झील के तट पे, सांझ के वक्त सी

बाल खोले हो जाए, गजल सी

मदभरी चाल की हिरनी सी

गालों की लाली है कमाल सी

हर तरफ अंधेरों की तासीर में

भोर के उजाले में दिखे तब्बसुम सी

रूपसुधा हो बहती हो बयार सी

खिले हुए चेहरे की आंगन के धूप सी

ठहर गई हर तरफ सुधियों की रैन

मस्तमस्त सपनों के मोती जड़ी नींद सी

पलकों से झांकती लाजवंती चितवन से

कैसे संभाल पाऊं, सिमट रही चिडि़या सी

होंठों के मधुप्यालों में सोती रही प्यास

क्षणभरे उन्माद में श्वेत बदन के आस सी

कांप उठे तब भी, व्याकुल हो मन भी

वर्षा में भीग कर झीनेझीने आंचल सी.

 

                       – प्रमोद सिंघल

 

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