लेखक- रोहित

देश के असंगठित मजदूर इलाकों के इर्दगिर्द बसी झुग्गी बस्तियों में ऐसी असंख्य घरेलु कामगार महिलाएंहैं, जो अनौपचारिक तौर पर उद्योगों का काम परपीस रेट के हिसाब से अपने घरोंमें ही किया करती हैं. किन्तु पिछले एक वर्ष से कोरोना और फिर लौकडाउन के चलते मचे हाहाकार में उन का यह कामधंधा भी बुरी तरह सेचौपट हो चुका है. इन महिलाओं की पहले थोड़ी बहुत जो कमाई घर पर रह कर हो जायाकरती थी उस पर गहरी मार पड़ी है, उद्योग धंधे जर्जर हुए पड़े हैं, बाजारों से माल सप्लाई नहीं हो रहा है और घर के पुरुषों की नौकरियां छूटी हुई हैं.अब यह मजदूर परिवार पाईपाई को मुहताज हो चुकेहैं. पहले से बदहाल हुई स्थिति और भी बदहाल हो चुकी है. अधिकतर घरपरिवारों मेंआय का कोई साधन नहीं है. अपनी पुरानी बचत के आधार पर ही वह इस समय खर्चों को वहन कर रहे हैं. इसी को ले कर सरिता टीम ने दिल्ली के स्लम इलाकों में घरेलु कामगार महिलाओं से बात की.

35 वर्षीय आशिया बानो सेन्ट्रल दिल्ली के आनंद पर्बत औद्योगिक इलाके के नजदीक बसे गुलशन चौक स्लम में रहती हैं. 1 कमरे का ईंटों का कच्चा मकान है, जो लगभग 20 गज का है.उन का यह घर नेहरु नगर की संकरी गलियों से हो कर उंचाई पर गुलशन चौक पर है. इस मकान को भी 2 साल पहले भारी कर्जा ले कर बनाया था जिस का भुगतान तो दूर अब ब्याज ही चुकाए नहीं बन रहा है. उसी मकान में आशिया अपने पति मो. असलम (40) और 5 बच्चों के साथ रहती हैं. मो. असलम रामा रोड, आनंद पर्बत, टेंक रोड, नारायणा इत्यादिइंडस्ट्रियल इलाकों में सामान लोडर का काम करते थे.जहां से 8-9 हजार महीना कमाई हो जाया करती थी, किन्तु उन का काम कोरोना के दूसरे फेज के चलते दिल्ली में लगे कर्फ्यू के चलते बंद हो गया है. बमुश्किल ही उन का खर्चा चल पा रहा है. घर पर बीड़ीतम्बाकू की छोटी सी दुकान तो है लेकिन वह भी खाली समय काटने भर की है.

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आशिया बानो घर पर पिछले 8 सालों से फोन चार्जर केट्रांसमीटर बोर्ड बनाने का काम करती हैं, किन्तु इस महामारी में यह काम भी बंद पड़ा है. काम बंद होने के चलते खर्चों में भारी कटोती आ गई है. चीजें नापतौल कर खरीदी जा रही हैं.आशिया कहती हैं, “मैं चार्जर के ट्रांसमीटरबनातीथी. जिसे गोल्डी (ठेकेदार) से लाती थी. हमें एक फौम मिलता था जिस पर 10 बोर्ड होते हैं. ठेकेदार हमें एक बार में 100 बोर्ड पकड़ा देता था. जिस में 1000 ट्रांसमीटर बोर्ड होते हैं. जिस का 300 रूपए बन जाता था.पूरा परिवार लग कर काम करता था तो 2 दिन में 1000 पीस निकाल लेते हैं.” सरल भाषा में यह कि आशिया बानो को 300 रूपए कमाने के लिए पूरे परिवार के साथ 15 घंटे काम करना पड़ता है. यानि अगर परिवार पुरे महीने समेत लग के काम किया तो ढाई से 3 हजार रूपए जुटा लेती थीं. लेकिन डूबते को तिनके का सहारा भी उन के पास नहीं है.

चार्जर बोर्ड में कई तरह की माइनर वायर, और हुक लगाने होते हैं, जो किसी भी लिहाज से बारीक तकनीकी काम में गिना जा सकता है. आशिया बानो के मुताबिक जिस गली में वह रहती हैं वहां खूब सारी महिलाएं इस काम को करती थी. वे सारी महिलाएं इस काम में इतनी कुशल हैं कि एक पीस भी खराब नहीं करती हैं क्योंकि अगर एक पीस भी खराब निकलेगा तो ठेकेदार पैसे देने में आनाकानी करने लगेगा. इस की कुशलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां इस काम को करने वाले परिवारों में 8-8 साल के छोटेछोटे बच्चे तक यह काम बड़ी बारीकी से कर लेते हैं.

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दरअसल भारत का औद्योगिक ढांचा कई परतों में खुलता है और इस का स्तरीकरण इतना गहरा है कि बहुत बार देश के अर्थशास्त्रियों की पहुंच उस गहराई तक नहीं जा पाती है. टाटा, बिरला,अदानी, मित्तल, हौंडा, मारुती, जिंदलजैसे नामी पूंजीपतियों के बड़ेबड़े प्लांटों में बनने वाले उत्पादों का ना जाने कौन सा हिस्सा कैसे छोटे उद्योगों से होते हुए किसी मजदूर बस्ती में रहने वाली ज्योति या असीम बेगम के आठ बाई आठ के कमरे तक जा पहुंचा है यह पता लगाना देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण खोज का बिषय है. यह स्तरीकरण इतना परत दर परत है कि आला दर्जों के उद्योगपतियों को यह शायद ही एहसासहो कि उन के निजी मुनाफे और उस से पनपतेश्रम की लूट किस प्रकार देश के सब से निचले पायदान में रहने वाले गरीब मजदूरों पर असर डालती है.

स्थिति यह कि अतिरिक्त श्रम की लूट के बावजूद मजदूर घरों की महिलाएं पाईपाई जुटाने के लिए रातदिन यह काम करने को मजबूर रहती हैं. आशिया कहती हैं, “पेट पालने के लिए कुछ ना से तो कुछ हां सही होता है. जब यह काम था तो घर के छोटेमोटे खर्चे इस से निकल जाया करते थे. राशन पानी, कपड़ा लत्ता, साग सब्जी लाते थे. मुझे उन (असलम) से मांगने की जरुरत नहीं होती थी.अब वह भी कमाई नहीं हो पा रही है. लौकडाउन के चलते फक्ट्रियां बंद पड़ी हैं. जो थोड़ा बहुत माल आता था वह भी रुका हुआ है.”

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आशिया बानो के ठीक अगली गली में 44 वर्षीय संतोषी तिवारी रहती हैं.संतोषी के मकान के फ्रंट दीवार पर ‘आप’ पार्टी का बड़ा पोस्टर तो पहुंच गया है लेकिन मूलभूत सुविधा जैसे पानी, सीवर लाइन, सड़क वहां तक नहीं पहुंच पाई है. संतोषी फिलहाल एकाकी महिला का जीवन जी रही है. 10 साल पहले उन के पति उन्हें छोड़ पटेल नगर की तरफ किराए के कमरे में शिफ्ट हुए. शायद यही कारण भी रहा कि इस एकाकीपना और समाज के तानों ने संतोषी के व्यक्तित्व में दबंगपना भर दिया. वह दूसरों के लिए अक्खड़ हुई और तेजतर्रार भी.दुखद यह किपति के साथ सम्बन्ध ना रहने के बावजूद भी पति के साथ बंधे रहने कीमूल वहज पौराणिक तानेबाने की बनावट और झूठी संस्कृति बचाने की जिद है.वह अपनी जाति के बने नियमकानूनों को इस की वजह बताती हैं. उन का मानना है कि वह ब्राह्मण जाति से है तो विधवा या तलाकशुदा की तरह जीवन जीना उस की जाति की इज्जत के लिए ठीक नहीं.

संतोषी दूसरे फेज के कोरोना से पहले तक घरेलु महिलाओं को माल सप्लाई करने का काम करती थी. उन का काम जींस में ब्रांडेड टेग जैसे लिवाएस, प्यूमा, मुफ्ती इत्यादि को लगाना था. वह खुद ठेकेदार भी थीं और घरेलु कामगार भी. आनंद पर्बत के इंडस्ट्रियल बेल्ट में कई फैक्ट्रियां उन के संपर्क में थीं जो उन के घर पर जींस के गठ्ठे रख जाया करते थे. उन का काम उस में धागे काटने और ब्रांडेड टेग लगाने का था. वहीँ उन्ही के घर पर आ कर कई आसपास की महिलाएं उन से माल उठाती और अपने घर ले कर जाती.

संतोषी बताती हैं, “मुझे फैक्ट्री से 1000 जींस में टेग लगाने के 60 रूपए मिलते थे और मैं आगे महिलाओं को 50 रूपए देती थी. इस काम में मेरा 10 रूपए कमीशन बनता था. कुल मिलाकर मैं इस काम से महीना 6-7 हजार रूपए कमा लेती थी.” संतोषी इस काम को महिलाओं के लिए ठीक मानती हैं. लेकिन अपने काम के कम दाम से वह खासा नाराज भी थीं. उन्होंने कहा,“घर पर टेग बनाने से हम औरतों का खाली टाइम कट जाता है और दो पैसा भी जोड़ लेते हैं.लेकिन यकीन मानो फैक्ट्री मलिकों को इस से खूब फायदा होता है. घर में माल सप्लाई कर वे ढेर सारे लोगों को सस्ते में बांध लेते हैं. इस एक काम के लिए उन्हेंकम से कम 7 हजार महिना तनख्वाह में लेबर रखनापड़ता,परवे हम से सिर्फ1000-1500 रूपए में काम करवा रहेहैं.”

वह आगे कहती हैं, “जिस काम को हम कर रहे हैं, इसी की जगह उसे लेबर लगाने होते तो मालिक का कितना खर्च आता. उसे कई लेबर लगाने होते, उन्हें तनख्वाह देनी होती, उन पर सरकारी कानून (मजदूर कानून) चलता. लेकिन यहां चिल्लरों के भाव काम करवा रहा है.   दिक्कत यह है की हम कह नहीं पा रहे हैं कि दम कर है क्योंकि हम कहेंगे तो हमारे जैसे 365 घर और हैं जहां का चूल्हा नहीं जल पा रहा.”

भारत में नई आर्थिक व्यवस्था के बाद पूंजीवाद ने जिस तीव्र गति से अपने पैर फैलाए उस से मुठ्ठीभरपूंजीपतियों के हाथों एकाधिकार तो आया साथ ही इस एकाधिकार के साथ जो चीज बहुत तेजी से बदली वह बड़ी मात्रा में असंगठित औद्योगिक मजदूर क्षेत्रों का व्यवस्थित तौर परपनपना था.यह कहनाअति है कि इस व्यवस्था ने लोगों कोव्यापार के असीम अवसर प्रदान कर दिए बल्कि यह कहना ज्यादा उचित है किदेश में यही असंगठित क्षेत्र अप्रत्यक्ष तौर पर इन्ही बड़े पूंजीपतियों के परिचालक, प्रबंधक या संचालक बन करउभरे, जहां इन का स्वतंत्र वजूद तो रहा किन्तु इन्ही छोटे उद्योगों के माध्यम से बड़ेबड़े उद्योगों ने‘बससे ले कर मेट्रो’ तक के महीन से महीन और समय खर्चीलेवाले कामइन से सस्ते दामों पर बनवाए और मुनाफा कमाया.

किन्तु बात यहां इन्ही से जन्मे उस अनौपचारिक हिस्से की है जिन का नाम कहीं किसी दर्ज उद्योग में दर्ज नहीं हो पाता है. जो काम बड़े से ले कर छोटे उद्योगों के लिए करते हैं. बड़े उद्योगों से छोटे उद्योगों को मिले ठेके और फिर छोटेछोटे उद्योगों से घरघर में पहुंचाए काम इस के दायरे में आते हैं. बड़ेबड़े शौपिंग मौल में बिकने वाले चिप्सकुरकुरे के भीतर डाले गए छोटे लुभाऊ खिलौने, जींस की काज व टैग, चार्जर का बोर्ड जैक पौइंट, बाइक केक्लच रबर, क्लैम्प, क्लिप,हेयर रबर, कोल्ड्रिंक बोतल के ढक्कन के भीतर लगे फोम, मोमबत्ती, लिफाफेबनाने का काम इत्यदि इन्ही मजदूर घरों के भीतर बन कर तैयार हो रहे हैं.

दिल्ली के नेपाली बस्ती में रहने वाली 32 वर्षीय ज्योति 2014 में दिल्ली आ गई थीं. वह 1 कमरे के किराए के मकान में अपने पति संतोष चौधरी और 3 बच्चों संग रह रही है. पिछले साल से 3000 रूपए किराए का कमरा जेब पर भारी पड़ने लगा है. संतोष चौधरी ध्याड़ी पर काम करते हैं तो कमाई का कभी कोई हिसाब लग नहीं पाता. बच्चे हैं जो अभी छोटी कक्षाओं में पढ़ाई कर रहे हैं. इतनी कम उम्र के बावजूदतंगहाली और गरीबी से ज्योति के चेहरे का नूर मानो छिन सा गया हो.

ज्योति दिल्ली कर्फ्यू से पहले दीवारों में लगने वाली ‘क्लैम्प’ बनाने का काम घर पर किया करती थी. जिस में बहुत बार क्लैम्प की कील अंगूठे में धंस जाती थी. ज्योति रामा रोड के औद्योगिक इलाके में भी काम करती थीं जो पिछले साल के लौकडाउन के बाद ही छूट गया था,उस दौरान उस की तनख्वाह5600 रूपए थी. शाम को फैक्ट्री से काम कर वह देर रात तक बच्चों के साथ माल बनाने का काम करती, जिस पर उसे 1000 से 1500 रूपए तक कमाई होती. किन्तु पीछे दिनों से बढ़ते कोरोना के चलते उस का यह काम धंधा भी उजड़ा गया है. फीस केपैसे ना होने के चलते बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई है.

वह कहती हैं, “महंगाई दुनिया भर की है. खाएंगे क्या?सरकार ने कुछ किया ही नहीं. ना हमारे पास राशन कार्ड है, मजदूर कार्ड. हमें कोई लाभ किसी से नहीं मिल रहा. सरकार जो कागजों में सुविधा की बात कर रही है वह हमारे को नहीं मिल रहा.पिछली बार हम गांव निकल गए थे लेकिन इस बार निकलने तक के पैसे नहीं है. जैसे ही जुगाड़ हो गया तो हम भी बिहारसीतामणिनिकल लेंगे.”

इसी प्रकार उन के ठीक सामने सायनाज बेगम भी यही क्लैम्प लगाने का काम कर रही थी. पिछले वर्ष लौकडाउन में उन के पति, जो दरजी हैं, परिवार से दूर गांव में फंस गए. जिस के चलते सायनाज बच्चों के साथ दिल्ली में अकेली रही. उस समय मरकज का मामला चलने के बावजूद पूरे महल्ले वालों ने सायनाज की मदद की. उस के राशन पानी का बन्दोबस्त किया. सायनाज का मानना है किघर में इस तरह के काम करने में अधिक फायदा नहीं होता. ऊपर से एक बार इसे घर ले आओ तो बच्चों को भी इस में लगाना पड़ता है. चाहे वे खेलना चाह रहे हो उस समय जोरजबरदस्ती कर उन से भी काम निकलवाना पड़ जाता है, जो मुझे ठीक नहीं लगता. वह कहती हैं,“इस काम में फायदा कुछ नहीं है. क्लैम्प में कील डालना होता था जिस के लिए 100 में 22 रूपए देते थे. कील उंगलियों में घुस जाती थी, एक बार मेरी बेटी के लग गई तो हम ने काम छोड़ दिया. फिर कुछ और शुरू किया जैसे रिब्बन से फूल बनाना, पैकिंग, टौर्च में सेल डालना लेकिन कमाई इतनी कम की छोड़ना पड़ा.अब पड़ोस के घरों में चली जाती हूं तो साथ साथ में ऐसे ही बना लेती हूं उन की मदद के लिए और मेरा टाइम पास भी हो जाता है.” उन का मानना है कि सरकार को लौकडाउन नहीं लगाना चाहिए था. इस के कारण कई लोगों पर भूखे मरने की नौबत आ पड़ी है.

आज देश में स्थिति इतनी गंभीर है कि लोगों के सामने आगे कुआं पीछे खाई वाली बात है. अगर वे बाहर काम के लिए निकलते हैं तो कोरोना का खतरा है और अगर घर पर रुकते हैं तो भूख से मरने का खतरा. यह खतरा सब से अधिक मजदूर व गरीब परिवारों पर आ पड़ी है. जिस के लिए दोनों ही तरफ मौत साजोसामान ले कर तैयार बैठी है. इस दौरान ज्यादातर घरों के भीतर काम करने वाली महिलाएं यही सोच रही हैं कि अगर घर में बैठ कर माल बनाने का काम फिर से नसीब हो पाए तो घर का थोडा बहुत खर्च चल सके.

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