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ताड़ी से ज्यादा नशीली, ताड़ी की सियासत

बिहार में ताड़ी पर सियासत का नशा बढ़ता ही जा रहा है. लोजपा सुप्रीमो राम विलास पासवान और सूबे के मुख्यमंत्री रहे जीतनराम मांझी ताड़ी उतारने और इसका धंधा करने वालों के पक्ष में खड़े हो गए हैं और ताड़ी पीने के फायदे गिना रहे हैं. उनका दावा है कि ताड़ी शराब नहीं बल्कि जूस है. आंखों की रोशनी कम होने पर डाक्टर ताड़ी पीने की सलाह देते हैं. गौरतलब है कि पिछले 5 अप्रैल से बिहार में देसी और विदेशी शराब के साथ ताड़ी पर भी पूरी तरह से पाबंदी है. राज्य में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह ताड़ी की खपत 266 मिलीलीटर है.

पिछले 25 अप्रैल को पासवान और मांझी पासी समाज की ओर से आयोजित धरना में गरजे थे कि अगर 2 महीने के भीतर ताड़ी से रोक नहीं हटाई गई, तो सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाएगा. इसके साथ ही उन्होंने 20 जून को हर जिले और प्रखंड हेडक्वार्टर पर धरना देने और जुलाई में पटना के गांधी मैदान में बड़ी रैली करने का ऐलान कर दिया है.

पासवान कहते है कि साल 1991 में उन्होने ही तब के मुख्यमंत्री रहे लालू यादव से बात कर ताड़ी से टैक्स और लाइसेंस फीस हटवाई थी. पासवान के साथ मांझी भी पासी समाज और ताड़ी की तरफदारी में लग गए हैं और उन्होंने बकायदा राज्यपाल से मिल कर ताड़ी पर से रोक हटाने की मांग की है. मांझी बताते हैं कि ताड़ी पर रोक लगाने से हजारो लोगों को रोजगार खत्म हो गया है और पासी समाज के लोगों के सामने भूखमरी की नौबत आ गई है. वह कहते हैं कि ताड़ी प्राकृतिक चीज है और इसके कारोबार से गरीब और अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग जुड़े हुए है. ताड़ी पर पाबंदी लगाने से गरीबों और दलितों को भूखमरी का सामना कराना पड़ रहा है.

ताड़ी पर रोक लगाने के सरकार के फैसले का विरोध करने वालों की दलीलें हैं कि इससे पासी समाज के 20 लाख लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो गई है. साल 2011 के जनगणना के मुताबिक बिहार में पासी जाति के लोगों की आबादी 8 लाख 80 हजार 738 है. इसमें से 4 लाख 14 हजार 84 ही साक्षर हैं. पासी समाज के 2 लाख 85 हजार 697 लोग मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं. 25 हजार 471 लोग खेतिहर हैं और एक लाख 51 हजार 78 लोग मजदूर के तौर पर काम कर अपना गुजारा चला रहे हैं. कई कल-कारखानों में कुल 18 हजार 732 पासी मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं.

नीतीश कहते है कि ताड़ी पर राजनीति करने वाले भरम फैला कर केवल अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं. सरकार को ताड़ी के कारोबार में लगे लोगों का पूरा ख्याल है. सरकार ने ताड़ी पर रोक लगाई है, नीरा पर नहीं. अगले साल से नीरा सुध ब्रांड के बूथों पर नीरा की खरीद-बिक्री हो सकेगी, जिससे इस धंधे में लगे लोगों का मुनाफा बढ़ जाएगा.

गौरतलब है कि सूरज के उगने से पहले ताड़ के पेड़ से निकले रस को नीरा कहा जाता है. नीरा को धूप में रख देने से वह नशीला ताड़ी में बदल जाता है. उसमें शराब की तरह नशा हो जाता है. ताड़ी में नशे को बढ़ाने के लिए उसमें यूरिया और मंड्राक्स मिला दिया जाता है. इसे रोकने के लिए ही ताड़ी पर पाबंदी लगाई गई है. ताड़ के फल से जो रस निकलता है वह हांडी में टपने के साथ ही फर्मेंटेशन शुरू कर देता है, जिससे अल्कोहल की मात्रा बढ़ने लगती है. अगर हांडी में चूना डाल दिया जाए तो फर्मेंटेशन नहीं हो पाता है. फर्मलीन को भी हांडी में डाल देने से करीब 40-45 घंटे तक फर्मेंटेशन नहीं होता है. ताड़ी को मेडिसिनल भी माना जाता है, माना जाता है कि इसको पीने से पेट साफ रहता है और पाचन की बीमारियां ठीक होती है. ताड़ी में चीनी की मात्रा ईख से कहीं ज्यादा होती है.

ताड़ी के खपत के मामले में समूचे देश में बिहार चौथे नंबर पर है. पहले नंबर पर आंध्र प्रदेश, दूसरे नंबर पर असम और तीसरे नंबर पर झारखंड आता है. ताड़ का पेड़ 25 साल पुराना होने पर ही नीरा और ताड़ी दे सकता है. इसके बारे में कहा जाता है कि कोई ताड़ के पेड़ को लगाता है तो उसका बेटा ही ताड़ी पी पाता है. ताड़ के पेड़ आमतौर पर 45 से 50 फीट ऊंचे होते हैं.

ताड़ी के कारोबार में लगा पासी समाज महादलित जाति में शामिल है और इसी वजह से ताड़ी को लेकर सियासी घमासान मचा हुआ है. फिलहाल ताड़ी के बहाने नीतीश के विरोधी अपनी राजनीति को ताड़ के पेड़ जैसी ऊंचाई तक पहुंचाने की जुगत में लगे हुए हैं. 

स्वाहा

अखिल भारतीय गायत्री परिवार के मुखिया प्रणव पंड्या ने अपने मन की आवाज पर राज्यसभा की नामित सदस्यता को ठुकरा कर साबित कर दिया है कि वे अपने ससुर श्रीराम शर्मा आचार्य के विशाल साम्राज्य को क्षुद्र राजनीति का शिकार नहीं होने देना चाहते. उन के नाम की सिफारिश खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी.

गायत्री परिवार अपने तरीके से कर्मकांड करता है जिस में ब्राह्मणवाद नहीं है. इस में हर कोई पंडित है, कोई भी कर्मकांड वगैरा संपन्न करवा सकता है. जन्मना और कर्मणा ब्राह्मण की परिभाषा और व्यवसाय पर पंडों ने एक वक्त में खूब आंखें तरेरी थीं पर श्रीराम शर्मा आखिरकार अपनी एक अलग बादशाहत खड़ी करने में कामयाब रहे. इस परिवार के 12 करोड़ सदस्यों पर मोदी की वक्रदृष्टि थी लेकिन समझदारी दिखाते प्रणव ने अपने अभियान रूपी व्यवसाय को प्राथमिकता दी तो गलत कुछ नहीं किया और इस आकर्षक प्रस्ताव को स्वाहा कर दिया.

स्वर्गद्वार

‘स्वर्गद्वार’ नाम है इस जगह का. यह स्थान बीच बाजार में है और बीच के किनारे है, यानी समुद्री किनारे के बाजार से लगा हुआ. जगन्नाथपुरी के भ्रमण पर जब इस के बारे में सुना तो मुझे ‘स्वर्गद्वार’ नाम पर उत्सुकता हुई. वैसे, पुरी के 3 दिनों के निवास में मुझे इस की वास्तविकता के बारे में पता न चलता यदि संयोगवश हमारा वाहन वहां नहीं रुकता. सामने श्रद्धालु एवं पर्यटक लहरों से अठखेलियां कर रहे थे. आजकल भारत में पर्यटक केवल पर्यटक नहीं हैं और न ही श्रद्धालु केवल श्रद्धालु. ये दोनों, दोनों काम एकसाथ करना चाहते हैं. सही भी है कि बाजारवाद के इस युग में भगवान के दर्शन भी किसी अन्य नफे के साथ होने चाहिए.

नाम इस का ‘स्वर्गद्वार’, लेकिन मुझे यहां नरक के दर्शन हो गए. यह समुद्री बीच के सामने भीड़भरे बाजार के बीच में एक ‘मोक्ष स्थल’ है जहां शवों का दाहसंस्कार किया जाता है. हमारा वाहन ठीक इसी स्थान पर एक कार्य से हमारे एक साथी द्वारा रुकवाया गया था. ड्राइवर ने बड़ी मुश्किल से यहां वाहन रोका था. वह कभी ट्रैफिक का बहाना बना रहा था तो कभी बोल रहा था कि यहां जुर्माना ठुक जाता है. लेकिन असल बात कुछ और ही थी. वाहन के रुकने के बाद जैसे ही उस के दरवाजों के कांच खुले, तेज दुर्गंध का झोंका अंदर आया. ड्राइवर भी बड़बड़ाने लगा कि यहां तो खड़ा होना भी मुश्किल है. मैं ने सामने देखा, दुकानों के पीछे सड़क के दूसरी ओर अग्नि की ऊंचीऊंची लपटें उठ रही थीं. दुकानों के बीच की खाली जगह से बीच बाजार में अग्नि की उठती लपटों का दृश्य अजीब सा लग रहा था. तभी हमारे बीच के एक साथी बोल उठे कि देखो, दाहसंस्कार हो रहा है. मैं ने नजरें गड़ाईं तो मुझे शव के साथ आए लोगों का जमावड़ा वहां दिखा.

मुझे एकदम से झटका लगा कि यहां बीच के सामने भीड़ व कोलाहल भरे बाजार के बीच में दाहसंस्कार हो रहा है और कितने सारे लोग, जिस में अधिसंख्य पर्यटक हैं, इस से अनजान हैं. कोई लहरों से अठखेलियां कर रहा है तो कोई ठेले से आइसक्रीम ले कर उस का मजा ले रहा है कोई मछली का मजा ले रहा है. पास में राज्य स्तर का युवा पर्व भी चल रहा है. संगीतलहरियों में डांस व गाने हो रहे हैं. लोग झूमझूम कर नाच रहे हैं. एक तंबू ‘सैंड आर्ट’ का भी लगा है. शाकाहारी पाठक माफ करें, वे यह पढ़ कर नाराज होंगे कि मछलीमुरगा खाने से भी भला मजा आता है किसी को. इसी बीच ड्राइवर, जिस का नाम दीपू था तथा भुवनेश्वर का रहने वाला था, बोला कि ये जो लोग मच्छी खा रहे हैं, उन्हें मुर्दा जलने की दुर्गंध का भी एहसास नहीं हो रहा होगा. तभी मैं ने कहा कि इन्हें मालूम नहीं होगा कि सामने दाहसंस्कार होता है वरना कोई आदमी क्या इतना संवेदनहीन हो सकता है. और फिर कोई यह भी कह सकता है कि इतनी नैतिकता की बात कर रहे हो, क्या तेरहवीं में भी एक प्रकार से, हम सब यही नहीं करते हैं? एक और बहस की बात यह कि कोई कह सकता है कि श्मशान के पास भी तो आजकल शहरों में इतने परिवार रहते हैं. क्या वे जलती चिता की लपटें देख कर भोजन करना बंद कर दें? तो फिर तो, उन का भी लपटों में आने का दिन जल्दी ही आ जाएगा.

दीपू तपाक से बोला, ‘‘इन को सब मालूम है, अंधे हैं क्या ये? और इतनी दुर्गंध हो रही है, सूंघने की शक्ति खत्म हो गई है क्या इन की? मछली खाने के लिए तो ये ठेलों के आसपास सूंघते हुए मंडरा रहे हैं?’’ वह आगे बोला, ‘‘मैं तो कई सालों से देख रहा हूं इन को. ये नहीं मानते कि कोई मरे, गड़े, जले या कटे, इन्हें तो यहीं खड़े हो कर मच्छी खाना है. मैं ने मन में सोचा कि यह सही कह रहा है वहां किसी का मरना, दाहसंस्कार होना और यहां किसी का इस तरीके से जीना. अब हमारे साथी अपने मोबाइल को रिचार्ज करा कर आ गए थे. वे भी आते ही बोले कि अरे, जबरदस्त दुर्गंध आ रही है, खड़ा होना मुश्किल है.

मुझे यह दृश्य देखते हुए बचपन का वह दिन याद आ गया जब मेरी दादी का निधन हुआ था. नगरनिगम के शववाहन में हम उन की देह को मोक्षधाम ले जा रहे थे. आगे एक मिलिटरी वाहन चल रहा था. उस ने जब यह देखा तो वह मृतक के सम्मान में रुक गया और शववाहन के आगे निकलने के बाद ही आगे बढ़ा. मुझे ग्वालियर की एक और घटना भी याद आ गई. मैं अपने वाहन से भीड़ होने की वजह से सड़क पर धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, उस समय एक अर्थी निकल रही थी. जब वह यातायात के वरदीधारी, ड्यूटी पर तैनात सिपाही के सामने से गुजरी तो उस ने उसे बाकायदा सैल्यूट मारा.

क्या हम अपनी संवेदनशीलता व परंपराएं भूलते जा रहे हैं? इंसानों व जानवरों में कोई अंतर नहीं रह गया है? स्वर्गद्वार के सामने खड़ेखड़े ही मुझे 2 साल पहले की एक घटना याद आ गई. मैं मध्य प्रदेश के एक जिले में मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला परिषद, के रूप में पदस्थ था. हम एक दिन सुबहसुबह ग्रामीण क्षेत्र के दौरे पर निकले थे. 2 घंटों में 2-3 गांवों का भ्रमण हो गया था. जिला मुख्यालय से 60-70 किलोमीटर दूर एक आंतरिक डामर सड़क पर हमारे वाहन फर्राटे से आगे दौड़ते चले जा रहे थे. अचानक एक स्थान पर सड़क के बीचोंबीच लगभग 60-70 लोगों की भीड़ देख कर हमारे वाहन थम गए. सड़क के किनारे एक बस खड़ी थी बस की सवारियां नीचे सड़क पर उतर आई थीं, आसपास के गांवों के कुछ लोग भी आ गए थे. बस की अचानक टक्कर लगने से सड़क के बीचोंबीच एक गाय औंधी पड़ी थी. मैं अपने वाहन से नीचे उतर आया था. ध्यान से मैं ने देखा, उस के मुंह में हरी घास अभी भी दबी थी. वह अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी. आंखें उस की पथरा गई थीं. सड़क के दोनों ओर घास की हरी पट्टी थी. उस के नीचे ढलान में पहाडि़यां व खेत थे. उस के आगे गांव था. सो, गांव के पशु यहां चरने के लिए छोड़ दिए जाते होंगे. एक बात जो मैं ने गौर की, वह यह थी कि इस झुंड की लगभग 15-20 गायें हरी घास चरने में मशगूल थीं. उन के बीच की एक गाय अंतिम सांसें गिन रही थी. हरी घास का निवाला उस के मुंह से अंदर को नहीं जा पाया था, वह इस दुनिया से किसी भी पल रुखसत होने वाली थी. लेकिन बाकी सारी गायें हरी घास चरने में व्यस्त थीं जैसे कि कुछ हुआ ही न हो.

इसी तरह के दृश्य का साक्षी तो मैं इस स्वर्गद्वार कहे जाने वाले स्थान पर था. यह यहां रोज होता होगा या उस दिन होता होगा जब कोई मृतदेह अग्नि को समर्पित होने को लाई जाती होगी. वहां दाहसंस्कार की लपटें और यहां अंडा व मछली को भूनने के लिए उठती लपटें और इन के स्वाद पर जीभ लपलपाते लोग. उन जानवरों में और हम इंसानों में कोई अंतर रह गया है क्या?

तंबाकू के लिए एफडीआई पर पूर्ण प्रतिबंध

सरकार देश में तंबाकू की खपत और इस के इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के लिए घरेलू स्तर पर कड़े नियम लागू कर चुकी है. पैकेट पर 85 प्रतिशत हिस्से पर लिखी तंबाकू से होने वाली चेतावनी पर सरकार ने जो रुख दिखाया है उसे देखते हुए लगता है कि उस की सख्ती पर किसी दबाव का असर नहीं पड़ेगा. तंबाकू कंपनियों ने सरकार पर यह नियम लागू नहीं करने के लिए जबरदस्त दबाव बनाया था. तंबाकू कंपनियों ने इस फैसले के विरोध में सिर्फ हड़ताल ही नहीं की, बल्कि कंपनियां बंद करने की भी धमकी दी. कई कंपनियों ने तो काम बंद कर दिया है और बेरोजगार हुए कर्मचारियों को ढाल बना कर सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास भी किया. लेकिन सरकार ने उन की एक नहीं सुनी. अब इन कंपनियों पर और शिकंजा कसने के लिए इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को भी पूरी तरह बंद करने की तैयारी चल रही है.

एफडीआई यानी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश तंबाकू निर्माण के लिए पहले से ही प्रतिबंधित है लेकिन एफडीआई के जरिए तंबाकू कंपनियों को अब तक तकनीकी सहयोग देने के लिए एफडीआई की सुविधा थी. यहां तक कि प्रबंधन में सहयोग की प्रक्रिया भी चलती थी लेकिन नया नियम बनने से इस तरह की सुविधाओं के लिए एफडीआई को इजाजत नहीं होगी. मतलब तंबाकू क्षेत्र में एफडीआई पूरी तरह प्रतिबंधित होगा. इस का तंबाकू उत्पाद कंपनियों पर और गहरा असर पड़ेगा. सरकार का यह कदम उत्पादक और उपभोक्ताओं के प्रतिकूल है लेकिन देश के स्वास्थ्य पर इस का अनुकूल असर होगा. तंबाकू के सेवन से होने वाली बीमारियों से लोगों को मुक्ति मिलेगी.

सरकार को इसी तरह का कठोर कदम शराब के खिलाफ भी उठाना चाहिए. यह बहुत बड़ी बीमारी है. बीड़ीसिगरेट से परिवार का एक सदस्य ही प्रभावित होता है लेकिन शराब से पूरा परिवार तबाह हो जाता है. शराब से मरने की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं. घरों तथा गांव के गरीब परिवारों के सदस्यों के जहरीली शराब के कारण मारे जाने की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं. जरूरत शराब पर भी पूर्ण प्रतिबंध की है.

लालू प्रसाद यादव बदलाव सियासी या कुछ और

दृश्य-1

4 मई, 2016. स्थान — नई दिल्ली स्थित लालू यादव का आवास. सुबह 10 बजे के करीब योगगुरु के विशेषण से नवाजे जाने वाले रामदेव अचानक लालू प्रसाद यादव के घर पहुंचते हैं और उन्हें 21 जून को फरीदाबाद में आयोजित करने जा रहे योग जलसे में आने का न्योता देते हैं. रामदेव को ले कर लालू के सुर बदलेबदले से नजर आते हैं. वे रामदेव, उन के योग और उन के प्रोडक्ट्स की जम कर तारीफ करते हैं. रामदेव इतने में लालू के और करीब पहुंच कर उन के गालों पर पतंजलि की गोल्ड क्रीम लगा डालते हैं. लालू कहते हैं कि रामदेव के प्रोडक्ट्स काफी बेहतरीन हैं और खास बात यह है कि रामदेव उस की शुद्धता की गारंटी भी देते हैं. रामदेव के प्रोडक्ट्स की कामयाबी की वजह से कई लोग उन्हें तिरछी नजरों से देखते हैं. रामदेव की वजह से कई लोगों की दुकानें बंद हो गई हैं. लालू ने यह भी माना कि रामदेव के बताए योगासन को करने से उन्हें काफी फायदा मिला था.

लालू और रामदेव के मिलन और एकदूसरे की तारीफ में कसीदे पढ़ने के बाद लोग तरहतरह के कयास लगा रहे हैं. आखिर रामदेव ने बगैर फूटी कौड़ी खर्च किए अपने प्रोडक्ट्स के लिए गांवों से ले कर नैशनल और इंटरनैशनल स्तर पर मशहूर लालू यादव को अपना ब्रैंड एंबैसेडर कैसे बना लिया? लालू भी रामदेव के सुर में सुर मिलाते हुए कहते हैं कि वे तो उन के लाइफटाइम ब्रैंड एंबैसेडर हैं.

दृश्य-2 (फ्लैशबैक)

14 अप्रैल, 2016. स्थान — पटना के वीरचंद पटेल पथ पर राष्ट्रीय जनता दल का दफ्तर. राजद सुप्रीमो लालू यादव अपने अंदाज में खुल कर बोले चले जा रहे हैं. एक के बाद एक बाबाओं की पोलपट्टी खोल रहे हैं. रामदेव, रविशंकर, आसाराम सहित तथाकथित धर्मगुरुओं पर निशाना साधते हुए वे कहते हैं कि मोहमाया को छोड़ने की दुहाई देने वाले बाबा और संत आज बिजनैसमैन बन गए हैं और करोड़ोंअरबों रुपए की इंडस्ट्री चला रहे हैं. रामदेव पर तंज कसते हुए वे कहते हैं कि खुद को संत और योगगुरु कहते हैं पर वे आज सब से बड़े उद्योगपति व पूंजीपति बन चुके हैं. धर्म, योग और जड़ीबूटियों की दुकान चलातेचलाते बाबा लोग आसानी से बड़े कारोबारी बन रहे हैं. रामदेव के बाद रविशंकर को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कहा कि एक संत कहते हैं कि जो देश से प्यार नहीं करता है उसे देश छोड़ कर बाहर चले जाना चाहिए. लालू रविशंकर पर सवाल दागते हुए पूछते हैं कि वे किस आधार पर कह रहे हैं कि कुछ लोग देश से प्यार नहीं करते हैं? आखिर उन के देशप्रेम का मापदंड क्या है?

आसाराम का नाम ले कर वे हंसते हुए कहते हैं कि अब ऐसे लोग खुद को संत कहते हैं? लालू यादव बाबाओं और संतों की बखिया उधेड़ते हुए लोगों को ऐसे संतों से बचने की नसीहत देते हैं.

दृश्य-3 (फ्लैशबैक)

22 जुलाई, 2009. स्थान — बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकीं राबड़ी देवी का सरकारी आवास, पटना के सर्कुलर रोड का सरकारी बंगला नंबर 1. राजग की मदद से बिहार के मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए लालू यादव कहते हैं कि सूर्यग्रहण के समय कुछ भी खानेपाने से पाप लगता है. पटना से 40 किलोमीटर दूर तरेगना के आर्यभट्ट साइंस सैंटर से सूर्यग्रहण के दौरन नीतीश कुमार ने सूर्यग्रहण का नजारा लेते हुए चाय और बिस्कुट खा लिया था. लालू कहते हैं कि नीतीश की हरकत की वजह से ही बिहार भयानक सुखाड़ की चपेट में आया. इसी तरह साल 2014 में लोकसभा चुनावप्रचार के लिए नरेंद्र मोदी बिहार पहुंचे तो भी लालू यादव ने कहा था कि नरेंद्र मोदी बिहार के लिए मनहूस हैं. उन के बिहार आने से ही राज्य सूखे की चपेट में आ गया है.

दिखने लगा है बदलाव

साल 2009 के लालू यादव और साल 2016 के लालू यादव में काफी बदलाव दिखने लगा है. कभी  बाबाओं, ज्योतिषियों और तांत्रिकों से घिरे रहने वाले लालू यादव को अब शायद बाबाओं की असलियत समझ में आ गई है. यह बात किसी से छिपी नहीं कि साल 1996 में चारा घोटाले में फंसने के बाद वे खुद ‘सैटेलाइट बाबा’ के चक्कर में फंसे थे. उस ठग बाबा ने लालू का आशीर्वाद पा कर अपना धंधा तो चमका लिया पर उस ठग बाबा का आशीर्वाद लालू के काम नहीं आया. उन्हें चारा घोटाला के मामले में जेल जाना ही पड़ा था. कभी अपने दोनों हाथों की सभी उंगलियों में रंगबिरंगी अंगूठियां पहनने और गले में गंडेताबीज बांधने वाले लालू यादव क्या पोंगापंथ के मकड़जाल से सच में बाहर निकल चुके हैं या उस से बाहर निकलने की छटपटाहट शुरू हो चुकी है. जिन बाबाओं के खिलाफ देश का राष्ट्रपति और प्रधामंत्री तक बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है, वहां लालू का ठग बाबाओं की कलई खोलना तारीफ के काबिल है. लालू ने पोंगापंथ के दलदल में गले तक डूबे लोगों को हिम्मत दी है कि धर्म की दुकान चलाने वाले ठग बाबाओं को खुलेआम ठग कह सकें.

पोंगापंथी का बोलबाला

पोंगापंथी के मामले में हमारे देश के हर छोटेबड़े नेताओं की बोली दोमुंही ही रही है. अकसर सभाओंजलसों में गरीबों, दलितों, पिछड़ों को धर्म और पोंगापंथ से बचने की सलाह देने वाले नेता खुद ही उस के मकड़जाल में फंसे दिखाई देते हैं. दलितों और पिछड़ों की तरक्की का नारा लगाने वाले नीतीश, लालू और पासवान जैसे नेता भी मंदिरों, बाबाओं के चक्कर लगाने लगते हैं. सभी को अपने काम और जनता से ज्यादा भरोसा पत्थर की मूर्तियों पर है. कोई मंदिरमस्जिद में सिर झुकाता है तो कोई पंडितों को अपना हाथ दिखला कर ऐसी अंगूठी पहन लेता है कि मानो चुनाव में जीत पक्की हो गई हो. बाबाओं के चक्कर में नेता दिल्ली, राजस्थान, बनारस, हरिद्वार, देवघर तक के चक्कर काटने में लग जाते हैं. जनता के बीच घूमने के बजाय वे मंदिरों और पंडितों के बीच घूमने लगते हैं. लालू भी ऐसे नेताओं से अलग नहीं रहे हैं.

दावाप्रतिदावा

लालू यादव की ही बात करें तो वे हमेशा ही पोंगापंथी के जाल में उलझे रहे हैं. खुद को पिछड़ों और दलितों को आवाज देने का दावा करने वाले लालू यादव भी चुनाव में जीत के लिए जनता से ज्यादा मंदिर और मजार पर यकीन करते रहे हैं. लेकिन पिछले 2-3 सालों के दौरान वे कई मौकों पर खुद को बदलने का दावा भी करते रहे हैं. वहीं दूसरी ओर, वे खुद ही अपने इस दावे की धज्जियां भी उड़ाते रहे हैं. पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान

27 सितंबर, 2015 को अपने बेटे तेजस्वी यादव के चुनाव क्षेत्र राघोपुर में जब वे प्रचार करने पहुंचे तो अपने पुराने रंग में रंगे दिखाई पड़े. अपनी यादव जाति को पटाने के लिए उन्होंने कहा कि भाजपा वाले हमारे भगवान श्रीकृष्ण को गाली देते हैं. वे तो जेल में पैदा हुए थे तो कौन सा खराब काम सीखे? कृष्ण ने कंस का वध किया था, उसी तरह से वे (लालू यादव) भी भाजपारूपी कंस का राजनीतिक वध करेंगे.

उतारचढ़ाव

चारा घोटाला में फंसने और उस के बाद उस मामले में आरोप साबित होने के बाद से लालू यादव अपने जीवन की सब से बड़ी सियासी और कानूनी मुश्किलों से जूझते रहे हैं. इस से बचने के लिए वे कई बाबाओं और तांत्रिकों के दरवाजे खटखटाते रहे, पर कोई कामयाबी नहीं मिली. फिलहाल तो चारा घोटाले के एक ही मामले में फैसला आया है, 5 मामलों में फैसला आना बाकी है. केस नंबर- आरसी38ए 1996 (दुमका ट्रेजरी) 3 करोड़ 97 लाख रुपए का घोटाला, आरसी-47ए/1996 (डोरंडा ट्रेजरी) 184 करोड़ रुपए का घोटाला, आरसी-64ए/1996 (देवदार ट्रेजरी) 97 लाख रुपए का घोटाला, आरसी-68ए /1996 (चाईबासा ट्रेजरी) 32 करोड़ रुपए का घोटाला और आरसी-63ए/1996 (भागलपुर ट्रेजरी) के घोटाला मामलों के फैसले आने अभी बाकी हैं. चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने की वजह से लालू यादव साल 2024 तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. लालू के एक करीबी नेता बताते हैं कि चारा घोटाले में फंसने से ले कर साल 2005 में सत्ता गंवाने के बाद तक लालू ने काफी उतारचढ़ाव के दिन देखे. जेल से बचने और अपनी सरकार बचाने के चक्कर में वे कई बाबाओं की चिरौरी में लगे रहे.

इमेज तोड़ने की कोशिश

बाबाओं ने उन्हें यकीन दिलाया था कि लालू यादव का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा और साल 2010 में उन्हें दोबारा सत्ता हासिल हो जाएगी. इस बहाने बाबाओें ने लालू को खूब ठगा था. जब साल 2010 में उन्हें सत्ता नहीं मिली तो उस के बाद से ही लालू का बाबाओं पर से भरोसा उठने लगा था. पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने नीतीश से तालमेल कर डायरैक्ट तो नहीं, पर इनडायरैक्ट तो सत्ता पर कब्जा जमा लिया है. लालू की इस कामयाबी में बाबाओं की ताबीज नहीं, बल्कि उन की सियासी सूझबूझ ही काम आई. 1974 के जेपी आंदोलन की उपज लालू यादव समाजवादी धारा और सामाजिक न्याय के अगुआ नेता रहे हैं. तमाम खूबियों के साथ लालू यादव की बड़ी कमजोरी उन की पोंगापंथी सोच रही है. हर मसले को वे ज्यादातर पोंगापंथ के चश्मे से ही देखते रहे हैं. अपने विरोधियों पर हमला करने के दौरान वे पोंगापंथ से सनी बयानबाजी ही करते रहे हैं.

पिछले 14 अप्रैल को भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर आयोजित समारोह में लालू यादव पोंगापंथ और बाबाओं के मकड़जाल को तोड़ने की कोशिश में नजर आए. रविशंकर, रामदेव, आसाराम समेत सभी बाबाओं को ठग और धर्म के दुकानदार करार दे कर लालू ने अपनी ही इमेज को तोड़ने की पुरजोर कोशिश की है. जेपी आंदोलन में उन के साथ रहे प्रदीप यादव कहते हैं कि लालू की सोच, समझ और सियासत में बदलाव का असर दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक राजनीति पर पड़ेगा. दलितों और अल्संख्यकों को पोंगापंथ के दलदल से बाहर निकाले बगैर उन की तरक्की मुमकिन नहीं है. जब उन का नेता पोंगापथ के जाल से बाहर निकल चुका है तो जाहिर है कि अब लालू अपने वोटरों को भी इस से बाहर निकालने की कवायद में लगेंगे.

समाजसेवी किरण कुमारी कहती हैं कि लालू यादव का अंधविश्वास के मकड़जाल से बाहर निकलना पिछड़े और दलितों के हित में है. अब तक उन का वोटर देखता था कि दूसरों को पोंगापंथ से बाहर निकलने की दुहाई देने वाला खुद ही पोंगापंथ में सिर तक डूबा हुआ है. लालू का वोटर उन की कथनी और करनी के फर्क को देखता रहा है. अब जब लालू पोंगापंथ के कीचड़ से खुद बाहर निकल चुके हैं तो साफ है कि वे चाहेंगे कि उन का वोटर भी इस से बाहर निकल कर तरक्की की नई इबारत लिखे.

नीतीश को पीएम बनाना चाहते हैं लालू

‘‘नीतीश कुमार अगर भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो यह बिहार के लिए गर्व की बात होगी.’’ लालू ने कहा है कि अगर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो वे उन का साथ देंगे. इस के पहले नीतीश के गैरसंघवाद के नारे को भी लालू यादव समर्थन दे चुके हैं. नीतीश को प्रधानमंत्री का दावेदार बता कर लालू ने नीतीश से मनमुटाव की सारी अटकलों को खारिज कर दिया है. लालू कहते हैं कि नीतीश के कामकाज की तारीफ से विपक्ष के पेट में दर्द होने लगा है और नीतीश के जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तो भाजपा का कलेजा फटने लगा है. भाजपा को डर सताने लगा है कि कहीं नीतीश प्रधानमंत्री बन कर उस की सारी साजिशों को नाकाम न कर दें. गौरतलब है कि नीतीश के गैरसंघवाद के नारे का समर्थन कांग्रेस भी कर चुकी है. वहीं दूसरी ओर, अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोरचा ने जदयू में विलय का ऐलान भी कर दिया है. इस के अलावा जदयू का दावा है कि उत्तर प्रदेश के कई छोटे दल नीतीश का साथ देने को तैयार हैं.

सोच देशहित की

फिल्मी सितारों में से कुछ का बढ़ती कट्टरता के खिलाफ मुंह खोलना आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि जहां भी विचारों की अभिव्यक्ति की बात हो वहां दूसरे की सुनने का कर्तव्य, बोलने के अधिकार का हिस्सा है और एक कहता है तो दूसरे सुनते हैं. देश में भगवाधारी जिस सोच और बोल का माहौल बना रहे हैं, यदि यह परतदरपरत बढ़ता रहा तो देश की सोच की शक्ति उत्तरी कोरिया या अफगानिस्तान की तरह की सी हो जाएगी. शाहरुख खान जैसे मुसलिम ऐक्टर आमतौर पर इस तरह के मामलों में डर के कारण दखल नहीं देते क्योंकि उन के प्रशंसकों में हर तरह के लोग होते हैं. सो, वे विवाद से बचना चाहते हैं.

देश में शो बिजनैस के शिखर पर बैठे अभिनेता अमिताभ बच्चन कितने ही सद्व्यवहार के पाठ पढ़ा लें पर इस पोंगापंथी के खिलाफ मुंह नहीं खोल रहे क्योंकि वे तो खुद महापोंगापंथी हैं जिन्होंने अपनी रेड्डी बहू को अपनाने से पहले कई अपमानजनक पाखंड कराए थे. वे भगवाई आदेशों को बुरा किस मुंह से कहेंगे. वे तो देश के सारे मंदिरमसजिदों में सिर झुका आए हैं, फिल्मी नाटकीयता के कारण या किसी दिमागी दिवालिएपन के कारण.

शाहरुख खान की देश में बढ़ती धार्मिक असहनशीलता के प्रति कुछ माह पहले व्यक्त की गई चिंता सच थी, बनावटी नहीं. यह हर जगह दिखने लगी. बिहार के चुनावों में बढ़चढ़ कर दिखी. दिल्लीमुंबई में दिख रही है. गांवों की गलियों में दिख रही है. फेसबुक, व्हाट्सऐप और ट्विटर पर दिख रही है. अगर हमारी नहीं मानोगे तो पाकिस्तान भेज देंगे. हमारा समर्थन नहीं करोगे तो देशद्रोही कहेेंगे. हमारी बात पर मोहर लगा दो वरना हमारी पुलिस तुम्हारा काम तमाम कर देगी. हमारे जैसे बनो वरना हमारी भीड़ तुम्हारा घर जला देगी. यह हठधर्मी आज धर्म का हिस्सा बन गई है और शाहरुख खान उन हजारों में से एक हैं जिन्हें चिंता है कि इस तरह से देश फिर काला उपमहाद्वीप बन जाएगा. पाकिस्तान और बंगलादेश तो पहले ही वैचारिक अंधकार में डूबे हैं और अच्छे दिनों की रोशनी इतनी जल्दी काली आंधी में तबदील हो जाएगी, यह सोचा न था.

एक चुनाव जीत लेना भारत के वर्तमान और भविष्य का ठेकेदार बन जाना नहीं है. चुनाव केवल सरकार चलाने के लिए 500 लोगों को चुनने के लिए होता है. सरकार मर्यादाएं लांघ कर काम करेगी, 2,500 साल पुराना ऋषिमुनियों का जमाना लाने का काम करेगी तो देश तीरकमानों और बैलगाड़ी वाला ही बन कर रह जाएगा. आज जानेपहचाने चेहरों की सख्त जरूरत है जो देश की सोचें, सरकार या उसे चलाने वाले मुट्ठीभर लोगों की नहीं.

मुश्किल में बिग बी

पनामा लीक विवाद में आए अपने नाम को ले कर बिग बी सफाई भी नहीं दे पाए थे कि एक और मुश्किल ने उन्हें घेर लिया. दरअसल, 5 साल पुराने आयकर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इनकम टैक्स विभाग को अमिताभ से जुड़े इस केस को दोबारा खोलने की परमिशन दे दी है. जबकि इसी मामले में उन्हें बौंबे हाईकोर्ट से राहत पहले ही मिल चुकी है. टीवी शो केबीसी से जुड़े इस मामले में बिग बी काफी अरसे से उलझे हैं. मामला कुछ यों था कि उन्होंने कुछ साल पहले इस शो से होने वाली इनकम को कम दिखाया था. विभाग को इस बात पर आपत्ति है कि उन्होंने आय का मोटा हिस्सा अपनी आय में दिखाने के बजाय एबीसीएल में दिखाया. वैसे, इस मामले के अलावा वे जमीन के एक मामले में भी उलझ चुके हैं. इस उम्र में इतने कानूनी पेंच वाकई परेशान करने वाले हैं लेकिन खुद को निर्दोष साबित तो उन्हें करना ही होगा.

मराठी सिनेमा की गूंज

हिंदी फिल्मों को इन दिनों क्षेत्रीय सिनेमा से गुणवत्ता के मामले में जोरदार टक्कर मिल रही है. इस मामले में मराठी फिल्मों की चर्चा ज्यादा होती है. ज्यादा समय नहीं हुआ जब नाना पाटेकर की ‘नट सम्राट’ फिल्म ने मराठी जगत और उस के बाहर जम कर धूम मचाई थी और अब मराठी भाषा की फिल्म ‘सैराट’ भी कामयाबी के नए झंडे गाड़ रही है. मराठी फिल्में हमेशा से ही सामाजिक सिनेमा की सरोकारी करती आई हैं. सो, कम साधनों और छोटे बजट में भी गुणवत्तापूर्ण फिल्में कैसे बनाई जाती हैं, मराठी फिल्ममेकर्स से सीखा जा सकता है.

डौन का सहारा

अभिनेता विवेक ओबेराय का कैरियर फिल्म ‘कंपनी’ से शुरू हुआ था जिस में वे एक अंडरवर्ल्ड में काम करने वाले गुर्गे के किरदार में थे जो बाद में डौन बनना चाहता है. इस किरदार की बदौलत विवेक सब के चहेते बन गए. बीच में उन के कैरियर में जब भी बुरा दौर आया, उन के डौन के किरदार ने तारीफें दिलाईं. फिर चाहे वह ‘शूटआउट ऐट लोखंडवाला’ हो या फिर ‘रक्त चरित्र’. अब खबर है कि विवेक अपने डूबते कैरियर को बचाने के लिए अंडरवर्ल्ड डौन पर आधारित फिल्म करने जा रहे हैं. इस नई फिल्म का नाम है ‘राय’. हाल ही में इस का फर्स्ट लुक रिलीज किया गया.कहा जा रहा है कि यह पूर्व अंडरवर्ल्ड डौन मुथप्पा राय की लाइफ पर आधारित है. नकारात्मक किरदारों को दर्शकों का ध्यान मिलता है, यह भी अजीब जनमानसिकता है.

शादी के लिए बनी ईसाई

रीमा फकीह का नाम उस समय सुर्खियों में आया था जब वे पहली मुसलिम मिस यूएसए के खिताब से नवाजी गईं. इस के बाद वे कुछ नकारात्मक खबरों के लिए आलोचनाओं की भी शिकार बनीं जब स्ट्रीपर 10 कार्यक्रम की कुछ तसवीरें सार्वजनिक हो गई थीं. इस के अलावा रीमा को साल 2012 में डिं्रक ऐंड ड्राइव के एक मामले में न सिर्फ दोषी पाया गया था बल्कि उन की काफी फजीहत भी हुई थी. अब रीमा ने एक और सनसनी मचाने वाला काम किया है. दरअसल, कई अमेरिकी मुसलिमों की तरह उन्होंने भी शादी करने के लिए मुसलिम धर्म को छोड़ कर ईसाई धर्म अपना लिया है. चूंकि वे म्यूजिक प्रोड्यूसर वासिम सालिबी से शादी कर रही हैं और वासिम भी ईसाई हैं, इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया.

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