झील के तट पे, सांझ के वक्त सी
बाल खोले हो जाए, गजल सी
मदभरी चाल की हिरनी सी
गालों की लाली है कमाल सी
हर तरफ अंधेरों की तासीर में
भोर के उजाले में दिखे तब्बसुम सी
रूपसुधा हो बहती हो बयार सी
खिले हुए चेहरे की आंगन के धूप सी
ठहर गई हर तरफ सुधियों की रैन
मस्तमस्त सपनों के मोती जड़ी नींद सी
पलकों से झांकती लाजवंती चितवन से
कैसे संभाल पाऊं, सिमट रही चिडि़या सी
होंठों के मधुप्यालों में सोती रही प्यास
क्षणभरे उन्माद में श्वेत बदन के आस सी
कांप उठे तब भी, व्याकुल हो मन भी
वर्षा में भीग कर झीनेझीने आंचल सी.
- प्रमोद सिंघल
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
(1 साल)
USD48USD10

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
(1 साल)
USD100USD79

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सरिता से और