Writer- रोहित और शाहनवाज
पंजाब में सुरक्षा मसले पर घटी घटना को किसी बड़े षड्यंत्र की शक्ल दी जा रही है. लोगों को बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की जान खतरे में थी. सवाल यह है कि क्या सच में प्रधानमंत्री की जान का खतरा था या यह महज राजनीतिक स्टंट था? अतीत में प्रधानमंत्री मोदी की कथनी और करनी बहुतकुछ बताती है.
साल था 2005. वाजपेयी सरकार के हटने के बाद देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए सरकार बनी थी. जवाहरलाल नेहरू की 116वीं जयंती के अवसर पर उस दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जेएनयू परिसर में एक आयोजन में शामिल होने गए थे. वहां उन्होंने जैसे ही भाषण देना शुरू किया तो छात्रों के एक धड़े ने काले झंडे दिखाते हुए उन के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी.
उस समय मनमोहन सिंह छात्रों के इस विरोध से न तो जरा भी बिदके और न ही उखड़े और न ही उन्हें अपनी जान का खतरा महसूस हुआ. कमाल की बात तो यह थी कि विरोध करने वाले छात्रों को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही सभा से निकाला गया, बल्कि प्रधानमंत्री ने अपना भाषण जारी रखा और अपने भाषण में विरोध कर रहे छात्रों से वादा किया, ‘‘आप जो कहते हैं मैं उस से सहमत नहीं हो सकता, लेकिन मैं इसे कहने के आप के अधिकार की रक्षा करूंगा.’’
यह आजाद देश का कोई इकलौता उदाहरण नहीं है जब देश के प्रधानमंत्रियों को इस तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा हो. इंदिरा गांधी को तो अपने समय में सीधेसीधे भारी विरोध झेलने पड़े थे. ऐसे कई उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जिन्हें गिनाना कागज भरने जैसी बात होगी, पर उन सभी में एक बात यह जरूर थी कि किसी ने इन विरोधों से कभी अपनी जान का खतरा नहीं बताया, जैसे हाल ही में पंजाब के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया.
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