घटक दलों ने मिल कर 39 सीट जीतीं और साल 2024 के चुनाव में भाजपा ने 12, जनता दल यूनाइटेड को 12, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 5 सीटें मिली, लेकिन इस का कोई भी असर बिहार के मुलभूत विकास में तो बिल्कुल भी नजर नहीं आता.
सुदूर देहात में आज भी स्थति जस की तस बनी हुई है और मौडर्न बिहार में अरबोंखरबों की लागत में बन रहे पुल बनते बनते ही गिर जा रहे हैं और जो पुल या सड़क बन गई है वो इतनी जल्दी टूट रही है कि लगता है उसे पथ निर्माण विभाग का आदेश है कि भई! सड़क जितनी जल्दी टूटेगी तो उतनी जल्दी नया टेंडर फाइनल होगा, ‘तब ही न बिजनेस होगाजी बिहार में, इ हे तो बिहार का स्टार्टअप है’. इस के बावजूद बिहार की जनता अपनी मेहनत के बलबूते पर दिल्ली और मुम्बई जैसे बड़े शहरों में कई बड़ीबड़ी इमारत खड़ी कर देते हैं.
महीनो अपने गांव और खेत से दूर रहने वाले बिहारी जब पर्व त्यौहार पर अपने गांव घर जाने लगते हैं तो उन्हें वहां भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. बिहारियों को ट्रेनों में ऐसे ठूसठूस कर अपने अपने गांव जाना पड़ता है जैसे कि किसी ने ट्रकों में ठूसठूस कर अनाजों की बोरियां लाद दी हों. वहीं मोदीजी को भी अहमदाबाद से मुंबई के लिए ही पहली बुलेट ट्रेन शुरू करनी है. उन्हें उस बिहार से ज्यादा से ज्यादा सामान्य रेलगाड़ियां नहीं शुरू करनी है जहां के लोग सब से ज्यादा ट्रेनों में ठूसठूस कर आतेजाते हैं और रेलवे को त्योहारों के समय सब से ज्यादा पैसे देते हैं.
यही नहीं जितने लोग एक दिन में मुंबई अहमदाबाद की प्लेन में सफर नहीं करते उस से दो गुना से ज्यादा बिहारी रोज दिल्ली से पटना के लिए ट्रैवल करते हैं. लेकिन फिर भी सुविधाएं बिहार में नहीं बढ़ रही हैं. बिहारियों की धरती, जो कभी मगध और नालंदा जैसे वैभवशाली साम्राज्यों का केंद्र थी, आज विकास की दौड़ में सब से पीछे खड़ी है. बिहार की जनता को अकसर निकम्मेपन का तमगा दिया जाता है, लेकिन क्या यह केवल जनता की गलती है? या इस के पीछे नेताओं की नाकामी, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां, और ऐतिहासिक उपेक्षा भी जिम्मेदार है?
जनता का निकम्मापन : कड़वा सच या सामाजिक उपेक्षा?
बिहारियों के लिए जब बिहार में सरकार इन्वेस्टमेंट नहीं ला पाती है तब बिहारियों को दूसरे प्रदेशों का रूख अपना पेट पालने के लिए करना पड़ता है क्योंकि हर बिहारी तो जमीन का स्वामी है नहीं कि खेती कर के अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सकें. ऐसे में बिहारियों को मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में मजदूरी करने के लिए मजबूरन जाना ही पड़ता है. क्योंकि बिहार के स्कूलों और कालेजों में ठीक से पढ़ाई होती नहीं है इसलिए बिहारियों को मजदूरी के आलावा और कोई चारा समझ नहीं आता है. “बिहारी निकम्मे हैं” – यह वाक्य अकसर सुनने को मिलता है, खासकर उन लोगों से जो बिहार की स्थिति को बिना गहराई से समझे आलोचना करते हैं.
लेकिन क्या बिहार की 12 करोड़ जनता वाकई निकम्मी है? अगर हम आंकड़ों और तथ्यों की ओर देखें, तो बिहार की स्थिति जटिल और बहुआयामी है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश में सब से कम है, और नीति आयोग के अनुसार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और उद्योग के क्षेत्र में यह सब से पिछड़ा राज्य है. बिहार में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, और हर साल लाखों बिहारी मजदूरी के लिए दिल्ली, मुंबई, और पंजाब जैसे राज्यों में पलायन करते हैं.
लेकिन यह निकम्मापन नहीं, बल्कि अवसरों की कमी और दशकों की उपेक्षा का परिणाम है. 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार “जंगलराज” के लिए कुख्यात था, जहां अपराध, भ्रष्टाचार, और अव्यवस्था चरम पर थी. 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद कुछ सुधार हुए, जैसे सड़कों का निर्माण, बिजली की आपूर्ति में वृद्धि, और अपराध में कमी. फिर भी, बिहार आज भी बुनियादी सुविधाओं, जैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, से वंचित है.
जनता की सब से बड़ी गलती शायद यह है कि वह बारबार उन्हीं नेताओं को चुनती है, जो जाति, धर्म, और वादों के नाम पर वोट मांगते हैं. बिहार का वोटिंग पैटर्न दशकों से जाति आधारित रहा है. यादव मुसलिम गठजोड़ राष्ट्रीय जनता दल का आधार है, जबकि कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ा वर्ग जनता दल यूनाइटेड के समर्थक हैं. भारतीय जनता पार्टी सवर्ण और कुछ ओबीसी जातियों के वोटों पर निर्भर है. इस जातिगत समीकरण ने बिहार की जनता को विकास के मुद्दों से भटकाया और नेताओं को जवाबदेही से बचने का मौका दिया.
बिहार में बदलाव: क्या कुछ हुआ?
2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में कुछ बदलाव तो हुए, लेकिन क्या ये बदलाव जनता के हित में पर्याप्त थे?
रोजगार और पलायन
बिहार में रोजगार सृजन आज भी सब से बड़ी चुनौती है. नीतीश सरकार ने शिक्षक भर्ती और पुलिस भर्ती जैसे कदम उठाए, लेकिन ये नाकाफी हैं. बिहार में औद्योगिक विकास न के बराबर है. बिहार और अगर अग्रिणी राज्यों लाना है तो बिहार में इंडस्ट्री लानी ही होगी. शुगर मील और छोटेमोटे पेपर बेग के फैक्ट्रियों से बिहार की 12 करोड़ जनता पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा. अगर बिहारियों का पलायन रोकना है तो बिहार में स्टार्टअप और स्किल्स पर जोर देना होगा. इस के साथ बिहार के सरकारी कालेजों की आधारभूत संरचना में सुधार की भारी आवश्यकता है. हर ब्लौक में एक ऐसा कालेज खोलने की जरुरत है जो वर्तमान व भविष्य को ध्यान में रखते हुए विषयों के सिलेबस में बदलाव कर उन्हें नई तरीके से डिजाइन करें, जिस से बिहार के युवाओं को शिक्षा और नौकरी में आसानी से मिल सके.
तेजस्वी की माई-बहिन मान योजना
तेजस्वी यादव ने “माई-बहिन मान योजना” के तहत महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा है, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आकर्षित कर सकता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये योजनाएं केवल चुनावी जुमले हैं या वास्तव में बिहार की अर्थव्यवस्था को बदल सकती हैं? बिहार में माई-बहिन योजना के लिए 1 लाख करोड़ रूपए से ज्यादा की धनराशि की जरुरत होगी. जो कि बिहार सरकार के बजट का एक तिहाई हिस्सा होगा.
अगर ये योजना लागू की जाएगी तो बिहार के बाकी योजनाओं की पूर्ति सरकार कहां से करेगी या सरकार बिहार की जनता को गरीब बनाने के लिए नई कर्ज से लाद देगी? बिहार की जनता को ऐसे चुनावी जुमले से सावधान रहने की जरुरत है, क्योंकि जब 15 लाख खाते में नहीं आए हैं तो 1 लाख करोड़ तो दिन में तारे देखने जैसा सपना होगा.
शिक्षा
बिहार की साक्षरता दर देश में सब से कम है और इस के लिए कहीं न कहीं बिहार की जनता ही जिम्मेदार है क्योंकि बिहार की जनता ने कभी भी शिक्षा स्वास्थ्य और विकास के नाम पर वोट नहीं दिया. बिहार में वोट सिर्फ और सिर्फ जातिवाद और परिवारवाद को दिया.
बिहार की जनता ने नीतीश को चुना तो नीतीश कभी भाजपा की गोद में जा कर बैठ गए तो कभी आरजेडी के खेमे में हो लिए. उन्होंने बिहार के विकास के लिए कम अपनी कुर्सी और पार्टी के विकास के लिए ज्यादा काम किया. वैसे नीतीश सरकार ने स्कूलों में साइकिल योजना और मिड डे मील जैसी योजनाएं शुरू कीं, जिस से स्कूलों में नामांकन बढ़ा. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता अभी भी दयनीय है. सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी, और पुरानी पाठ्यपुस्तकें आम समस्याएं हैं.
बिहार कभी स्कूल की छत गिर जाती है तो कभी गुरुजी बच्चों से अपनी गाड़ी साफ करवाते हैं. बिहार में शिक्षक की नौकरी पाने के बाद शिक्षक अपने आप को प्रधानमंत्री समझने लगते हैं. बिहार में स्कूल हो या कालेज, या फिर किसी सरकारी नौकरी की परीक्षा, सब के क्वेश्चन पेपर व्हाट्सऐप पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. बिहार में सिर्फ नीतीश कुमार की कुर्सी सेफ है परीक्षा के प्रश्नपत्र नहीं. दो चार नेता छात्रों के आंदोलन में आ कर अपनी फुटेज मीडिया में दे कर अपनी ख्याति बटोर कर चलते बनते हैं. छात्र चीखचीख कर सड़क पर ही दम तोड़ देते हैं और नीतीश कुमार अपनी मस्ती में चलते रहते हैं.
अगर बिहार की जनता ने स्कूल और स्वास्थ्य और बिहार के विकास के नाम पर वोट किया होता तो ये आंदोलन की कोई नौबत ही नहीं आती. बिहार में रोजगार सृजन होता और 9वीं पास कभी भी बिहार का उपमुख्यमंत्री नहीं बनता. अब बिहार की राजनीति में एक नए खिलाड़ी आए हैं, जिन की पहचान बड़ेबड़े उद्योगपतियों से है, इन जनाब का नाम है प्रशांत किशोर.
प्रशांत भाजपा समेत कई पार्टियों के लिए काम कर चुके हैं. इसके साथ ही वे जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं. अगर प्रशांत बिहार का विकास चाहते हैं तो उन्हें उद्योगपतियों जितना चंदा जनसुराज को बनाने में बहाया है उस चंदे के पैसे से अगर वे बिहार में उद्योग लगाते तो कुछ बिहारियों का भला तो जरुर होता और शायद इस का फायदा प्रशांत को भी होता. लेकिन इन्हें तो बिहार का मुख्यमंत्री बनना है और उस से भी पहले इन्हें इतिहास में अपना नाम बहुत बड़े आंदोलनकारी नेता के रूप में दर्ज करवाना है.
वे अपनी सियासी रणनीतिकार की छवि को मिटा कर आंदोलनकारी की छवि को आगे बढ़ाना चाहते हैं और बात बिहार के छवि को बदलने की कहते हैं. बिहार की जनता को अगर शिक्षा चाहिए तो उसे जमीन से जुड़े नेताओं को वोट देने की जरुरत है, उद्योगपतियों से जुड़े नेताओं को नहीं.
स्वास्थ्य
बिहार में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. इस की पोल आएदिन खुलती रहती है. कोरोना महामारी में बिहार के सरकारी अस्पतालों की जो तस्वीर सामने आई थी वह वाकई डराने वाली थी. बिहार के सरकारी अस्पतालों की हालत देख कर इंसानियत पर से भरोसा उठ जाता है. आखिर क्यों बिहार का स्वास्थ्य विभाग अपने ही प्रदेश के जनता के प्रति इतना निर्दयी हो गया है. बिहार के चुनाव में कभी भी स्वास्थ्य मुद्दा नहीं बनाया गया क्योंकि सत्ता और विपक्ष दोनों को पता है कि किसी के भी कार्यकाल में बिहार के अस्पतालों का कायाकल्प नहीं कर पाएं.
स्वास्थ्य मंत्रालय को हर साल बजट में हजारों करोड़ रुपए मिलते हैं, लेकिन बिहार की जनता को स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर ठेंगा दिखाया जाता है. बिहार की जनता ने भी कभी अस्पतालों के लिए कोई मांग नहीं की, न ही अच्छे डाक्टरों की कोई मांग की तो ऐसे में जो महामानव सत्ता में आए उन्होंने स्वास्थ्य मंत्रालय को आम समझ कर के चूसा और बिहार के अस्पतालों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को नीव से ले कर छत तक कमजोर कर दिया.
इस का एक जीताजागता उदहारण है दरभंगा एम्स. इस अस्पताल को अब तक बन कर जनता के लिए समर्पित हो जाना था. लेकिन अभी तो जमीन में बस चारदीवारी काम भी ठीक से नहीं हो पाया है. क्योंकि ये प्रोजैक्ट बिहार की जनता के लिए है तो यह इतनी जल्दी कैसे पूरा होगा. अगर मंत्रियों के नए बंगले का प्रोजैक्ट आ जाए तो बिहार के विकासपुरुष इस की खुद निगरानी करेंगे और दिल्ली से चल कर महामानव आएंगे और मंत्रियों को नए बंगले में गृहप्रवेश करवाएंगे.
अब बिहार की जनता को ये सोचना चाहिए कि विकासपुरुष और महामानव दोनों ही बिहार के जनता की सेहत से खेल रहे हैं. उन्हें वोट देना मतलब कागजों में योजनाओं को पूरा करने जैसा है. आज भी सरकारी अस्पतालों में बेड, दवाइयां, और डाक्टरों की कमी है. नीतीश सरकार की “आयुष्मान भारत योजना” और अन्य स्वास्थ्य योजनाएं कागजों तक सीमित हैं.
विज्ञान और तकनीक
बिहार में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में लगभग कोई प्रगति नहीं हुई है. न ही कोई नया रिसर्च सेंटर बनाया गया है और न ही बिहार के युवाओं को सरकार रिसर्च की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकी है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान बिहार में हैं, लेकिन इन का लाभ स्थानीय युवाओं को कम मिलता है. स्टार्टअप और टैक्नोलौजी हब की कमी बिहार के युवाओं को अन्य राज्यों की ओर धकेलती है.
आखिर कब बिहार के युवा यादव और मुसलिम वोट बैंक का शिकार बनते रहेंगे. अगर तकनीक और विज्ञान में बिहार को आगे बढ़ाना है तो सब से पहले युवाओं को एकजुट हो कर बिहार सरकार से मांग करनी चाहिए कि बिहार को तकनीक और विज्ञान में आगे ले जाने के लिए नई संस्थान स्थापित करें और रिचर्स व विज्ञानिकों को अच्छी प्रोत्साहन राशि दें, जिस से वे ख़ुशीख़ुशी बिहार को आगे ले जाएंगे.
हिंदुत्व और सामाजिक समीकरण
इस बार भाजपा और जेडीयू बिहार चुनाव में औपरेशन सिंदूर को चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और स्थानीय मुद्दों से जनता का ध्यान भटका रहे हैं. वैसे 2014 से पहले से ही भाजपा हिंदुत्व का नारा दे रही है, और बिहार में इस का असर देखने को मिलता है. ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे कदमों से भाजपा ने हिंदू वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की है. लेकिन बिहार में जाति की राजनीति अभी भी धर्म से ऊपर है. मुसलिम वोटर (लगभग 17%) आरजेडी के साथ मजबूती से खड़े हैं, जबकि सवर्ण और ओबीसी वोटरों का कुछ हिस्सा भाजपा और जेडीयू के बीच बंटे हैं. एनडीए का पूरा फोकस बिहार चुनाव में बिहार के मुद्दों के बजाय पाकिस्तान की धुलाई रहने वाली है.
बिहार की जनता को यह समझना होगा कि औपरेशन सिंदूर से बिहार के विकास का कोई लेना देना नहीं है. इस से बिहार के स्थानीय मुद्दे जस के तस रहने वाले हैं. जनता को तय करना होगा कि बिहार में कौन विकास की रक्षा करेगा, ताकि बिहार आगे बढ़ सकें.
नीतीश बनाम तेजस्वी : 2025 का असली मुकाबला?
2025 का बिहार विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से नीतीश कुमार (एनडीए) और तेजस्वी यादव (महागठबंधन) के बीच माना जा रहा है, लेकिन प्रशांत किशोर और चिराग पासवान जैसे नेता इसे त्रिकोणीय बना सकते हैं. नीतीश कुमार बिहार के सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं. उन की सरकार ने सड़क, बिजली, और महिला सशक्तिकरण (जैसे साइकिल योजना और शराबबंदी) के क्षेत्र में काम किया है. लेकिन उन की उम्र (74 वर्ष) और स्वास्थ्य समस्याएं उन के खिलाफ जा रही हैं. जेडीयू-भाजपा गठबंधन का लक्ष्य 225 सीटें जीतना है. भाजपा नीतीश के प्रति सहानुभूति वोट और ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे हिंदुत्व कार्ड का इस्तेमाल कर रही है. लेकिन नीतीश की बारबार पाला बदलने की आदत ने उन की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है.
तेजस्वी यादव
नीतीश के बारबार पाला बदलने से तेजस्वी यादव मजबूत हुए और छात्रों के आन्दोलन में सहयोग ने उन्हें और उन की पार्टी को मजबूती दी है, जिस से तेजस्वी यादव बिहार के युवाओं में लोकप्रिय हुए हैं. एक सर्वे के अनुसार, 36% लोग उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखते हैं. लेकिन आरजेडी का “जंगलराज” का इतिहास और लालू परिवार के भ्रष्टाचार के आरोप उन के लिए चुनौती हैं.
चिराग पासवान और अन्य
चिराग पासवान (लोक जनशक्ति पार्टी) भी बिहार में अपनी जगह बना रहे हैं. उन की पार्टी पासवान (दुसाध) वोटरों (5.31%) पर दावा ठोकती है. चिराग का एनडीए के साथ रहना या अलग चुनाव लड़ना 2025 के समीकरण को प्रभावित कर सकता है.
क्या बिहार की जनता अपनी गलती सुधारेगी?
बिहार की जनता की सब से बड़ी गलती है कि वह विकास के बजाय जाति और धर्म के आधार पर वोट देती है. लेकिन 2025 का चुनाव कुछ अलग हो सकता है. युवा वोटरों में जागरूकता बढ़ रही है, और सोशल मीडिया के जरिए बेरोजगारी, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे चर्चा में हैं. प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी इस जागरूकता को भुनाने की कोशिश कर रही है. अगर जनता उन के “बच्चों के भविष्य” के नारे को गंभीरता से लेती है, तो बिहार में तीसरा विकल्प उभर सकता है. लेकिन इस के लिए जनता को अपने निकम्मेपन के तमगे को तोड़ना होगा और वोटिंग पैटर्न में बदलाव लाना होगा.
बिहार की जनता का निकम्मापन एक सतही आरोप है, जिस के पीछे दशकों की सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा और नेताओं की नाकामी है. 2025 का चुनाव बिहार के लिए एक मौका है कि वह अपनी दिशा बदले. नीतीश कुमार का अनुभव, तेजस्वी यादव की युवा ऊर्जा, और प्रशांत किशोर का नया विजन – इन में से कौन बिहार को नई दिशा देगा, यह जनता के हाथ में है. लेकिन अगर बिहार की जनता फिर से जाति, धर्म, या मुफ्त वादों के जाल में फंसी, तो बदलाव की उम्मीद धूमिल हो जाएगी.
बिहार को चाहिए एक ऐसी सरकार जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विज्ञान-तकनीक में क्रांति लाए. बिहार के 12 करोड़ लोग अगर ठान लें, तो यह राज्य फिर से भारत का गौरव बन सकता है. सवाल यह है – क्या बिहार की जनता अपनी गलतियों से सबक लेगी, या फिर वही पुराना चक्र चलेगा?
इन नेताओं ने बिहार में नई सामाजिक और राजनीतिक दिशा की तय
बिहार की राजनीती शुरू से ही केंद्र सरकार की दिशा तय करती आई है. लेकिन बिहार की राजनीति में कुछ ऐसे चंद सांसद विधायक भी हैं जिसे चुन कर बिहार की जनता ठगा हुआ नहीं महसूस कर रही है. इन नेताओं ने बिहार की सामाजिक-राजनीतिक दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बिहार की राजनीति में इन्होने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है.
यादव जाति
पप्पू यादव (पूर्णिया) – निर्दलीय
पूर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव बिहार के उन नेताओं से बिल्कुल अलग है जो मुसीबत के समय भाग खड़े होते हैं. बिहार में बाढ़ हो या कोरोना महामारी, पप्पू यादव हमेशा ही ग्राउंड पर जा कर जनता की मदद करते हुए दिखाई देते हैं. राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव का राजनीतिक सफर बड़ा ही रोमांचक रहा है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव छठी बार सांसद बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
लोकसभा चुनाव से पहले पप्पू यादव ने अपनी जनाधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर पूर्णिया लोकसभा सीट से टिकट की दावेदारी पेश की थी. लेकिन गठबंधन की वजह से यह टिकट आरजेडी को चला गया. इस से पप्पू यादव आगबबूला हो गए और पार्टी से इस्तीफा दे कर निर्दलीय चुनाव मैदान में कूद गए. इस के परिणाम यह हुआ इस इस सीट से आरजेडी प्रत्याशी को मुंह की खानी पड़ी और जनता ने पूर्णिया की कमान पप्पू यादव को सौंप दी. पप्पू यादव का चुनाव जीतना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि वे सदैव जनता के बीच बने रहते हैं और उन की समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहते हैं.
गिरधारी यादव (बांका) – जदयू
बांका लोकसभा सीट से सांसद गिरधारी यादव ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से की थी इस के बाद वे आरजेडी से जुड़े रहे. गिरधारी यादव लोकसभा व विधानसभा दोनों के सदस्य रहे हैं. अपने क्षेत्र में गिरधारी यादव ने शिक्षा, सड़क और सिंचाई के मुद्दों पर विशेष रूप से काम किया है. बिहार में उन की पहचान एक अनुभवी नेता के रूप में है.
दिनेश चंद्र यादव (मधेपुरा) – जदयू
दिनेश चंद्र यादव का अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में 4 बार सांसद रह चुके हैं. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 6,24,334 वोट ला कर जीत दर्ज की. इस के साथ वे रेल मंत्रालय के सलाहकार समिति, कोयला और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की सलाहकार समिति और गृह मामलों की समिति के सदस्य के रूप में अपना योगदान दे चुके हैं. मधेपुरा सांसद दिनेश अपने क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी और किसानो के लिए खूब काम किया है.
नित्यानंद राय (उजियारपुर) – भाजपा
उजियारपुर लोकसभा सीट से भाजपा सांसद नित्यानंद राय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रशिक्षित नेता हैं. इस के साथ ही वे वर्तमान में गृह राज्य मंत्री भी हैं. नित्यानंद राय ने उजियारपुर के बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाया है. उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, महिला सुरक्षा और युवाओं के प्रशिक्षण केन्दों को स्थापित कर उजियारपुर मौडल स्थापित किया है.
अशोक यादव (मधुबनी) – भाजपा
अशोक यादव को राजनीति विरासत मिली है, वे वरिष्ठ नेता हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र हैं. अशोक ने अपने संसदीय क्षेत्र में शिक्षा, पर्यटन के साथ साथ मिथिला पेंटिंग और संस्कृति को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया है. इस के साथ ही मधुबनी में सड़क संपर्क को मजबूत करने की दिशा में कार्य किया है.
सुरेंद्र यादव (जहानाबाद) – राजद
जहानाबाद से आरजेडी सांसद सुरेन्द्र यादव विधायक भी रह चुके हैं. वे आरजेडी के समर्पित नेता के रूप में जाने जाते हैं. बताया जाता है कि सुरेन्द्र यादव के राजनीतिक जीवन में जातीय समीकरण और सामाजिक न्याय की निति हमेशा ही केंद्र में रही है.
मीसा भारती (पाटलिपुत्र) – राजद
पेशे से डाक्टर रहीं मीसा भारती आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की बेटी हैं. मीसा वर्तमान में पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं. मीसा भारती ने सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथसाथ महिला सशक्तिकरण के लिए काफी सराहनीय कार्य किया है. यही वजह रही कि मीसा को पाटलिपुत्र की जनता ने सांसद बना कर संसद भेजा.
कोयरी जाति
राजाराम सिंह कुशवाहा (काराकाट) – भाकपा माले
लोकसभा चुनाव 2024 में जिन सीटों की सब से ज्यादा चर्चा रहीं उन में से एक काराकाट लोकसभा सीट भी थी. क्योंकि एक अभिनेता ने यहां परचा भर कर चुनाव को रोमांचक बना दिया था. लेकिन फिर भी जनता ने कोयरी जाति से आने वाले भाकपा (माले) के राजाराम सिंह कुशवाहा को अपना सांसद चुना. बिहार की राजनीति में राजाराम की पहचान किसान आंदोलन और मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले नेता की है. इस के साथ ही उन की राजनीति दलित और पिछड़े वर्ग के हक़ में संघर्ष और भूमि अधिकारों के इर्दगिर्द घूमती है.
अभय सिन्हा (औरंगाबाद) – राजद
औरंगाबाद लोकसभा के सांसद अभय कुमार सिन्हा पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. उन की पहचान क्षेत्र में स्थानीय युवाओं को रोजगार, तकनीकी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा दिलाने से बनी. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में अभय ने बहुत ही रोमांचक मुकाबले में जीत हासिल की. इस चुनाव में अभय ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 79,111 वोटों के अंतर से हरा दिया.
विजय लक्ष्मी (सीवान) – जदयू
सीवान से जदयू सांसद विजय लक्ष्मी की अपने क्षेत्र में एक लग पहचान है. सीवान से सांसद होने के साथसाथ विजय लक्ष्मी पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करती हैं. अपने लोकसभा में उन्होंने महिला स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर काम किया है.
कुर्मी जाति
कौशलेंद्र कुमार (नालंदा) – जदयू
नालंदा सांसद और जदयू नेता कौशलेंद्र कुमार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी माने जाते हैं. कौशलेंद्र राजनीतिक सफर काफी लंबा रहा है, वे चार बार सांसद चुने गए हैं. इस के साथ ही उन्होंने नालंदा में शिक्षा, मैडिकल कालेज, रेलवे कनेक्टिविटी, सिंचाई और कृषि उपकरण उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों पर केंद्रित कार्य किया है. कौशलेंद्र नालंदा को एक मौडल संसदीय क्षेत्र में विकसित करने पर जोर दे रहे हैं.
बिहार में पिछड़ी जाति के ये विधायक बदल रहें हैं राज्य की तस्वीर
यादव जाति
मनोज कुमार यादव (कल्याणपुर) – राजद
बिहार में पिछड़ी जाति से आने वाले कई लोगों ने समाज में बदलाव का कार्य किया है. इन में से के नाम आरजेडी कल्यानपुर विधायक मनोज कुमार यादव है. मनोज ने अपने अपने क्षेत्र में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में कई कदम उठाए हैं. सड़कों के निर्माण और शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने काफी जोर लगाया है, जिस से उन की पहचान जमीन से जुड़े नेता के तौर पर की जाती है.
श्यामबाबू प्रसाद यादव (पिपरा) – भाजपा
भाजपा नेता व पूर्वी चंपारण के पिपरा से विधायक श्यामबाबू अपने क्षेत्र में केंद्र सरकार की योजना पहुंचाने के लिए आने जाते हैं. उन्होंने अपने क्षेत्र में उज्ज्वला योजना, प्रधामंत्री आवास योजना और नल जल जैसे योजनाओं के क्रियान्वयन पर काफी जोर दिया है.
मुकेश कुमार यादव (बाजपट्टी) – राजद
सीतामढ़ी के बाजपट्टी से आरजेडी विधायक मुकेश कुमार की पहचान एक युवा और उर्जावान के नेता के रूप में की जाती है. मुकेश कुमार अपन क्षेत्र में बेरोजगार योवाओं के लिए काम काम कर रहे हैं. इस के साथ ही बिहार विधानसभा में उन्होंने सिंचाई की समस्या को जोरशोर से उठाया. वहीं स्कूलों की स्थिति सुधारने की दिशा में पहल भी की.
ललित कुमार यादव (दरभंगा ग्रामीण) – राजद
आरजेडी नेता और दरभंगा ग्रामीण विधायक ललित कुमार यादव लम्बे से समय से राजनीति में सक्रीय है. ललित यादव ने अपने विस क्षेत्र में ग्रामीण स्वास्थ्य, सड़क निर्माण और जल संसाधन जैसे विषयों पर विशेष रूप से काम किया है. इस के साथ ही गांवों में स्वच्छ जल आपूर्ति कराने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है. ललित कुमार यादव को उन के अनुभव और कार्य शैली की वजह से एक प्रभावशाली नेता के रूप में जाना जाता है.
तेज प्रताप यादव (हसनपुर) – राजद
लालू यादव के बड़े बेटे और आरजेडी के हसनपुर से विधायक तेजप्रताप यादव बिहार के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं. तेजप्रताप बेरोजगारी, स्वच्छता और पर्यावरण के विषयों पर जागरूकता फैलाने का काम करते हैं. तेजप्रताप का कार्यकाल हमेशा से ही विवादों का हिस्सा रहा है, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र में पौधारोपण, रोजगार मेला और ग्रामीण आधारभूत संरचना पर कई काम किए हैं.
कोयरी जाति
अमरजीत कुशवाह (जीरादेई) – सीपीआई (एमएल)
सीवान के जीरादोई से भाकपा (माले) विधायक अमरजीत कुशवाह दलित धिकार उअर भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं. वे किसान आंदोलन और भाकपा (माले) की जनवादी राजनीति का चेहरा माने जाते हैं. अमरजीत को सड़क से सदन तक गरीबों और भूमिहीनों की लड़ाई लड़ने के लिए जाना जाता है. अमरजीत का राजनीतिक संघर्ष जमीनी आंदोलनों और समाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है.
कुर्मी जाति
विजय कुमार सिन्हा (लखीसराय) – भाजपा
भाजपा का वरिष्ठ नेता विजय कुमार सिन्हा लखीसराय से विधायक हैं. उन्हें भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है. वे विधानसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. विजय सिन्हा वर्तमान बिहार सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद भी संभाल रहे हैं. कानून व्यवस्था, महिला सुरक्षा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर विजय सिन्हा हमेशा से जोर देते हुए आए हैं. इस के साथ ही उन्होंने लखीसराय को मौडल जिला बनाने के लिए कई विकास परियोजनाओं की आधारशिला रखी है. विजय सुशासन और पारदर्शिता के हमेशा पक्षधर रहे हैं.