Writer- रोहित और शाहनवाज

पंजाब में सुरक्षा मसले पर घटी घटना को किसी बड़े षड्यंत्र की शक्ल दी जा रही है. लोगों को बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की जान खतरे में थी. सवाल यह है कि क्या सच में प्रधानमंत्री की जान का खतरा था या यह महज राजनीतिक स्टंट था? अतीत में प्रधानमंत्री मोदी की कथनी और करनी बहुतकुछ बताती है.

साल था 2005. वाजपेयी सरकार के हटने के बाद देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए सरकार बनी थी. जवाहरलाल नेहरू की 116वीं जयंती के अवसर पर उस दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जेएनयू परिसर में एक आयोजन में शामिल होने गए थे. वहां उन्होंने जैसे ही भाषण देना शुरू किया तो छात्रों के एक धड़े ने काले झंडे दिखाते हुए उन के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी.

उस समय मनमोहन सिंह छात्रों के इस विरोध से न तो जरा भी बिदके और न ही उखड़े और न ही उन्हें अपनी जान का खतरा महसूस हुआ. कमाल की बात तो यह थी कि विरोध करने वाले छात्रों को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही सभा से निकाला गया, बल्कि प्रधानमंत्री ने अपना भाषण जारी रखा और अपने भाषण में विरोध कर रहे छात्रों से वादा किया, ‘‘आप जो कहते हैं मैं उस से सहमत नहीं हो सकता, लेकिन मैं इसे कहने के आप के अधिकार की रक्षा करूंगा.’’

यह आजाद देश का कोई इकलौता उदाहरण नहीं है जब देश के प्रधानमंत्रियों को इस तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा हो. इंदिरा गांधी को तो अपने समय में सीधेसीधे भारी विरोध झेलने पड़े थे. ऐसे कई उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जिन्हें गिनाना कागज भरने जैसी बात होगी, पर उन सभी में एक बात यह जरूर थी कि किसी ने इन विरोधों से कभी अपनी जान का खतरा नहीं बताया, जैसे हाल ही में पंजाब के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया.

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मसला यह हुआ कि, 5 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी को चुनावी रैली के लिए पंजाब के फिरोजपुर जाना था. मौसम खराब होने के चलते वे आननफानन भटिंडा से सड़कमार्ग के रास्ते 130 किलोमीटर दूर फिरोजपुर के लिए निकल पड़े. करीब 90 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद उन का काफिला फिरोजपुर फ्लाईओवर पर रुक गया. दरअसल, काफिले से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर किसान प्रधानमंत्री का विरोध कर रहे थे, जिस कारण काफिले को रोकना पड़ा. करीब 20 मिनट के इंतजार के बाद जब प्रदर्शनकारी किसान रास्ते से नहीं हटे तो प्रधानमंत्री के काफिले को यूटर्न लेना पड़ा और वापस भटिंडा एअरपोर्ट के लिए रवाना होना पड़ा.

यह किसी भी प्रधानमंत्री के लिए सामान्य घटना सरीखी बात होनी चाहिए, क्योंकि इतने बड़े पद पर विरोध और आलोचनाएं होना स्वाभाविक व आम बातें होती हैं, लेकिन विवाद तब खड़ा हो गया जब प्रधानमंत्री ने भटिंडा एअरपोर्ट के अधिकारी से कहा, ‘‘अपने सीएम को धन्यवाद कहना कि मैं भटिंडा एअरपोर्ट तक जिंदा लौट पाया,’’ जिस का खंडन उन्होंने नहीं किया. इस पूरी घटना को मीडिया द्वारा प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जोड़ कर बढ़ाचढ़ा कर बताया गया.

अब सवाल बनता है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी की जान को सही में खतरा था या यह चुनावों के मद्देनजर सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट था? प्रधानमंत्री को यदि सच में खतरा था तो सुरक्षा देने वाली एजेंसी (एसपीजी) 20 मिनट तक उसी फ्लाईओवर पर फोटोशूट क्यों करवाती रही? वह उसी समय तुरंत उन्हें वापस क्यों नहीं ले गई? सवाल यह कि अगर खतरा था तो एसपीजी के होते हुए भाजपा कार्यकर्ता काफिले के इतने नजदीक कैसे पहुंच गए?

130 किलोमीटर दूर सड़क से चलने का सुझाव आखिर किस का था? क्या दौरा रद्द नहीं करवाया जा सकता था?

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सब से जरूरी बात यह कि प्रधानमंत्री के काफिले को न तो किसी ने सामने आ कर रोका, न काले झंडे दिखाए, न किसी ने कंकड़पत्थर बरसाए, न किसी ने गोलियां चलाईं तो फिर जान का खतरा कैसे? पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी का कहना है कि फिरोजपुर रैली में भीड़ न जुटा पाने के चलते इस तरह की राजनीति की जा रही है. अब इन सभी सवालों के मद्देनजर ही यह घटना संदेह के घेरों में आ जाती है और सब से बड़ा सवाल बनाती है कि क्या मोदी अपनी सुरक्षा का नैरेटिव चला कर जनता को गुमराह कर रहे हैं?

फायरहौज औफ फाल्सहुड

साल 2016 में क्रिस्टोफर पौल और मिरियम मैथ्यूस ने अमेरिका के थिंकटैंक माने जाने वाले आरएएनडी कौर्पोरेशन के लिए एक पेपर लिखा, जिस में उन्होंने रूस में व्लादिमीर पुतिन सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रचार तकनीकों का विश्लेषण किया. उस पेपर का नाम उन्होंने ‘फायरहौज औफ फाल्सहुड’ रखा, जिस का अर्थ हिंदी में ‘असत्य की आग’ है.

इस पेपर में उन्होंने यह बताया कि रूसी मौडल केवल अपनी जनता को झूठ पर विश्वास करने के लिए मजबूर करता है. यह झूठ अकसर इतना स्पष्ट झूठ होता है कि जनता उसे सच मान बैठती है और बेवकूफ बन जाती है. उस पेपर में बताया गया कि रूसी मौडल का वह आइडिया जनता को भ्रमित करता है और उसे पूरी तरह बहका देता है.

इन दोनों लेखकों ने पुतिन के इस प्रचार मौडल की 4 विशेषताओं की पहचान की, जिन में पहला ‘हाई वौल्यूम एंड मल्टी चैनल’ है, जिस का अर्थ ‘किसी झूठ को बारबार अलगअलग माध्यम से जनता के सामने परोसना

है.’ दूसरा, ‘रैपिड कंटीन्यूअस एंड रिपीटीटिव’ है, जिस का अर्थ ‘किसी झूठ को तेजी से और दोहराव के साथ पेश करना ताकि लोग उस झूठ को क्रौस चैक न कर सकें.’ तीसरा, ‘लैक कमिटमैंट टू औब्जैक्टिव रियलिटी’ है, जिस का अर्थ ‘गलत और भ्रामक सूचनाओं को इतनी मजबूती के साथ परोसना कि उस की सत्यता का पता ही न चल सके.’ और चौथा, ‘लैक कमिटमैंट टू कंसिस्टैंसी’ है, जिस का अर्थ ‘यदि कोई झूठी और भ्रामक सूचना एक्सपोज होती है तो इस का असर उस के लीडर पर न पड़े.’

इन दोनों ने इन 4 बिंदुओं के माध्यम से पुतिन के प्रोपगंडा मौडल को समझने का प्रयास किया था, पर देखा जाए तो दुनिया के सभी चरमपंथी नेताओं की कार्यशैली और प्रचार स्टाइल में ये चारों बिंदु फिट बैठते हैं. वे जनता को भ्रमित करने के लिए नएनए नैरेटिव छेड़ते हैं.

मोदी की भ्रामक दौड़

26 मई, 2014 को जब देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन से देश के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शपथ दिलाई, तब अधिकतर भारतीयों के लिए यह दिन किसी बड़े बदलाव से कम नहीं था. इस से पहले के 10 सालों में लोगों ने देश में ऐसे प्रधानमंत्री को देखा था जिसे विरोधियों द्वारा ‘कठपुतली’ और मन ‘मौन’ कहा जाता था. वहीं प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल नरेंद्र मोदी के भाषणों ने जनता पर कुछ अलग ही जादू कर दिया था. उस दौरान अकेले मोदी ने पूरे देश में कुल 437 बड़ी रैलियों, 5,827 सभाओं में जनता से लच्छेदार वादे किए.

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जनता ने नरेंद्र मोदी को उस मसीहा की तरह समझा जो उन के दुखदर्द दूर करने के लिए अवतरित हुआ था. मोदी की पीआर टीम और मीडिया चैनलों ने भी मोदी की छवि को मसीहा के रूप में प्रदर्शित करने का काम किया. टीवी चैनलों, अखबारों इत्यादि पर मोदीमयी विज्ञापन हमेशा छाए रहे. जनता में खुशी थी क्योंकि पिछले 10 सालों के अकाल के बाद लोगों के सूने कानों ने चुंबकीय भाषणों और बड़ेबड़े वादों को सुना था. वह समय देश में सत्ताविरोधी लहर का था.

पर मोदी ने जिस तरह के वादे जनता के बीच किए, 7 साल बाद वे जुमले और झूठ नजर आने लगे हैं. यहां तक कि उन के व्यवहार में इस की बारंबारता देखने को मिलती है. खुद देश के गृहमंत्री अमित शाह ने अपने एक इंटरव्यू में चुनावी वादों को जुमला बताया था. इसी को ले कर सरिता पत्रिका ने मोदी के वादों और भाषणों का संकलन कर आज के हालात से तुलना करते हुए विश्लेषण किया है.

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किसान हताश

हाल ही में एक साल तक चले किसान आंदोलन के बाद देश के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की. उन्होंने संबोधन में कहा, ‘‘शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी, जिस के कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए.’’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वे दीये के प्रकाश जैसे सत्य को कुछ किसानों को समझा नहीं पाए, पर असल में इन कृषि कानूनों की बुनियाद ही बड़े झूठ पर टिकी हुई थी, जिस में किसानों के साथ झूठ और धोखे के अलावा कुछ नहीं था. जिस समय देश लौकडाउन के चलते बंद पड़ा था उस दौरान केंद्र ने बिना किसान यूनियनों की सहमति लिए इन अध्यादेशों को कैबिनैट में पास करा विधेयक का रूप दिया. यह न सिर्फ किसानों को अंधेरे में रखने जैसा था बल्कि किसी जालसाजी से भी कम न था. असल यह कि मोदी सरकार ने किसानों को समझाने की जगह, कानून थोपने का काम किया.

मुद्दा तो यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2016 में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था, पर जमीनी सचाई ठीक उलट है. सचाई यह है कि साल 2012-13 के बाद से किसानों की आय से जुड़ा एनएसएसओ का डाटा उपलब्ध ही नहीं है. साल 2014 और 2019 के बीच कृषि से जुड़ी मजदूरी की दर में गिरावट आई है.

टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज के स्कूल औफ डैवलपमैंट स्टडीज में नाबार्ड के चेयर प्रोफैसर आर रामकुमार मानते हैं कि साल 2016 और 2020 के बीच वास्तव में खेती से जुड़ी आय में बढ़ोतरी के बजाय गिरावट आई है. वे इस के लिए कृषि के खिलाफ व्यापारिक शर्तों में बदलाव और सरकार की तर्कहीन नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं.

2014 में सरकार बनने से पहले भाजपा ने ‘अच्छे दिन’ के नाम से किसानों के लिए कई विज्ञापन चलाए. वे सारे फर्जी साबित हुए. आज किसानों के हालात सब के सामने हैं. केंद्र सरकार द्वारा पास किए गए कृषि कानूनों के विरोध में किसान एक साल से ऊपर राजधानी दिल्ली के बौर्डरों पर रहे पर बजाय उन्हें सुनने के खालिस्तानी, आतंकवादी, देशद्रोही जैसे शब्दों से भाजपा नवाजती रही और प्रधानमंत्री चुपचाप सहमति देते रहे.

महंगाई की मार भारी

जिस दौरान केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, उस समय भाजपा बढ़ती महंगाई को ले कर सरकार पर बहुत हमलावर रहती थी. सोशल मीडिया पर ऐसी फोटो आज भी दिख जाती हैं जब भाजपा के बड़ेबड़े नेता गैस सिलैंडर ले कर सड़कों पर अपने समर्थकों के साथ प्रदर्शन करने उतर जाया करते थे.

नरेंद्र मोदी के शब्द 2014 के पहले 22 नवंबर 2013 के भाषण में- महंगाई बढ़ती गई तो गरीब  खाएगा क्या.प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह) महंगाई का ‘म’ बोलने को भी तैयार नहीं.

देश के सत्ताधारी नेताओं को गरीब की परवा नहीं. हम चुन कर आएंगे तो 100 दिन में महंगाई खत्म करेंगे. परमात्मा के जो आईटी प्रोफैशनल थे उन्होंने मेरे दिमाग में ऐसा सौफ्टवेयर डाला है कि मैं छोटा सोच नहीं सकता.

लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने महंगाई को बड़ा मुद्दा भी बनाया था. उन के नारों और भाषणों में यह बात उन्होंने स्पष्ट की थी कि वे सरकार में आ कर देश से महंगाई को खत्म करेंगे. उन के पोस्टरों में ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार’ जैसी लाइनें जनजन को रटवा दी गई थीं.

आज हालात यह हैं कि प्रधानमंत्री मोदी खुद महंगाई के मसले पर ‘मौन’ हो गए हैं. 100 दिन तो क्या, आज 7 साल हो गए हैं, महंगाई कम होने की जगह बढ़ी है. आज मोदी खुद महंगाई का ‘म’ बोलने को तैयार नहीं हैं, मरो तो मरो, आप का नसीब.

खलिहर युवाओं की फौज

आज हालत यह है कि भाजपा शासन में लाखों ‘खलिहर युवाओं’ की फौज खड़ी हो गई है. सीएमआईई हर दिन के आंकड़े पेश करता है जिस में देश की रोजगार स्थिति ठीक नहीं दिखती है. आइएलओ के आंकड़ों के अनुसार भी भारत की औसत रोजगार दर 47 फीसदी है. हम से नीचे माने जाने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश भी भारत से इस मामले में आगे हैं. पाकिस्तान और श्रीलंका की रोजगार दर कमश: 50 और 51 फीसदी है. जबकि, बंगलादेश में रोजगार दर 57 फीसदी है.

27 अप्रैल, 2019 को प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी में एक प्राइवेट चैनल पर कहते हैं देश में हर साल सवा करोड़ रोजगार बढ़ रहे हैं. जिस साल प्रधानमंत्री बेरोजगारी पर अपनी बात रख रहे थे उसी साल के एनएसएसओ के लीक्ड हुए डाटा के अनुसार देश 45 साल की सब से अधिक बेरोजगारी झेल रहा था. सरकारी नौकरियां लगातार सिकुड़ रही थीं. मसलन, रेलवे, एसएससी की वैकेंसियों में भारी गिरावट आई है. रही बात मीडिया की तो सीएमआईई के हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, मीडिया और प्रकाशन उद्योग में काम करने वालों में से 78 फीसदी लोगों ने अपनी नौकरी खो दी है. सितंबर 2016 में पूरे भारत में मीडिया और प्रकाशन उद्योग से 10.3 लाख से अधिक लोग जुड़े थे. लेकिन अगस्त 2021 में इन की संख्या केवल 2.3 लाख रह गई है.

9 दिसंबर, 2014 को नरेंद्र मोदी झारखंड की इलैक्शन रैली में-

रोजगार आप को आप के प्रदेश में मिलना चाहिए.

कारखानों का जाल बिछे, हर गांव, गली, महल्ले में रोजगार के अवसर पैदा हों.

मोदी ने भाषण में जो कहा वही कर दिया, आज लोग बेरोजगार हो, घर बैठे, रूखीसूखी रोटियां खाने को मजबूर हैं. स्थिति यह है कि जिस मेक इन इंडिया का सपना देश के युवाओं को दिखाया गया, उस पर अब मोदी सरकार बात करने को तैयार नहीं. साल 2014 में सत्ता में आने के बाद देश की जीडीपी लगातार गिरावट में ही दर्ज की गई, जिस कारण विदेशी निवेशकों ने कभी भारत में आ कर निवेश करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. ऐसे ही स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया इत्यादि योजनाओं का क्या हाल हुआ, कितने युवा इस से सफल हुए, कितनों को नौकरी मिली, इस पर पूरी सरकार चुप है.

अर्थव्यवस्था डांवांडोल

19 जून, 2012 को सीरी फोर्ट औडिटोरियम’ में सीए एसोसिएशन की बैठक में मोदी ने कांग्रेस पर गिरती अर्थव्यवस्था और भ्रष्टाचार को ले कर आरोप लगाया था कि डौलर के मुकाबले रुपए गिरना आर्थिक कारणों से नहीं बल्कि भ्रष्ट राजनीति से हुआ है.

देखा जाए तो डौलर के मुकाबले रुपया दोनों सरकारों में गिरा है. मनमोहन का कार्यालय छोड़ते और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पीएम बनते समय एक डौलर के मुकाबले रुपए की कीमत 63 थी, जो 2021 आतेआते गिर कर लगभग  75 रुपए पहुंच गई तो क्या यह मान  लिया जाए कि मौजूदा समय में भी मोदी सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त है? 15 अगस्त, 2019 को अपने दूसरे कार्यकाल में लालकिले के प्राचीर से देश की जनता के सामने दहाड़ते हुए मोदी ने 2025 तक भारत के 5 ट्रिलियन डौलर इकोनौमी बनने की बात कही थी.

प्रधानमंत्री ने 5 ट्रिलियन डौलर इकोनौमी का सपना तो दिखा दिया पर यह नहीं बताया कि इसे वे कैसे पूरा करेंगे, वह भी तब जब डौलर के मुकाबले रुपया और जीडीपी दोनों लगातार गिर रहे हैं. वर्ल्ड बैंक के डाटा के अनुसार, भारत की जीडीपी साल 2014 में 7.41 थी, जो 2020 तक -7.96 दर्ज की गई. हालत यह है कि मिनिस्ट्री औफ फाइनैंस के अनुसार पिछले साल तक देश में फैले कोरोना महामारी के कारण भारत के आर्थिक हालात इतने खराब हो चुके थे कि साल 2019 में भारत का कर्जा 147 लाख करोड़ रुपए से बढ़ कर 194 लाख करोड़ रुपए हो गया. जिस दौरान दुनिया में सभी देशों की अर्थव्यवस्था खतरे में थी, उस के बावजूद उन की जीडीपी का लगभग 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा सरकारी कर्ज का था, लेकिन हमारे देश की जीडीपी का लगभग 75-80 फीसदी हिस्सा कर्जे में था.

जुलाई 2021 को लोकसभा में सरकार से पूछे गए एक सवाल के जवाब में वित्त मंत्रालय ने कहा कि कौर्पोरेट एलीट क्लास के पिछले 4 सालों के 8 लाख करोड़ रुपए के बैडलोन को बट्टे खाते में डाल दिया गया है. इस का अर्थ यह है कि सरकार ने कौर्पोर्रेट एलीट का 8 लाख करोड़ का ऋण माफ कर दिया.

कालाधन आया क्या?

2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के अपने फैसले को सही ठहराते हुए कहा था कि यह नोटबंदी उन लोगों पर नकेल कसने के लिए की गई जिन के पास कालाधन है. कई गोदी चैनलों में नोटों में ट्रैकिंग चिप की झूठी बातें भी फैलाई गईं, पर न तो देश में कालाधन आया और न ही आज तक मोदी यह बता पाए कि नोटबंदी से देश का क्या भला हुआ.

देश का पैसा लूटने वाले चोरलुटेरों को सबक सिखाने की बात करने वाले मोदी आज 7 साल बाद भी किसी पर कार्यवाही नहीं कर पाए. विजय माल्या, नीरव मोदी जैसे भगौड़ों को वापस लाने की कोरी बात तो चलती रही लेकिन आज तक उन्हें देश वापस नहीं ला पाए. ऐसी पनामा और पैंडोरा पेपर जैसी कई रिपोर्टें सामने आती रहीं, जिन में अमीर लोग फर्जी तरीके से अपना टैक्स बचाते पाए गए, पर मोदी सरकार उन पर कार्रवाई तो दूर, बात करने तक को राजी नहीं.

9 जनवरी, 2014 को मोदी ने कहा-  हमारा चोरी किया पैसा विदेश से वापस आना चाहिए, इन पैसों पर जनता का अधिकार है. एक बार विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो लोगों के खातों में 15-20 लाख यों ही आ जाएंगे.

इसी मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए 2 अप्रैल, 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता से अपने भाषण में कहते हैं, ‘‘आप मानते हैं कि विदेशी बैंकों में हिंदुस्तान का कालाधन है? आप मानते हैं कि देश के कुछ चोरलुटेरों ने विदेशी बैंकों में हमारा पैसा गंवा दिया है? दुनिया के किसी भी देश में हिंदुस्तान का पैसा रखा गया है, वह पाईपाई वापस लानी चाहिए कि नहीं लानी चाहिए? भाइयो और बहनो, मैं ने ठान लिया है अगर आप मुझे मौका और आशीर्वाद देंगे तो मैं पाईपाई वापस लाऊंगा.’’ जिस की हकीकत सब के सामने है.

7 अप्रैल, 2014 को भाजपा का मैनिफैस्टो लौंच करते हुए मोदी-

विकास सर्वसमावेशक, विकास सार्वदेशिक विकास सर्वप्रिय हो.

गरीब, शोषित, वंचित, पीडि़त के लिए सरकार एकमात्र सहारा है.

यह सरकार का दायित्व है कि बूढ़े मांबाप को स्वास्थ्य सुविधा दे व वंचित बच्चों को पढ़ाए.

सर्वसमावेशक की हकीकत यह है कि जो मोदी सत्ता में आने से पहले जातिगत जनगणना करवाने के पक्ष में थे, सत्ता में आते ही जातिगत जनगणना करवाने के लिए तैयार नहीं हैं. यहां तक कि दलित, पिछड़ों को भागीदारी देने के नाम पर उन के प्रतिनिधियों को मात्र मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. भाजपा के कार्यकाल में न तो दलितपिछड़ों को सही जगह मिल पाई न ही सत्ता में मुकम्?मल हिस्सेदारी. अधिकतर जगहों पर ऊंची जातियों से आने वाले लोगों को प्राथमिकता दी गई है.

गरीबी की दुहाई

मोदी ने अपने अधिकतर भाषणों में खुद को गरीब बताया, कहा कि वह चाय बेचा करते थे इसलिए वे जनता का दुखदर्द समझते हैं. लेकिन यह बात समझ से बाहर है कि सत्ता में आते ही वे गरीबविरोधी और अमीरहितैषी कैसे बन गए? औक्सफेम 2020 के आंकड़े कहते हैं कि देश में ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल 74 प्रतिशत संपत्ति है. इसे उलटा कर के देखें तो भारत के 90 प्रतिशत लोगों की आबादी देश में मात्र 26 प्रतिशत पर ही अपना हिस्सा रखती है.

विश्व बैंक के आंकड़ों का उपयोग करते हुए प्यू रिसर्च सैंटर ने अनुमान लगाया है कि भारत में गरीबों की संख्या महामारी के कारण केवल एक वर्ष में 6 करोड़ से लगभग दोगुनी से अधिक 13 करोड़ 40 लाख हो गई है. इस का मतलब है कि भारत 45 वर्षों के बाद ‘सामूहिक गरीबी का देश’ कहलाने की स्थिति में वापस आ गया है. इस रिसर्च के अनुसार, भारत में पिछले एक साल में कुल 3.2 करोड़ मध्यवर्गीय लोग गरीबी में जा घुसे हैं.

इस वर्ष औक्स्फेम की वार्षिक रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि दुनिया के 1,000 टौप बिसनैसमैनों ने 9 महीनों के भीतर ही कोरोना वायरस से हुए नुकसान की भरपाई कर ली थी. कोरोनाकाल में जहां टौप अमीरों को वापस अपनी स्थिति में पहुंचने में 9 महीने लगे, वहीं रिपोर्ट के अनुसार, गरीबों को अपनी पुरानी स्थिति में पहुंचने में पूरा एक दशक यानी 10 साल लगने वाले हैं. ऐसे में सवाल यह है कि विकास किस का हो रहा है?

26 दिसंबर, 2014 को वाराणसी दौरे पर प्रधानमंत्री मोदी-

मेरे लिए रेलवे बहुत बड़ी प्राथमिकता है. रेलवे का निजीकरण नहीं होने वाला है. पर आज हकीकत सब के सामने है. रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले मसीहा ने न सिर्फ ट्रेनों, रेलवे स्टेशनों का निजीकरण किया बल्कि पिछले साल  23 अगस्त को एनएमपी के माध्यम से 6 लाख करोड़ की राष्ट्रीय संपत्ति के मूल्य का निर्धारण कर निजी हाथों को सौंप दिया, जिस में ट्रांसमिशन लाइन, टैलिकौम टावर, गैस पाइपलाइन, हवाई अड्डे, यात्री ट्रेन, रेलवे स्टेशन, सडकें, स्टेडियम, बंदरगाह, बिजली इत्यादि शामिल हैं. इस के अलावा सरकारी बैंकों के निजीकरण का मसौदा भी तैयार होता दिखाई दे रहा है.

ये वही नरेंद्र मोदी हैं जो कह रहे थे कि देश को बिकने नहीं दूंगा. इन्हीं का कहना था कि गरीब, शोषित, वंचित, पीडि़त इन सब का एकमात्र सहारा सरकार होती है, फिर ये सरकारी संपत्ति बेच कर किस प्रकार का सहारा गरीबों को देना चाहते हैं?

23 जनवरी, 2014 को इलैक्शन कैंपेन के दौरान नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘हमारी सारी मुसीबतों का कारण गलत दृष्टि रही है. क्यों न हमारे देश में 100 नए शहर बनें, आधुनिक शहर बनें, ‘वाक टू वर्क’ कौंसैप्ट के रूप से बनें, स्मार्ट सिटी बनें. ये स्पैशलाइज्ड सिटी क्यों न बनें? अगर हम चाहें तो हम 100 नए शहरों का सपना आज देश की आवश्यकता के लिए पूरा कर सकते हैं.’’ आज सवाल यह है कि ये स्मार्ट सिटी कहां है? अब क्यों स्मार्ट सिटी पर चर्चा नहीं होती?

स्मार्ट सिटी की असलियत तो यह निकली कि 2014 से 2019 तक सरकार से मात्र 30 प्रतिशत फंड ही स्मार्ट सिटी बनाने के लिए रिलीज किया गया. वहीं, झूठ तो यह भी कि तमाम आंकड़ों के बावजूद चुनाव जीतने के लिए पिछड़ते उत्तर प्रदेश को नंबर वन राज्य बताने में जरा भी जबान नहीं डगमगाई.

आज हालत यह है कि अबूझ विकास तो दूर, हम अपने लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा तक नहीं दे पा रहे हैं. कोरोनाकाल में देशवासी औक्सीजन तक के लिए दरदर भटकते रहे. कइयों की मौत इसी के चलते हो गई. वहीं, लौकडाउन में लाखों प्रवासी मजदूर सैकड़ों मील दूर पैदल चलने को मजबूर हुए.

सामाजिक न्याय खतरे में

3 मई, 2014 को मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट करते हुए कहते हैं, ‘‘हम ने आपातकाल की भयावहता देखी है जब प्रैस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को दबा दिया गया था. यह हमारे लोकतंत्र पर कलंक है.’’

सरकार बन जाने के बाद भी 16 नवंबर, 2017 को ट्वीट करते हुए प्रधानमंत्री मोदी लिखते हैं, ‘‘एक स्वतंत्र प्रैस जीवंत लोकतंत्र की आधारशिला है. हम सभी रूपों में प्रैस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं. 125 करोड़ भारतीयों के कौशल ताकत और रचनात्मकता को प्रदर्शित करने के लिए हमारे मीडिया स्पेस का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए.’’

पर हकीकत इस के ठीक विपरीत है. अपनी बातों में प्रधानमंत्री प्रैस की स्वतंत्रता के पक्षकारी जरूर हैं पर आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. दुनियाभर में प्रैस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बौर्डर्स ने 37 ऐसे राष्ट्रध्यक्षों यानी सुप्रीम नेताओं के नाम प्रकाशित किए जिन्होंने अपने देश में प्रैस को प्रभावित करने का काम किया. इस लिस्ट में मोदी का नाम भी शामिल किया गया है.

इसी वर्ष अप्रैल में वर्ल्ड फ्रीडम इंडैक्स की रिपोर्ट पब्लिश हुई थी. उस के अनुसार, 180 देशों की लिस्ट में भारत शर्मनाक 142वें स्थान पर था जिसे आजाद पत्रकारिता के लिहाज से बेहद खराब माना गया है.

यह खतरनाक बात है कि हाल ही में पैगासस जैसे खतनाक मैलवेयर का इस्तेमाल देश के पत्रकारों, न्यायाधीशों, विपक्षी नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जासूसी करने के आरोप में मोदी सरकार घिरी है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बना कर जांच के आदेश दिए हैं.

कथनी और करनी में अंतर यह बात स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी लोगों के बीच अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहते हैं लेकिन अधिकतर समय उन की कथनी और करनी में भारी अंतरभेद पाया गया है. यह बात समझने के लिए सीधा उदाहरण आधार कार्ड योजना, एफडीआई, जीएसटी इत्यादि पर उन की राय से समझा जा सकता है.

26 सितंबर, 2013 को तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु में बीजेपी यूथ कौन्फ्रैंस को संबोधित करते हुए मोदी ने कांग्रेस द्वारा लाए आधार कार्ड स्कीम का विरोध करते कहा था, ‘‘आप इस प्रकार से किसी के माध्यम से किसी को भी आधार कार्ड देते जाओगे तो हिंदुस्तान में घुसपैठ करने वाले लोगों को बढ़ावा मिलेगा. पड़ोसी देश गैरकानूनी तरीके से हमारे देश में घुस कर इस देश के नागरिक बन जाएंगे.’’ लेकिन वहीं दूसरी ओर जब मोदी सत्ता में आए तो इसी आधार कार्ड की स्कीम को हर जगह अनिवार्य  कर दिया.

ऐसे ही 14 सितंबर, 2012 को गुजरात में एक रैली को संबोधन करते हुए नरेंद्र मोदी ने एफडीआई के संदर्भ में कहा था, ‘‘अगर यह रिटेल के अंदर शतप्रतिशत हो गई और इस प्रकार का मार्केट शुरू होगा तो हिंदुस्तान के छोटे व्यापारी के पास खरीदी करने कौन आएगा? इस से मैन्युफैक्चर सैक्टर को भी गंभीर झटका लगेगा. देश के लाखों गरीब मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे.’’

वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सरकार ने शतप्रतिशत एफडीआई के लिए अपने दरवाजे खोल दिए. जिस जीएसटी का विरोध कर वह सत्ता में पहुंची, सत्ता में आने के बाद उसे जनता पर थोप दिया. क्या अब देश के छोटे व्यापारी बरबाद नहीं हो रहे? क्या अब देश के मैन्युफैक्चर सैक्टर पर इस का असर नहीं पड़ रहा? कई सवाल हैं जिन के जवाब तो दूर, उन्हें चर्चा से ही कोसों दूर कर दिया गया है.

झूठ बोलने को ले कर आज मोदी सोशल मीडिया में युवाओं के निशाने पर हैं. इन 7 सालों में न तो देश की महंगाई कम हुई, न रोजगार बढ़ा, न जीडीपी बढ़ी. जिन चीजों के वादे करते हुए मोदी ने सरकार बनाई थी वे सब मुद्दे धूमिल कर दिए गए हैं. यहां तक कि बहुत बार वे अपने झूठ और अर्धसत्य से विवादों में रहते हैं. कई हलकों में पंजाब में घटित कथित सुरक्षा की चूक को प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक स्टंट बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इस माध्यम से वे चुनावों को मुद्दों से हटा कर मोदी खुद पर केंद्रित करना चाहते हैं. वे पिछले कुछ समय से धूमिल होती अपनी इमेज को फिर से रिगेन करना चाहते हैं.

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