Justice Gavai Controversy: उन्होंने एक नहीं बल्कि एकसाथ दो तीन गुनाह जानेअनजाने में कर दिए हैं या हो गए हैं फर्क कर पाना मुश्किल है. पहला तो यह कि सवर्णों के आराध्य विष्णु की बेजान मूर्ति की हकीकत उधेड़ कर रख दी कि वह सिर्फ पत्थर से बनी एक आकृति होती है. उस में कोई शक्ति नहीं होती. यह हकीकत सीधे कही जाए या इशारों में कही जाए आजकल किसी गुनाह या गुस्ताखी से कम नहीं होती.
दूसरे उन्होंने कानूनी तौर पर यह जता दिया कि प्राण प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक कर्मकांडों से संविधान और कानून को कोई लेना देना नहीं. अदालतें इंसाफ के लिए हैं पूजापाठ की दुकानदारी चलाने और चमकाने के लिए नहीं और तीसरा गुनाह जो इन दोनों से ज्यादा संगीन है वह यह है कि वे सवर्णों के संविधान मनुस्मृति के मुताबिक शूद्र यानी दलित हैं और बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं जिस का इस मुकदमे या विवाद और दो टूक फैसले से कोई प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष संबंध नहीं इस के बाद भी उन्हें बेवजह एक साजिश और खीझ खिसियाहट के तहत विवाद में घसीटा जा रहा है.
कट्टरवादी हिंदुओं की तिलमिलाहट की वजह बनते इस मुकदमे पर एक नजर डालें तो तरस आता है कि धर्म के दुकानदारों ने कानून और अदालतों का मजाक बना कर रख दिया है. यह मुकदमा उस की ही बानगी है. राकेश दलाल नाम के एक शख्स ने 16 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दाखिल की जिस का सार यह है कि –
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल खजुराहो के जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की एक 7 फीट ऊंची मूर्ति है. लेकिन उस का सर नहीं है, इस सर को 17 वीं शताब्दी में मुगल हमलावरों ने काट दिया था. बकौल याची यह मूर्ति केवल पुरातात्विक वस्तु नहीं बल्कि आस्था का केंद्र है. इसलिए संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत हिंदू समुदाय को अपने देवता की मूर्ति की पूजा और प्राण प्रतिष्ठा का अधिकार है.
यहां तक दिक्कत, झंझट, एतराज या विवाद वाली कोई बात नहीं थी लेकिन राकेश दलाल ने सुप्रीम कोर्ट से चाहा यह कि वह एएसआई को निर्देश दे कि मूर्ति को पुनर्स्थापित किया जाए. यदि यह संभव न हो तो कम से कम प्राण प्रतिष्ठा की अनुमति दी जाए ताकि श्रद्धालु वहां धार्मिक रूप से पूजापाठ कर सकें.
इस की सुनवाई सीजेआई बीआर गवई और जस्टिस केबी विश्वनाथ की बेंच ने की. अपने फैसले में जस्टिस गवई ने कहा संरक्षित स्मारक में नया धार्मिक अनुष्ठान या मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा या मरम्मत भी कानूनन वर्जित है. प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम 1958 की धाराएं 19 और 20 इस की अनुमति नहीं देतीं. पूजा अर्चना की अनुमति देना या मूर्ति स्थापित कराना न्यायपालिका का विषय नहीं. अलावा इस के चूंकि यह मंदिर यूनेस्को की लिस्ट में राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय विश्व धरोहर है इसलिए भारत की यह प्रतिबद्धता है कि वह इन धरोहरों को मूल रूप में संरक्षित रखे. इसलिए भी न्यायपालिका इस तरह की अनुमति नहीं दे सकती, बकौल सुप्रीम कोर्ट यह एक प्रचार पाने वाली याचिका है.
अपनी कानूनी बेबसी के साथ जस्टिस गवई ने मूर्ति की बेबसी भी यह कहते जता दी कि यदि आप विष्णु के प्रबल भक्त हैं तो प्रार्थना और ध्यान करें और अपने देवता से कहिए कि वो खुद कुछ करें. बात में दम इस लिहाज से था कि मूर्तियां अपनी रक्षा खुद नहीं कर पातीं. उन्हें तगड़ी सिक्योरिटी में रखा जाता है. अगर मूर्तियों में कोई शक्ति होती तो किसी मुगल आक्रांता की हिम्मत नहीं होती कि वह उन्हें तोड़ेफोड़े या खंडित करे. इस लिहाज से जस्टिस गवई ने एक सटीक बात कही थी.
ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानने वाले भक्तों का यह सनातनी दावा है कि उस की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता जो ऐसे मामलों से गलत साबित हो जाता है जिन में लोग या हमलावर इत्मीनान से मूर्तियां तोड़ते हैं चोरी करते हैं, उन की तस्करी करते हैं और मूर्ति बेचारी कुछ नहीं कर पाती. हां मूर्ति की बड़ी उपयोगिता दान दक्षिणा झटकने में है जो भी मंदिर जाता है वह कुछ पैसे जरूर चढ़ाता है जो हकीकत में पंडेपुजारी समेटते हैं.
चूंकि हिंदू धर्म में खंडित मूर्ति की पूजा की मनाही है इसलिए अखंडित मूर्तियों के जरिये पंडेपुजारी अपना पेट और परिवार पालते हैं. यह बिना लागत वाला फुल टाइम रोजगार है. जिन लोगों को ओ माई गोड और पीके फिल्में याद हैं वे आसानी से समझ सकते हैं कि मूर्ति के जरिये कैसे बैठे बिठाए पैसा कमाया जाता है.
फैसला रौशनी में आते ही सनातनियों ने जस्टिस गवई को निशाने पर ले लिया. उन की जन्मकुंडली खंगालने पर इन भक्तों को ज्ञान प्राप्त हुआ कि उन्होंने यह फैसला और कमेंट इसलिए दिया कि वे दलित हैं और एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ करती बात यह है कि वे आंबेडकरवादी हैं. उन के पिता आरजी गवई ने साल 1956 में डाक्टर भीमराव आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया था.
आरजी गवई भी अपने दौर के कामयाब वकील थे और राजनीति में भी सक्रिय रहते थे. उन की गिनती रिपब्लिकन पार्टी औफ इंडिया के दिग्गज नेताओं में होती थी. ज्यादा नहीं कुछ साल पहले यानी 2008 से 2011 तक वे केरल के राज्यपाल थे. बिहार के भी प्रभारी राज्यपाल वे रह चुके थे. इस के पहले वे विधायक और राज्यसभा के सांसद भी चुने गए थे.
इसी वजह के चलते सनातनियों ने जम कर जस्टिस गवई को ट्रोल किया और उन के कमेंट को धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताया. विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि यह टिप्पणी हिंदू आस्थाओं का मजाक उड़ाती हुई है. अदालतें न्याय का मंदिर हैं वहां ऐसी टिप्पणियां नहीं की जानी चाहिए. एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने जस्टिस गवई की टिप्पणी को हिंदू भावनाओं को आहत करने वाला बताया. लेकिन कोर्ट को ही कटघरे में यह कहते खड़ा कर दिया कि यह हिंदू धर्म के प्रति न्यायिक संवेदनशीलता की कमी को दर्शाती है.
मीडिया जिसे भक्त और गोदी मीडिया कहा जाता है ने सीधे तो आरोप नहीं लगाया लेकिन अधिकतर की राय यह थी कि कानूनन तो फैसला ठीक है लेकिन इंसाफ की सब से बड़ी कुर्सी पर बैठे गवई को धर्म के बारे में ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी. तो कैसी टिप्पणी उन्हें करनी चाहिए थी क्या यह निर्देश उन्हें या किसी को भी उन मीडिया घरानों और मीडियाकर्मियों से लेने पड़ेंगे जिन की खुद की कोई विश्वसनीयता और मौलिकता नहीं रही.
देश धर्मस्थलों और मूर्तियों का देश बनता जा रहा है. धार्मिक होता माहौल किसी सबूत का मोहताज नहीं. ऐसे में अगर लोग बातबात पर कोर्ट जाने लगें तो लम्बित मामलों की तादाद करोड़ों में पहुंचते देर नहीं लगेगी. हर कोई मुंह उठा कर अदालत पहुंच जाएगा कि मी लार्ड हमारे महल्ले के मंदिर की खंडित मूर्ति अखंडित में तब्दील करने सरकारी निकायों और विभागों को आदेश निर्देश जारी किए जाएं ताकि हम विधि विधान से पूजा पाठ कर सकें.
देश में धर्म स्थलों और मूर्तियों की भरमार है अरबोंखरबों की नाजायजजायज जमीनों पर मंदिर मसजिद चर्च गुरूद्वारे खड़े हैं. इन की कोई उपयोगिता या रिटर्न नहीं है. बेहतर तो यह होगा कि इन की जगह अस्पताल स्कूल और धर्मशालाएं बना दी जाएं जिस से न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. Justice Gavai Controversy