जरूरत से ज्यादा बो झ और कर्मचारियों की भारी कमी के चलते उत्तर प्रदेश की जेलें रसूख वाले लोगों के लिए आरामगाह जबकि सामाजिक व आर्थिक तौर पर पिछड़े विचाराधीन कैदियों के लिए नरक सी बन गई हैं.

10 अगस्त, 2020 को लखनऊ जिला जेल के सर्कल नंबर 3 और हाता नंबर 11 व 15 के कैदियों को एंटी एलर्जी टेबलेट सिट्रीजन दिए जाने का फैसला लिया गया था. अस्पताल में तैनात फार्मेसिस्ट आशीष वर्मा ने सिट्रीजन टेबलेट की जगह पर मानसिक अस्वस्थता में दी जाने वाली हेलोपैरिडाल दवा कैदियों को दे दी. हेलोपैरिडाल दवा उन मरीजों को दी जाती है जिन को ज्यादा गुस्सा आता है. यह हाईपावर वाली होती है.

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गलत दवा खाने के बाद कैदियों के शरीर में ऐंठन शुरू हो गई. कुछ कैदियों में दर्द इतना बढ गया कि वे दर्द से चीखने लगे. 22 कैदियों को घबराहट और शरीर में कंपकंपी होने लगी. कैदियों को जेल अस्पताल में भरती किया गया. जेल प्रशासन ने 12 घंटे तक इस घटना को दबाने का काम किया. जब 6 कैदियों की हालत बिगड़ने लगी, तब घटना की खबर जेल की चारदीवारी से बाहर आई. जेल के जिम्मेदार लोगों ने चुप्पी तोड़ी तो मामला बाहर आया.

ऐसी घटनाएं किसी भी जेल में कभी भी घट सकती हैं. जेल में जितने कैदी हैं, उस के अनुपात में वहां स्वास्थ्य की देखभाल के लिए डाक्टर और दूसरे कर्मी नहीं हैं. लखनऊ जिला जेल में 3,540 कैदी हैं. इस जेल की क्षमता 3,500 कैदियों की है. इन के इलाज के लिए जेल में 4 डाक्टरों की नियुक्ति का नियम है. यहां पर केवल एक ही डाक्टर नियुक्त है. वही डाक्टर 24 घंटे की डयूटी पर रहता है. जेल नियम कहते हैं कि डाक्टर से 6 घंटे की नियमित और 2 घंटे की औनकौल डयूटी ली जा सकती है.

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ऐसे में यह सम झा जा सकता है कि एक डाक्टर 24 घंटे कैसे अपनी डयूटी दे सकता है. डाक्टर केवल नए कैदियों के स्वास्थ्य परीक्षण का नियमित काम करता है. इस के बाद वह जरूरत पड़ने पर कैदियों को देखने आता है. डाक्टर की अनुपस्थिति में फार्मेसिस्ट ही दवाओं के वितरण का काम करता है. जिस की लापरवाही के कारण ऐसा हादसा हो गया. इस घटना से यह सम झा जा सकता है कि जेलों में कैदियों की हालत कितनी बुरी है.

लखनऊ जिला जेल का दूसरा मामला देखें तो और भी गंभीर हालत का पता चलता है. जिला जेल में अमन उर्फ गोपी को 17 सितंबर, 2018 को लाया गया था. गोपी इस से पहले भी जेल में रह चुका था. उस समय उस पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप लगा था. उस आरोप में वह 10 साल जेल में रह कर जमानत पर छूटा था. 2 साल पहले 2018 में दूसरी हत्या के आरोप में उस को पकड़ कर जेल भेजा गया था. गोपी के परिवार में पिता के अलावा 7 भाई हैं. कभीकभी उस से मिलने परिवार के लोग आते थे. फरवरी माह में एक भाई उस से मिलने जेल आया था. गोपी स्वभाव से गुस्सैल और झगड़ालू था. 21 जुलाई, 2020 को गोपी के खाने की लाइन में लगने को ले कर हुआ विवाद मारपीट तक पहुंच गया. उस ने दूसरे कैदी को थाली से पीटा जिस में खुद भी घायल हो गया था. उसे अस्पताल में भरती किया गया. 24 अगस्त को उसे जेल बैरक में वापस भेज दिया गया था.

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गोपी जेल में खुद को दबंग सम झता था. ऐसे में उस का दूसरे कैदियों व जेल के कर्मचारियों से भी झगड़ा होता रहता था. गोपी नशेबाजी और जुआ खेलने का आदी था. जेल के अंदर भी कैदी यह करते हैं. 26 अगस्त को गोपी का दूसरे कैदियों के साथ झगड़ा हुआ. तब उसे दूसरे कैदियों ने बुरी तरह से पीटा. जिस के बाद जेल प्रशासन ने गोपी को तनहाई बैरक में रखने का फैसला किया. तनहाई बैरक में एक ही कैदी रखा जाता है. तनहाई बैरक में कुख्यात और सिरफिरे बंदियों को रखा जाता है. बैरक में बंदियों की विशेष निगरानी होती है. यहां पर अंगोछा, बैल्ट या शरीर को नुकसान पहुंचाने वाली कोई दूसरी चीज नहीं रखी जाती.

27 अगस्त को 42 साल के गोपी ने तनहाई बैरक में अंगोछा से फंदा बना कर फांसी लगा ली. सवाल उठता है कि तनहाई बैरक में गोपी को अंगोछा कैसे मिल गया? जब तनहाई बैरक की निगरानी होती है तो वहां कैदी के फांसी लगाने की जानकारी किसी को कैसे नहीं हो पाई? असल में जेल में कैदियों की मनमानी चलती है. जेल प्रशासन केवल मामलों को छिपाने और उस पर लीपापोती करने का काम करता है. कैदी आपस में अपनी दबंगई को बनाए रखने के लिए झगड़ा व मारपीट करते हैं. सो, कभीकभी ऐसे हादसे हो जाते हैं.

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प्रताड़नाघर है जेल
जेल में भारी संख्या में विचाराधीन कैदियों के होने से जेलों में कैदियों के साथ दुर्व्यवहार बढ़ता जा रहा है. ऐसे में सुधारगृह की अपेक्षा जेल अब प्रताड़नाघरों में बदल गए हैं. उत्तर प्रदेश में कुल जेलों की संख्या 72 है. इन में 60 हजार 580 कैदियों को रखने की क्षमता है. उत्तर प्रदेश में सजा पाए कैदियों की संख्या 25 हजार 236 है. विचाराधीन कैदियों की संख्या करीब 70 हजार है. यानी, प्रदेश की जेलों में 95 हजार के करीब कैदी बंद हैं.

क्षमता से अधिक कैदी होने के कारण जेल प्रताड़नाघर बन गए हैं. उत्तर प्रदेश उन राज्यों में है जिन का जेल मैन्युअल अभी तक 50 साल पुराना है. जेल में कैदियों की संख्या अधिक होने से वहां पर सही तरह से देखरेख नहीं हो पाती है. इसी कारण से जेलों में अवैध सामान भी आने लगता है. जेलों में रह कर अपराधी मोबाइल से ही अपना काम करने लगते हैं.

जेलों में एक तरफ कैदियों की संख्या अधिक है, दूसरी तरफ जेल कर्मचारियों की बेहद कमी है. सिपाही से ले कर डाक्टर तक की संख्या में भारी कमी है. कैदियों के व्यवहार में सुधार के लिए कोई कार्यक्रम तो होता ही नहीं है, जेल कर्मचारियों के प्रशिक्षण और अनुशासन को भी बनाए नहीं रखा जा रहा है. जेल में सुधार के कार्यक्रम बेहद पुराने हैं. अपराधियों को जेल में इसलिए रखा जाता है जिस से वे अपनी आदतों में सुधार कर सकें. यही कारण है कि जेलों को सुधारगृह भी कहा जाता है.

अब जेल साधारण कैदियों के लिए प्रताड़नागृह और दुर्दांत अपराधियों व नेताओं के लिए आरामगाह बन गए हैं. जेलों में आम और खास का भेदभाव पूरी तरह से देखा जा सकता है. उत्तर प्रदेश की जेलों में जेलर तक की हत्या हो चुकी है. सीएमओ स्तर के अधिकारी ने जेल में चमड़े की अपनी ही बैल्ट से लटक कर जान दे दी थी.

जेलों में भी दबंगई
जमानत पर रिहा हो कर आए दिवाकर दुबे बताते हैं, ‘जेल में किसी अपराधी के सुधरने की गुजाइंश न के बराबर होती है. वहां पर केवल अपराधियों का ही राज चलता है. वे खुद को जेल का सरदार सम झते हैं. जेल प्रशासन ने पुराने कैदियों को तमाम काम सौंप रखे हैं जिस के कारण वे नए कैदियों से मनमानी व उन का शोषण करते हैं. जो कैदी उन की बात मानने से इनकार करता है, पुराने कैदी उस की पिटाई करते हैं. जेल प्रशासन ऐसी हरकतों को नजरअंदाज करता है.

‘पुराने कैदी नए आने वालों से पैसों की वूसली भी करते हैं. जेल में मिलाई के समय नया कैदी अपने घर वालों से पैसे मंगवाता है. जो कैदी पुराने कैदियों की बात नहीं मानते उन को पूरेपूरे दिन वहां के काम पर लगाया जाता है.

‘कैदी नशेबाजी, जुआ खेलने और दूसरे तमाम गंदे शौक भी करते हैं. जो कैदी इस में हिस्सा नहीं लेते उन से जेल के काम लिए जाते हैं. इस में कैदियों के लिए खाना बनाने, बैरक व जेल की साफसफाई करने और कैदियों के कपड़े तक साफ करने पड़ते हैं. गाली, मारपीट यहां सामान्य बातें हैं.

‘ऐसे में कई बार निर्दोष फंसे कैदी मानसिक रूप से परेशान हो जाते हैं. जेल के कर्मचारी पुराने कैदियों का ही साथ देते हैं. जेल की बातें बाहर नहीं आ पातीं और जेल के बारे में बताने वाले को ये लोग मारते हैं. जिस की वजह से नया कैदी मिलाई के समय अपने घर वालों को भी सच नहीं बताता.’

जेल की नियमित रिपोर्टिंग करने वाले अनुराग सिंह कहते हैं, ‘जब से प्रशासनिक अधिकारी, कारोबारी और पैसे वाले लोग व उन के परिवारों के लोग जेल आने लगे हैं, तब से यहां पैसे का चढ़ावा चढ़ाने का रिवाज तेज हो गया है. ये लोग जेल में सुविधाएं हासिल करने के लिए पैसे खर्च करने लगे हैं. तब से कैदियों द्वारा वसूली बढ़ गई है. पैसों का प्रभाव और आवागमन बढ़ने से भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है. भ्रष्टाचार के कारण ही जेलों में अपराध बढ़ने लगे हैं. ऐसे में जेल कर्मचारियों में भी रिश्वतखोरी बढ़ी है.’

जेल से चलता अपराधियों का राजकाज
उत्तर प्रदेश की जेलों में इस तरह के काम नए नहीं हैं. इस घटना से यह बात साफ हो गई कि उत्तर प्रदेश की जेलें भी सुरक्षित नहीं हैं. अपराधी जेल कर्मचारियों से मिल कर वहां भी अपना खेल दिखाते रहते हैं. जेल अधिकारियों पर पद का दुरुपयोग कर अवैध वसूली करने के आरोप लगते रहते हैं. इस के लिए नियमकानून कम जिम्मेदार नहीं हैं. जेल में भ्रष्टाचार चरम पर है. जेल में मुलाकात करने जाना है तो पहले पैसा देना पड़ता है. अगर कोई सामान अंदर कैदी तक पहुंचाना है तो पैसा चलता है. कई बार मोबाइल फोन तक अंदर पहुंच जाते हैं. जेल में सबकुछ मिलता है, उस की कीमत अदा होनी चाहिए. पेशी के दौरान जब किसी कैदी को ले कर सिपाही कचहरी जाते हैं तो वे भी पैसा ले कर सुविधा देते हैं.

बिना सिपाहियों को पैसा दिए कैदी न तो किसी रैस्तरां में खाना खा सकता है और न ही अपने घरवालों से मिल सकता है. हर काम की कीमत वसूलने वाले ये सिपाही पैसे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. इसी कारण जेलों में भ्रष्टाचार पनपता रहता है. जेल में आम कैदी से मिलने के लिए भले ही पैसा खर्च करना पड़ता हो लेकिन बाहुबली के साथ मिलने वालों की जांच तक नहीं होती.

आज जिस तरह जेलों से ही अपराधी अपनी हुकूमत चला रहे हैं उस से यह साफ हो गया है कि जेल अपराधगाह बन गए हैं. सवाल उठता है कि जब जेल ही अपराधगाह बन जाएंगे तो अपराधी सबक सीखने कहां जाएंगे? द्य

हमारी बेडि़यां

एक दंपती हमारे काफी अच्छे मित्र थे. उन के यहां विवाह के काफी समय बाद पुत्र का जन्म हुआ. उन्होंने पुत्र के जन्म की खुशी में एक दावत रखी जिस में हम भी आमंत्रित थे. पूरा परिवार काफी खुश था और बच्चे की दादी की तो खुशी देखते ही बन रही थी.

मैं और मेरे पति ने भी बच्चे को आशीर्वाद दिया और दादी से बच्चे का नाम पूछा. उन्होंने खुश हो कर कहा, ‘‘गरीबदास.’’हमें एक पल के लिए लगा कि शायद हम ने गलत सुन लिया है पर कुछ कहना या पूछना उस समय उचित नहीं लगा. बाद में मैं ने अपनी मित्र से बात की पुष्टि करते हुए पूछा कि तुम ने अपने बेटे का गरीबदास नाम रखा है तो उस ने अनमने ढंग से बताते हुए कहा कि यह परिवार का रिवाज है कि यदि घर में बहुत इंतजार और मन्नतों के बाद पुत्र का जन्म होता है तो उस का भिखारीदास, चरणदास, गरीबदास आदि जैसा नाम रखा जाता है ताकि उसे किसी की नजर न लगे.

उस की यह बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सच में ऐसा नाम रखने से बच्चे की सुरक्षा होगी? यह सोचने के बजाय कि बच्चा बड़ा होने पर इस नाम के साथ शायद सहज महसूस न करे. आज भी इस तरह की बेडि़यों में बंध कर हम कहीं न कहीं दकियानूसी बातों को बढ़ावा दे रहे हैं.
राखी जैन (सर्वश्रेष्ठ)

मेरे मित्र की पत्नी बहुत ही रूढि़वादी व धार्मिक विचारों वाली है. इसलिए वह अपने घर में हर महीने कोई न कोई धार्मिक आयोजन करवाती रहती है.मेरे मित्र उस की इस आदत से बहुत परेशान हैं. पत्नी के इस रवैए से न केवल उस की आर्थिक दशा बिगड़ी है, अपितु बच्चों की पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ता है.
एक दिन उन के घर में हवन हो रहा था. मेरे मित्र के पिता, जिन्हें खांसी, जुकाम व सिरदर्द था, को भी वहां बिठाया गया था.

हवन के धुएं के कारण उन की हालत बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा, जहां उन्हें हफ्ताभर रखना पड़ा. परेशानी हुई और आर्थिक नुकसान उठाया सो अलग.
आज दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है जबकि अधिकांश लोग अब भी पुरानी बेडि़यों में जकड़े हुए हैं.

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