बुढ़ापा ऐसी अवस्था होती है जब सब से ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है. बचपन में तो देखभाल सब करते हैं लेकिन बुढ़ापे में अकसर बुजुर्गों की सेवा, किसी भी कारणवश, करने को कोई नहीं होता. इस समस्या का समाधान जरूरी है. 65 साल के मशहूर वकील हरीश साल्वे ने 38 साल वैवाहिक जीवन बिताने के बाद पत्नी मीनाक्षी साल्वे से तलाक ले कर अपनी ब्रिटिश दोस्त 56 साल की कैरोलिन के साथ दूसरी शादी कर ली. अगर वे भारत में रह रहे होते, तो उन के लिए सामाजिक रूप से यह संभव नहीं होता. वहीं, कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी को समाज ने स्वीकार नहीं किया और उन का राजनीतिक जीवन हाशिए पर चला गया.
विदेशों में रिटायरमैंट की उम्र में शादी कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती, पर भारत में अकेले बुजुर्ग के लिए सुख से जीना आसानी से संभव नहीं होता. यहां माना जाता है कि बुजुर्गों को गृहस्थ जीवन त्याग देना चाहिए. आधुनिकता के बाद भी अकेले बुजुर्ग के लिए सुख से जीना आसान नहीं है. बुजुर्गों की संख्या पूरी दुनिया में बढ़ रही है. विदेशों में उन के अधिकारों और सुखसुविधाओं का ध्यान रखा जाता है. भारत में अभी भी यह माना जाता है कि रिटायरमैंट के बाद बुजुर्ग को अपने शौक त्याग कर खुद को सीमित कर लेना चाहिए. अकेलापन सुख के साथ जीना अच्छा है, इस के बाद भी बुढ़ापे के अकेलेपन में जोखिम बहुत होते हैं. हमारे देश में समाज और सरकार यह मानती है कि बुजुर्गों को किसी चीज की जरूरत नहीं होती. उन को सबकुछ त्याग कर अपने मरने का इंतजार करना चाहिए.
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धार्मिक ग्रंथों में भी यह बताया जाता है कि बुजुर्गों को माया, मोह और गृहस्थ जीवन त्याग कर धार्मिक यात्रा पर चले जाना चाहिए. महिला बुजुर्गों को तो काशी, मथुरा जैसे शहरों में बने विधवा आश्रमों में छोड़ दिया जाता था. आज हालात भले ही बदल गए हों, पर सोच नहीं बदली है. इसी वजह से बुजुर्गों का सुख से जीवन व्यतीत करना तमाम तरह की आलोचनाओं का भी शिकार बनाता है. फिल्मी नहीं होती हर कहानी फिल्म ‘बागबान’ में बुजुर्गों की परेशानियों को परदे पर दिखाया गया था. फिल्मी परदे पर परेशानी का सुखद अंत भी हो गया था. बुजुर्गों की ये परेशानियां हर दूसरेतीसरे घर की कहानियां बन चुकी हैं. सब का सुखद अंत नहीं होता. आने वाले सालों में जिस तेजी से बुजुर्गों की संख्या देश में बढ़ रही है और समाज का तानाबाना बदल रहा है, उस में बुजुर्गों का भविष्य एक बडे़ मुद्दे के रूप में सामने है. समझने वाली बात यह है कि सरकार और समाज दोनों ही इस मुद्दे पर बात करने से बचते हैं.
सामाजिक शुचिता के कारण बुजुर्गों की अनदेखी को कोई परिवार स्वीकार नहीं कर पा रहा है. साल 2050 तक देश के सामने सब से बड़ी परेशानी बुजुर्गों की होगी. जो लोग अपने बुढ़ापे का सही तरह से इंतजाम कर लेते हैं, वे सुख से जीते हैं. इस के बाद भी बुजुर्गों के अकेलेपन में जोखिम कम नहीं हैं. भारत के बुजुर्गों में 60 से 70 साल की उम्र के लोगों की तादाद सब से ज्यादा है. कुछ सालों में 60 साल से ज्यादा उम्र के लोगों की आबादी बड़ी है. यह तादाद 10 करोड़ मानी जा रही है. साल 2050 तक कुल आबादी का चौथाई हिस्सा बुजुर्ग लोगों का होगा. इन में शहर और खासकर महानगरों में रहने वाले लोग ज्यादा हैं. शहरों में बच्चे मांबाप को अपनी सुविधानुसार रहने के लिए बुला तो लेते हैं, पर उन्हें समय नहीं दे पाते. भारत में यह समस्या तेजी से पांव पसार रही है. भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों में बुजुर्ग अकेलेपन के शिकार हैं. 125 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत में 47.49 फीसदी आबादी बुजुर्गों की है.
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शहरी क्षेत्रों में अकेले रहने वाले बुजुर्ग ज्यादा हैं. इन की तादाद 64.3 फीसदी है. इस के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में अकेलेपन के शिकार बुजुर्गों की तादाद 39.19 फीसदी पाई गई. 10 हजार ग्रामीण बुजुर्गों में से 3,910 बुजुर्गों ने बताया कि वे अकेले रहने को विवश हैं. भारत में बुजुर्गों के साथ व्यवहार शर्मनाक है. एक स्टडी में 4,615 बुजुर्गों को शामिल किया गया. इस में 2,377 पुरुष और 2,238 महिलाएं थीं. 44 फीसदी ने माना कि उन के साथ सार्वजनिक तौर पर गलत व्यवहार किया जाता है. 55 फीसदी बुजुर्ग मानते हैं कि भारतीय समाज में बुजुर्गों के साथ भेदभाव होता है. अकेलापन होता है जोखिमभरा बाराबंकी जिले के थाना मोहम्मदपुर खाला इलाके के गांव बड़नापुर के रहने वाले राजकुमार गुजरात में रहते थे. उन के पौत्र यानी बेटे के बेटे का मुंडन संस्कार था. मुंडन संस्कार में छोटे बच्चों के सिर के बाल पहली बार कटवाएं जाते हैं. इस मौके पर दावत का इंतजाम किया जाता है. गांव और नातेरिश्तेदार इस में शामिल होते हैं. राजकुमार अपने बेटे दिनेश के साथ गुजरात में नौकरी करते थे. 80 साल की उम्र में भी वे काफी ऐक्टिव थे.
22 मार्च को वे बेटे दिनेश के साथ बाराबंकी आए. यहां परिवार के बाकी लोग रहते थे. गांव में उन के 2 घर थे. वे अपने घर में अकेले रहते थे. मार्च में जब वे आए थे, तब प्रदेश में कोरोना का खतरा तेजी पर था. ऐसे में उन को अलग घर में अकेले रहना पड़ा. बेटा दिनेश अपने परिवार के साथ दूसरे मकान में रह रहा था. प्रशासन द्वारा होम क्वारंटाइन किए जाने के बाद से गांव के लोग उधर जाते ही नहीं थे. कभीकभी राशन और दूसरे जरूरी सामान लेते समय गांव के लोग उन्हें देख लेते थे. परिवार के लोग भी कभीकभी ही जाते थे. गांव की ‘आशा बहू’ 4 अप्रैल को नोटिस चस्पां करने उन के घर गई थी. इस दौरान उन्हें किसी अनहोनी की भनक भी नहीं थी. अपने जिद्दी स्वभाव के कारण राजकुमार अपना खाना भी खुद ही बनाते थे. वे दमे के मरीज थे. घर में अकेले रहते हुए उन की मौत हो गई. मौत के 4-5 दिनों बाद घरपरिवार और गांव के लोगों को पता चला. इस दौरान उन के शरीर पर कीड़े इस कदर थे कि वे दीवारों पर भी रेंगने लगे थे. दिल्लीमुंबई जैसे बडे़ शहरों में ऐसी घटनाएं कई बार सामने आती हैं. गांव और छोटे शहरों में ऐसी घटनाएं अकेलेपन की परेशानियों की तरफ ध्यान दिलाती हैं. अलीगढ़ जिले के टप्पल मुहल्लागंज में रहने वाले वीरपाल शर्मा, पुत्र ननुआ शर्मा, उम्र 55 साल अपने घर के आंगन में अकेले सो रहे थे. वीरपाल शर्मा के एक लड़का रामू व एक लड़की कविता है. कविता की शादी हो चुकी है. वह अपने ससुराल में थी व लड़का रामू अपने पिता की बूआ के पास गांव सलेमपुर गया था. घर पर वीरपाल शर्मा अकेले रहते थे. घर के सामने वाली गली में पड़ोस में ही रहने वाला पवन, पुत्र ओमप्रकाश शर्मा उन के घर सुबह पहुंचा और चौखट की लकड़ी से वीरपाल के सिर पर वार कर दिया, जिस से वीरपाल की मौके पर ही मौत हो गई.
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सुबह जब चचेरा भाई कल्लू जाग कर वीरपाल के घर पहुंचा, तो वीरपाल को मरा देख कर दंग रह गया. सूचना पुलिस कंट्रोलरूम को दी गई. पुलिस वहां पहुंची और जांचपड़ताल करने लगी. तभी पवन पुलिस को देख डर गया. अपने घर में रोशनदान में दुपट्टा डाल कर उस ने फांसी लगा ली. पुलिस पवन के घर पहुंची, लेकिन तब तक पवन की मौत हो चुकी थी. पुलिस ने दोनों शवों को कब्जे में ले कर पोस्टमार्टम के लिए अलीगढ़ भेज दिया. मृतक पवन की पत्नी पिंकी व 2 बेटियां पूर्वी 6 साल की व रेखा 4 साल की हैं. पवन के पिता ओमप्रकाश अपनी दूसरी पत्नी के साथ मुंबई में रहते हैं. ओमप्रकाश ने 2 शादियां की थीं. पहली पत्नी मर गई थी, जिस का बेटा पवन था. पवन पूरी तरह से पागल था. घर वालों ने उस का ठीक से इलाज नहीं कराया था. जो बुजुर्ग अपने परिजनों के साथ रहते हैं, वे भी सुरक्षित नहीं हैं. भोपाल के अयोध्या नगर इलाके में स्थित सी सैक्टर के एमआईजी 43 में रहने वाले 80 वर्षीय अंजली लाल मिश्रा की लाश पुलिस ने उन के घर से बरामद की. उन के शरीर पर किसी प्रकार की चोट के निशान नहीं थे. वे अकेले ही रहते थे. डाक्टरों ने मौत के लिए हार्टअटैक की आशंका जाहिर की. अयोध्या नगर थाने के एएसआई बी एल रघुवंशी ने बताया कि अंजली लाल मिश्रा भेल यानी बीएचईएल से सेवानिवृत्त थे. पत्नी की मृत्यु के बाद वे इस मकान में अकेले ही रहते थे. पड़ोसियों को जब उन के मकान से अजीब तरह की दुर्गंध आनी शुरू हुई, तब इस की सूचना पुलिस को दी गई. पुलिस ने मकान का दरवाजा तोड़ कर पलंग पर पडे़ बुजुर्ग का शव बरामद किया. अंजली लाल मिश्रा के बच्चे नहीं थे. एक रिश्तेदार खंडवा में मंदिर के पुजारी हैं. उन की बहन के 2 बेटे भोपाल में ही रहते हैं. मौत की जानकारी मिलने पर वे आए.
अलगअलग शहरों की ये घटनाएं बताती हैं कि समाज में अकेले जीना कितना मुश्किल और जोखिमभरा होता है. बीमारी का कारण क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट आकांक्षा जैन कहती हैं, ‘‘बुजुर्गों में अकेलापन बीमारी का कारण बनता है. उन की मानसिक हालत इस बात पर निर्भर करती है कि वे अपने परिवार और दोस्तों में कितना मिलते हैं. यह हमारी सेहत को काफी प्रभावित करता है. अकेलापन किसी को मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी बीमार कर देता है. ‘‘गांव और शहर में लाइफस्टाइल जितना आधुनिक हो रहा है, बुजुर्गों के लिए परेशानियां उतनी ही बढ़ रही हैं. बच्चे बेहतर भविष्य की तलाश में देश से बाहर चले जाते हैं. कुछ समय बाद उन का घर लौटने का कोई इरादा भी नहीं रहता है. ऐसे में बुजुर्गों को सब से बड़ी समस्या अपनी सुरक्षा को ले कर होती है.’’ वे कहती हैं, ‘‘बदलती सामाजिक व्यवस्था के कारण और जहां परिवार छोटे होते हैं, बुजुर्गों का महत्त्व कम हुआ है. जो बुजुर्ग कभी परिवार का महत्त्वपूर्ण अंग होते थे, जिन से नई पीढ़ी संस्कृति और मूल्यों का पाठ सीखती थी, वे दिन अब दूर होते जा रहे हैं. बच्चे टीवी व मोबाइल में उलझे रहते हैं और पतिपत्नी को अपनी जौब से समय नहीं मिलता. केवल मध्यवर्गीय परिवार ही नहीं, संपन्न परिवारों की भी यही हालत है. गांव और शहर का भी कोई भेद नहीं रह गया है.
गांवों में दिखावे और सामाजिक दबाव के लिए बुजुर्गों को भले ही साथ रखा जाता हो, पर भेदभाव वहां भी कम नहीं होता है.’’ खराब हालत में हैं वृद्धाश्रम विदेशों में वृद्धाश्रम बुजुर्गों की देखभाल का काम करते हैं. भारत में वृद्धाश्रम कम हैं. जो हैं भी, उन की हालत बेहद खराब है. ऐसे में वे भी बुजुर्गों की मदद नहीं कर पा रहे हैं. भारत में 1,000 से अधिक वृद्धाश्रम हैं. कुछ वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों के मुफ्त ठहरने की व्यवस्था है. भारत में न तो परिवार के लोग बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में रखना चाहते हैं और न ही बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहना चाहते हैं. कुछ सर्वे बताते हैं कि 85 फीसदी बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में रहना अच्छा नहीं लगता. भारत में विदेशों के मुकाबले बुजुर्गों की हालत ज्यादा खराब है. यहां सुव्यवस्थित व्यवस्था नहीं है. इस की वजह से बुजुर्गों की परेशनियां अलग हैं. संजोगिता महाजन मैमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष अनुराग महाजन कहते हैं, ‘‘भारत में बुजुर्गों की सुरक्षा को ले कर बने कानून कागजों पर तगडे़ दिखते हैं. पर हकीकत में ये कमजोर हैं. पुलिस और प्रशासन इन कानूनों को ले कर सजग और जिम्मेदार नहीं हैं. बच्चे बुजुर्गों का अपमान करते हैं. उन के अधिकार नहीं देते. इस की शिकायत कहां की जाए, जहां सहूलियत के साथ अधिकारों की रक्षा हो सके. कोर्ट से मदद मिलती है, पर वह प्रक्रिया बहुत लंबी है. बुजुर्ग कैसे अपने अधिकारों की रक्षा करें, इस का कोई सरल तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है.’’
कई देशों में रिटायरमैंट के साथ ही बुजुर्गों को घरों पर ही वे तमाम सहूलियतें दे दी जाती हैं, जो उन की सुरक्षा के लिए जरूरी हैं. बुजुर्गों को पुलिस केंद्रों से फोन के जरिए हर मदद तत्काल मिलती है. विदेशों में ऐसा कानून भी है कि अगर बच्चे अपने मातापिता की अनदेखी करते हैं, तो बुजुर्ग मातापिता बच्चों पर केस कर सकते हैं. भारत में यह अधिकार केवल किताबी बातें भर है. भारत की स्थिति में सब से ज्यादा जरूरी यह है कि युवा अपने बडे़बुजुर्गों का पूरा ध्यान रखें, उन्हें सम्मान दें. परेशानी है आर्थिक कमजोरी भारत में बुजुर्गों की खराब हालत का सब से बड़ा कारण आर्थिक कमजोरी है. यहां के बुजुर्गों के पास अपनी आय के सीमित साधन हैं. कुछ के पास जमीनजायदाद होती है और कुछ के पास रिटायरमैंट के बाद मिलने वाली पैंशन. बुजुर्गों के सामने सब से बड़ी समस्या पैसों की आती है, क्योंकि उन्होंने अपने जीवनभर की कमाई परिवार पर खर्च कर दी होती है. अब उन के पास जमापूंजी रहती भी है तो बहुत सीमित मात्रा में. इस तरह वे आर्थिक रूप से कमजोर हो जाते हैं. लेकिन खर्चे दिनप्रतिदिन बढ़ते जाते हैं. बच्चों का बेरोजगार रहना, उन की शादी का खर्च, अपनी बीमारी वगैरह के खर्च जब उन के सामने आते हैं, तो वे उन को मानसिक रूप से तनावग्रस्त कर देते हैं.
पैसों की कमी से बुजुर्ग अच्छे अस्पताल में इलाज नहीं करा पाते. शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उन को दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. अगर एकाध वृद्ध आर्थिकरूप से मजबूत होता है तो भी उन को पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. बुजुर्गों का अस्वस्थ रहना तो स्वाभाविक ही है. जब वे स्वस्थ नहीं होते हैं, तो समाज के लोगों के साथ मिलजुल नहीं सकते और न ही हंसबोल सकते हैं. इस तरह समाज के लोगों के साथ उन का संपर्क कट जाता है. शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान होने के कारण उन की विचारधारा, पसंद, दृष्टिकोण में बदलाव आ जाता है. इस के चलते उन में चिड़चिड़ापन आ जाता है. परिवार में उन के संबंध अच्छे नहीं बने रह पाते हैं. संयुक्त परिवारों के टूटने यानी विघटन और एकल परिवारों के चलन ने इस समस्या को और बढ़ावा दिया है. –शैलेंद्र सिंह