स्कूल का ध्यान आते ही याद आती है यूनिफौर्म. चिलचिलाती गरमी के दिन हों या उमसभरे बारिश के, या फिर ठिठुरती सर्दी. यूनिफौर्म की पकड़ से बच्चे तभी आजाद हो सकते हैं जब कालेज में पहुंचें. लेकिन क्या हो अगर कालेज में भी आप को यूनिफौर्र्म पहना दी जाए? और तो और, जब आप खुद टीचर बन कर स्कूल या कालेज में पढ़ाने पहुंचें तब भी यदि यूनिफौर्म आप का पीछा न छोड़े तो?

यह सीन आजकल काफी आम है. एक तरफ कालेज का नाम सुन कर याद आता है रंगीन वातावरण जैसा करण जौहर की फिल्मों में दिखाया जाता है. वहीं, दूसरी ओर आजकल इंजीनियरिंग कालेज हो या मैनेजमैंट कालेज, यूनिफौर्म या यों कहें कि डै्रसकोड लागू रहता है. विश्वविद्यालयों की छात्राओं को जबतब सही डै्रसकोड की लिस्ट का सामना करना पड़ता है.

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तमिलनाडु के कालेज की छात्राओं को टीशर्ट पहनने पर बैन लगा कर सलवार, कमीज, दुपट्टा पहनने का फरमान मिला तो मीनाक्षी का कहना था कि जींसटौप में गरमी से काफी राहत मिलती है. उमा भी डै्रसकोड के सख्त खिलाफ दिखी. उस का प्रश्न था कि केवल लड़कियों के कपड़ों से ही हमारी संस्कृति को खतरा क्यों होता है? मुंबई के नालंदा ला कालेज के डै्रसकोड को विद्यार्थियों ने तालिबान स्टाइल कह कर पुकारा.

छात्रों का कहना था कि अपना कैरियर बनाने आए विद्यार्थी शिक्षा पर ध्यान देते हैं न कि फैशन पर. फिर क्यों प्राधिकारी शिक्षाप्रणाली पर ध्यान न दे कर अपना समय और ऊर्जा डै्रसकोड पर व्यर्थ गंवाते हैं. और तो और, कितने ही स्कूलों व कालेजों में शिक्षकों के लिए भी डै्रसकोड निर्धारित है. हालांकि, अकसर महिला शिक्षकों को ही डै्रसकोड के नियमों का पालन करना पड़ता है, उस पर सिलवाने का खर्च भी खुद को ही उठाना पड़ता है. कभी महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर तो कभी संस्कृति के, कभी कौर्पोरेट वर्ल्ड के लिए अपने स्टुडैंट्स को तैयार करने के नाम पर तो कभी अनुशासन लाने के बहाने, डै्रसकोड को अकसर शैक्षिक संस्थान सही ठहराते रहते हैं.

लगता है ड्रैसकोड की बात अब स्कूल और कालेज से निकल कर औफिस में भी पहुंच गई है. इंडिया टुडे की संवाददाता शालिनी लोबो ने खबर दी कि  सरकारी दफ्तरों में कर्मचारी कैजुअल कपड़े न पहन कर आएं, इसलिए कि हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने नया डै्रसकोड लागू किया है. इस के तहत महिलाएं साड़ी या सलवार, कमीज व दुपट्टा और पुरुष शर्टपैंट या वेस्टी पहन कर काम पर आ सकते हैं.

डै्रसकोड की वकालत करने वाले यूनिफौर्म को सुव्यवहार और अनुशासन से जोड़ कर देखते हैं. उन का मानना है कि एक से कपड़े पहनने से बच्चों में एकता की भावना जन्म लेती है. वे एकदूसरे से भेदभाव नहीं करते, गुटबाजी नहीं करते, सुव्यवहार सीखते हैं और उन का ध्यान फैशन की ओर भी नहीं भटकता. लेकिन, डै्रसकोड की पैरवी करने वालों को यह सम झना चाहिए कि अनुशासन कपड़ों तक सीमित नहीं होता. अनुशासन का दर्पण होता है बरताव, और इस पर यूनिफौर्म का कोई असर नहीं होता.

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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आड़े आता ड्रैसकोड

डै्रसकोड से बच्चे चिढ़ते हैं, विद्रोह करने की सोचते हैं. उन्हें इस बात से नाराजगी होती है कि स्कूलकालेज उन के कपड़ों की चौइस पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं. हमारे देश में सब को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, किंतु हम अपनी नई पीढ़ी को उसी की इच्छा से कपड़ों का चयन करने के मौलिक अधिकार से वंचित रखते हैं

रेयान इंटरनैशनल स्कूल की छात्रा आरुषि का कहना है, ‘‘मेरे कपड़े मेरे व्यक्तित्व को व्यक्त करते हैं. सब बच्चों को एकजैसे कपड़े पहना देने से सब का व्यक्तित्त्व न तो एकजैसा बन सकता है और न ही ऐसा करना वांछनीय है. समाज में रचनात्मकता को बढ़ावा देने से ही हम उन्नति की ओर बढ़ेंगे. मेरी दृष्टि में शैक्षिक संस्थान अधिगम, ज्ञान और सुबोध के परिचायक होते हैं. वहां अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए.’’

देहरादून के प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज की लैक्चरर इंदु मेहरा डै्रसकोड के पीछे की मानसिकता पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं कि भारतीय समाज में यूनिफौर्म समानता कैसे ला सकती है, यहां तो हर कोई दूसरे से जातपांत, रंगसंस्कार में भिन्न है. क्या एकजैसे डै्रसकोड के माध्यम से हमारे सदियों पुराने सांस्कृतिक भेदभाव को ढक पाना इतना आसान है? ऊपर से गरीब परिवार के बच्चे डै्रसकोड का ऐक्सट्रा खर्र्च उठाने में कई बार कसमसा जाते हैं.

यूनिफौर्म नहीं होती कंफर्टेबल

स्कूलकालेज या फिर औफिस में कई घंटों तक बैठना पड़ता है. ऐसे में यूनिफौर्म कभी भी उतनी कंफर्टेबल नहीं हो सकती. अकसर यूनिफौर्म सिंथैटिक कपड़े या फिर पौलीकौटन से बनाई जाती है. कभी स्कर्ट के ऊपर ट्यूनिक की ऐक्सट्रा लेयर तो कभी जैकेट. उस पर टाई. भारतीय मौसम के लिए ऐसे डै्रसकोड कतई उपयुक्त नहीं होते. बेचारे बच्चे गरमी के दिनों में पसीनेपसीने हुए रहते हैं तो सर्दी में ठिठुरते रहते हैं. उस पर डै्रसकोड की डिजाइन ऐसी बनाई जाती है जो हर शारीरिक संरचना पर फिट बैठे, तो हर अलग शरीर की कदकाठी की सुंदरता को उभारने में निश्चित ही वह असफल रहती है.

डै्रसकोड का धंधा

यूनिफौर्म को सिलवाने में अलग खर्चा आता है. मीरा के 2 बच्चे हैं. एक इंटरनैशनल स्कूल में पढ़ता है, दूसरा प्राइवेट कालेज में. ‘‘रोजाना पहनने के कपड़ों के अलावा हर स्कूलकालेज की अलग यूनिफौर्म सिलवाओ. बढ़ते बच्चों के पैंटजूते जल्दीजल्दी छोटे होते रहने के कारण बेकार हो जाते हैं. ऊपर से हर मौसम में कुछ न कुछ अलग, जैसे बारिश में रेनकोट जरूर खरीदो तो सर्दी में ब्लेजर. अधिकतर स्कूलकालेज अपनी ही दुकानों से यूनिफौर्म खरीदने की शर्त रखते हैं, जो मनमाने दामों पर यूनिफौर्म बेचती हैं. जो रिबन बाहर बाजार में 10 रुपए का आता है वह स्कूल द्वारा निश्चित दुकान पर 20 रुपए का मिलता है. फिर हर बच्चे का अलग पीटी हाउस रख देते हैं तो बड़े बच्चे की यूनिफौर्म छोटा भाईबहन नहीं उपयोग कर सकता है. उस पर आजकल स्कूल हर दूसरे सैशन में यूनिफौर्म के रंग में या फिर डिजाइन में थोड़ाबहुत फेरबदल कर डालते हैं ताकि पूरा सैट बारबार खरीदना पडे़. सब चोरबाजारी है पैसा कमाने की.’’

लोग अपने बच्चों को प्राइवेट एजुकेशन इंस्टिट्यूट्स में इस उम्मीद में भेजते हैं कि वे वहां अपना भविष्य बनाएंगे, अपनी अलग पहचान, अपने विचार, अपने जीवन को सुगम बनाना सीखेंगे. यूनिफौर्म बेचने पर ध्यान देने के बजाय मैनेजमैंट को अपनी शिक्षा की गुणवत्ता को केंद्र में रखना चाहिए.

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नहीं चाहिए ड्रैसकोड

सैंट थौमस स्कूल का एक छात्र प्रणव कहता है, ‘‘हमारी क्लास के बच्चे कहते हैं, ‘रूल्स आर मैट टु बी ब्रोकन.’ इसीलिए तो यूनिफौर्म की जबरदस्ती के कारण बच्चे रिबेल बनते हैं, अपनी मरजी करना चाहते हैं, नियमों को ताक पर रखने की कोशिश करते रहते हैं. ड्रैसकोड के बजाय प्रबंधन अगर प्रोफैशनल एटिट्यूड व अटायर पर फोकस करें तो कितना अच्छा होगा.’’

यदि छात्रछात्राओं ने बगावत करने की ठान ली तो अध्यापक के टोकने का असर भी बेमानी हो जाता है. एक नामीगिरामी महानगरीय स्कूल के टीचर बताते हैं कि कैसे उन्हें लड़कों को बारबार शर्ट के ऊपर के बटन बंद करने के लिए टोकना पड़ता है. कभी टाई ढीली कर, कभी एक तरफ से शर्ट को पैंट से बाहर निकाल कर तो कभी जैल से बालों में स्पाइक बना कर, लड़के उन की नाक में दम किए रहते हैं. लड़कियों को टोकना और भी मुसीबत का काम है. वे अकसर अपनी स्कर्ट को बैल्ट की तरफ से गोल घुमा कर ऊंचा कर लेती हैं और टोकने पर मुंह बिचका कर खुसफुसाती हैं कि सर को क्या जरूरत है हर टाइम हमारी टांगों की ओर देखने की.’’

दुनिया की राय

चेक रिपब्लिक की टैक्निकल यूनिवर्सिटी औफ ओस्ट्रावा के जोसफ पंकोचर का मानना है कि अनुशासन दिमाग में होना जरूरी है, कपड़ों में नहीं. विद्यार्थियों या शिक्षकों की यूनिफौर्म की जगह साफसुथरे और स्वयं पर फबने वाले कपड़े होने चाहिए.

कैनेडा की साइमन फ्रेजर यूनिवर्सिटी में शिक्षिका मोनिका भट्टाचार्य का मत है कि कपड़े पहनने की आजादी के पीछे कई सारे पहलू होते हैं. मसलन, मौसम, क्लासरूम, जिम, साइंस लैब, फील्डट्रिप या फिर स्कूल का इमोशनल क्लाइमेट. निजी तौर पर मोनिका आराम को अदब से ज्यादा महत्त्व देती हैं. वे मानती हैं कि शिक्षकों को  झीनेपारदर्शी या फिर बदनदिखाऊ कपड़े नहीं पहनने चाहिए. जींसटीशर्ट सब से आरामदेह पोशाक है, लेकिन इतनी सम झ पहनने वाले में होनी चाहिए कि फौर्मल या स्पैशल अवसरों पर इन्हें न पहनें.

हौलैंड के निवासी जेडन बराका इस बात से आश्चर्यचकित होते हैं कि लोग डै्रसकोड और अनुशासन को जोड़ कर देखते हैं. वे कई इंग्लिश स्कूलों में पढ़ा चुके हैं और कहीं भी डै्रसकोड के कारण अनुशासन पर कोई सकारात्मक असर नहीं देख पाए. डच स्कूलों में यूनिफौर्म का कौन्सैप्ट नहीं होता. डच लोगों को ड्रैसकोड नहीं भाता. उन के देश में ड्रैसकोड के माध्यम से निजता पर प्रहार नहीं सहा जाएगा.

जरमनी के रिसर्चर यू दरेएयर बताते हैं कि उन के देश के स्कूलों में पिछले 40 वर्षों से डै्रसकोड का कोई रिवाज नहीं है. ‘स्कूल लुक’ के नाम पर केवल उन्हीं ड्रैसेस की मनाही है जो बहुत महंगी या ऊंचे डिजाइनर्स की होती हैं. बच्चे कैजुअल कपड़े पहन कर पढ़ने जाते हैं. ऐसे ही अमेरिका में भी करीब 80 प्रतिशत स्कूलों में ड्रैसकोड का चलन नहीं है.

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एक मत यह भी है कि एक जमाने में कामगार पहले पढ़ने जाते थे, फिर वहीं से काम करने के लिए फैक्ट्री जाया करते थे. इसलिए वे ड्रैस पहन कर ही स्कूल जाते थे ताकि घर लौट कर कपड़े बदलने में समय व्यर्थ न हो. ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारी शिक्षाव्यवस्था अभी भी फैक्ट्री प्रणाली पर ही आधारित है. क्या करें, हमारा देश किसी भी बदलाव को अपनाने में इतना हिचकता जो है.

रैजिमैंटेशन का एक तरीका ड्रैसकोड है जो पुलिस और सेना की तरह ऊपर वाले का आदेश मानने को तैयार करता है और अलग सोच, अलग व्यवहार व अलग रास्ता अपनाने से रोकता है. धर्म में भी ड्रैसकोड है और धार्मिक स्कूलों की ही देन यह ड्रैसकोड है जो आज स्कूलों में फैल गया और अब सरकार में फैल रहा है.

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