पैंतालीस वर्षीया नंदिनी चिल्लापैय्या आज पूरी तरह अकेला और नास्तिक जीवन बिता रही है, लेकिन बेहद खुश है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त महिला हैं. उनके माँ बाप हैदराबाद में रहते हैं और वो दिल्ली में अकेली रहती हैं. एक समाजसेवी संस्थान के लिए काम करती हैं. अच्छे पद पर हैं, अच्छा कमाती हैं और मनमाफिक खर्च करती हैं. उनकी जिंदगी पर अब किसी की रोकटोक नहीं चलती. कोई बंधन अब उनकी स्वतन्त्रता को नहीं बाँध सकता. आज़ाद पंछी की तरह वह जब चाहे जहाँ चाहे उड़ती फिरती हैं. वह कई देशों की यात्राएं कर चुकी हैं. उनके पास दोस्तों की लम्बी फेहरिस्त है. जिनके साथ अक्सर वीकेंड पर खाना-घूमना होता है. नंदिनी जीवन को एन्जॉय कर रही हैं. वह सुबह उठ कर जॉगिंग-एक्सरसाइज करती हैं. मनचाहा ब्रेकफास्ट बना कर खाती हैं. पांच साल पहले तक वो शाकाहारी थीं, लेकिन अब मांस, मछली, अंडा सब खाती हैं और सोचती हैं कि ये स्वादिष्ट चीज़ें उन्होंने बचपन से क्यों नहीं खाईं? दिन में ऑफिस का काम करती हैं और शाम को शॉपिंग, फिल्म, दोस्तों के साथ कॉफ़ी वगैरा में समय बिताती हैं. अंग्रेज़ी फ़िल्में देखने का शौक है तो अक्सर देर रात लैपटॉप पर मनपसंद फ़िल्में भी देखती हैं.

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लेकिन पांच साल पहले तक यही नंदिनी धर्म, रीतिरिवाजों, पूजा-व्रतों, दान-दक्षिणाओं, धार्मिक यात्राओं में अपनी ज़िन्दगी तबाह किये हुए थी. माँ बाप के दबाव में और ये सोच कर कि इन सब कर्म-कांडों से उन्हें अच्छा घर-वर मिलेगा और उनकी ज़िन्दगी सुख से बीतेगी. दक्षिण भारतीय तेलगू ब्राह्मण परिवार में जन्मी नंदिनी ने बचपन में संघ के स्कूल में शिक्षा पायी थी. फ़ालतू के कड़े अनुशासन में रही. माँ बाप दोनों घोर पूजापाठी थे लिहाज़ा नंदिनी घर में धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, हवन आदि देखते हुए ही बड़ी हुई थी. उसकी माँ का हर दिन कोई ना कोई व्रत-अनुष्ठान चलता रहता था. ज़रूरत से ज़्यादा व्रत रखने के चक्कर में वह सूख के काँटा हो चुकी थी, मगर व्रत नहीं छूटते थे. मज़े की बात ये थी कि सारे व्रत उसकी माँ के हिस्से में ही थे, पिता को उसने कभी व्रत रखते नहीं देखा. कभी-कभी नंदिनी माँ से कहती कि इतने व्रत ना रखे मगर वह भगवान् और पिता का डर दिखाती. धार्मिक कार्य ना करने पर नरक में जाने का उसको बड़ा डर था. ये डर माँ के अंदर उनके माता-पिता, सास-ससुर, पति और मंदिर के महंत ने डाला था. माँ ने भी नंदिनी को भी वही सब सिखाया जो उसको उसके बड़ों ने सिखाया था. वह नंदिनी को बिलकुल अपने जैसा बनाना चाहती थी, ताकि कोई उसकी परवरिश पर उंगली ना उठाये. जाड़ा हो या गर्मी नंदिनी सुबह चार बजे उठ कर नहाती और पूजा घर से लेकर आँगन तक पानी से धोती थी. फिर दूर-दूर तक जाकर पूजा के लिए फूल इकट्ठे करती थी. सात बजे तक पिता के उठने से पहले ही वह माँ के साथ मिल कर पूजा की सारी तैयारियां कर लेती थी. पिता बस नहा-धो कर आते और पूजा करने बैठ जाते. घंटा भर उनकी पूजा चलती थी. धूपबत्ती के कारण पूरा घर धुएं से भर जाता था. इसी धुएं के कारण बाद में माँ को अस्थमा की तकलीफ भी हो गयी, लेकिन पिता धूपबत्ती जलाने से बाज़ ना आये.

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नंदिनी के माँ-बाप बेहद अंधविश्वासी और टोनों-टोटकों पर विश्वास करने वाले लोग थे. आज नंदिनी उन पुरानी बातों को सोचती है तो उसको दुःख भी होता है और हंसी भी आती है कि क्यों उस वक़्त वह माँ की कही बातों पर विश्वास करके वैसा ही करती थी, जैसा वह करवाना चाहती थी. बातें छोटी-छोटी थीं, लेकिन बेवकूफियों से भरी हुई थीं. जैसे रोटी बनाने के बाद गर्म तवे पर पानी मत डालो वरना सास से झगड़ा रहेगा. झाड़ू को घर में खड़ा करके मत रखों वरना लक्ष्मी घर से चली जाएगी. शनिवार को नाखून और बाल मत काटो. सोमवार और वीरवार का व्रत ज़रूर करो अच्छा पति मिलेगा. कभी रास्ते में हिजड़ा दिख जाए तो उसको कुछ पैसा दानस्वरूप अवश्य दो क्योंकि उसका आशीर्वाद हर मनोकामना पूरी कर जीवन को सुखी बना देता है. कोई पूछे कि रास्ते में भीख मांगने वाला हिजड़ा, जिसका खुद का जीवन बर्बाद है उसका आशीर्वाद भला किसी दूसरे के जीवन को क्या सुखी बनाएगा? लेकिन नंदिनी की माँ इन बातों और आस्थाओं पर कोई सवाल नहीं चाहती थी. तब तो नंदिनी का दिमाग भी कुंद था और वो कोई सवाल उठाये बिना वह सब करती थी जो उसके माँ पिता कहते थे.

ये तो अच्छा हुआ कि नंदिनी उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली आ गयी और यहाँ कई साल पढ़ने, दूसरे धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के संपर्क में आने और फिर एक समाज सेवी संस्था में काम करने के दौरान उसके आचरण, व्यवहार, आस्था में काफी परिवर्तन हुए. ये परिवर्तन हालांकि बहुत धीमी गति से हुए. कोई ढाई दशक लंबा वक़्त लग गया नंदिनी को अंधकूप से बाहर आने में. और इन ढाई दशकों में उसके जीवन ने बहुत से उतार-चढ़ाव भी देखे. आस्थाओं को बिखरते देखा. विश्वासों को टूटते देखा.

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हालाँकि शुरू के कई सालों तक उसके माँ-बाप उससे मिलने दिल्ली आते रहे और उसके किराय के फ्लैट में उसके साथ रहे. जब वे आते तो नंदिनी का फ्लैट बिलकुल मंदिर का रूप बन जाता था. सुबह-शाम धूपबत्ती का गहरा धुंआ उसके फ्लैट की खिड़की से निकलता दिखता, घंटी का शोर देर तक सुनाई देता. वह नंदिनी पर इस बात का दबाव रखते कि वह नियम से व्रत-पूजा अवश्य करे. नंदिनी ने अपने घर के एक कमरे में छोटा सा मंदिर बना रखा था, जहाँ बैठ कर वह माँ के दिए धर्म ग्रन्थ भी कभी-कभी पढ़ती थी. व्रत आदि भी करती थी. रास्ते में हिजड़ा दिख जाए तो कुछ रुपयों का दान भी अवश्य देती थी, लेकिन दिल्ली में रहते हुए ये कार्य थोड़े कम हो गए थे.

इसी दौरान माँ बाप के दबाव में उसने एक तेलगू ब्राह्मण व्यक्ति से विवाह कर लिया, जबकि दिल्ली में रह रहे और उसके साथ काम करने वाले कई लोग उसको काफी पसंद करते थे. वह खुद अपने सहकर्मी अर्जुन रंधावा के प्रति काफी आकर्षित थी. मगर अर्जुन ना तो तेलगु ब्राह्मण था और ना ही पूजा-पाठ में विश्वास करता था. उसके बारे में नंदिनी ने अपने माँ बाप से जिक्र तक नहीं किया. क्योंकि उसको मालूम था कि गैर ब्राह्मण से उसकी शादी के लिए वह राजी ही नहीं होंगे. नंदिनी का पहला प्यार उसके अंदर ही मर गया. माँ बाप की पसंद के तेलगु ब्राह्मण लड़के से शादी करने के बाद उन्हें पता चला कि वह एक झूठा, बेरोज़गार और कपटी आदमी है. जिसने सिर्फ नंदिनी की हर महीने होने वाली अच्छी आय और दहेज़ की लालच में शादी की थी. नंदिनी और उसके परिवार पर वज्रपात हुआ. नंदिनी तीन दिन में ही ससुराल से मायके लौट आयी और कुछ ही दिन में वापस दिल्ली आकर अपने काम में व्यस्त हो गयी. यहाँ एक वकील से बात करके उसने जल्दी ही उस झूठे और बदमाश व्यक्ति से तलाक लेकर छुटकारा पा लिया.

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तलाक के बाद ही नंदिनी के जीवन में अचानक परिवर्तन हुआ और धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों की जो भारी गठरी वह बचपन से अपने सिर पर ढोती आ रही थी, उसने एकाएक उतार कर फेंक दी. उसने माँ-बाप से सीधा सवाल किया – मेरे हर सोमवार को व्रत करने का क्या नतीजा निकला? बचपन से हिजड़े को दान दे रही हूँ, खूब आशीर्वाद मिला उनसे मगर मेरा जीवन स्वर्ग हुआ क्या? तुम लोगों के कहने पर तेलगू ब्राह्मण से शादी की, कितना धूर्त और धोखेबाज़ निकला वह…. इससे तो बेहतर था कि मैं किसी जानने वाले उत्तर भारतीय व्यक्ति से शादी कर लेती. कितने लड़के थे जो मुझसे शादी करना चाहते थे, जो अच्छे घरों के थे, अच्छी नौकरियां कर रहे थे, लेकिन मैं तुम लोगों के कहने पर धर्म के घेरे में बंधी रही. क्या मिला मुझे?

नंदिनी बागी हो गयी. सब रीतिरिवाज़, अनुष्ठान, परम्पराएं गटर में डाल कर नास्तिक बन गयी. अब वह खुश है. दुःख उसको सिर्फ इस बात का है कि उसकी ऑंखें काफी देर से खुलीं. अगर पहले ही वह अपने पोंगा-पंथी माँ-बाप की दी गयी नसीहतों को नकार देती और अच्छा लड़का देख कर अपनी पसंद से शादी कर लेती तो शायद अन्य सहेलियों की तरह उसका भी एक परिवार होता, बच्चे होते.

नंदिनी के विपरीत हुमैरा ज़्यादा मजबूत निकली. अलीगढ के एक नामी खान परिवार की बेटी हुमैरा दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत है. उच्च शिक्षा ने उसके दिल-दिमाग के बंद कपाट जल्दी ही खोल दिए थे. घर से बगावत करके वह घर के रीतिरिवाजों के विपरीत काम करने दिल्ली आई थी. इसमें उसकी माँ ने उसका काफी सहयोग किया था और वो शायद इसलिए कि वह नहीं चाहती थी कि जिस तरह पढ़ी लिखी होने के बाद भी वह परदे में सारी उम्र घुटती रही, उसकी बेटी भी वही सब सहे. हुमैरा नहीं चाहती थी कि अलीगढ में रहते हुए किसी मुल्लानुमा व्यक्ति से उसकी शादी हो जाए और उसकी सारी पढ़ाई लिखाई मिट्टी में मिल जाए. जीवन भर बुर्के में लिपटे रहना, रोज़ा-नमाज़ और बच्चों की परवरिश में अपनी पूरी जवानी बर्बाद कर देना उसको हरगिज़ मंजूर नहीं था. बाप और भाइयों से लड़ कर वह दिल्ली आयी थी. वह काबिल थी, मेहनती थी, जल्दी ही तरक्की पा कर अच्छी पोस्ट पर भी पहुंच गयी. धर्म की बंदिशों से ऊपर उठ कर उसने अपनी पसंद के हिन्दू लड़के से स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत कोर्टमैरिज  की. अब उनके दो प्यारे बच्चे हैं. दिल्ली में अपना घर है. हुमैरा खुश है कि वह अपने परिवार की बंदिशों को तोड़ कर अपनी ज़िन्दगी वैसी जी रही है जैसा वह चाहती थी.

आज की पीढ़ी हालांकि पहले की दो पीढ़ियों की अपेक्षा बहुत ज़्यादा मुखर है. अपनी पसंद को प्रमुखता देती है. शिक्षा का गाँव-गाँव तक प्रसार होने से और इंटरनेट के घर-घर पहुंचने से भी काफी बदलाव समाज में आया है, लेकिन वर्तमान में संघ और भाजपा द्वारा जिस तरह छद्म हिंदुत्व का भौकाल रचा जा रहा है और जिस तरह धर्म, पूजा पाठ, मंदिर, आरती, व्रत, आयुर्वेद आदि अवैज्ञानिक बातों का महिमामंडन किया जा रहा है, वह देश के युवाओं के विकास में बाधा, तर्क और विज्ञानं की राह में अवरोध पैदा कर उन्हें पुरानी परम्पराओं में बंधे रहने को मजबूर करने की सियासी साजिश है. ये लोग जनता को लकीर का फ़कीर बनाये रखना चाहते हैं. सदियों पुरानी सड़ी गली धार्मिक मान्यताओं और अतार्किक बातों में ही समाज को उलझाए रखना चाहते हैं. आज देश भर में ऐसे कानून समाज पर थोपने के षड्यंत्र हो रहे हैं ताकि युवा अपनी पसंद से अपना जीवनसाथी तक ना चुन सकें. लड़कियों को उनके ही धर्म में शादी करने के लिए मजबूर करने के लिए गिरफ्तारियों का डर दिखाया जा रहा है. हिन्दू राष्ट्र बनाने का अलाप चल रहा है ताकि पुजारियों-महंतों, मुल्लाओं की दुकानें चलती रहें. कर्मकांड चलते रहें. आडम्बर और चढ़ावों में किसी तरह की कमी ना आये. इन्ही आडम्बरों के नीचे अंधविश्वास, यंत्र-तंत्र और टोने-टोटके करने वालों के धंधे भी पनपते रहें. जनता इन धार्मिक क्रियाकलापों में ही उलझी रहे और बेरोज़गारी, तरक्की, शिक्षा, विकास की बातें कोई ना उठाये.

जो समझदार हैं वो इन सियासी चालों के भुलावे में नहीं हैं. वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला रहे हैं. वह लोन लेकर हायर एजुकेशन के लिए उन्हें विदेश भेज रहे हैं. मगर देश में लाखों ऐसे माँ बाप हैं जो अधिक फीस के कारण अपने बच्चों को स्कूल भले ना भेजें, मगर धर्म के नाम पर हज़ारों रूपए खर्च करने को तैयार हैं. ऐसे लोग अपने बच्चो के भविष्य के साथ धोखा करके उन्हें धर्मवीर बना रहे हैं. वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए सस्ता सा लैपटॉप खरीद कर नहीं देंगे मगर पंडित के कहने पर हवन-पूजन और ब्राहमण भोज में हज़ारों रूपए खर्च कर देंगे. वे अपनी बेटी के लिए गैरधर्मी मगर उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छी नौकरी वाला वर नहीं चाहेंगे, बल्कि धर्म की बेड़ियों में जकड़ कर उसे किसी सधर्मी बेरोज़गार, शराबी, नकारा के साथ बाँधने में गुरेज़ नहीं करेंगे. ऐसे में अब किशोरों और युवाओं को खुद तय करना होगा कि उन्हें कैसी ज़िंदगी चाहिए. उन्हें तय करना है कि अपने अच्छे भविष्य के लिए उन्हें कब अपने घर में बगावत करनी है. अन्याय के खिलाफ खड़े होने का हौसला अपने अंदर पैदा करना है. तरक्की में बाधा बन रही दीवारों को खुद ढहाना होगा. धार्मिक बंधनों और कर्म-कांडों के बोझ से कैसे मुक्ति मिले इसका रास्ता उन्हें खुद निकालना होगा.

 

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