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अभिनय ही सबकुछ नहीं : प्राची देसाई

अभिनेत्री प्राची देसाई टीवी जगत से फिल्मों में आई हैं. ‘रौक औन’ फिल्म से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाली प्राची ने ‘वन्स अपौन ए टाइम इन मुंबई’, ‘बोल बच्चन’, ‘आई मी और मैं’ आदि फिल्मों में काम किया, हालांकि उन्होंने अपना अभिनय कैरियर टीवी से शुरू किया था पर अब वे फिल्मों में ही आगे बढ़ना चाहती हैं. फिल्म ‘अजहर’ में वे नजर आईं. क्रिकेटर अजहरुद्दीन पर आधारित इस फिल्म में वे अजहरुद्दीन की पहली पत्नी नौरीन की भूमिका में हैं.

नौरीन की भूमिका निभाना कितना कठिन था, इस सवाल के जवाब में प्राची कहती हैं, ‘‘यह किरदार बहुत कठिन था. उसे कोई नहीं जानता है, कौन है, कहां रहती है, अजहरुद्दीन के जीवन पर उस का प्रभाव क्या है आदि कई प्रश्न हैं जो ‘अनटोल्ड’ हैं, उसे बताने की कोशिश की गई है. जब नौरीन 16 साल की थी तब उसे अजहरुद्दीन से कैसे प्यार हुआ, शादी हुई आदि सभी मैं ने जानने की कोशिश की. मैं उन से मिली. मिलने के बाद मेरी राय पूरी तरह से बदल गई. असल जिंदगी में उन्हें देख कर मैं भावुक हो गई. तभी उन से जुड़ाव भी महसूस होने लगा. ऐसा शायद कहानी या मेरी भूमिका की वजह से हुआ. रियल लाइफ में 20 साल की उम्र में उन की शक्ति, मर्यादा, कम बोलना आदि सभी को परदे पर जीवंत करना आसान नहीं था. यह मेरे लिए चुनौती थी, इसलिए मैं ने इस भूमिका को करना सही समझा.

चूंकि फिल्म अजहरुद्दीन के जीवन पर आधारित है जो भारतीय क्रिकेट टीम के कैप्टन रह चुके हैं, ऐसे में वे क्रिकेट में कितनी दिलचस्पी रखती हैं और क्या अजहर की फैन हैं? इस बाबत प्राची बताती हैं, ‘‘मुझे स्पोर्ट्स पसंद है. स्कूल में कई बार दोस्तों के साथ खेलती थी. क्रिकेट मैच भी देखती हूं. अजहरुद्दीन की फैन हूं, पापा के साथ बैठ कर क्रिकेट देखती थी. उस वक्त मैं छोटी थी, मुझे अधिक याद नहीं. पर इस फिल्म के जरिए मैं उन्हें अधिक जान पाई. उन की जिंदगी के कई अहम पहलू पता चले.’’

किसी सैलिब्रिटी की लाइफ पर आधारित फिल्म में इस तरह की भूमिका निभाने में क्या फिल्मी सतर्कता बरतनी पड़ती है? प्राची के मुताबिक, ‘‘हालांकि अजहरुद्दीन के जीवन की आलोचनाएं रही हैं पर जब मैं नौरीन से मिली तो मैं ने उन से ऐसी कोई बात नहीं पूछी जो उन्हें ‘हर्ट’ करे. रियल लाइफ चरित्र को निभाने में व्यक्ति की सोच, हावभाव सबकुछ आप को उन की दृष्टि से सोचने पड़ते हैं ताकि कुछ भी उन से अलग न हो जाए. ऐसे में वैसा ही सोचना, फिर अपनी दुनिया में आना, बहुत कठिन था.’’

काफी दिनों बाद फिल्मों में आने को ले कर चूजी तो नहीं हो गई हैं? इस पर प्राची कहती हैं, ‘‘मैं ‘चूजी’ हूं. किसी भी फिल्म को करना है, ऐसा सोच कर नहीं करती. मुझे मेरे पसंद की भूमिका नहीं मिल रही थी. जैसे कि लवस्टोरी. एक जैसे अभिनय मैं नहीं करना चाहती.’’ पार्टियों में नहीं दिखतीं, इस की वजह क्या है जबकि फिल्मी पार्टियों में अकसर नए कलाकार दिखाई पड़ते हैं? इस का जवाब प्राची कुछ यों देती हैं, ‘‘मैं ने 17 साल की उम्र में टीवी पर वह भूमिका निभाई थी जो अभी भी मेरी उम्र से दूर है. फिर मुझे अधिक पार्टियां पसंद नहीं. इस के अलावा अगर आप फिल्मी बैकग्राउंड से होते हैं तो आप के अनुसार कहानियां लिखी जाती हैं. आउटसाइडर्स के लिए ऐसा कुछ नहीं होता. उन्हें अपनेआप को बारबार साबित करते रहना पड़ता है और जो काम उन्हें मिलता है उसी में उन्हें अपने लायक चुनना पड़ता है. यह जरूरी नहीं कि पार्टियों में जाने से ही काम अच्छा मिलेगा.’’

क्या टीवी पर फिर से आने की इच्छा है? इस पर प्राची की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी है, ‘‘यह सही है कि आजकल टीवी पर रिऐलिटी शो, शौर्ट स्टोरीज, अच्छे धारावाहिक आ रहे हैं. बड़ेबड़े स्टार भी उस में काम कर रहे हैं फिर चाहे अमिताभ बच्चन हों या शाहरुख खान. टीवी एक बड़ा माध्यम भी है. फिर भी डेलीसोप मैं नहीं करना चाहती. कुछ रचनात्मक काम अगर रिऐलिटी शो या किसी और शो में होगा तो शायद मैं करूं. हमारे यहां विदेशों की तरह टीवी स्टार को महत्त्व नहीं दिया जाता. यहां टीवी में काम करने वाले को घर की सासबहू से जोड़ लिया जाता है. जबकि फिल्मों में अभिनय करने वाले कलाकार लोगों की कल्पना में होते हैं. उन तक पहुंचना नामुमकिन माना जाता है.’’

फिल्म इंडस्ट्री में सफलता के फौर्मूले को ले कर प्राची का मानना है, ‘‘इंडस्ट्री में सफलता का कोई फौर्मूला नहीं है. अगर आप को सही चांस मिलते हैं तो आप सफल हो सकते हैं क्योंकि प्रतिभा सभी में है. मेहनत सब करते हैं लेकिन अगर आप को अच्छा काम मिलेगा तभी तो आप सफल हो सकते हैं. मैं विद्या बालन और कंगना राणावत से प्रभावित रही हूं. उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है. पर आज से 8 साल या 10 साल पहले आप देखेंगे कि उन के बारे में कैसी बातें लिखी और बोली जाती थीं. आज देखिए कि वे कितने सफल हैं. वे तब भी प्रतिभावान थे, पर सफलता अब मिली.’’

अपनी आने वाली फिल्म व ड्रीम प्रोजैक्ट को ले कर प्राची बताती हैं कि वे ‘रौक औन’ की सीक्वल कर रही हैं. ‘रौक औन टू’ अलग तरह की सीक्वल है. बौलीवुड में इस तरह की फिल्म नहीं आई है. इस फिल्म की शूटिंग शिलौंग में की गई है. और रही बात ड्रीम प्रोजैक्ट की, तो मैं लवस्टोरी करना चाहती हूं जो ‘यूथसैंट्रिक’ हो. फिर चाहे वह इमोशनल, थ्रिलर या रौमकौम, कैसी भी लवस्टोरी हो, मैं पसंद करूंगी. इंडस्ट्री में इतने साल बिताने के बाद आईओपनर की बात क्या थी? इस पर वे बताती हैं, ‘‘यहां केवल ऐक्ंिटग ही आप के लिए सबकुछ नहीं है. आप को कुछ और चीजें भी करनी पड़ती हैं. यह बात मुझे देरी से समझ में आई. पहले मैं समझती थी कि अभिनय ही यहां सबकुछ है. पर ऐसा नहीं है. कई ऐसे कलाकार हैं जो परफौर्म नहीं कर पाते फिर भी इंडस्ट्री में टिके हैं. मैं बहुत ही प्राइवेट पर्सन हूं और अभिनय पर विश्वास करती हूं. मैं ‘लाइमलाइट’ में आने के लिए ‘कुछ भी’ नहीं कर सकती. मुझे ट्रैवलिंग पसंद है. स्पोर्ट्स में समय बिताती हूं. डांस बहुत पसंद है उसे सीखना चाहती हूं. गाना गाने की भी इच्छा है, अगर मौका मिलेगा तो अवश्य गाऊंगी.’’

अंतरंग दृश्यों को ले कर प्राची का कहना है, ‘‘यह करना आसान नहीं होता. आप इतने सारे लोगों के सामने ऐसे लवसींस करते हैं. ऐसे में आप को दृश्य पर ध्यान देना पड़ता है. जितना आप ऐसा करेंगे आप को फिल्माने में आसानी होती है. आज तक भी मेरे लिए यह आसान नहीं है. पर यह मेरा काम है. अगर आप इस दृश्य की अहमियत को उस कहानी में समझते हैं तो करना सहज होता है. इस के अलावा स्क्रिप्ट में वह दृश्य कितना माने रखता है, उसे देखती हूं. अगर यों ही है तो मैं नहीं करती.’’

प्राची का कैरियर उतारचढ़ाव भरा रहा है. टीवी पर एक कामयाब कैरियर के बाद फिल्मों में मिली इक्कीदुक्की सफलता को उन्हें सह कलाकारों के साथ बांटनी पड़ी. कोई ऐसी फिल्म, जो उन के कंधों पर चढ़ कर सफलता पा चुकी, याद करना मुश्किल है. अगर प्राची को विद्या बालन या प्रियंका चोपड़ा सरीखी कामयाबी पानी है तो कुछ अलग व विविध काम करना ही पड़ेगा.

फीफा की महिला महासचिव

दुनिया का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी प्रतिभा का लोहा न मनवाया हो. फीफा में अब तक पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है पर पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी महिला को अंतर्राष्ट्रीय नियामक संस्था यानी फीफा में महासचिव बनाया गया हो. 54 वर्षीया फातमा सामोरा को महासचिव के पद पर नियुक्त किया गया है. सामोरा अफ्रीकी देश सेनेगल की हैं. यह ऐतिहासिक फैसला फीफा की कांग्रेस में किया गया.

फातमा सामोरा ने जेरोम वाल्क का स्थान लिया है जिन पर फुटबौल संबंधी किसी प्रकार की गतिविधियों में हिस्सा लेने के संदर्भ में 12 वर्षों का बैन लगा है. फीफा के अध्यक्ष जियानी इन्फेन्टिनो ने सामोरा की तारीफ में कहा कि सामोरा हवा के झोंके की तरह होंगी. वे बाहर से हैं और संस्था में नई भी हैं. फातमा सामोरा अभी तक संयुक्त राष्ट्र में सेनेगल की राजनयिक थीं और फिलहाल वे नाइजीरिया में संयुक्त विकास कार्यक्रम से जुड़ी हैं. सामोरा 21 वर्षों से संयुक्त राष्ट्र के साथ काम कर रही हैं. फुटबौल जगत से उन का रिश्ता रहा नहीं है. बावजूद इस के, उम्मीद की जा रही है कि जिस प्रकार से पिछले कुछ वर्षों में फीफा की जो बदनामी हुई है वह शायद अब ठीक हो जाए. जब से फीफा में भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं तब से फीफा पर सवाल उठ रहे हैं और इस का असर पिछले विश्वकप फुटबौल में दिख भी चुका है. फिलहाल, सामोरा इस पद को ले कर काफी उत्साहित हैं लेकिन संगठन के प्रदर्शन में सुधार लाने में वे अपनी योग्यता किस हद तक दिखाती हैं, यह वक्त ही बताएगा.

सुशील और नरसिंह का दंगल

सुशील कुमार एक बड़े व इंटरनैशनल पहलवान हैं पर जिस तरह से रियो ओलिंपिक के दंगल के लिए वे प्रधानमंत्री कार्यालय, खेलमंत्रालय से ले कर हाईकोर्ट तक पहुंच गए. ऐसा करना कहीं से भी तार्किक नहीं लगता. अब तक की यही परंपरा रही है कि जिस ने कोटा लिया है वही हकदार होता है और पहलवान नरसिंह ने 74 किलोग्राम भार में लास वेगास में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में देश को रियो ओलिंपिक का कोटा दिलाया है और वे रियो के लिए क्वालिफाई कर चुके हैं. जिस समय क्वालिफाइंग चैंपियनशिप हुई थी तब सुशील कुमार कंधे की चोट की वजह से इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाए थे लेकिन अब वे फिट हैं तो वे चाहते हैं कि नरसिंह यादव के साथ एक ट्रायल मैच करा लें और खेलमंत्रालय फैसला कर ले कि कौन रियो ओलिंपिक में हिस्सा लेगा. रेसलिंग फेडरेशन औफ इंडिया ने इस नूराकुश्ती पर साफ कर दिया कि वे परंपरा के मुताबिक ही चलेंगे यानी नरसिंह ही रियो के लिए दावेदार हैं. फैडरेशन का भी कहना सही है क्योंकि सुशील कुमार को अगर ऐसा मौका दिया जाता है तो दूसरे पहलवानों के साथ भी ऐसा होना चाहिए. सुशील की हठधर्मिता कहीं से भी ठीक नहीं लगती. वे मैडल जीत कर देश का नाम रोशन कर चुके हैं और दूसरे पहलवानों के प्रेरणास्रोत भी रहे हैं.

हां, नरसिंह अगर अनफिट होते तो ऐसा किया जा सकता था पर ऐसा नहीं है. नरसिंह फिट भी हैं और उन का मानना है कि वे सुशील से किसी भी माने में कम नहीं हैं. उन्होंने लास वेगास में कड़े मुकाबले में जीत कर यह साबित भी किया है. सुशील के कई साथी भी चाहते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है और ट्रायल नहीं होना चाहिए. अगर ऐसा होता है तो पूरी दुनिया में गलत मैसेज जाएगा. जो इस के लिए हकदार हैं उन्हें ही रियो में जाना चाहिए. केवल पिछले मैडल के आधार पर रियो का टिकट पक्का नहीं समझना चाहिए. सुशील की यह हठधर्मिता ठीक नहीं.

औस्टियोपोरोसिस : हड्डियों का भयानक रोग

औस्टियोपोरोसिस शब्द का वास्तविक मतलब है हड्डियों का भुरभुरा या छिद्रयुक्त हो जाना. हड्डियों में जब प्रोटीन और खनिज तत्त्व, खासकर कैल्शियम का अधिक मात्रा में क्षरण हो जाता है तब यह समस्या पैदा होती है. इस के परिणामस्वरूप आप की हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और मामूली रूप से गिरने पर भी वे टूट सकती हैं. कुछ गंभीर मामलों में तो महज छींकने या फर्नीचर से टकरा जाने जैसी सरल क्रियाओं के दौरान भी हड्डियों में टूटन की समस्या आ सकती है. विदेशों, विशेषकर ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों में औस्टियोपोरोसिस के कारण हड्डियां टूटना या उन में फ्रैक्चर होना एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है. केवल ब्रिटेन में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख से ज्यादा नए औस्टियोपोरोसिस या अस्थिछिद्रता के रोगियों की पहचान होती है. क्योंकि निजी अस्पतालों और चिकित्सकों से इलाज ले चुके या इलाज ले रहे सभी रोगियों की सूचनाएं एकत्र नहीं हो पाती हैं.

यह अस्थियों का खतरनाक रोग है जो हड्डियों को कमजोर और खोखला बना देता है और फिर थोड़ी सी चोट या दबाव से अपनेआप हड्डियों में दरारें आ जाती हैं या वे टूट जाती हैं, अर्थात उन में फ्रैक्चर हो जाता है. पहले यह विकसित देशों का रोग था लेकिन अब हमारे देश में भी आम होता जा रहा है. वास्तव में इस रोग में हड्डियों का घनत्व और मात्रा कम हो जाती है तथा हड्डियों की अंदरूनी सूक्ष्म संरचनाओं में परिवर्तन होने से उन के टूटने का खतरा बढ़ जाता है. सरल भाषा में कहें तो इस रोग में हड्डियों की मजबूती कम हो जाने के कारण वे जरा सा दबाव भी सहन नहीं कर पातीं और टूट जाती हैं.

मानव में हड्डियों का अधिकतम विकास 25 वर्ष से 35 वर्ष के मध्य होता है. इस के बाद कई कारणों से हड्डियां कमजोर होने लगती हैं. उन का वजन भी कम होने लगता है. विशेषकर स्त्रियों में एस्ट्रोजन नामक हार्मोन के कम होने से यह प्रक्रिया रजोनिवृत्ति के बाद तेज हो जाती है. इसलिए 45 वर्ष की आयु में स्त्रियों में इस रोग की अकसर शुरुआत हो जाती है. कैल्शियम की कमी भी इस रोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यदि रजोनिवृत्ति के बाद पर्याप्त कैल्शियम की खुराक ली जाए तो औस्टियोपोरोसिस होने की संभावना कम हो जाती है.

यह रोग अंत:स्रावी ग्रंथियों की गड़बडि़यों, कैंसर व कुछ दवाओं के कारण भी हो सकता है. इस के अलावा कम वजन के व्यक्तियों, अल्कोहल या नशीली दवाएं लेने वालों में भी यह रोग होने की संभावना होती है. पैतृक कारणों से भी औस्टियोपोरोसिस होता है. आईओएफ यानी इंटरनैशनल औस्टियोपोरोसिस फाउंडेशन के मुताबिक, औस्टियोपोरोसिस रोगी को एक बड़ी व्यक्तिगत व आर्थिक क्षति पहुंचाती है. दुनियाभर में हाल के वर्षों में हड्डियों की कमजोरी के कारण विकलांगता, कैंसर की वजह से होने वाले प्रभाव की तुलना में कहीं ज्यादा देखी गई और क्रौनिक, गैर संचारी रोगों, मसलन गठिया, अस्थमा और उच्च रक्तचाप से संबंधित हृदय रोगों की तुलना में कहीं अधिक नुकसान देखा गया.

औसतन हर 3 सैकंड में एक औस्टियोपोरोटिक फ्रैक्चर की दर से औस्टियोपोरोसिस के चलते दुनियाभर में सालाना तकरीबन 80.9 लाख फ्रैक्चर सामने आते हैं. 50 से अधिक उम्र की हर 3 में से 1 महिला को और 50 से अधिक आयुवर्ग के हर 5 में से 1 पुरुष को औस्टियोपोरोटिक फ्रैक्चर का अनुभव होता है. ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2050 तक औस्टियोपोरोटिक हिप फ्रैक्चर के 50 फीसदी से अधिक मामले केवल एशिया में देखने को मिलेंगे. 11 देशों में किए गए आईओएफ सर्वेक्षण में यह पाया गया कि बीमारी के निदान और उपचार के संदर्भ में महिलाओं में रजोनिवृत्ति के बाद व्यक्तिगत जोखिम के प्रति लापरवाही, औस्टियोपोरोसिस को ले कर अपने डाक्टर से विचारविमर्श की कमी, निदान की कमतरता और पहले फ्रैक्चर से पहले ही उपचार के अभाव ने स्थिति को और गंभीर बनाया है.

माईलोमा, ट्यूमर, एनोरेक्सिया नर्वोसा

रोग का पता अचानक फ्रैक्चर होने पर चलता है. फ्रैक्चर कलाई की हड्डी, रीढ़ की हड्डियों में होते हैं. ज्यादा वृद्ध व्यक्ति में कमर की हड्डी में फ्रैक्चर होता है. ये फ्रैक्चर थोड़ी सी ऊंचाई से गिरने या फिसलने से हो सकते हैं. रीढ़ की हड्डी का फ्रैक्चर तो वजन उठाने से भी हो सकता है. कई बार फ्रैक्चर एकसाथ कई जगह हो सकते हैं. यदि ऐसे रोगी का एक्सरे किया जाए जिसे फै्रक्चर नहीं है तो एक्सरे सामान्य दिखता है अर्थात इस से रोग का पता नहीं चल पाता है. सो, पहचान के लिए एक विशेष उपकरण, जिसे बोन डैंसिटोमीटर कहते हैं, का उपयोग कर हड्डियों का घनत्व या डैंसिटी का पता करते हैं. इस प्रक्रिया को डैंसिटोमैट्री कहते हैं.

इस के अलावा कुछ बायोकैमिकल जांचें, जैसे रक्त में एल्केलाइन फौस्फेटेज की जांच भी करते हैं. औस्टियोपोरोसिस में इस का स्तर सामान्य से कुछ बढ़ जाता है.

स्त्रियों को रजोनिवृत्ति के बाद (45 वर्ष के आसपास), वे व्यक्ति, जिन के पारिवारिक सदस्यों को यह बीमारी हो और थोड़े से दबाव या झटके के कारण जिन की हड्डियों में फ्रैक्चर हो गया हो, को डैंसिटोमैट्री जांच करवानी चाहिए. औस्टियोपोरोसिस के इलाज में नशा छोड़ने की सलाह के साथ उच्च कैल्शियम युक्त भोजन लेने को रोगियों से कहा जाता है. कैल्शियम की मात्रा 1,500 मिलीग्राम या इस से अधिक प्रतिदिन होनी चाहिए. साथ ही, उचित व्यायाम की सलाह भी दी जाती है. इस से औस्टियोपोरोसिस रोकने में मदद मिलती है. रोग से ग्रसित महिलाओं को एस्ट्रोजन के साथ प्रोजेस्ट्रौन की उचित मात्रा दी जाती है. इसे हार्मोन रिप्लेसमैंट चिकित्सा भी कहते हैं. इस चिकित्सा से महिला रोगियों को फायदा होता है. पुरुषों को एंड्रौजन नामक हार्मोन दिया जाता है. भारत में महिलाओं में जौइंट रिप्लेसमैंट सर्जरी के 70 फीसदी मामले देखने को मिले. इस का प्रमुख कारण यह है कि जब कोई महिला रजोनिवृत्ति की दशा में पहुंचती है तो उस के एस्ट्रौजन स्तर में कमी आती है जो हड्डियों के क्षय का कारण बनता है. कुछ महिलाओं में हड्डियों के क्षय की यह प्रक्रिया तेज और गंभीर होती है.

औस्टियोपोरोसिस होने की संभावना को प्रभावित करने वाले 2 प्रमुख कारक :

  1. रजोनिवृत्ति की दशा में पहुंचने पर आप की हड्डियों का घनत्व जितना अधिक होगा, औस्टियोपोरोसिस होने का जोखिम उतना कम होगा. लो पीक बोन मास (हड्डियों के द्रव्यमान में कमी) या हड्डियों के क्षय का जोखिम पैदा करने वाले अन्य कारकों के चलते औस्टियोपोरोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है.
  2. रजोनिवृत्ति तक पहुंचने के बाद कितनी तेजी से आप की हड्डियों का क्षय होता है. कुछ महिलाओं में अन्य महिलाओं की तुलना में हड्डियों का क्षय तेजी से होता है. वास्तव में रजोनिवृत्ति के बाद 5-7 वर्षों में एक महिला अपने हड्डियों के घनत्व का तकरीबन 20 फीसदी खो देती है. यदि आप में तेजी से बोन लौस हो रहा है, तो इस का मतलब है कि आप में औस्टियोपोरोसिस होने का जोखिम ज्यादा है.
  3. औस्टियोपोरोसिस की समस्या उम्रदराज लोगों में ज्यादा देखी जाती है, लेकिन कभीकभार यह युवाओं को भी प्रभावित करती है, जिन में 20, 30 या 40 वर्ष की रजस्वला स्त्रियां शुमार होती हैं. हालांकि रजस्वला स्त्रियों में औस्टियोपोरोसिस होने की संभावना कम होती है, लेकिन कुछ स्त्रियों की बोन डैंसिटी (हड्डियों का घनत्व) कम होता है, जिस के चलते आगे चल कर उन में औस्टियोपोरोसिस होने का खतरा बढ़ जाता है.

महिलाओं को मांसपेशियों की ताकत को बनाए रखने, हड्डी के क्षय को रोकने या औस्टियोपोरोसिस का प्रबंधन करने के लिए कुछ कदम उठाने की जरूरत है:

  1. अच्छी जानकारी रखें : यदि आप में बीमारी होने की गुंजाइश ज्यादा है तो बेहतर होगा कि आप औस्टियोपोरोसिस के बारे में जरूरी बातों की जानकारी रखें, इस के बारे में सीखें, इसे जानें.
  2. हड्डियों की सेहत की जांच : रजोनिवृत्ति की दशा में पहुंचने पर महिलाएं अपने डाक्टर के पास जा कर अपनी हड्डियों की सेहत से संबंधित परामर्श लें. पता लगाएं कि उन में फ्रैक्चर का जोखिम तो नहीं है. जिन महिलाओं में बोन लौस की समस्या का निदान हुआ हो उन्हें अपने डाक्टर के परामर्श पर उचित उपचार कराना चाहिए.
  3. नियमित व्यायाम : हड्डियों को मजबूत बनाने और औस्टियोपोरोसिस को रोकने के लिए सप्ताह में 3-4 बार तकरीबन 30 मिनट तक रेजिसटैंस टे्रनिंग (प्रतिरोध प्रशिक्षण) और वजन उठाने वाले व्यायाम आदि करने का नियम बनाना चाहिए.
  4. आहार : महिलाओं को कैल्शियम और प्रोटीन से भरपूर भोजन के साथसाथ प्रचुर मात्रा में फल और सब्जियों का सेवन करना चाहिए. सोयाबीन, स्प्राउट्स दालें, दूध, पनीर व दही आदि का सेवन लाभकारी होता है.
  5. विटामिन डी : विटामिन डी हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है. सूरज से पर्याप्त विटामिन डी प्राप्त करें.
  6. बुरी आदतों का त्याग : धूम्रपान और शराब का सेवन बिलकुल बंद कर दें. वजन सामान्य से कम न होने दें क्योंकि कम वजन वाली महिलाओं में सामान्य वजन वाली महिलाओं की तुलना में औस्टियोपोरोसिस होने की संभावना ज्यादा रहती है.
  7. सर्जिकल रिप्लेसमैंट : पिछले कुछ दशकों में नी रिप्लेसमैंट (घुटना प्रत्यारोपण) के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. मौजूदा दौर में उपलब्ध सामग्री बेहतर प्रदर्शन में सक्षम बनाने और प्रत्यारोपण को लंबे समय तक टिकाऊ बनाए रखने में कारगर है. तकनीकी रूप से उन्नत सामग्री, जिसे ‘औक्सीडाइज्ड जिरकोनियम’ कहा जाता है, अपनी मजबूत और खरोंच प्रतिरोधक क्षमता के कारण घुटनों के प्रत्यारोपण के लिए बेहतर मिश्रण साबित हो रही है. मौजूदा भारतीय परिदृश्य में, खासकर महिलाओं के लिए सक्रिय जीवनशैली हेतु, इस कृत्रिम अंग की सिफारिश की जाती है.

आमतौर पर सामान्य चिकित्सक मरीजों को घुटने का प्रत्यारोपण कराने से पहले यथासंभव इंतजार करने की सलाह देते हैं. इस के पीछे उन का ऐसा सोचना होता है कि यह जीवन में एक बार की जाने वाली सर्जरी है जो लगभग 20 वर्ष तक असरदार रहती है. हालांकि सर्जरी में देरी मरीज के जीवन की गुणवत्ता को सीमित करती है, क्योंकि सर्जरी से पहले वे जैसा आचरण करते हैं, सर्जरी के बाद का प्रदर्शन उस पर निर्भर करता है. कुल मिला कर उपरोक्त सरल उपायों का पालन कर के, स्वस्थ जोड़ों और हड्डियों की मजबूती बरकरार रखते हुए, एक लंबे समय तक खुशहाल जीवन को सुनिश्चित किया जा सकता है.

डा. प्रेमचंद्र स्वर्णकार और डा. रमणिक महाजन.
(डा. रमणिक महाजन नई दिल्ली स्थित साकेत सिटी अस्पताल में जौइंट रिप्लेसमैंट यूनिट के डायरैक्टर हैं.)

खानेपीने के पैकेट बनेंगे ज्यादा सुरक्षित

बाजार में खाद्य सामग्री तथा पेय पदार्थ को ले कर कई तरह की शिकायतें आती रहती हैं. हाल में मथुरा में अक्षय पात्र जैसी मशहूर संस्था द्वारा स्कूली बच्चों को उपलब्ध कराए गए मिड डे मील में दिए गए दूध के पैकेट को पीने से 3 बच्चों तथा एक सहायिका की मौत हो गई तथा 40 अन्य बच्चों को अस्पताल में दाखिल कराया गया. दरअसल यह पैकेजिंग में मानकों का पालन नहीं करने का परिणाम था. भारतीय मानक ब्यूरो यानी आईएसबी इस तरह की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए कड़े नियम बना रहा है. खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण का कहना है कि वह नियमावली तैयार कर रहा है जो अमेरिका, ब्रिटेन और गैरविकसित देशों में जारी मानकों के स्तर की होगी. विकसित देश जिस तरह के मानकों को अपने यहां खाद्य तथा पेय पैकेटों में इस्तेमाल कर रहे हैं उसी तरह के वैश्विक स्तर के मानकों का प्रयोग सरकार करना चाहती है.

प्राधिकरण का कहना है कि पैकेट पर निर्माता कंपनी को सुरक्षा संबंधी नियमावली के पालन किए गए मानकों का विवरण देना होगा. नियमावली बनाने से पहले हैदराबाद स्थित भारतीय पैकेजिंग संस्थान से विचारविमर्श किया जा रहा है. अब तक पैकेज में उस में रखे सामान तथा उस के ग्रेड का विवरण होता है लेकिन नए नियमों के तहत पैकेजिंग को और ज्यादा पारदर्शी बनाया जाएगा. नियमों का पालन घरेलू तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सख्ती से करना पड़ेगा. इस पैकेजिंग का सब से बड़ा फायदा यह होगा कि पैकेट में रखे सामान पर किसी भी तापमान में रखे जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पैकेज का सामान अलगअलग तापमान से प्रभावित नहीं होगा.

झारखंड : बुझ गई डोमिसाइल की आग

भले ही झारखंड की नई डोमिसाइल नीति पर राज्य कैबिनेट की मुहर लग गई है लेकिन विरोधी दलों द्वारा इसे आधाअधूरा बताए जाने के चलते गरीब जनता को अभी और इम्तिहान देने पड़ सकते हैं. लंबे इंतजार और कई हिंसक आंदोलनों के बाद झारखंड की डोमिसाइल नीति आखिरकार जमीन पर उतर आई. साल 2000 में बिहार से अलग हो कर झारखंड राज्य बनने के बाद से ले कर अब तक कई मुख्यमंत्री आए और गए, पर राज्य की डोमिसाइल नीति सभी के लिए मधुमक्खी का छत्ता ही साबित हुई. इस मसले को ले कर भड़की आग में बाबूलाल मरांडी की मुख्यमंत्री की कुरसी जल चुकी है. अब झारखंड की नई डोमिसाइल नीति पर राज्य कैबिनेट की मुहर लग गई है. हालांकि विरोधी दलों ने इसे आदिवासी विरोधी और आधाअधूरा बता कर नए सिरे से आंदोलन शुरू करने का बिगुल फूंक दिया है. इस से साफ है कि डोमिसाइल की आग में राज्य और उस की गरीब जनता को अभी और तपनापकना होगा.

नई डोमिसाइल नीति के तहत 30 साल से झारखंड में रहने वाले अब झारखंडी (स्थानीय) माने जाएंगे. पिछले कई सालों से डोमिसाइल (स्थानीयता) के झोलझाल को 7 अप्रैल को झारखंड कैबिनेट ने साफ कर दिया. डोमिसाइल नीति कहती है कि राज्य सरकार द्वारा संचालित और मान्यताप्राप्त संस्थानों, निगमों में बहाल या काम कर रहे मुलाजिमों व पदाधिकारियों और उन के पति या पत्नियां एवं बच्चे स्थानीय माने जाएंगे.

झारखंड में काम कर रहे भारत सरकार के कर्मचारियों और अफसरों की पत्नी या पति एवं उन की संतानें झारखंड निवासी माने जाएंगे. राज्य और केंद्र सरकार के कर्मचारियों को स्थानीयता का विकल्प चुनने की सुविधा दी गई है. अगर वे झारखंड राज्य को चुनेंगे तो उन्हें और उन की संतानों को स्थानीय नागरिक माना जाएगा. इस के बाद वे अपने पहले के गृहराज्य में स्थानीयता का लाभ नहीं ले सकेंगे. वहीं, झारखंड को नहीं चुनने की हालत में वे सिर्फ अपने गृहराज्य में स्थानीयता का लाभ ले सकेंगे.

बखेड़ा डोमिसाइल नीति का

भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले वैसे सभी व्यक्ति, जिन का स्वयं या पूर्वज का नाम पिछले सर्वे खतियान में दर्ज हो एवं वैसे मूल निवासी जो भूमिहीन हों, उन के संबंध में उन की प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्रामसभा द्वारा पहचान किए जाने पर उन्हें स्थानीय माना जाएगा. इस के साथ ही, वैसे लोग भी स्थानीय माने जाएंगे जो कारोबार और अन्य वजहों से पिछले 30 साल या उस से ज्यादा समय से झारखंड में रह रहे हों और अचल संपत्ति बना ली हो, ऐसे लोगों की पत्नियां, पति और संतानें स्थानीय माने जाएंगे. राज्य की डोमिसाइल नीति को ले कर 14 सालों से हंगामा और उपद्रव मचता रहा. इस के पहले की तमाम सरकारें इच्छाशक्ति की कमी और हंगामा, आंदोलन व विवाद से बचने के लिए इस मसले पर चुप्पी साधे हुए थीं. पिछली सरकारों के टालमटोल रवैए की वजह से झारखंड को कई बार स्थानीयता को ले कर उपजे आंदोलन की आग में झुलसना पड़ा. इस के लिए कई कमेटियां बनीं, कुछ ने रिपोर्ट्स सौंपी और कइयों की रिपोर्ट्स का आज भी इंतजार हो रहा है. रघुवर दास ने मुख्यमंत्री बनने के बाद ही स्थानीयता नीति को बनाने और लागू करने का ऐलान किया था. गौरतलब है कि राज्य में आदिवासियों की आबादी 26 फीसदी है और 74 फीसदी गैरआदिवासी हैं. झारखंड मुक्ति मोरचा के विधायक नलिन सोरेन कहते हैं कि उन की पार्टी साल 1932 को आधार मान कर स्थानीय नीति बनाने की मांग करती रही है. नई डोमिसाइल नीति से आदिवासियों का हक मारा जाएगा. इस नीति में आदिवासियों की अनदेखी कर गैर आदिवासियों का ध्यान रखा गया है.

झारखंड सरकार ने 22 सितंबर, 2001 को बिहार के नियम को अंगीकार किया था. संकल्प संख्या-5, विविध-09/2001, दिनांक – 22 सितंबर, 2001 द्वारा बिहार के श्रम, नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग के सर्कुलर 3/स्थानीय नीति 5044/81806, दिनांक-3 मार्च, 1982 को आधार बनाया गया. इसी आधार पर खतियान (पिछला सर्वे रिकौर्ड औफ राइट्स) को स्थानीयता का आधार माना गया है. साल 2000 में बिहार से अलग हो कर नया झारखंड राज्य बनने के बाद भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री बनाया था. साल 2003 में सूबे में डोमिसाइल नीति को ले कर मचे बखेड़े के बाद उन्हें हटा कर अर्जुन मुंडा को सरकार की कमान सौंपी गई थी.

नेताओं की सियासत

नया झारखंड राज्य बनने के बाद से अब तक 10 बार मुख्यमंत्रियों की अदलाबदली हुई पर हर किसी ने डोमिसाइल नीति पर टालमटोल रवैया ही अपनाया. सूबे के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नवंबर 2000 से मार्च 2003 तक मुख्यमंत्री रहे. अर्जुन मुंडा 4 बार मुख्यमंत्री बने और कुल 7 साल 10 महीने राज किया. शिबू सोरेन भी 3 बार मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे पर एक साल भी मुख्यमंत्री के रूप में काम नहीं कर सके. निर्दलीय मधु कोड़ा सब से ज्यादा 3 साल (18 सितंबर, 2005 से 27 अगस्त, 2008) तक मुख्यमंत्री की गद्दी पर काबिज रहे. 13 जुलाई, 2014 से 14 दिसंबर, 2014 तक हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री की कुरसी पर रहे. 29 दिसंबर, 2014 को रघुवर दास झारखंड के मुख्यमंत्री बने और झारखंड को पहली बार गैरआदिवासी मुख्यमंत्री के साथ पूरी बहुमत वाली सरकार मिली.

रघुवर दास ने मुख्यमंत्री की कुरसी संभालते ही राज्य की डोमिसाइल नीति को जल्द से जल्द बनाने का भरोसा दिलाया था. सरकार ने 30 सालों से झारखंड में रहने वालों को राज्य का नागरिक करार दिया है, पर इसे ले कर विरोधी दलों ने अभी से ही विरोध का झंडा उठा लिया है. बोकारो के भाजपा विधायक विरंची नारायण नई डोमिसाइल नीति का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि विरोधी दल नहीं चाहते हैं कि राज्य में अमनचैन का माहौल बने. वे केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए ही विरोध कर रहे हैं जबकि सचाई यह है कि डोमिसाइल नीति लागू होने से पिछले 13-14 सालों से चल रहा राज्य में अस्थिरता का माहौल खत्म होगा  नेताओं की बयानबाजी और सियासत को देखसुन कर यही लग रहा है कि डोमिसाइल नीति को ले कर डेढ़ दशक पहले भड़की आग फिलहाल ठंडी नहीं हुई है.

नेताओं की नई पौध

वर्षों से जमीजमाई सियासत की भ्रष्ट परतों को उधेड़ कर राजनीति में उतरे अरविंद केजरीवाल और अन्ना आंदोलन ने देशदुनिया में नया सार्थक उदाहरण पेश किया. कुछ समय से दुनियाभर में ऐसी नई पीढ़ी का उदय हो रहा है जो मौजूदा भ्रष्ट, भेदभावपूर्ण और अकर्मण्य व्यवस्था को ले कर आक्रोशित है और इसे बदलने पर आमादा दिखाई दे रही है. क्रांतियां शताब्दियों में कभीकभार ही होती हैं, क्रांति तो व्यवस्था में बदलाव के लिए जनाक्रोश से पैदा होती है. पिछली शताब्दियों में हुई क्रांतियों ने दुनियाभर में सियासत और सोच को बदला है. व्यवस्था के प्रति आक्रोश से नई सोच का राजनीतिक नेतृत्व निकलता रहा है. अमेरिका में औक्युपाई वालस्ट्रीट, मिस्र में गुलाबी क्रांति तथा भारत में जंतरमंतर पर अन्ना आंदोलन समेत कई देशों में बदलाव के लिए जंग चली. यह जंग भी 17वीं, 18वीं, 21वीं सदी की क्रांतियों जैसी ही है जो धर्म व सामंती वर्चस्व के खिलाफ है. वर्षों से जमीजमाई भ्रष्ट हुकूमत की सोच को बदलने पर सोचना पड़ रहा है. जंतरमंतर के आंदोलन से अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से कन्हैया कुमार, सूरत से हार्दिक पटेल, हैदराबाद से रोहित वेमुला (जिस ने भ्रष्ट, भेदभावपूर्ण राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के चलते जान गंवा दी थी) जैसे उभरते नेताओं का उदय हुआ है.

ये सभी भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और सामाजिक सत्ता को चुनौती देते नजर आ रहे हैं. नई सोच के इन नेताओं को हर संभव दबाने की कोशिशें की जा रही हैं. घबराए पुराने सत्ताधीश इन्हें कुचलने के कुचक्र रच रहे हैं. कुछ नेताओं के खिलाफ झूठे मानहानि, देशद्रोह जैसे कठोर मुकदमे ठोक दिए गए हैं. देश का 80-85 प्रतिशत वर्ग सदियों से धार्मिक व धर्मरूपी राजनीतिक व्यवस्था का गुलाम रहा है. इस व्यवस्था के चलते पीढि़यों से उस की दशा वहीं की वहीं पौराणिक ही है. शिक्षा, रोजगार, रहनसहन, जमीनजायदाद, पैसा, सम्मान जैसे मामलों में उस के साथ हमेशा भेदभाव बरता गया. इन चीजों से उसे वंचित रखा गया और मुगलों व अंगरेजों का 3 बार शासन भी इस हकीकत को बदल न सका.

दूसरी दुनिया का बहुत बड़ा वर्ग हमेशा से राजनीतिबाजों और धर्म के ठेकेदारों की लूट व उन के द्वारा बरते गए भेदभाव से त्रस्त रहा. अमेरिकी, रूसी, फ्रांसीसी क्रांतियां इसी वजह से हुई थीं. 1789 से 1799 का समय फ्रांस के इतिहास में राजनीतिक व सामाजिक उथलपुथल और आमूल बदलाव का था. इस दौरान फ्रांस की सरकारी संरचना अमीरों और कैथोलिक पादरियों के लिए सामंती विशेषाधिकारों के साथ पूरी तरह राजशाही पद्घति पर आधारित थी. इस क्रांति के बाद धीरेधीरे व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुए जो नागरिकता के बराबरी के अधिकारों के सिद्धांत पर आधारित रहे.

व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन

अमेरिका में भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ बोस्टन टी पार्टी की शुरुआत के साथ क्रांति शुरू हुई जो समान नागरिक लोकतंत्र की स्थापना ले कर आई. चीन और रूस में भी संपत्ति और सत्ता पर कुछ ही लोगों के अधिकारों के खिलाफ आक्रोश की आग बराबरी के हक को ले कर आई. विश्वभर में क्रांतियों के जरिए बदलाव आया. क्रांतियां राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के लिए हुईं. इन क्रांतियों से जनजागरूकता तो बढ़ी ही, राजनीतिक दलों को अपने तौरतरीके बदलने पर मजबूर होना भी पड़ा. लेकिन सत्ता में आए राजनीतिक दल धर्म, कट्टरपंथ के एजेंडे पर बदलाव का रैपर लगा कर फिर पुराने ढर्रे की सत्ता ले आने में कामयाब होने लगे. मिस्र में यही हुआ. बदलाव का नाम ले कर कट्टरपंथी ब्रदरहुड पार्टी सत्ता में आ गई. इसी तरह पहले भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जीत और अब अमेरिका में कट्टरपंथी डोनाल्ड टं्रप का सब को पछाड़ कर राष्ट्रपति की रेस में आगे आना साबित करता है कि बदलाव के साथसाथ धार्मिक संकीर्णता खत्म नहीं होने दी जाएगी.

नई और पुरानी सोच की जद्दोजहद चाहे हमेशा ही जारी रहे पर फिर भी इन जनआंदोलनों ने नई सोच के नेता दिए. मार्टिन किंग लूथर, अब्राहम लिंकन, मार्क्स, लेनिन, माओत्से तुंग जैसे नेताओं ने भेदभावपूर्ण व्यवस्था का विरोध कर नई व्यवस्था स्थापित की. 2011 में दिल्ली के जंतरमंतर पर अन्ना हजारे की अगुआई में भ्रष्ट सियासी व्यवस्था के खिलाफ जोरदार आंदोलन शुरू हुआ. देशभर से स्वत:स्फूर्त लोग उमड़ पड़े थे. इस से तब की कई घोटालों और भ्रष्टाचार के बहुत से मामलों में  घिरी यूपीए सरकार हिल गई थी. दूसरे राजनीतिक दल भी सहम गए थे. इस क्रांति से नई सोच के युवा नेता अरविंद केजरीवाल निकले. राजनीतिक दलों ने उन्हें चुनौती दी कि वे चुनाव लड़ कर दिखाएं. भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए लोकपाल बिल सड़कों पर नहीं, संसद में बनेगा. केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन कर चुनाव लड़ा और दिग्गज पार्टियों का पूरी तरह सफाया कर दिया. आज भी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समझ नहीं पा रहे कि इस राजनीतिक जादूगर से कैसे निबटें.

80 के दशक में असम में प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व में विश्वविद्यालय छात्र संगठन के युवाओं का एक पूरा ग्रुप निकला, जिस ने राज्य में सरकार बनाई. यह बात और है कि बाद में ये छात्र नेता भी उसी राह पर चल पड़े थे जिस पर पूर्ववर्ती नेता चलते रहे थे.

हकों की लड़ाई

केजरीवाल का आंदोलन राजनीतिक भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के खिलाफ था. अब देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जो आक्रोश उबल रहा है वह पोंगापंथी सोच के खिलाफ है. मई 2014 के बाद से सालों से शांतिपूर्र्ण जीवन जी रहे वर्गों को अचानक असुरक्षा ने घेर लिया है. जातिवाद का समाज में गहरे दबा आक्रोश अब नए तीखे तेवरों के साथ लौट आया है. इस समय धार्मिक और जातीय पहचान हावी हो रही है जाति व्यवस्था के खिलाफ छात्रों का गुस्सा सुलग रहा है और पिछड़ी व निचली जातियों के युवा नेता सामने आ रहे हैं. विश्वविद्यालयों में पहले जो सवाल नहीं उठते थे अब उठाए जाने लगे हैं. अब धार्मिक, जातीय भेदभाव, गैरबराबरी, अमीरीगरीबी, दलित शोषण, नक्सल समस्या, अल्पसंख्यक शोषण विवाद, किसान आत्महत्या पर सवाल उठाए जाते हैं. बोलने की आजादी, अंधविश्वासों से आजादी जैसे नारे बुलंद किए जा रहे हैं और सीधे प्रधानमंत्री से सवाल पूछे जा रहे हैं. ये सवाल पूछने वाले गरीब, दलित, पिछड़े वर्गों के लोग हैं जिन्हें जीने के बुनियादी हकों से भी वंचित रखा गया.

शोषित वर्ग को अब अपनी बात कहने का हक मिल रहा है और वह मुखर हो रहा है पर भाजपा हो या कांग्रेस, सभी बहलाफुसला कर, तो कभी धमकी दे कर, इस वर्ग का मुंह बंद कराती आ रही हैं. धार्मिक व जातीय भेदभाव, बोलने पर पाबंदी, पुरानी सामाजिक व्यवस्था की आलोचना न करने देना, पढ़ाईलिखाई को अमीरों तक सीमित रखना, गरीब, दलित, पिछड़े वर्ग के छात्रों की आर्थिक सहायता बंद कराना जैसे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. कट्टर, अंधविश्वासी व पाखंडी धार्मिक व्यवस्था की प्रशंसा के जयजयकार के नारे न लगाने वाले पर देशद्रोही होने का लेबल चस्पां कर देना आम बात होने लगी है. विश्वविद्यालयों के दलित व अतिपिछड़े छात्रों में राजनीतिक जागरूकता आई है. रोहित वेमुला जातिव्यवस्था का शिकार रहा और वह इस व्यवस्था का भीषण विरोधी था. कन्हैया, हार्दिक, केजरीवाल जैसे नेता भ्रष्ट, भेदभाव वाली विचारधारा का तिरस्कार करते रहे हैं. कन्हैया कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने भाषणों में जो कहा, वह वही था जो रोहित वेमुला की तरह की 80-90 प्रतिशत जनता महसूस कर रही है.

बारबार वंचितों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर मिल रहे आरक्षण को भी खत्म करने की वकालत की जाती है. हरियाणा और गुजरात में आरक्षण दे दिया गया पर यह सवाल दोनों जगहों से गायब है कि सरकारी नौकरी हैं कितनी और यह आरक्षण लागू हो पाएगा या नहीं? आंकड़ों में देशभर में बेरोजगारों की संख्या करीब  6 करोड़ बताई गई है. पिछले 10 सालों के आंकड़ों के अनुसार, 25 लाख सरकारी नौकरियां कम हुई हैं. प्राइवेट सैक्टर में भी नई नौकरियां बहुत पैदा नहीं हो रहीं. जबकि हर माह 10 लाख नए युवा नौकरी के बाजार में आ रहे हैं. सामाजिक तौर पर जातिव्यवस्था खत्म होने के बजाय और कठोर हुई है. देश में प्रतिभा पलायन की समस्या ज्यादा गंभीर होती जा रही है. बिना आरक्षण वाले हैं जिन पर सरकारें पैसा खर्च कर रही हैं, लेकिन वे भी देश में रहने को तैयार नहीं हैं. पिछले 5 सालों में 27 लाख लोग देश से बाहर चले गए.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार उस समय सुर्खियों में आए जब विश्वविद्यालय में हुए एक कार्यक्रम में कथित देशविरोधी नारे लगाए गए और कन्हैया समेत कई छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. बिहार के बेगूसराय से जेएनयू में पढ़ने आए कन्हैया ने केंद्र सरकार की धार्मिक नीतियों के खिलाफ समयसमय पर भाषण दिए. ये भाषण विश्वविद्यालय में दलितों, पिछड़ों और आदिवासी छात्रों के साथ किए जा रहे भेदभाव से ले कर हैदराबाद सैंट्रल यूनिवर्सिटी में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या, बढ़ती महंगाई, किसानों की हत्या, भगवाकरण को ले कर थे. इस से भाजपा की हिंदुत्ववादी सरकार तिलमिला रही थी.

कन्हैया के भाषण सीधेसीधे पौराणिक हिंदू धर्म और उस की भेदभावपूर्ण व्यवस्था पर चोट करने वाले थे. इस से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत हिंदू धर्म के धंधेबाजों की पोल खुल रही थी, इसलिए कन्हैया समेत जेएनयू के 5 छात्रों पर देशद्रोह का आरोप लगा कर गिरफ्तार करवा दिया गया. पर कन्हैया इस से और मंज कर उभरा. अब वह सीधेसीधे संघ और सरकार की धार्मिक नीतियों पर हमला कर रहा है. हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने वाला रोहित वेमुला भी ऐसा ही क्रांतिकारी नेता था. वह भी हिंदुत्व विचारधारा की पक्षधर केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध कर रहा था. संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता की झूठी शिकायत पर विश्वविद्यालय ने उसे निष्कासित कर दिया था. उस की स्कौलरशिप बंद कर दी गई और हौस्टल समेत विश्वविद्यालय परिसर में उस के आनेजाने पर रोक लगा दी गई थी. इस प्रतिबंध के खिलाफ रोहित परिसर में ही खुले आसमान के नीचे तंबू लगा कर धरने पर बैठ गया. बाद में कोई रास्ता निकलता न देख उस ने आत्महत्या कर ली.

इन नेताओं से मुकाबले के लिए एक बड़ी खेप नेतापुत्रों की पैदा हो रही है जो पिता की विरासत संभालने के लिए राजनीति में आ रही है. लोकतंत्र के नाम पर आए ये नेता लकीर के फकीर ही हैं. ये विदेशों तक से पढ़लिख कर तो आ गए पर सोच अभी पुराणपंथी ही है और देश को कोई नई सोच देने में नाकाम रहे हैं. कहने को नई पीढ़ी में राहुल गांधी, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, उमर अब्दुल्ला, अनुराग ठाकुर, पंकज सिंह जैसे नेता हैं पर सब धर्म की दुहाई देते हुए पुरानी लीक पर ही चलना चाह रहे हैं. उन के पास सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन की कोई बात नहीं है. वे अब भी उस गरीबी की बात करते हैं जो 60 के दशक में इंदिरा गांधी करती थीं. ये युवा नेता सड़ीगली, दकियानूसी राजनीतिक  और सामाजिक व्यवस्था के कूपमंडूक  हैं ज सीमित दायरे से बाहर निकल कर सोचने की सामर्थ्य ही नहीं रखते. ये नए नेता संघ की सामाजिक, ऐतिहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक विचारधारा का खेल बनाने में लगे हैं. वर्णव्यवस्था में दलितों, शूद्रों को कभी हिंदू ही नहीं माना गया. यही बात भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के आड़े आती रही है. आरएसएस हालांकि आजकल दलितों को लुभाने के लिए अंबेडकर को खूब मानने लगा है पर वह अंबेडकर का भगवाकरण करना चाहता है. संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा के नेता इसी लकीर का अनुमोदन कर रहे हैं.

कर्म से होगा विकास

भाजपा के एजेंडे में योग, संस्कृतशिक्षा, भारत माता की जय, वंदेमातरम, मंदिरनिर्माण, इतिहास पुनर्लेखन, वर्णव्यवस्था को ईश्वरप्रदत्त मनवाना जैसे काम हैं. दूसरी पार्टियों के युवा नेता भी इन्हें अपना रहे हैं. इस से देश आगे की ओर नहीं, पीछे जाएगा. किसी देश की अर्थव्यवस्था तब सुधरती है जब पूरी जनता मेहनत पर उतारू हो जाए. कर्मकांड, पूजापाठ, हवनयज्ञ, तीर्थयात्रा, टोनेटोटके, झाड़फूंक, मंत्रपूजा में जनता जो दिनरात लगी हुई है, उस से तरक्की की कल्पना करना बेकार है. पर हमारे यहां तो निकम्मेपन को भाग्यवाद कहा जाता है. हम तो गाय की पूंछ पकड़, वंदेमातरम, संस्कृत, योग, भारत माता के पुरातन ढोल पीट रहे हैं जिन का विकास से कोई लेनादेना नहीं है. आरक्षण भी गाय की पूंछ की तरह ही है. भारत में धर्म, जाति, रंग, वर्ग, भाषा, बेईमानी, निकम्मेपन के न जाने कितने भेद हैं. नई वैज्ञानिक तकनीक हाथों में आ जाने के बावजूद हमारी सोच अभी तक पुराणों की गल्प कथाओं से ऊपर नहीं उठ पाई है. सोशल मीडिया तो अपने गाल बजाने में माहिर है.

कोशिशें की जा रही हैं कि विश्वविद्यालयों में भी अतीत की सांस्कृतिक विचारधारा परोसी जाए, इसलिए टकराव बढ़ रहा है. संघ पर किए गए मामले के  इशारे पर सरकार ने दलितों का दमन शुरू करवा दिया जिन में रोहित वेमुला, कन्हैया शामिल हैं. आदिवासियों को माओवादी करार देना शुरू कर दिया गया है. हिंदुत्व से हट कर बात करने वालों को देशद्रोही बता कर जेलों में डाल दिया गया है. असल में यह देशद्रोह नहीं, धर्मद्रोह है. रोहित, कन्हैया जैसे नेता धर्मद्रोह पर उतारू हैं न कि देशद्रोह पर. धर्म की पैरोकार भाजपा सरकार इन को तरहतरह से तंग कर रही है.

बदलाव की जरूरत

किसी भी नए शासक ने देश को मेहनत करने के लिए नहीं उकसाया. देश में निकम्मेपन को अपराध घोषित नहीं किया गया, निठल्लों को सजा नहीं दी गई. उलटे, भीख मांगने वालों और लाखों बेकार साधु, संतों, गुरुओं,  प्रवचकों को पुरातन धर्म की महान संस्कृति की देन बता कर इस निकम्मेपन का गुणगान ही किया जाता रहा. उज्जैन कुंभ मेले में शिवराज सिंह चौहान सरकार इन निठल्लों को मुफ्त सेवा प्रदान कर रही है. जिस भी देश में सत्ता मजहबी सोच पर आधारित है वे देश बुरी तरह गरीब, कलहग्रस्त हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, सीरिया, सूडान क्यों हिंसाग्रस्त हैं? चीन, जापान कैसे आगे हैं? आज समाज बदलाव की मांग कर रहा है. धर्म की खोखली और सत्ताधीशों के विकास की कोरी बातों ने समाज में गहरा असंतोष पैदा कर दिया है. धर्म से सामाजिक सुधारों की अपेक्षा करना गलत है. धर्म से अलग हो कर जो सोचते हैं वे ही सुधार कर सकते हैं. बदलाव की राह गांव, देहात, झोंपड़ी से निकले कन्हैया, केजरीवाल, हार्दिक पटेल जैसे जमीन से उठे नेताओं के जरिए ही निकलेगी, महलों, विरासतों से जनता पर थोपे गए राजकुंवरों से नहीं. इतिहास में अब्राहम लिंकन, मार्टिन किंग लूथर, मुस्तफा कमाल पाशा जैसे लोग बदलाव के वाहक बने थे.

भारत माता की आड़ में गुमराह करने की साजिश

संसद में गीतकार जावेद अख्तर ने अपनी विदाई में दिए लंबेचौड़े जज्बाती भाषण में भारत माता की जय बोल कर धर्मभक्ति को देशभक्ति का जामा पहनाने वालों का समर्थन कर ऐसे तत्त्वों को बढ़ावा ही दिया है. कन्हैया कुमार को सिर्फ इसलिए राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता है क्योंकि उस ने हिंदूवादियों की असली मंशा पर वैचारिक प्रहार किया. भारत माता कौन है और कैसी दिखती है, इस का ठीकठाक जवाब शायद ही कोई इतिहासकार, विचारक, दार्शनिक, साहित्यकार या कोई और दे पाए. लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत माता शब्द जेहन में आते ही एक महिला की जो तसवीर दिमाग में बनती है वह हिंदू देवियों से मेल खाती हुई होती है. जिस के चार हाथ हैं, माथे पर मुकुट है, वह केसरिया या सफेद साड़ी पहनती है, शेर पर सवार है और उस का एक हाथ आशीर्वाद देने की मुद्रा में है.

हिंदू देवियों दुर्गा, पार्वती, सरस्वती और लक्ष्मी का मिश्रण लगती भारत माता के हाथ में त्रिशूल की जगह तिरंगा झंडा है लेकिन उस के गहने, मसलन गले का हार परंपरागत हिंदू देवियों सरीखा है. यानी भारत माता हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करती एक आकृति है जिस के कुछ मंदिर भी देश में हैं. भारत माता की जय और हरहर महादेव व जयजय श्रीराम या फिर राधेराधे कहने में सैद्धांतिक तौर पर कोई खास फर्क मानसिक या वैचारिक स्तर पर नहीं है सिवा इस के कि भारत माता का जिक्र कहीं वेद, पुराणों या दूसरे धर्मग्रंथों में नहीं है, न ही घरों में उस की धार्मिक तौर पर पूजापाठ होती है. उस के लिए व्रत भी नहीं रखा जाता, न ही दानदक्षिणा का अभी तक कोई विधान है.

सीधे तौर पर कहा जाए तो भारत माता दूसरे देवीदेवताओं की तरह एक काल्पनिक उपज है जिस का एक खास मकसद स्वाधीनता आंदोलन के वक्त था. उस की जय बोलने की आदत भारतीयों खासतौर से हिंदुओं को पड़े लगभग 150 साल हो चुके हैं. दो टूक कहा जाए तो भारत माता की जय बोलना किसी तरह की धार्मिक या संवैधानिक बाध्यता नहीं है. इसलिए इस मुद्दे पर कभी विवाद, हिंसा या दंगे नहीं हुए. लोग अभी तक यही समझते रहे थे कि भारत माता इस भूभाग की नक्शाई आकृति है जिस में हम रहते हैं और उस के प्रति कृतज्ञ रहते हैं क्योंकि हम इस जमीन व देश में पैदा हुए हैं.

लेकिन अब कभी भी हिंसा, दंगा होने की आशंका से कोई इनकार नहीं कर रहा. वजह, भारत माता को सीधेसीधे हिंदू धर्म से जोड़ने की कोशिशें और साजिशें शुरू हो गई हैं. देश और धर्म अलगअलग शब्द हैं जिन के माने भी अलग हैं. देश में सबकुछ शामिल है तमाम धर्म, जातियां, संप्रदाय और लोग लेकिन धर्म बेहद संकुचित होता है, उस में कुछ खास किस्म के लोग होते हैं जिन के अपने मकसद व स्वार्थ होते हैं. आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई जिस में फौरी तौर पर यह कहा गया कि देश सब का है और संविधान धर्म के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं करता. देश पर सब का बराबर का अधिकार है, सभी को बोलने की और अपनी मरजी से रहने की आजादी है वगैरा.

लेकिन ऐसा है नहीं

भारत माता और उस की जय अब विवादों में है जिस की शुरुआत दरअसल आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जेएनयू हंगामे के बाद 3 मार्च को यह कहते की थी कि अब सभी को भारत माता की जय बोलना सीखना होगा.

इस बात में कहां खोट और बदनीयती थी, इसे बीती 14 मार्च को औल इंडिया मजलिसे इत्तिहादुल मुसलिमीन यानी एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने महाराष्ट्र के लातूर जिले की तहसील उदगीर की एक सार्वजनिक सभा में यह कहते उजागर किया कि वे कभी भारत माता की जय नहीं बोलेंगे चाहे इस के लिए कोई उन की गरदन पर छुरी भी रख दे. यह एक कट्टरवादी की दूसरे कट्टरवादी को दी गई नसीहत ही थी. ओवैसी ने मोहन भागवत को चुनौती भी यह कहते दी कि, ‘‘मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, आप क्या कर लेंगे भागवत साहब. संविधान में कहां लिखा है कि सभी को भारत माता की जय बोलना पड़ेगा.’’

ओवैसी यह बताने में कामयाब रहे कि देश को कट्टर हिंदूवादी हांक रहे हैं और अपनी बात थोपते हुए वे संविधान की भी अनदेखी कर रहे हैं. आज भारत माता की जय बोलने की धौंस दी जा रही है तो कल को यह भी कहा जा सकता है कि गंगा और गोमाता की भी जय बोलो. प्रसंगवश गाय के मामले में ऐसा हो भी रहा है.

मोहन भागवत और असदुद्दीन ओवैसी दोनों की बातें दरअसल देश का माहौल बिगाड़ने वाली थीं. जल्द ही इन का असर दिखा और भजभज मंडली ने एकजुट हो कर ओवैसी पर चढ़ाई कर दी. चूंकि इस दफा बात सीधे तौर पर हिंदुत्व की नहीं, बल्कि देश की थी, इसलिए सभी ने ओवैसी को घेरा. पहला बयान तुरंत शिवसेना की तरफ से आया कि ओवैसी अगर भारत माता की जय नहीं बोल सकते तो उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए. उस के एक वरिष्ठ नेता रामदास कदम ने कहा कि ओवैसी भारत में रहने के लायक नहीं हैं क्योंकि वे उस देश का सम्मान करना नहीं जानते जिस ने उन्हें इतना कुछ दिया.

शिवसेना यह जतानेबताने की कोशिश करती रही कि दरअसल हिंदुत्व और भारतीयता कोई अलगअलग बातें नहीं हैं. इस को पलट कर देखें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि भारतीय वही है जो हिंदू है. इस पर एआईएमआईएम के प्रवक्ता और विधायक वारिस पठान ने एतराज जताते कहा कि शिवसेना होती कौन है उन के नेता को पाकिस्तान जाने के लिए कहने वाली. वे भारत के निवासी हैं और कोई भी उन्हें देश छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. बाद में वारिस पठान को भारत माता की जय न बोलने पर महाराष्ट्र की विधानसभा से निष्कासित कर दिया गया था. इस में कांग्रेस और एनसीपी भी हिंदूवादी भाजपा व शिवसेना सरकार के साथ दिखी थीं.

इन बातोंबयानों के भी अपने मतलब थे. पर भारत माता की जय बोले जाने के लिए किसी को बाध्य किया जाए या नहीं, इस पर देशभर में बहस छिड़ गई. दिलचस्प बात यह थी कि इस में तथाकथित प्रगतिशील मुसलमान और कथित उदारवादी हिंदुओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. दोनों वर्गों के बुद्धिजीवियों ने अलगअलग बातें कहीं. संसद में गीतकार जावेद अख्तर भी अपने लंबेचौड़े जज्बाती भाषण में देशप्रेम दिखलाते 3 बार भारत माता की जय बोले. उन के मुताबिक, भारत माता की जय बोलना कोई हर्ज की बात नहीं. जावेद की अभिनेत्री पत्नी शबाना आजमी ने भी ओवैसी पर कटाक्ष किया, ‘क्या वे भारत अम्मी की जय बोलेंगे.’

देश के आम लोगों को भी बात का असल मंतव्य समझ नहीं आया जो यह मान कर चल रहे थे कि यह कोई खास बात नहीं है, देशभक्ति की बात है, इसलिए भारत माता की जय बोलना हर एक भारतीय का फर्ज है. लिहाजा, सोशल मीडिया पर भारत माता की जय के नारे लगने लगे. जगहजगह प्रदर्शन हुए और इस बात के पक्षविपक्ष में सभी ने अपनी राय रखी. एक वर्ग का मानना था कि जब संविधान में नहीं कहा गया है तो क्यों मुसलमानों को जय बोलने को मजबूर किया जाए. वे भारत माता की जय न भी बोलें, तो कहां का पहाड़ टूट पड़ रहा है.

माहौल बिगड़ता देख मोदी मंत्रिमंडल के होनहारों अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और वेंकैया नायडू ने भी भारत माता की जय बोलने की वकालत की तो साफ लगा कि इस विवाद के 4 दिन पहले ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आरएसएस को गलत नहीं बताया था कि भाजपा कैसे उस के एजेंडे का प्रचारप्रसार कर रही है और उसे अमलीजामा पहना रही है. ‘इस देश में अगर रहना होगा तो वंदेमातरम कहना होगा,’ नारे का नया संस्करण ‘भारत माता की जय बोलना पड़ेगा’, ‘जयजय श्रीराम, हो गया काम’ की तर्ज पर देश का माहौल अंदरूनी तौर पर उन्मादी हो उठा तो पंडेपुजारियों, मौलवियों और कट्टरवादी संगठनों की बांछें खिल गईं क्योंकि जो वे चाहते हैं वह बड़े सलीके से हुआ.

मुसलिम धर्मगुरुओं ने तो भारत माता की जय बोलने को इसलाम के बुनियादी उसूलों के खिलाफ बताया ही पर हैरत उस वक्त हुई जब सिख समुदाय ने भी उस का अनुसरण किया. एक बेवजह के मुद्दे पर धर्मगुरुओं की राय अहम हो गई, मानो मसला धर्म का हो, राष्ट्र का नहीं.

भोपाल में एक जैन मुनि ने अपने दैनिक प्रवचनों में भारत माता की जय बोलने की हिमायत की तो इस की इकलौती वजह यह थी कि धार्मिक पाखंडों के मामले में जैन धर्म हिंदू धर्म के काफी करीब है. जैन व इसलाम के धार्मिक सिद्धांत मेल नहीं खाते. वरना किसी धर्मगुरु का इस मुद्दे पर, जो संवेदनशील होता जा रहा हो, बोलना एक गैरजरूरी बात थी.

देश बनाम धर्म

कट्टर हिंदूवादियों का नारा और मंशा शुरू से ही स्पष्ट है, वह है ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान. हिंदूवादी संगठनों की नजर में हिंदुत्व एक जीवनशैली और पद्धति है जिसे लागू किए जाने पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए और जिसे एतराज है वह देश छोड़ कर चला जाए. यह व्याख्या दरअसल दामोदर सावरकर की दी हुई है जो चाहते थे कि देश का नाम संवैधानिक तौर पर हिंदुस्तान हो जिसे अब हिंदूवादी संगठन खुल कर अपना रहे हैं. आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने भारत माता की जय के नारे लगाए थे और 1936 में उन्होंने वाराणसी स्थित हिंदू विश्वविद्यालय में भारत माता मंदिर का उद्घाटन भी किया था. ये वैचारिक मतभेद ऐसे समय फूट रहे हैं जब देश को आर्थिक तरक्की, रोजगार और विज्ञान की जरूरत है. लेकिन हो एकदम उलटा रहा है, बातें, बहसें और मुद्दे धर्म के इर्दगिर्द समेटे जा रहे हैं. भारत माता नया बहाना है, जिस के जरिए पंडेपुजारियों को रोजगार और एक नया प्रोडक्ट देने की शुरुआत हो चुकी है.

देश शुरू से ही देवीदेवताओं और माताओं का रहा है और आज भी है. 33 करोड़ देवीदेवताओं के कुनबे में एक नई देवी या माता शुमार हो रही है, यानी नफरत के बीज इफरात से बोए जा रहे हैं. पशुपक्षी, सब्जी और फल तक हिंदूमुसलिमों के बीच बांट दिए गए हैं. दिशाएं और पूजा पद्धतियां तो पहले से ही बंटी हुई थीं. राष्ट्रभक्ति की नईनई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं. कन्हैया कुमार राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता है क्योंकि वह हिंदूवादियों की असली मंशा पर वैचारिक प्रहार करता है. देश के सवर्ण नौजवानों को पुचकारा जाता है कि भारत माता की जय न बोलने यानी देशभक्ति में कमी के चलते युवा भटक रहे हैं. असल में ये वे हैं जो कांवड़ ले कर चलते हैं, राम और दुर्गा की झांकियों में धार्मिक भजनों पर उन्मादी हो कर नाचतेगाते हैं और जरूरत पड़ने पर राष्ट्र यानी धर्म के लिए एक धक्का और दो… के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं. राष्ट्रभक्ति के इस पैमाने पर मुसलमान कहीं फिट नहीं बैठते हैं, इसलिए वे स्वभाविक रूप से देशद्रोही माने जाते हैं और अब तो वे भारत माता की जय बोलने से इनकार कर रहे हैं क्योंकि उपलब्ध प्रमाण बताते हैं कि भारत माता मूलतया एक हिंदू देवी है. धर्म को कभी इस चालाकी से राष्ट्र से जोड़ा जाएगा, इस की कल्पना करना हर किसी के वश की बात नहीं है. यह इत्तफाक की बात नहीं, बल्कि 2014 में भाजपा की बढ़ी राजनीतिक ताकत को भुनाने की साजिश का नतीजा है कि 2 साल में सहिष्णुता, वंदेमातरम, राष्ट्रभक्ति और आरक्षण पर मुकम्मल बवाल मचा और आगे भी मचता रहेगा ताकि आम लोगों का ध्यान परेशानियों व मुसीबतों से हट कर इन बवालों में उलझा रहे.

कोई विजय माल्या देश के अरबों रुपए डकार कर विदेश भाग जाए या कोई श्रीश्री अरबों रुपए फूंक कर धार्मिक तमाशा दिखाए, उन पर ध्यान नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह खेल पैसों का है. इस का राष्ट्र से कोई संबंध नहीं. लोग गंगा नहाएं, गाय की पूजा करें, पंडों को चढ़ावा देते रहें, पूजापाठ, यज्ञ, हवन करते रहें, ये इन नए फसादों का असल मकसद है. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कल को मंदिरों में भारत माता नाम की मूर्ति भी स्थापित की जाने लगे और उस के नाम पर लोगों से दानदक्षिणा वसूली जाने लगे. शराब या कोई दूसरा नशा एक बार शायद गम न भुलाए लेकिन धर्म जरूर भुला देता है. लोगों को पूजा करने और पैसा चढ़ाने के लिए एक अदद मूर्ति की जरूरत होती है, वह राम की हो या शंकर की या फिर दुर्गा, काली की, इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए जायका बदलने के लिए अब नई मूर्ति की वकालत की जा रही है. मकसद पुराना है कि लोग सोचें न, बस वही करें जो पंडेपुजारी चाहते हैं.

संविधान में क्या लिखा है, इसे जानने की किसी को जरूरत नहीं. भगवद गीता और रामायण में क्या लिखा है, उसे लोग पढ़ते रहें तो धार्मिक भी बने रहेंगे जो अब देशभक्ति का पर्याय भी बनता जा रहा है. मुसलमानों की कथित बढ़ती आबादी और धार्मिक आतंक के हवाले गिना कर उन्हें यह बताया जाता है कि तुम्हारी रक्षा सेना नहीं, हम कर रहे हैं. उधर, ओवैसी जैसे कट्टरपंथी भी इन से अलग नहीं जो मुसलमानों को डराते व बहकाते रहते हैं कि इस देश में तुम हो जरूर पर तुम्हारी हैसियत दोयम दरजे की है. हम न हों तो ये हिंदूवादी तुम्हें कभी भी मारमार कर खदेड़ देंगे. इसलिए इसलाम के नाम पर हमें पूछते रहो तो महफूज रहोगे वरना इस देश में हर मुसलमान आतंकवादी समझा जाता है. हालांकि इस के जिम्मेदार हालफिलहाल भाजपा और हिंदूवादी संगठन हैं जिन्हें हड़काने की ताकत हम में ही है. इस और इस तरह के सारे स्टंटों का सार यह निकलता है कि अपना वजूद बनाए रखना है तो घंटेघडि़याल बजाते रहो, भगवान को पूजते रहो, नमाज पढ़ते रहो, भाईचारे का ड्रामा करते रहो. लेकिन दिलों में कट्टरवाद यानी धर्म को संभाले रखो वरना मिट जाओेगे. यह कारोबार कुछ इस तरह से फलफूल रहा है कि अब इस में कलाकार, साहित्यकार, बुद्धिजीवी और मीडिया सब शामिल हो गए हैं और परस्पर सहजीविता के सिद्धांत पर फलफूल रहे हैं. आम आदमी चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों या फिर किसी और धर्म को मानने वाले, इन के झांसों और चालों को समझते हुए इन की गिरफ्त से आजाद हो पाएं तो जरूर इन का वजूद और दुकानदारी मिट जाएंगे.

देवियों जैसी माता — भारत माता

आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का उत्साह बढ़ाने के लिए कुछ प्रतीक चिह्नों की आवश्यकता थी, जिस के चलते भारत माता का आविष्कार हुआ. साल 1873 में किरणचंद बनर्जी लिखित ‘भारत माता’ नाम से एक नाटक का प्रदर्शन हुआ था. वहीं से भारत माता की जय बोलने की शुरुआत हुई. बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा लिखित उपन्यास ‘आनंद मठ’ से वंदेमातरम गीत देश को मिला. माना यह जाता है कि बंकिमचंद्र को भारत माता नाटक से ही इस की प्रेरणा मिली थी.

विपिन चंद्रपाल ने सीधेसीधे भारत माता को हिंदुत्व से जोड़ा. भारत माता की जो तसवीर प्रचलन में है, उसे बनाने का श्रेय रवींद्रनाथ टैगोर के चित्रकार भतीजे अवींद्रनाथ टैगोर को जाता है. उन्होंने भारत माता की चार भुजाएं बनाईं और उसे देवी दुर्गा के रूप में दिखाया. इस पेंटिंग ने लोगों को आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा दी. यानी मौजूदा भारत माता एक तरह से देवी का रूप है जिस की उत्पत्ति और विकास पश्चिम बंगाल में हुए. विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने इस तसवीर को और विस्तार देते हुए देवी के पैरों के पास कमल के फूल दिखाए और हरियाली के साथसाथ तसवीर के पीछे नीला आसमान भी दर्शाया. इस के बाद एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुब्रमण्यम भारती ने भारत माता की व्याख्या गंगा के रूप में की.

फिर तो भारत माता के रूप बदलते रहे और कुछ मंदिर भी बने. 1936 में महात्मा गांधी ने काशी में भारत माता मंदिर का उद्घाटन किया तो साल 1983 में इंदिरा गांधी ने हरिद्वार में बने भारत माता मंदिर का उद्घाटन किया था. इस मंदिर को, हैरत की बात है कि, विश्व हिंदू परिषद ने बनाया था. फिर धीरेधीरे भारत माता भारतीय सेना के जोश की प्रेरणा बनती गई.

पर अब भारत माता, जो पूरी तरह से हिंदुत्व के रंग में रंगी है, का कैसे इस्तेमाल हो रहा है, यह सारा देश देख रहा है हिंदुत्व के पैरोकारों की नजर में आज किसी को हक नहीं कि वह उस की जय बोलने से इनकार करे, भले ही उस का विवेक या धर्म इस की इजाजत न देता हो.

देशभक्त, देशद्रोही और भारत माता

देशभक्ति और साहस के लिए पहचाने जाने वाले सिख समुदाय ने ओवैसी से ज्यादा सख्त लहजे में साफ कह दिया है कि सिख भारत माता की जय नहीं बोल सकते हैं. शिरोमणि अकाली दल के एक नेता सिमरनजीत सिंह मान की मानें तो सिख किसी भी रूप में महिलाओं की पूजा नहीं करते, इसलिए वे यह नारा नहीं लगाएंगे. राष्ट्रभक्ति के मामले में सिखों की मिसाल दी जाती है. ऐसे में हिंदूवादियों का यह कहना कि भारत माता की जय न बोलने वाले देशभक्त नहीं हो सकते और उन के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है, कइयों के गले नहीं उतर रहा है.

गृहमंत्री राजनाथ सिंह अंगरेजों के बनाए राष्ट्रद्रोह कानून को बदलने की बात कर रहे हैं तो इस के लिए देशवासियों से आम राय ली जानी चाहिए. आम जनता से यह सुनिश्चित करवाना चाहिए कि राष्ट्रद्रोही कौन है. रिश्वतखोर अधिकारीकर्मचारी, घपलेबाज राजनेता, टैक्स चोर उद्योगपति और धर्म के नाम पर उगाही करने वाले पंडे आदि देशद्रोही क्यों नहीं?

भारत माता की जय का राष्ट्रद्र्रोह से कोई संबंध होना ही नहीं चाहिए. खुद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, जिन की छवि कट्टरवादी नेता की है, ने 23 मार्च को गांधीनगर में स्वीकारा था कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि भारत माता की जय बोली ही जाए. आडवाणी के लहजे से लगा था कि वे इस विवाद को हवा देने के पक्षधर नहीं हैं. फिर विवाद क्या है? विवाद है धर्मगुरु जो अपनी आलोचना सहन नहीं करते और ऐसे विवादों को नेताओं के जरिए हवा देते रहते हैं. रही बात आम लोगों की, तो वे धर्म के नाम पर जज्बाती होते हैं. इसलिए धर्म और राष्ट्र का फर्क मिटाया जा रहा है. अगर भारत माता सब की है तो क्या इस का मुसलमान बेटा इसे मुसलिम समुदाय में प्रचलित परिधान बुरका पहना कर इबादत कर सकता है. शायद, हिंदू इस बात पर सहमत होंगे क्योंकि भारत माता हिंदुओं की गढ़ी गई नई देवी है जिस की आड़ में धंधे का प्रचारप्रसार किया जा रहा है.

मोदी सरकार को कानूनी चोट

उत्तराखंड में हुई किरकिरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली व अमित शाह को तो याद रहेगी ही, आगे की केंद्रीय सरकारों के लिए यह एक सबक रहेगी. जहां सीधे न जीत पाए हों, वहां सत्तारूढ़ पार्टी में तोड़फोड़ करा कर राज कर लेने के उदाहरण रामायण व महाभारत के युग में तो होते ही थे, संविधान बनने व उस के लागू होने के बाद भी बहुत हुए. हरियाणा में तो एक बार आयारामगयाराम चुटकुला बन गया जब एक विधायक गयाराम दिन में 4 बार दल बदलने लगा. पहले एस आर बोम्मई के मामले में और अब हरीश रावत के मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने विधायकों की ब्लैकमेल करने की ताकत की हवा निकाल दी और विधायकों की खरीदफरोख्त पर पूरी तरह की पाबंदी सी लगा दी है. अरुण जेटली और अमित शाह सोच रहे थे कि वे इंदिरा गांधी वाला युग वापस ले आएंगे. सर्वोच्च न्यायालय ने उन के मनसूबों पर पानी फेर दिया.

हर सरकार में ऐसे नेता होते हैं जो ऊंचा पद चाहते हैं और विजय बहुगुणा दरअसल हरीश रावत की जगह खुद को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाह रहे थे. किसी कारण सोनिया गांधी के दरबार में उन की चल नहीं रही थी. ऐसे में उन्होंने नरेंद्र मोदी के दरबार में गुहार लगाई. दिल्ली व बिहार की हार के सदमे को न भुला पा रहे नरेंद्र मोदी को यह एक अवसर लगा कि शायद वे साबित कर पाएं कि चुनावों के बिना भी वही अकेले देश में शासन के लायक हैं, दूसरी पार्टियों के विधायक भी उन्हें ही नेता मानते हैं. कश्मीर में सत्ता हाथ से न निकले, इसलिए उन्होंने महबूबा मुफ्ती से कई समझौते किए और भारत माता की जय न बोलने पर भी जम्मूकश्मीर में किसी को देशद्रोही न मानने तक को तैयार हो गए. उत्तराखंड का पूरा नाटक भाजपा का विभीषणी काम था. वह रामराज्य कैसा जहां भाई को भाई से लड़वाया जाए पर भाजपा ने विजय बहुगुणा की 9 विधायकों को तोड़ लाने की पेशकश को स्वीकार कर लिया और बात नहीं बनती दिखी, तो राष्ट्रपति शासन, छोटी सी बात पर, लागू कर डाला. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने तो एक तरह से राष्ट्रपति को बुरी तरह डांट लगा दी. सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय वाली भाषा का इस्तेमाल तो नहीं किया पर आखिरकार किया वही, जो उच्च न्यायालय कह रहा था.

राज्यों की सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत भंग करना यदा- कदा ही होना चाहिए और वह भी मुख्यमंत्री की सिफारिश पर या किसी के भी मुख्यमंत्री न बन पाने पर. एक पार्टी के आंतरिक विवाद में अनुच्छेद 356 का उपयोग संविधान से खिलवाड़ है और लोकसभा में बहुमत की ताकत का दुरुपयोग. नरेंद्र मोदी 2017 तक इंतजार कर सकते थे जब उत्तराखंड के चुनाव होने  हैं. फिर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू, पुद्दूचेरी और केरल के चुनावी माहौल में इस तरह का खिलवाड़ भाजपा की अमितशाही प्रवृत्ति को ही दर्शाता है. सरकार नियमकानूनों की भावना पर नहीं, जोरजबरदस्ती पर चल रही है, इस से यही साबित हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय अभी भयभीत नहीं है जैसा 1975-77 में था, यह स्पष्ट है.

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