‘स्वर्गद्वार’ नाम है इस जगह का. यह स्थान बीच बाजार में है और बीच के किनारे है, यानी समुद्री किनारे के बाजार से लगा हुआ. जगन्नाथपुरी के भ्रमण पर जब इस के बारे में सुना तो मुझे ‘स्वर्गद्वार’ नाम पर उत्सुकता हुई. वैसे, पुरी के 3 दिनों के निवास में मुझे इस की वास्तविकता के बारे में पता न चलता यदि संयोगवश हमारा वाहन वहां नहीं रुकता. सामने श्रद्धालु एवं पर्यटक लहरों से अठखेलियां कर रहे थे. आजकल भारत में पर्यटक केवल पर्यटक नहीं हैं और न ही श्रद्धालु केवल श्रद्धालु. ये दोनों, दोनों काम एकसाथ करना चाहते हैं. सही भी है कि बाजारवाद के इस युग में भगवान के दर्शन भी किसी अन्य नफे के साथ होने चाहिए.

नाम इस का ‘स्वर्गद्वार’, लेकिन मुझे यहां नरक के दर्शन हो गए. यह समुद्री बीच के सामने भीड़भरे बाजार के बीच में एक ‘मोक्ष स्थल’ है जहां शवों का दाहसंस्कार किया जाता है. हमारा वाहन ठीक इसी स्थान पर एक कार्य से हमारे एक साथी द्वारा रुकवाया गया था. ड्राइवर ने बड़ी मुश्किल से यहां वाहन रोका था. वह कभी ट्रैफिक का बहाना बना रहा था तो कभी बोल रहा था कि यहां जुर्माना ठुक जाता है. लेकिन असल बात कुछ और ही थी. वाहन के रुकने के बाद जैसे ही उस के दरवाजों के कांच खुले, तेज दुर्गंध का झोंका अंदर आया. ड्राइवर भी बड़बड़ाने लगा कि यहां तो खड़ा होना भी मुश्किल है. मैं ने सामने देखा, दुकानों के पीछे सड़क के दूसरी ओर अग्नि की ऊंचीऊंची लपटें उठ रही थीं. दुकानों के बीच की खाली जगह से बीच बाजार में अग्नि की उठती लपटों का दृश्य अजीब सा लग रहा था. तभी हमारे बीच के एक साथी बोल उठे कि देखो, दाहसंस्कार हो रहा है. मैं ने नजरें गड़ाईं तो मुझे शव के साथ आए लोगों का जमावड़ा वहां दिखा.

मुझे एकदम से झटका लगा कि यहां बीच के सामने भीड़ व कोलाहल भरे बाजार के बीच में दाहसंस्कार हो रहा है और कितने सारे लोग, जिस में अधिसंख्य पर्यटक हैं, इस से अनजान हैं. कोई लहरों से अठखेलियां कर रहा है तो कोई ठेले से आइसक्रीम ले कर उस का मजा ले रहा है कोई मछली का मजा ले रहा है. पास में राज्य स्तर का युवा पर्व भी चल रहा है. संगीतलहरियों में डांस व गाने हो रहे हैं. लोग झूमझूम कर नाच रहे हैं. एक तंबू ‘सैंड आर्ट’ का भी लगा है. शाकाहारी पाठक माफ करें, वे यह पढ़ कर नाराज होंगे कि मछलीमुरगा खाने से भी भला मजा आता है किसी को. इसी बीच ड्राइवर, जिस का नाम दीपू था तथा भुवनेश्वर का रहने वाला था, बोला कि ये जो लोग मच्छी खा रहे हैं, उन्हें मुर्दा जलने की दुर्गंध का भी एहसास नहीं हो रहा होगा. तभी मैं ने कहा कि इन्हें मालूम नहीं होगा कि सामने दाहसंस्कार होता है वरना कोई आदमी क्या इतना संवेदनहीन हो सकता है. और फिर कोई यह भी कह सकता है कि इतनी नैतिकता की बात कर रहे हो, क्या तेरहवीं में भी एक प्रकार से, हम सब यही नहीं करते हैं? एक और बहस की बात यह कि कोई कह सकता है कि श्मशान के पास भी तो आजकल शहरों में इतने परिवार रहते हैं. क्या वे जलती चिता की लपटें देख कर भोजन करना बंद कर दें? तो फिर तो, उन का भी लपटों में आने का दिन जल्दी ही आ जाएगा.

दीपू तपाक से बोला, ‘‘इन को सब मालूम है, अंधे हैं क्या ये? और इतनी दुर्गंध हो रही है, सूंघने की शक्ति खत्म हो गई है क्या इन की? मछली खाने के लिए तो ये ठेलों के आसपास सूंघते हुए मंडरा रहे हैं?’’ वह आगे बोला, ‘‘मैं तो कई सालों से देख रहा हूं इन को. ये नहीं मानते कि कोई मरे, गड़े, जले या कटे, इन्हें तो यहीं खड़े हो कर मच्छी खाना है. मैं ने मन में सोचा कि यह सही कह रहा है वहां किसी का मरना, दाहसंस्कार होना और यहां किसी का इस तरीके से जीना. अब हमारे साथी अपने मोबाइल को रिचार्ज करा कर आ गए थे. वे भी आते ही बोले कि अरे, जबरदस्त दुर्गंध आ रही है, खड़ा होना मुश्किल है.

मुझे यह दृश्य देखते हुए बचपन का वह दिन याद आ गया जब मेरी दादी का निधन हुआ था. नगरनिगम के शववाहन में हम उन की देह को मोक्षधाम ले जा रहे थे. आगे एक मिलिटरी वाहन चल रहा था. उस ने जब यह देखा तो वह मृतक के सम्मान में रुक गया और शववाहन के आगे निकलने के बाद ही आगे बढ़ा. मुझे ग्वालियर की एक और घटना भी याद आ गई. मैं अपने वाहन से भीड़ होने की वजह से सड़क पर धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, उस समय एक अर्थी निकल रही थी. जब वह यातायात के वरदीधारी, ड्यूटी पर तैनात सिपाही के सामने से गुजरी तो उस ने उसे बाकायदा सैल्यूट मारा.

क्या हम अपनी संवेदनशीलता व परंपराएं भूलते जा रहे हैं? इंसानों व जानवरों में कोई अंतर नहीं रह गया है? स्वर्गद्वार के सामने खड़ेखड़े ही मुझे 2 साल पहले की एक घटना याद आ गई. मैं मध्य प्रदेश के एक जिले में मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला परिषद, के रूप में पदस्थ था. हम एक दिन सुबहसुबह ग्रामीण क्षेत्र के दौरे पर निकले थे. 2 घंटों में 2-3 गांवों का भ्रमण हो गया था. जिला मुख्यालय से 60-70 किलोमीटर दूर एक आंतरिक डामर सड़क पर हमारे वाहन फर्राटे से आगे दौड़ते चले जा रहे थे. अचानक एक स्थान पर सड़क के बीचोंबीच लगभग 60-70 लोगों की भीड़ देख कर हमारे वाहन थम गए. सड़क के किनारे एक बस खड़ी थी बस की सवारियां नीचे सड़क पर उतर आई थीं, आसपास के गांवों के कुछ लोग भी आ गए थे. बस की अचानक टक्कर लगने से सड़क के बीचोंबीच एक गाय औंधी पड़ी थी. मैं अपने वाहन से नीचे उतर आया था. ध्यान से मैं ने देखा, उस के मुंह में हरी घास अभी भी दबी थी. वह अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी. आंखें उस की पथरा गई थीं. सड़क के दोनों ओर घास की हरी पट्टी थी. उस के नीचे ढलान में पहाडि़यां व खेत थे. उस के आगे गांव था. सो, गांव के पशु यहां चरने के लिए छोड़ दिए जाते होंगे. एक बात जो मैं ने गौर की, वह यह थी कि इस झुंड की लगभग 15-20 गायें हरी घास चरने में मशगूल थीं. उन के बीच की एक गाय अंतिम सांसें गिन रही थी. हरी घास का निवाला उस के मुंह से अंदर को नहीं जा पाया था, वह इस दुनिया से किसी भी पल रुखसत होने वाली थी. लेकिन बाकी सारी गायें हरी घास चरने में व्यस्त थीं जैसे कि कुछ हुआ ही न हो.

इसी तरह के दृश्य का साक्षी तो मैं इस स्वर्गद्वार कहे जाने वाले स्थान पर था. यह यहां रोज होता होगा या उस दिन होता होगा जब कोई मृतदेह अग्नि को समर्पित होने को लाई जाती होगी. वहां दाहसंस्कार की लपटें और यहां अंडा व मछली को भूनने के लिए उठती लपटें और इन के स्वाद पर जीभ लपलपाते लोग. उन जानवरों में और हम इंसानों में कोई अंतर रह गया है क्या?

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