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गेहूं की करें अच्छी पैदावार

भारत में गेहूं की पैदावार बड़े पैमाने पर होती है. मौसम बेरहमी से पेश न आए, तो पैदावार किसानों को खुश कर देती है. भारत गेहूं का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है. केरल, मणिपुर व नागालैंड राज्यों को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में इस की खेती की जाती है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व पंजाब सर्वाधिक रकबे में गेहूं की पैदावार करने वाले राज्य हैं. वैज्ञानिक तरीकों से गेहूं की फसल की सही देखभाल कर के और बीजों के चयन में सतर्कता अपना कर पैदावार को बढ़ाया जा सकता है और इस की उपज से अधिकतम लाभ लिया जा सकता है. इस के लिए जरूरत इस बात की है कि किसान इस के प्रति जागरूक हों. वैज्ञानिकों की मानें, तो गेहूं की फसल के लिए ऐसी दोमट मिट्टी वाले खेत सही रहते हैं, जहां ज्यादा जलभराव की स्थिति न रहती हो. वैसे पौधों को संतुलित मात्रा की खुराक देने वाली पर्याप्त खाद दी जाए, तो हलकी जमीन से भी अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

गेहूं की बोआई से करीब 1 महीने पहले ही प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 4 से ले कर 10 टन तक गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद खेत में डाल देनी चाहिए. इस में 3 किलोग्राम कैलडर्मा व 10 किलोग्राम कैलबहार भी डालना बेहतर होता है. इस के बाद खेत की जुताई कर के पलेवा कर देना चाहिए. फिर हैरो व टिलर से जुताई कर के पाटा लगा कर खेत को पूरी तरह से समतल कर देना चाहिए. बोआई के वक्त खेत में थोड़ी नमी होना जरूरी है. मिट्टी भुरभुरी होनी चाहिए और खेत में खरपतवार नहीं होने चाहिए.

बीजों का चयन व बोआई

बीजों का चयन जलवायु, बोने के समय व क्षेत्रफल के हिसाब से करना चाहिए. सरकारी उपकेंद्रों व बाजारों में गेहूं के कई तरह की प्रजाति वाले बीज मिलते हैं. सौ फीसदी शुद्ध बीज को उत्तम बीज कहा जाता है. हर सूरत में प्रमाणित बीज का ही किसानों को इस्तेमाल करना चाहिए. इस से बेहतर उत्पादन प्राप्त होता है. आमतौर पर 4 तरह के बीज होते हैं, जो प्रजनन बीज, आधरीय बीज, प्रमाणित बीज व सत्यापित बीज कहलाते हैं. हाइब्रिड बीज भी उपलब्ध होते हैं. गुणों का विकास कर के तैयार किए गए बीजों को हाइब्रिड बीज कहा जाता है.

कृषि वैज्ञानिकों की राय में समय के मुताबिक बीजों की किस्मों का चुनाव किया जाना चाहिए. अलगअलग राज्यों में दर्जनों किस्में होती हैं. सिंचित अगेती खेती का समय 15 अक्तूबर से 25 नवंबर तक माना जाता है. अगेती बोआई के लिए बाजार में जो बीज की किस्में मिलती हैं, उन में एचडी 2329, एचडी 2428, एचडी 2204, पीबीडब्ल्यू 550, एचडी 2733, एचडी 2851, एचडी 2894, सीपीएएन 3004, डब्ल्यू एच 1105, यूपी 2338, डब्ल्यूएच 542, पीबीडब्ल्यू 343 व एचडी 2687 वगैरह शामिल हैं. पछेती बोआई का समय 25 नवंबर से 25 दिसंबर तक माना जाता है. इस के लिए यूपी 2425 व 3338, पीबीडब्ल्यू 373, राज 3765, पीबीडब्ल्यू 226, एचडी 2967, एचडी 2270, डब्ल्यूएच 291, एचडी 2932, पीबीडब्ल्यू 711 वगैरह बीजों की किस्में अच्छी होती हैं.

कृषि वैज्ञानिक दीपक कुमार कहते हैं कि बीजों का चयन महत्त्वपूर्ण कड़ी है. उन की गुणवत्ता पर यदि शक हो, तो सरकारी जांच केंद्रों पर उन की जांच कराई जा सकती है. बीज खरीदते समय किसानों को रसीद भी जरूर हासिल कर लेनी चाहिए. अगेती बोआई के लिए 100 किलोग्राम व पछेती बोआई के लिए 110 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लेने चाहिए. अच्छी पैदावार के तरीके के तौर पर बीजों को 5 से 6 सेंटीमीटर नीचे बोया जाना चाहिए और लाइन से लाइन की दूरी 23 सेंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 18 सेंटीमीटर होनी चाहिए. हल या ट्रैक्टर चालित मशीन के जरीए बोआई करने के बाद बीजों को ढक देना चाहिए. कई बार किसान छिड़काव, हल के पीछे कूंड़ों में, डिबलर द्वारा, उभरी हुई क्यारी विधि व अन्य विधियों के जरीए भी बीज बोते हैं. वैज्ञानिक छिड़काव के तरीके को अच्छा नहीं मानते. इस से आधे से ज्यादा बीज बेकार हो जाते हैं.

बीजशोधन

बेहतर फसल के लिए बीजों को शोधित कर के बोआई करनी चाहिए. 2.5 ग्राम थीरम या 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम या 5 ग्राम ट्राईकोडरमा स्पोर से प्रति किलोग्राम बीज को शोधित करना चाहिए. शोधन से जोरदार जमाव होता है और तमाम रोगों से बचाव होता है. इस के जरीए मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियां भी कम हो जाती हैं.

जैविक उर्वरक का इस्तेमाल

किसानों को जैविक उर्वरक ही इस्तेमाल करने चाहिए. कैलजोटो (एजोटोबैक्टर या एजोस्पेलियम) आधा लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल किया जाना चाहिए. यह नाइट्रोजन की पूर्ति करता है. कैलफोरस (पीएसबी कल्चर) जोकि फास्फोरस की पूर्ति करता है, उसे 1 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. पोटाश की पूर्ति के लिए कैल्टास (फ्रेट्यूरिमा ओरेंसिया) आधा लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए. यदि रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल सीडड्रिल मशीन द्वारा किया जाता है, तो उस में 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम पोटाश व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोआई के साथ ही डाल देना चाहिए. यूरिया को 2 भागों में बांट लेना चाहिए. इस में से 1 भाग दूसरी सिंचाई से पहले व दूसरा भाग चौथी सिंचाई से पहले देना चाहिए. यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि जैविक या रासायनिक उर्वरकों में से किसी एक का ही इस्तेमाल करना चाहिए, वरना फसल को नुकसान हो सकता है.

सिंचाई व खरपतवार

गेहूं की फसल को 6 बार सिंचाई की जरूरत होती है. पहली सिंचाई मुख्य जड़ निकलने के बाद के बाद, दूसरी सिंचाई गेहूं के कल्ले निकलने पर, तीसरी सिंचाई गेहूं में गांठ बनने पर, चौथी सिंचाई बालियां निकलते समय, पांचवी सिंचाई दानों में दूध पड़ने पर व छठी सिंचाई दानों में आटा बनने पर की जानी चाहिए. जब गेहूं की बालियां आनी शुरू हों, तो सिंचाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए. ऐसे में यदि खेत में नमी की कमी रह गई, तो बालियां परिपक्व नहीं हो सकेंगी और पैदावार गड़बड़ा सकती है. सिंचाई करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस वक्त हवा ज्यादा तेज न हो, वरना फसल गिरने का डर रहता है. जहां भूमि रेतीली हो वहां सिंचाई ज्यादा करनी पड़ सकती है. फसल की सिंचाई भूमि के प्रकार और बारिश पर भी निर्भर करती है. गेहूं में आमतौर पर 2 प्रकार के खरपतवार (पतली व चौड़ी पत्ती वाले) पाए जाते हैं. उन्हें खुरपी की सहायता से गेहूं के पौधों को नुकसान पहुंचाए बिना निकाल देना चाहिए. खरपतवार रोकने का रासायनिक तरीका भी अपनाया जा सकता है. इस के लिए सल्फ्यूसल्फोरान जैसे रसायन व पाउडर आते हैं. उन्हें बताई गई विधि व मात्रा के मुताबिक घोल कर छिड़कावकर देना चाहिए.

गेहूं के रोग :

पहचान व इलाज

गेहूं की फसल कई प्रकार के रोगों का शिकार हो जाती है. इन में अनावृत्त कंडुआ, इयर काकल, करनाल बंट, गुजिया (बीविल), पत्ती धब्बा रोग, दीमक व स्मट वगैरह शामिल हैं.

अनावृत्त कंडुआ : इस रोग में बालियों में दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है. इस रोग के जीवाणु हवा के जरीए तेजी से फैलते हैं और स्वस्थ बालियां भी संक्त्रमण का शिकार हो जाती हैं. इस की रोकथाम के लिए बायोपेस्टीसाइड, ट्राइकोडरमा 2.5 ग्राम प्रति हेक्टेयर व 60 से 70 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद को मिला कर हलके पानी का छींटा मार कर 8-10 दिनों तक छाया में रखने के बाद बोआई से पहले भूमि में मिला कर भूमिशोधन करना चाहिए. रसायनों के जरीए भी इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

इयर काकल : इस रोग से पौधे बौने रह जाते हैं और उन में स्वस्थ पौधों की अपेक्षा अधिक पत्ताफूट होती है. रोगग्रस्त बालियां छोटी व फैली हुई होती हैं. उन में अनाज की जगह भूरे व काले रंग की गांठें बन जाती हैं, जिन में सूत्रकृमि पाए जाते हैं, इस रोग के इलाज के लिए कार्बोफुरान 3 जी का 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए. दूसरे तरीके के तौर पर नमक के पानी में बीजों को बोने से पहले डुबोने के बाद सुखा कर इस्तेमाल में लाना चाहिए.

करनाल बंट : इस रोग में दाने काले चूर्ण में बदल जाते हैं. यह रोग भूमि के कारण फैलता है. इस रोग से बचाव के लिए बीजशोधन करने के अलावा खड़ी फसल में प्रोपिकोनाजोल 25 ईसी की 500 मिलीलीटर मात्रा को 750 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

गुजिया (बीविल) : यह एक प्रकार का कीट होता है. इस का रंग भूरा व मटमैला होता है, जो सूखी जमीन की दरारों में रहता है. यह कीट उग रहे पौधें को जमीन की सतह से काट कर उन्हें नुकसान पहुंचाता है. इस से बचाव के लिए बोआई से पहले खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए. पिछली फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए. खड़ी फसल में सिंचाई के पानी के साथ इमिडाक्लोरप्रिड 17.8 एमएल 350 मिलीलीटर या क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.

पत्तीधब्बा रोग : इस रोग की शुरुआती अवस्था में पीले व भूरापन लिए हुए अंडाकार धब्बे नीचे की पत्तियों पर दिखाई देते हैं. बाद में ध्ब्बों का किनारा कत्थई रंग का और बीच का भाग हलके भूरे रंग का हो जाता है. इस रोग के इलाज के लिए मैंकोजेब 75 डब्ल्यूपी की 2.0 किलोग्राम मात्रा 750 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

दीमक : दीमक सफेदमटमैले रंग का कीट है, जो कालोनी बना कर रहते हैं. इस के श्रमिक कीट पंखहीन, छोटे व पीलेसफेद रंग के होते हैं. बलुई दोमट मिट्टी में सूखे की हालत में दीमक के प्रकोप की संभावना रहती है. श्रमिक कीट जम रहे बीजों व पौधों की जड़ों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. प्रभावित पौधे अनियमित आकार में कुतरे हुए दिखाई देते हैं. इस की रोकथाम के लिए खेत में कच्चे गोबर का प्रयोग नहीं करना चाहिए. फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए. नीम की खली 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में मिलाने से दीमक के प्रकोप में कमी आ जाती है. खड़ी फसल को दीमक के प्रकोप से बचाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल की 750 मिलीलीटर मात्रा या क्लोरपाइरीफास 20 ईसी की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.    

गेहूं का शुद्ध बीज तैयार करने की विधि

गेहूं की अच्छी व अधिक पैदावार लेने के लिए शुद्ध बीज का होना जरूरी है. लेकिन किसानों को हर साल शुद्ध बीज प्राप्त करने के लिए बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. उन को या तो शुद्ध बीज प्राप्त नहीं होता या इस के लिए ज्यादा पैसा व समय खर्च करना पड़ता है. इन परेशानियों से बचने के लिए किसान एक बार किसी प्रमाणित संस्था जैसे कृषि विश्वविद्यालय, राज्य बीज विकास निगम व राष्ट्रीय बीज निगम से शुद्ध बीज ला कर अपने खेत में बिजाई कर के उसी से शुद्ध बीज तैयार कर के उस की शुद्धता को कई साल तक कायम रख सकते हैं. शुद्ध बीज कम से कम 98 फीसदी साफसुथरा होना चाहिए यानी इस में कचरा 2 फीसदी, खरपतवार 0.10 फीसदी व अन्य फसलों के बीज  0.10 फीसदी से ज्यादा नहीं होने चाहिए. इस बीज की जमाव शक्ति कम से कम 85 फीसदी और बीज में नमी 10-12 फीसदी तक होनी चाहिए.

गेहूं का शुद्ध बीज तैयार करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

खेत का चुनाव : शुद्ध बीज तैयार करने के लिए किसान ऐसा खेत चुनें, जिस की जमीन उपजाऊ हो और सिंचाई की सुविधाएं ठीक हों. साथ ही इस खेत में दूसरी फसलों के पौधे व खरपतवार नहीं होने चाहिए.

बीजों का उपचार : बीज यदि पहले से उपचारित नहीं हैं, तो उन में 2 ग्राम वीटावैक्स या बावस्टिन प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाएं ताकि खुली कांगमारी नामक बीमारी की रोकथाम हो सके. खुली कांगमारी, ध्वजपत्ता कांगमारी व करनाल बंट से बचाव के लिए 1 ग्राम रैक्सिल प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीज उपचारित करें.

बीजाई का तरीका : शुद्ध बीज तैयार करने के लिए इस की बीजाई समय पर कतारों में करनी चाहिए, जिस से अन्य किस्म के पौधों को निकालने में आसानी रहे. यदि मुमकिन हो सके, तो खेत के बीचोंबीच में 1 या 2 रास्ते भी छोड़ दें, तो बेहतर रहेगा. खेत में खाद व पानी किस्म के अनुसार दें. ध्यान रखें कि फसल गिरने न पाए.

फसल की छंटाई : शुद्ध बीज तैयार करने के लिए फसल की छंटाई का काम बेहद अहम है. शुद्ध बीज वाली फसल में अगर कोई अन्य किस्म का पौधा या खरपतवार हो तो उसे निकाल देना चाहिए. खुली कांगमारी से प्रभावित पौधों को पौलीथीन के थैले में ढक कर सावधानीपूर्वक निकाल कर खेत से दूर मिट्टी में दबा देना चाहिए ताकि बीमारी के कण खेत में न बिखरें. कुछ खरपतवार जैसे जई व हिरनखुरी वगैरह फसल के अंत तक आते रहते हैं, इन को निकालना बेहद जरूरी होता है.

कटाई व मड़ाई : जो खेत शुद्ध बीज तैयार करने के लिए चुना गया है, अगर उस के आसपास गेहूं की अन्य किस्मों की बीजाई नहीं की गई है, तो सारे खेत को काट लेना चाहिए. लेकिन यदि खेत के किसी तरफ भी गेहूं की अन्य किस्म की बिजाई की गई हो, तो खेत के उस ओर 3 मीटर चौड़ी पट्टी फसल काट कर अलग से साफ कर लेनी चाहिए.

बीजों का भंडारण : बीजों को छान लें ताकि खरपतवार के बीज व छोटे सिकुड़े हुए दाने निकल जाएं. मोटे दानों में भी यदि कोई दाना अन्य प्रकार का दिखाई दे तो उसे भी निकाल देना चाहिए. इन साफ व शुद्ध बीजों को सुखा कर लोहे की टंकी वगैरह में भर कर अलग से रखें. कीड़ों से बीजों के बचाव के लिए सल्फास का इस्तेमाल करना चाहिए. यदि ऊपर बताई गई बातों को ध्यान में रखा जाए, तो किसान हर साल खुद ही शुद्ध बीज तैयार कर सकते हैं और शुद्ध बीज प्राप्त करने में होने वाली कठिनाइयों से बच सकते हैं. 

गेहूं के परजीवी निमेटोड की पहचान व इलाज

भारत की प्रमुख फसल गेहूं पूरे देश में उगाई जाती है. भारत में साल 2010-11 में 87.7 मिलियन टन गेहूं उत्पादन हुआ. गेहूं में कीटों, सूत्रकृमियों व रोग के कारण 5-10 फीसदी उपज की हानि होती है और दानों व बीजों की गुणवत्ता भी खराब होती है. गेहूं की फसल में 80 से ज्यादा नेमेटोड की प्रजातियां होती हैं. सूत्रकृमि या निमेटोड बहुत छोटे आकार के सांप जैसे जीव होते?हैं, जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता. ये माइक्रोस्कोप से ही दिखाई देते हैं. ये अधिकतर मिट्टी में रह कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन के मुंह में एक सुईनुमा अंग स्टाइलेट होता?है. इस की सहायता से ये पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं, जिस के कारण पौधे भूमि से खादपानी पूरी मात्रा में नहीं ले पाते. इस से इन की बढ़वार रुक जाती है और पैदावार में भारी गिरावट आ जाती है. बीज गाल (पिटिका) निमेटोड (एंगुनिया ट्रिटीसाई) : इस निमेटोड की मादा 6 से 12 दिनों के अंदर 1000 अंडे नए गाल (पिटिका) के अंदर देती है. जब फसल पकने वाली होती है, तो पिटिका भूरे रंग की हो जाती?है. दूसरी अवस्था वाले लार्वे पिटिका में भर जाते हैं. दूसरी अवस्था के लार्वे 28 साल पुरानी बीज पिटिका में जीवित अवस्था में पाए गए हैं. फसल की कटाई के समय स्वस्थ बीज के साथ पिटिका से ग्रसित बीज भी इकट्ठा कर लिए जाते हैं.

जब अगले साल की फसल की बोआई की जाती है, तो अगला जीवनचक्र फिर शुरू हो जाता है. 1 बीज पिटिका में तकरीबन 3 हजार से 12 हजार दूसरी अवस्था वाले लार्वे पाए गए हैं. जब ये लार्वे नमी वाली भूमि के संपर्क में आते हैं, तो नमी सोखने के कारण मुलायम हो जाते हैं. ये पिटिका को फाड़ कर बाहर निकल आते हैं. लार्वे की दूसरी अवस्था हानिकारक होती?हैं. इस अवस्था के लार्वे भूमि से 10 से 15 दिनों में बाहर आ जाते हैं और बीज के जमने के समय हमला कर देते हैं. लार्वे बीज के जमने वाले भाग से ऊपर पौधे के चारों ओर बढ़ने वाले क्षेत्र में और पत्ती की सतह में पानी की पतली परत के सहारे ऊपर चढ़ जाते हैं. ये पत्ती के बढ़ने वाले भाग से पत्ती की चोटी पर चढ़ जाते हैं. पौधे की बढ़वार अवस्था में फूल के बीज बनने वाले स्थान पर निमेटोड हमला करते?हैं और लार्वे फूल के अंदर चले जाते हैं. इस अवस्था में निमेटोड बीज बनने वाले भाग में रहते हैं और संख्या बढ़ने के कारण फूल पिटिका में बदल जाते?हैं. लार्वे 3 से 5 दिनों में फूलों पर आक्रमण कर के नर व मादा में परिवर्तित हो जाते?हैं. बहुत से नर व मादा हरी पिटिका में मौजू रहते हैं.

नुकसान के लक्षण

निमेटोड से ग्रसित नए पौधे का नीचे का भाग हलका सा फूल जाता?है. इस के अलावा बीज के जमाव के 20-25 दिनों बाद नए पौधे के तने पर निकली पत्ती चोटी पर से मुड़ जाती है. रोग ग्रसित नए पौधे की बढ़वार रुक जाती है और अकसर पौधा मर जाता है. रोग ग्रसित पौधा सामान्य दिखाई देता?है. उस में बालियां 30-40 दिनों पहले निकल आती?हैं. बालियां छोटी व हरी होती हैं, जो लंबे समय तक सामान्य बाली के मुकाबले हरी रहती?हैं. बीज पिटिका में बदल जाते हैं. इस रोग का मुख्य लक्षण यह है कि बीज गाल यानी पिटिका में बदल जाते?हैं. गाल (पिटिका) छोटा व गहरा होता है, जो स्वस्थ बीज के मुकाबले भूरा और अनियमित आकार का हो जाता है. गाल (पिटिका) के आकार के अनुसार 1 गाल में 800 से 3500 की संख्या में लार्वे पाए जाते हैं. इस निमेटोड के कारण पीली बाल या टुंडा रोग हो जाता है. निमेटोड बीजाणु फैलाने का काम करते हैं. इस रोग के कारण नए पौधों की पत्तियों व बालियों पर हलका पीला सा पदार्थ जमा हो जाता है. रोग ग्रसित पौधों से बालियां ठीक से नहीं निकल पातीं और न ही उन में दाने बनते हैं.

रोकथाम

बीज की सफाई : टुंडा रोग या बाल गांठ रोग या निमेटोड रहित बीज लेने चाहिए. बीजों को छन्नी से छान कर पानी में 20 फीसदी के बराइन घोल में डाल कर तैरते हुए बीज अलग कर लेने चाहिए.

गरम पानी से उपचारित करना : बीजों को 4 से 6 घंटे तक?ठंडे पानी में भिगोना चाहिए. इस के बाद 54 डिगरी सेंटीग्रेड गरम पानी में 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए.

फसल हेरफेर कर बोना : निमेटोड को खेत से बाहर करने के लिए प्रभावित फसल की 2 या 3 सालों तक बोआई नहीं करनी चाहिए.

रोगरोधी किस्म : निमेटोड अवरोधी प्रजातियां ही खेत में बोनी चाहिए.

संक्रमित पौधे निकालना : निमेटोड से संक्रमित पौधे पता लगा कर अगेती अवस्था में ही नष्ट कर देने चाहिए.

सूप से फटकना या हवा में उड़ाना : यह विधि भी सहायक गाल को बाहर करने के लिए कारगर है, पर इस विधि से गाल (पिटिका) पूरी तरह से बाहर नहीं होते?हैं.

सिस्ट गांठ निमेटोड (हेटरोडेरा एविनी) : गांठ निमेटोड नीबू के आकार की गांठ के अंदर अंडे देता है, जो कई सालों तक जीवित रहते?हैं. ये गांठ से अलग हो कर भूमि में निकल आते?हैं. मार्चअप्रैल और अक्तूबरनवंबर तक गांठ में करीब 400 अंडे रहते हैं. इस समय अंडों में दूसरी अवस्था के लार्वे बेकार अवस्था में रहते हैं. फसल की अगली बोआई के समय नवंबर से जनवरी के दौरान रोग ग्रसित लार्वे गांठ से निकलने शुरू हो जाते हैं. एक सीजन में 50 फीसदी अंडे फूट जाते?हैं और बाकी अगले सीजन तक महफूज रहते हैं. जब फसल 4 से 5 सप्ताह पुरानी व ताप 16 से 18 डिगरी सेंटीग्रेड हो जाता है, तब दूसरी अवस्था के लार्वे जड़ की चोटी से घुसते हैं. शरीर विकसित होने में 4 हफ्ते लगते हैं. भोजन लेने के बाद दूसरी अवस्था चौड़ाई में बढ़ती है. मादा नीबू का आकार लेती है और सफेद रंग की होती है.

जड़ में घुसने के 4-5 हफ्ते बाद लार्वों को जड़ से बाहर निकलते देखा जा सकता?है. मादा तभी मर जाती है. उस के शरीर का कठोर व गांठ से भरा अवशेष अगले सीजन को संक्रमित करने के काम आता?है. नर वयस्क गोलाकार केंचुए जैसा होता?है. नर का विकास लार्वे में होता है. लार्वे वयस्क में बदलते?हैं. इन का जीवनचक्र 9 से 14 हफ्ते में पूरा होता?है और साल में 1 पीढ़ी पाई जाती?है. यह निमेटोड गेहूं और जौ में मोल्या रोग फैलाता है.

नुकसान के लक्षण

इस निमेटोड के लक्षण शुरू में खेत में टुकड़ों में दिखाई देते?हैं, जो 3-4 सालों में पूरे खेत में फैल जाते हैं. इस के शुरुआती लक्षण फसल के जमाव के समय दिखने लगते हैं. इस की वजह से पौधों की जमीन से पोषक तत्त्वों को लेने की कूवत कम हो जाती है और जड़ों में गांठें बन जाती हैं. इस के अलावा पौधों की बढ़वार रुक जाती?है और रोगग्रस्त पौधे हरेपीले रंग के दिखाई देते हैं. ऐसे रोगग्रसित पौधों की बालियों में बहुत कम दाने बनते?हैं. पौधों के आधार पर मूसला जड़ें विकसित हो जाती हैं. जड़ों पर फरवरी के मध्य में निमेटोड का आक्रमण दिखाई पड़ता?है. रेशे वाली जड़ें भूमि से आसानी खींची जा सकती हैं. इस के प्रकोप से रेतीली मिट्टी में 45 से 48 फीसदी नुकसान होता?है.

रोकथाम

कृषि क्रियाएं विधि : गांठ निमेटोड अवरोधी और सूखा न सहने वाला?है. फसलचक्र व गरमी की जुताई से इस की रोकथाम की जा सकती है.

पोशक अवरोधी फसलें जैसे सरसों, चना, कारिंडर, गाजर व फ्रैंचबीन वगैरह से इस की रोकथाम कर सकते हैं.

मईजून महीनों में 2-3 बार गरमी की जुताई करने पर निमेटोड की संख्या कम की जा सकती है. गरमी के महीनों में गांठें कम हो जाती हैं. गेहूं की अगेती बोआई करने पर नुकसान को कम किया जा सकता?है.

अवरोधी प्रजातियां : भारत में गेहूं की निमेटोड अवरोधी प्रजातियां सीसीएनआरवी 1 व राज एमआर 1 उगाई जाती हैं.

जौ की अवरोधी प्रजातियां राज किरन, आरडी 2035, आरडी 2052 और सी 164 संक्रमित क्षेत्र में उगाई जाती हैं. इन प्रजातियों में मादा के अंडे देने में असफल होने के कारण निमेटोड की तादाद कम हो जाती है.

रसायनिक विधि : खेत में कार्बोफुरान 3 फीसदी 65 किलोग्राम या फोरेट 10 जी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से निमेटोड पर काबू पाया जा सकता है.

एकीकृत इलाज : मईजून के महीनों में गरमी की जुताई कर के और अवरोधी फसलों जैसे चना व सरसों की बोआई कर के निमेटोड की तादाद कम करने में सफलता पाई जा सकती है.

कुछ कहती हैं तसवीरें

खेतों में खुशहाली : धान और गन्ने की फसलें कटनी शुरु हो गई हैं और राहत की बात है कि कई जगह इन की फसलें खूब अच्छी हुई हैं. यही वजह है कि किसान और उन के परिवारों के लिए यह पर्व मनाने का मौका है और वे मस्ती में बौराए अपने खेतों में नाचगा रहे हैं. तो आप भी झूमिए देश के अन्नदाताओं के साथ.

फसल को कीटों से बचाएं नए तरीके अपनाएं

आजकल फसल की सुरक्षा को ले कर किसान परेशान हैं, क्योंकि बाजार में मौजूद तमाम कीटनाशक फसल को कीड़ों से बचाने में नाकाम हो रहे हैं. इस का ताजा उदाहरण देश भर में बीटी काटन (नरमा) की तबाही है. किसानों की नरमा फसल बरबाद हो चुकी है. इस में इस्तेमाल किए गए कीटनाशक बेअसर रहे हैं. बीटी काटन बीज की खासीयत होती है कि इस में कीट नहीं लगते हैं और यह सामान्य कपास की फसल से ढाई गुना अधिक पैदावार देती है. लेकिन बीज बनाने वाली विदेशी कंपनियों के सारे दावे धरे रह गए. सफेद मक्खी ने कपास पर जम कर कहर बरपाया और किसानों को लाखों रुपए का नुकसान झेलना पड़ा. सफेद मक्खी का खरीफ की फसलों पर सब से ज्यादा हमला होता है. यह मक्खी कपास की सब से बड़ी दुश्मन होती है. यह बरसात के मौसम में सब से ज्यादा पनपती है. कपास के हर पत्ते पर 30 से ज्यादा मक्खियां बैठती हैं. हर मक्खी 100 से ज्यादा अंडे देती है. इस मक्खी का चक्र 30 से 35 दिनों का होता है. इस साल सफेद मक्खी ने करीब 4200 करोड़ रुपए की कपास की फसल को बरबाद किया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों से मन की बात करते हैं, लेकिन किसानों के मन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र देश के ऐसे राज्य हैं, जहां कपास की बंपर पैदावार होती है, लेकिन इस साल सफेद मक्खी के प्रकोप से कपास की फसल बरबाद हो गई है. किसानों की हालत बदतर हो रही है. हालांकि इस बारे में प्रदेश सरकारों का कहना है कि किसानों को उन के हुए नुकसान की भरपाई मुआवजा दे कर की जा रही है. सरकार का किसानों को मुआवजा देने का मापदंड और तरीका क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है. पिछले दिनों गेहूं की फसल में हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने 50-50 रुपए तक के चेक किसानों को दिए थे, जिस पर देश भर में खूब होहल्ला हुआ था. जिन किसानों को मुआवजे की रकम कुछ ठीकठाक मिली भी, तो उन्हें दलालों व पटवारियों को चढ़ावा भी चढ़ाना पड़ा था. यह एक कड़वी हकीकत है, इसलिए किसानों को सरकार का मुंह न ताक कर खुद पर भरोसा करना होगा और प्रगतिशील बनना होगा.

लगाएं फसल रक्षक फसलें

फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों से बचाने के लिए किसान फसल रक्षक फसलें उगा सकते हैं, जो एक खास समय के दौरान कीटों को अपनी ओर खींच कर खास फसल को अनेक कीटों से बचाती हैं. इन फसलों को मुख्य फसल के बीचबीच में कहींकहीं लाइनों में लगाया जाता है या मुख्य फसल के चारों ओर बाड़ की तरह लगाया जाता है.

ऐसी फसल का फायदा

ऐसी फसलें किसान की मुख्य फसल की गुणवत्ता व पैदावार को बनाए रखती हैं और साथ ही मिट्टी के स्वास्थ्य और आबोहवा को भी ठीक रखती हैं. ये फसलें मित्र कीटों को आकर्षित करती हैं और हानिकारक कीटों के प्रकोप से मुख्य फसल को सुरक्षा देती हैं, जिस से मुख्य फसल को फायदा मिलता है. ऐसी फसलें लगाने पर किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल कम ही करना पड़ता है. कीट आकर्षित करने वाली पारंपरिक फसलें : ऐसी रक्षक फसलों को मुख्य फसल के आगे लगाया जाता है, जिस से रक्षक फसलें मुख्य फसल के मुकाबले ज्यादा कीटों को भोजन व अंडे देने के लिए आकर्षित करती हैं. गतिरोधी फसलें : इस प्रकार की रक्षक फसलें कीटों को अपनी ओर खींचने वाली होती हैं. लेकिन इन का फायदा ज्यादा लंबे समय तक नहीं रहता है.

आनुवंशिक परिवर्तित फसलें : इस तरह की रक्षक फसलें आनुवंशिक रूप से परिवर्तित रहती हैं, जो फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को आकर्षित करती हैं.

बाड़ वाली फसलें : ऐसीरक्षक फसलों को मुख्य फसल के चारों ओर बाड़ के रूप में लगाया जाता है, जैसे कपास के चारों ओर भिंडी की बाड़ लगा सकते हैं. इस में कपास मुख्य फसल और भिंडी रक्षक फसल है.

अनेक फसलें : इस के तहत रक्षक फसलों की विभिन्न प्रजातियों को कीटों को अपनी ओर खींचने के लिए मुख्य फसल के साथ लगाया जाता है. 

कीट आकर्षित करने वाली रक्षक फसलों को लगाने का तरीका :

* गोभी की फसल में कीट रोकथाम के लिए गोभी फसल की 25 लाइनों के बाद 2 लाइनों में सरसों लगाई जाती है.

* कपास की इल्ली/सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए लोबिया को कपास की 5 कतारों के बाद 1 कतार में लगाया जाता है या तंबाकू को कपास की 20 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाया जाता है.

* टमाटर की फसल को फल छेदक/निमेटोड से बचाने के लिए अफ्रीकन गेंदे को टमाटर की 14 लाइनों के बाद 2 लाइन में लगाएं.

* बैगन में तनाछेदक व फलछेदक की रोकथाम के लिए धनिया या मेथी को बैगन की 2 लाइनों के बाद 1 लाइन में लगाया जाता है.

* चने में इल्ली की रोकथाम के लिए धनिया या गेंदे को चने की 4 लाइनों के बाद 1 लाइन में लगाया जाता है.

* अरहर में इल्ली की रोकथाम के लिए गेंदे को अरहर के चारों तरफ बार्डर के रूप में लगाया जाता है.

* सोयाबीन में तंबाकू की इल्ली की रोकथाम के लिए सूरजमुखी या अरंडी को सोयाबीन के चारों तरफ बार्डर के रूप में लगाया जाता है.

किसानों को फसल में हानि पहुंचाने वाले कीटों की पहचान होनी चाहिए और फसल की नियमित रूप से देखभाल करनी चाहिए. अगर फसलरक्षक फसल लगाने के बाद भी मुख्य फसल में कीटों का प्रकोप बढ़ने की संभावना हो तो कीटनाशी का छिड़काव भी करना चाहिए साथ ही नजदीकी कृषि माहिरों से सलाह लेनी चाहिए

जागरूक रहें

* किसान अपनी फसल में 10-15 दिनों के अंतराल पर मुनासिब कीटनाशक का छिड़काव करें, लेकिन कई कीटनाशक मिला कर न छिड़कें.

* फसल की ऊपरी सतह तक ही छिड़काव न करें, बल्कि नीचे पौधों की जड़ों तक सही तरीके से छिड़काव करें.

*  कीटनाशक छिड़कते समय पूरे बदन के कपड़े पहनें और मुंह पर कपड़ा या मास्क लगा कर छिड़काव करें.

इस बारे में ज्यादा जानकारी के लिए किसान काल सेंटर के टोल फ्री नंबर 18001801551 पर पूछताछ कर सकते हैं. इस नंबर पर लैंडलाइन व मोबाइल फोन से सुबह 6 बजे से ले कर रात 10 बजे तक जानकारी ले सकते हैं. देश भर में अलगअलग भाषाओं में 25 स्थानों पर किसान काल सेंटर बनाए गए हैं.

ऐसे करें मवेशियों का शुरुआती इलाज

मवेशी अपने पालकों को अच्छाखासा मुनाफा कराते हैं, इसलिए हर मवेशीपालक को अपने मवेशियों का खास ध्यान रखने की जरूरत है. अकसर मवेशी बीमार पड़ जाते हैं या चोट के शिकार हो जाते हैं या कभी जहरीला पौधा वगैरह खा कर बीमार पड़ जाते हैं. बीमार मवेशी को डाक्टर के यहां ले जाने से पहले अगर उस का शुरुआती इलाज कर दिया जाए तो मवेशी की बीमारी ज्यादा नहीं बढ़ती और इलाज का खर्च बहुत कम हो सकता है. अकसर लू लगने, जहरीला पौधा खा लेने  या खून के ज्यादा बह जाने से मवेशी की मौत हो जाती है और मवेशीपालकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है. इस से मवेशीपालकों की आमदनी भी बंद हो जाती है. इन परेशानियों से बचने के लिए मवेशीपालकों को मवेशियों के शुरुआती इलाज  की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

सभी मवेशीपालकों को अपने पास रुई, फिटकरी, बांस की खपच्ची, टिंचर वैंजोइन, एंटीसेप्टिक क्रीम, नया ब्लेड, कारबोलिक एसिड, मैगनीशियम सल्फेट, जमालगोटा, जौ का आटा, तारपीन का तेल, कपूर, मांड, खडि़या, अरंडी का तेल, सेवलान या डिटाल व बोरिक एसिड वगैरह जरूर रखना चाहिए. ये सारी चीजें मवेशियों के इलाज में काम आती हैं. इस के अलावा मवेशीपालकों को अपने पास पशु अस्पताल व नजदीक के वेटनरी डाक्टर के फोन नंबर जरूर रखने चाहिए, ताकि मवेशी के बीमार पड़ने पर तुरंत ही डाक्टर से संपर्क किया जा सके. वेटनरी डाक्टर कौशल किशोर प्रसाद बताते हैं कि जैसे ही यह महसूस हो कि कोई मवेशी बीमार है, तो तुरंत ही उसे बाकी मवेशियों से दूर हटा कर बांध देना चाहिए. बीमार पशु को हवादार, साफ और शांत जगह पर ही रखना चाहिए. पशुओं के बेचैन होने, खानापीना छोड़ देने या कम कर देने, दूध में कमी होने या उस का रंग बदलने, मल और मूत्र के रंग में बदलाव होने, नथुने सूख जाने, लगातार रंभाने या चाल में बदलाव होने पर मवेशीपालकों को ध्यान रखना चाहिए और तुरंत ही उस का शुरुआती इलाज शुरू कर देना चाहिए. इस के बाद डाक्टर से जांच करा लेनी चाहिए.

जब लू या ठंड लगे : गरमी में लू और जाड़े में ठंड लगने से मवेशियों का बीमार पड़ना आम बात है. गरमियों में लू लगने पर मवेशी को ठंडी जगह में रख कर उस के शरीर पर ठंडा पानी डालें और ठंडे पानी में चीनी, भूना जौ का आटा और नमक मिला कर बारबार पिलाएं. पुदीना और?प्याज का अर्क देने से भी पशु को आराम मिलता है. जाड़े के मौसम  में ठंड लगने पर पशु की नाक और आंख से पानी बहता है और वह कांपने लगता है. ऐसी हालत में कुनकुने पानी में गुड़ मिला कर देने  बीमार मवेशी को राहत मिलती है. अजवायन, सेंधा नमक व अदरक की बराबर मात्रा गुड़ में मिला कर खिलाने से भी पशु को आराम मिलता है. तारपीन या सरसों के तेल में कपूर मिला कर रोगी मवेशी की मालिश करने से उसे राहत मिलती है. जब गले में कुछ अटक जाए : अकसर ऐसा होता है कि बड़े आकार का फल, नारियल, आलू या पौलीथीन निगल लेने से वह मवेशी के खाने की नली में अटक जाता है. ऐसी हालत में मवेशी के मुंह से लार बहने लगती है और गले में अटकी चीज को निगलने की कोशिश में वह छटपटाने लगता है. पानी पिलाने पर पानी नाक से बाहर बहने लगता है. ऐसे में मवेशी के गले पर हाथ फेर कर पता किया जा सकता है कि कहां पर रुकावट है. पता चलने पर उसे दबाव दे कर सहलाने से अटकी हुई चीज अंदर चली जाती है. इस के बाद भी वेटनरी डाक्टर से मवेशी का चेकअप जरूर करा लेना चाहिए.

जब चोट लगने पर ज्यादा खून बहने लगे : जब गड्ढे या कुएं में गिरने से मवेशी को गहरा जख्म लगे और तेजी से खून बहने लगे तो कटी हुई जगह पर कस कर साफ कपड़े का टुकड़ा बांध कर खून के बहने को रोका जा सकता है. कई बार कपड़े को बांधना मुमकिन नहीं हो पाता है, तो कपड़े को फिटकरी के घोल में भिगो कर कटी हुई जगह पर लगाने से खून का बहना रुक जाता है. चोट लगने पर कभी केवल सूजन आ जाती है और कभी खून भी बहने लगता है. दोनों ही हालत में बर्फ या ठंडे पानी से चोट की जगह पर सिंकाई करनी चाहिए. खून बहने वाली जगह पर एंटीसेप्टिक क्रीम या टिंचर वैंजोइन लगा देनी चाहिए. इस के तुरंत बाद डाक्टर को जरूर दिखा लें कि कहीं हड्डी में गहरी चोट या टूट तो नहीं है.

जब कब्ज या दस्त हो : सड़ागला चारा, ज्यादा सूखा चारा या दाना खाने से मवेशी को अकसर कब्ज की शिकायत हो जाती है. ऐसी हालत में मवेशी को 60 ग्राम काला नमक, 60 ग्राम सादा नमक, 15 ग्राम हींग व 50 ग्राम सौंफ को 500 ग्राम गुड़ में मिला कर 2 घंटे के अंतराल पर देने से फायदा होता है. दस्त होने पर मवेशी को गुड़, नमक और जौ के पके आटे का घोल पिलाना चाहिए. इस से शरीर में पानी की कमी नहीं हो पाती है. इस के अलावा मांड और खडि़या का घोल भी दस्त को ठीक करता है. बीमार मवेशी की त्वचा खींचने के बाद अपनी जगह पर आने में अगर 6 सेकेंड से ज्यादा समय लगे तो समझना चाहिए कि बीमारी का खतरा बढ़ गया है. ऐसी हालत में तुरंत डाक्टर से इलाज कराएं.

जब सांप या पागल कुत्ता काट ले : खेतों या अंधेरी जगहों पर अकसर मवेशियों को सांप, बिच्छू या जहरीले कीड़े काट लेते हैं. मवेशी के जिस्म के जिस हिस्से में सांप ने डसा हो, उस के 4-5 इंच ऊपर डोरी से कस कर बांध देना चाहिए. डसी गई जगह पर नए ब्लेड से चीरा लगा कर जहर को खून के साथ बाहर निकलने दें. डाक्टर के आने तक मवेशी को गरम पानी या चाय पिलाते रहें, ताकि उसे नींद न आ सके. अगर किसी मवेशी को पागल कुत्ता काट ले तो कटी हुई जगह को साबुन लगा कर 4-5 बार धोएं. इस के बाद कारबोलिक एसिड से घाव को जला दें. उस मवेशी को बाकी मवेशियों और इनसानों से दूर रखें.

जब जहरीली घास खा ले : जहरीला पौधा, कीटनाशक दवाएं, यूरिया, चूहा मारने की दवा व जहरीला चारा वगैरह खा लेने से मवेशी जहरबाद से पीडि़त हो जाता है. ऐसा होने पर मवेशी के मुंह में उदर नलिका से ज्यादा से ज्यादा पानी डालें. छोटे मवेशियों को कुनकुने पानी में नमक या पीसी हुई सरसों घोल कर पिलाने से उलटी हो जाती है, इस से आमाशय में भरा जहर बाहर निकल जाता है.

आंतों का जहर निकालने के लिए दस्तावर या बिरौयक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है. बड़े मवेशी को 250 ग्राम और छोटे को 100 ग्राम मैगनीशियम सल्फेट पानी में घोल कर पिलाना चाहिए. जब तक मवेशी का शुरुआती इलाज किया जाए, उसी बीच किसी को डाक्टर को बुलाने के लिए भेज देना चाहिए ताकि समय रहते बीमार मवेशी का सही इलाज हो सके और उसे बचाया जा सके.

आरक्षण का बवाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने एक इंटरव्यू में आरक्षण के बारे में जो कहा है उस पर चौंकने की जरूरत नहीं है. संघ और भारतीय जनता पार्टी की ही नहीं, लगभग समस्त सवर्णों की यह राय है चाहे वे कम्युनिस्ट पार्टी में हों या बहुजन समाज पार्टी में. आरक्षण को देश का सामाजिक तौर पर संपन्न वर्ग अपने पुश्तैनी अधिकारों पर गहरा प्रहार मानता है. वह यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि जिन्होंने निचले, पिछड़ी, दलित, आदिवासियों में जन्म लिया है वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों के समकक्ष हो सकते हैं. वास्तविकता तो यह है कि कई हजार साल की मानसिक गुलामी ने इस जन्मजात भेदभाव के पीडि़तों की खुद की सोच भी इस तरह कुंद कर दी है कि वे इसे ईश्वर की देन मान कर खुश हैं और आपसी स्तर पर भेदभाव को इसी का सुखद परिणाम मान कर संतुष्ट हैं. आरक्षण का सवाल तो बहुत थोड़े से वंचित वर्ग उठाते हैं जिन्हें उम्मीद होती है कि इस से उन्हें कुछ मिल जाएगा. मोहन भागवत ने अगर कुछ कहा तो गलत नहीं क्योंकि वे सवर्णों व गैरसवर्णों दोनों की ही भावनाओं को दर्शा रहे थे.

जब तक समाज उन ग्रंथों, उन रिवाजों, उन त्योहारों, उन देवीदेवताओं को मानता रहेगा जिन में इस भेदभाव को बारबार घटनाओं, कहानियों, भगवान के आदेशों से कहलवाया गया है, जन्मजात भेदभाव बना रहेगा और विवाद खड़ा रहेगा. ऊंची जातियां जन्म को मेरिट का नाम देती रही हैं और देती रहेंगी. आरक्षण के कारण कुछ लाख दबेकुचलों को जगह मिल जाए तो भी देश का समाज नहीं बदलेगा और गलीगली में यह ऊंचनीच चालू रहेगी. अब तो इस वर्णव्यवस्था की दीवार को और मजबूत करने के लिए पिछड़ों के ही नहीं, अछूत दलितों के भी अलग मंदिर बनवा दिए गए हैं ताकि वे मंदिरविहीन होने का दुख न भोगें. इन पिछड़ोंनिचलों के मंदिरों से होने वाली भारी आय भी ऊंची जातियों के लोग ले जा रहे हैं और भारी संख्या में व्यापारी वर्ग के लोगों ने गैर सवर्णों के मंदिरों के ट्रस्टों पर कब्जा कर लिया है. जब पिछड़ों व दलितों ने स्वयं सामाजिक क्षेत्र में भेदभाव को मजबूत कर लिया है तो मोहन भागवत ने नौकरियों में, शिक्षा संस्थानों में इस पर बहस की गुंजाइश का सवाल उठा कर गलत क्या किया है? इस के लिए तो पिछड़ों व दलितों के नेता ही हैं जो हर थोड़े दिनों में किसी नए मंदिर में से तिलक लगाए, प्रसाद की थाली लिए निकलते हैं. वे लाउडस्पीकरों पर घोषणा कर रहे हैं कि उन की धार्मिक दुकान कमजोर नहीं है. ऐसे में वे किस मुंह से आरक्षण की मांग कर सकते हैं?

आरक्षण का बवाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने एक इंटरव्यू में आरक्षण के बारे में जो कहा है उस पर चौंकने की जरूरत नहीं है. संघ और भारतीय जनता पार्टी की ही नहीं, लगभग समस्त सवर्णों की यह राय है चाहे वे कम्युनिस्ट पार्टी में हों या बहुजन समाज पार्टी में. आरक्षण को देश का सामाजिक तौर पर संपन्न वर्ग अपने पुश्तैनी अधिकारों पर गहरा प्रहार मानता है. वह यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि जिन्होंने निचले, पिछड़ी, दलित, आदिवासियों में जन्म लिया है वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों के समकक्ष हो सकते हैं. वास्तविकता तो यह है कि कई हजार साल की मानसिक गुलामी ने इस जन्मजात भेदभाव के पीडि़तों की खुद की सोच भी इस तरह कुंद कर दी है कि वे इसे ईश्वर की देन मान कर खुश हैं और आपसी स्तर पर भेदभाव को इसी का सुखद परिणाम मान कर संतुष्ट हैं. आरक्षण का सवाल तो बहुत थोड़े से वंचित वर्ग उठाते हैं जिन्हें उम्मीद होती है कि इस से उन्हें कुछ मिल जाएगा. मोहन भागवत ने अगर कुछ कहा तो गलत नहीं क्योंकि वे सवर्णों व गैरसवर्णों दोनों की ही भावनाओं को दर्शा रहे थे.

जब तक समाज उन ग्रंथों, उन रिवाजों, उन त्योहारों, उन देवीदेवताओं को मानता रहेगा जिन में इस भेदभाव को बारबार घटनाओं, कहानियों, भगवान के आदेशों से कहलवाया गया है, जन्मजात भेदभाव बना रहेगा और विवाद खड़ा रहेगा. ऊंची जातियां जन्म को मेरिट का नाम देती रही हैं और देती रहेंगी. आरक्षण के कारण कुछ लाख दबेकुचलों को जगह मिल जाए तो भी देश का समाज नहीं बदलेगा और गलीगली में यह ऊंचनीच चालू रहेगी. अब तो इस वर्णव्यवस्था की दीवार को और मजबूत करने के लिए पिछड़ों के ही नहीं, अछूत दलितों के भी अलग मंदिर बनवा दिए गए हैं ताकि वे मंदिरविहीन होने का दुख न भोगें. इन पिछड़ोंनिचलों के मंदिरों से होने वाली भारी आय भी ऊंची जातियों के लोग ले जा रहे हैं और भारी संख्या में व्यापारी वर्ग के लोगों ने गैर सवर्णों के मंदिरों के ट्रस्टों पर कब्जा कर लिया है. जब पिछड़ों व दलितों ने स्वयं सामाजिक क्षेत्र में भेदभाव को मजबूत कर लिया है तो मोहन भागवत ने नौकरियों में, शिक्षा संस्थानों में इस पर बहस की गुंजाइश का सवाल उठा कर गलत क्या किया है? इस के लिए तो पिछड़ों व दलितों के नेता ही हैं जो हर थोड़े दिनों में किसी नए मंदिर में से तिलक लगाए, प्रसाद की थाली लिए निकलते हैं. वे लाउडस्पीकरों पर घोषणा कर रहे हैं कि उन की धार्मिक दुकान कमजोर नहीं है. ऐसे में वे किस मुंह से आरक्षण की मांग कर सकते हैं?

जीवन की मुसकान

मेरे पति आर्मी में थे और उन का ट्रांसफर अंबाला कर दिया गया. अत: शादी के तुरंत बाद हम अंबाला के लिए रवाना हुए. ट्रेन में हमारा एक सूटकेस चोरी हो गया जिस में पति के सर्विस से संबंधित जरूरी कागजात और पेबुक आदि थे. नई जगह और जेब में पड़े हुए मात्र कुछ रुपए ले कर जैसेतैसे हम अंबाला पहुंचे. वहां रहने के लिए हमें ‘फैमिली क्वार्टर’ मिल गया. किंतु घर खर्च कैसे चले. पेबुक के बिना तनख्वाह भी नहीं मिल पाएगी, यह पति जानते थे. अनजान शहर में किस से मदद मांगी जा सकती थी? हम लोग बहुत ही पसोपेश में थे. पति के सीनियर अफसर को जब यह बात पता चली तो उन्होंने न केवल पैसे बल्कि अन्य जरूरी सामान भेज कर हमारी मदद की और पेबुक बनवाने की कार्यवाही में भरपूर सहायता की. 2 महीने के बाद जब पति की दूसरी पेबुक बन कर आई तब उन्हें वेतन मिला.जब हम ने सीनियर अफसर को उन के रुपए देने चाहे तो उन्होंने लेने से इनकार कर दिया, बोले, ‘‘यदि तुम्हारी जगह मेरा अपना बेटा होता, तो क्या मैं उस से पैसे वापस लेता? तुम दोनों मेरे बेटेबहू समान हो.’’ उन के द्वारा कहे गए ये वाक्य मेरे दिल को छू गए और ऐसा लगा मानो अनजान शहर में हमें हमारे मातापिता मिल गए हों.

संतोष कुलश्रेष्ठ, आगरा (उ.प्र.)

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बात वर्ष 1953 की है. तब दिल्ली शांत व सुरक्षित शहर था. यमुना नदी पानी से भरपूर थी. सुबह 4-5 बजे स्त्रीपुरुष यमुना नदी में स्नान आदि के लिए चल पड़ते थे. मेरी दादी भी नित्य यमुना स्नान के लिए तोता के घाट पर जाती थीं. उस दिन हमें 6 बज कर 40 मिनट वाली ट्रेन से कहीं जाना था, सो, दादीजी ड्राइवर के साथ 5 बजे ही यमुना चली गईं. नहाते समय वे अचानक यमुना में गिर गईं और उन की हीरे की 3 अंगूठियां न जाने कहां गायब हो गईं. उन का शोर सुन कर कई लोग आए पर किसी की हिम्मत डुबकी लगा कर अंगूठियां निकालने की नहीं हुई. एक लड़के ने डुबकी लगालगा कर आखिरकार तीनों अंगूठियां निकाल दीं. दादी के पास उस समय, समय की भी कमी थी व ज्यादा रुपए भी नहीं थे. उन्होंने उस लड़के से वादा किया कि वे वापस आ कर उस से अवश्य मिलेंगी. वापस आने पर दादी ने उसे इनामस्वरूप सोने की अंगूठी दी.

जयश्री रोहतगी, लक्ष्मी नगर (दिल्ली)

मोदी का विदेश दौरा

नरेंद्र मोदी द्वारा कांगे्रस सरकार के संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद की परमानैंट वीटो वाली सीट पाने के कार्यक्रम को और जोरशोर से चलाने को निरर्थक ही कहा जाएगा. दुनिया की स्थिति ऐसी नहीं हुई है कि उसे गर्ज पड़ी हो कि वह भारत, जरमनी, ब्राजील व जापान को स्थायी वीटो वाले पद पर बैठा दे. संयुक्त राष्ट्र संघ, जो अपनी भारी नौकरशाही के कारण वैसे ही आलोचना का शिकार हो रहा है, अमेरिका के टुकड़ों पर पल रहा है. इन 4 देशों के पास पैसा है पर उतना नहीं कि वे अमेरिका का मुकाबला कर सकें.

एक तरह से नरेंद्र मोदी न्यूयार्क में वही कर रहे हैं जो हार्दिक पटेल अहमदाबाद में कर रहा है और जाट राजस्थान में कर रहे हैं, एक विशेष आरक्षण की मांग भीख के तौर पर मांगना. 1932 में अंबेडकर-गांधी पूना पैक्ट के तहत अंबेडकर ने दलितों के लिए जो हक लिया था वह भीख में नहीं लिया था. गांधी की गर्ज थी. 1980 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग गिड़गिड़ाने पर नहीं दिया था. पिछड़ों का हक बन गया था. भारत व ब्राजील आज भी गरीब हैं, पिछड़े हैं, भ्रष्टाचार व लालफीताशाही के शिकार हैं, तकनीक में दूसरे देशों से सैकड़ों मील पीछे हैं. जरमनी और जापान पर द्वितीय विश्वयुद्ध में करोड़ों की मौत का जिम्मेदार होने की कालिख आज भी साफ दिखाई दे रही है.

अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंगलैंड और चीन को कोई वजह नहीं दिखती कि 1945 के संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के समय बने नियमों में वे बदलाव लाएं और अपने लिए नए प्रतियोगी खड़े करें. ब्राजील और भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है पर उस का एक बड़ा कारण अमेरिकी कंपनियों का अपने नागरिकों की कीमत पर इन देशों में टैक्नो कुली (मजदूर) या टैक्नो स्लेव (गुलाम) बनाने के कारण है और अगर अमेरिका अपने पेंच कस दे तो भारत और ब्राजील का रंग फीका पड़ने में देर नहीं लगेगी. अगर भारत में नरेंद्र मोदी को इस क्षेत्र में सफलता दिलानी है तो शायद संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) को संघ (संयुक्त राष्ट्र संघ) में प्रवेश दिलाने के लिए देशभर में अंगवस्त्र पहन कर यज्ञहवनों का आयोजन करना चाहिए जैसा पुराणों में लिखा है. एक अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ना चाहिए जो न्यूयार्क, मास्को, लंदन, पेरिस और बीजिंग में पहुंचे. संघ सेना को वाट्सऐप और फेसबुक पर करोड़ों की संख्या में संदेश जारी करने चाहिए कि 100 करोड़ हिंदुओं का देश विश्वगुरु के बाद विश्वचक्रवर्ती बनेगा और आर्यवर्तीय रामराज या वैश्विक राज की स्थापना होगी.अपने गाल बजाने में हम बहुत तेज हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सीट के लिए नरेंद्र मोदी जो बेचैनी दिखा रहे हैं वह जरमनी की एंजेला मर्केल या जापान के श्ंिजो ऐब नहीं दिखा रहे.

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