भारत के इतिहास में दलितों के विरूद्ध सवर्णों के विरूद्ध हिंसा की क्रूर घटनाएं तो भरी पड़ी ही हैं. हैरानी की बात यह है कि आजादी के बाद और एक बेहद संवेदनशील संविधान के बावजूद भी दलितों के खिलाफ सवर्णों की क्रूरता में जरा भी कमी नहीं आ रही. इस बात की गवाही साल दर साल रिकाॅर्ड किये जानेवाले आपराधिक आंकड़ें दे रहे हैं. देश के उस राज्य उत्तर प्रदेश में जहां चार चार बार दलित मुख्यमंत्री का शासन रहा है, वहां भी दलितों के विरूद्ध उत्पीड़न में किसी भी किस्म की जरा भी कमी नहीं आ रही, उल्टे यह राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो आॅफ इंडिया की साल 2018 की रिपोर्ट (अभी तक इसके बाद की नहीं आयी) के मुताबिक तो उत्तर प्रदेश में देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले दलितों के विरूद्ध सवर्णों के द्वारा की जाने वाली आपराधिक घटनाएं लगातार बढ़ रही है, कम से कम आंकड़े तो यही गवाही दे रहे हैं.

जहां तक दलितांे के विरूद्ध सवर्णों द्वारा पूरे देश में की जाने वाली आपराधिक घटनाओं का सवाल है तो साल 2016 में अनुसूचित जातियों के विरूद्ध अपराध की 10,426 घटनाएं हुई थीं, 2017 में ये बढ़कर 11,444 हो गईं और 2018 में इनकी संख्या बढ़कर 11,924 हो गई. जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो यहां एससी/एसटी एक्ट आईपीसी सहित अपराध की दर 22.6 फीसदी सालाना है, वहीं राष्ट्रीय दर केवल 19 फीसदी है. इसी तरह दलित महिलाओं के विरूद्ध जहां अपराध की राष्ट्रीय दर 0.5 फीसदी है, वहीं उत्तर प्रदेश में यह दर 1.3 फीसदी है. वयस्क दलित महिलाओं पर लज्जा भंग के इरादे से किये गये हमलों की दर भी जहां पूरे देश में 1.4 फीसदी सालाना है, वहीं उत्तर प्रदेश में यह दर 1.6 फीसदी सालाना है. दलित बच्चियों के विरूद्ध जहां अपराध का राष्ट्रीय औसत 1.5 फीसदी है, वहीं उत्तर प्रदेश में यह दर 1.7 है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...