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त्योहारों में त्वचा का रखें खयाल

त्योहारों की गहमागहमी में हम खुद को चुस्तदुरुस्त महसूस नहीं करते. इस गहमागहमी का सब से ज्यादा असर हमारी त्वचा पर पड़ता है. त्योहारों के दौरान त्वचा रूखी हो जाती है. लेकिन आप घबराएं नहीं. कुछ बातों का ध्यान रख कर आप त्वचा से संबंधित परेशानियों से बच सकती हैं :

त्योहार के कुछ दिन पहले और उस के दौरान शरीर के अंदर पानी की पर्याप्त मात्रा बनाए रखें. पर्याप्त मात्रा में पानी पीने से शरीर परेशानियों को झेलने में सक्षम बनता है. पर्याप्त मात्रा में पानी का सेवन शरीर के टौक्सिंस को निकाल कर त्वचा पर प्राकृतिक चमक लाता है.

  1. कम से कम 7-8 घंटे जरूर सोएं. कुछ देर की झपकी फिर से ऊर्जा हासिल करने में सहायक होती है.
  2. आहार के मामले में संयम बनाए रखें. अगर आप ऐसा करने में असफल हो रही हों तो रोज कम से कम 20 मिनट तक हलकाफुलका व्यायाम जरूर करें.
  3. अपने भोजन पर ध्यान दें. अगर आप को आप की प्रिय मिठाई या अन्य पकवान का कोई कम कैलोरी वाला दूसरा विकल्प दिखता है तो कोशिश करें वही खाएं.
  4. शरीर की ऐंटीऔक्सीडैंट्स की जरूरत को प्राकृतिक विकल्प से पूरा करें. 1 प्याला ग्रीन टी, 1 साबुत टमाटर या मुट्ठी भर खजूर अथवा बेर से आप यह हासिल कर सकती हैं.
  5. सौंदर्यप्रसाधनों के मामले में भी जागरूक रहें. अच्छे ब्रैंड के सौंदर्यप्रसाधनों का ही चयन करें ताकि त्वचा पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े.
  6. त्योहारों के दौरान खूबसूरत और दमकती त्वचा के लिए खानपान पर ध्यान दें. भोजन में फलों, हरी सब्जियों, दही व सूखे मेवों को शामिल करें.
  7. नशीली चीजों का सेवन और धूम्रपान कभी न करें. 

त्वचा की देखभाल के नुस्खे

फैस्टिव सीजन के शुरू होते ही हम सभी अपनी लुक्स को ले कर एक्साइटेड हो जाते हैं मगर त्योहार की भागदौड़ के चलते स्किन केयर के बारे में भूल जाते हैं. त्योहार की तैयारी में आप की त्वचा की खूबसूरती कहीं खो न जाए इस के लिए त्वचा की कुछ इस तरह करें देखभाल :

क्लींजिंग

हलके क्लींजर का इस्तेमाल करें यानी जिस का पीएच त्वचा के पीएच से मेल खाता हो. बाजार में कई प्रकार के उत्पाद उपलब्ध हैं. सामान्य साबुन से त्वचा की सफाई करने से बचें, क्योंकि इन उत्पादों का अलकालाइन पीएच (7-12) होता है, जो त्वचा को नुकसान पहुंचा सकता है. क्लींजर से त्वचा पर लगा मेकअप साफ हो जाता है और त्वचा खुल कर सांस ले पाती है.

मौइश्चराइजर

त्वचा के तैलीय होने या मुंहासे होने पर क्लींजर का ही प्रयोग करें.

दिन में 3 बार अच्छी किस्म के मौइश्चराइजर का इस्तेमाल करें.

एक बार सुबह स्नान के बाद और दूसरी बार रात को इस का चयन त्वचा के हिसाब से करें. मौइश्चराइजर त्वचा में नमी बनाए रखता है, जिस से वह मुलायम बनी रहती है, साथ ही मौइश्चराइजर उत्सव की तैयारी के दौरान प्रयुक्त सौंदर्यप्रसाधन दुष्प्रभावों से भी बचाता है.

सनस्क्रीन

तैलीय त्वचा के लिए जैल बेस्ड सनस्क्रीन इस्तेमाल करें. अगर त्वचा रूखी हो तो क्रीम व लोशन का इस्तेमाल करें.

सनस्क्रीन के साथ विटामिन-सी सीरम के इस्तेमाल से अतिरिक्त फायदा मिलता है.

चीन की रोशनी से चकाचौंध भारतीय बाजार

दुनियाभर में त्योहार अब बाजार बन गए हैं. बाजार ने त्योहारों की चकाचौंध को बढ़ा दिया है. दीवाली भारत के सब से खास त्योहारों में एक है. रोशनी के इस त्योहार को पूरा देश एकसाथ मनाता है. इस में घर के रंगरोगन से ले कर साजसज्जा तक को बदल दिया जाता है. छोटे से बड़े हर परिवार में दीवाली को अपनी सामर्थ्य के हिसाब से मनाने का रिवाज है. कपड़े, गहने, बरतन, मिठाइयां, पटाखे, बिजली की सजावट, उपहार और मेकअप सबकुछ बदल जाता है. दरअसल, दीवाली एक दिन का त्योहार नहीं है. यह कई दिनों तक चलता है. दीवाली में बढ़ती खरीदारी को देखते हुए उद्योग जगत इस की तैयारी बहुत पहले से कर लेता है. दीवाली आते ही केवल बाजार ही नहीं शेयर बाजार तक में उछाल आ जाता है.

भारत में दीवाली के बाजार की शक्ल बदलने का सब से बड़ा काम चीन ने किया है. चीन ने भारत के इस त्योहार की कीमत को समझते हुए ऐसे उत्पाद तैयार किए हैं जिन्हें भारत के बाजार ने हाथोंहाथ लिया. इस में बिजली की सजावट के लिए प्रयोग में आने वाली झालर, बल्ब, पटाखे, खिलौने और तमाम तरह के सामान चीन के बाजार से भारत में आने लगे. चीन ने भारत के बाजार की जरूरत को समझ कर चीजों को बनाने और उन को भारत के बाजार तक पहुंचाने की पूरी व्यवस्था कर के भारत के बाजार को अपने उत्पादों से भर दिया. दीवाली में चीन के बाजार की बढ़ती खपत का विरोध अब भारत के बाजार में शुरू हो गया है. चीन के सामानों की कीमत इतनी कम है कि भारत में बने सामान उस का मुकाबला ही नहीं कर पा रहे हैं. चीन के खराब होते आर्थिक हालात को भारत के बाजार से बहुत उम्मीदें हैं. दीवाली का मौका हो और रोशनी की बात नहीं हो तो यह कैसे हो सकता है. घर को जगमगाने के लिए पहले मिट्टी के दीये प्रयोग में लाए जाते थे. पहले इन दीयों में सरसों का तेल, डालडा और देशी घी का प्रयोग किया जाता था. हालांकि ज्यादातर इन दीयों को जलाने के लिए सरसों के तेल का ही प्रयोग किया जाता था. लेकिन अब दीयों की जगह कैंडिल और बिजली की झालर ने ले ली है. कैंडिल और बिजली की झालर से घरों को जगमगाने का काम खूब किया जाता है. यह सभी चीन के बाजार से तैयार हो कर भारत के बाजार में छाए हुए हैं.

बिजली की बचत

दीवाली में घरों को सजाने के लिए सब से ज्यादा प्रयोग बिजली की झालरों का किया जाता है. पहले केवल रंगबिरंगे बल्ब ही जलाने के प्रयोग में लाए जाते थे. अब चाइनीज झालरें आने से बिजली की सजावट के तमाम सामान मिलने लगे हैं. अब घरों के दरवाजों को सजाने के लिए रंगबिरंगे पुष्पों और घनी लताओं जैसी झालरों का प्रयोग किया जाता है. चीन से आने वाली झालरें नीले, लाल, पीले और सफेद फूलों वाली होती हैं. बाजार में बिकने वाली झालरों में इन दिनों क्रिस्टल लाइट, एलईडी लाइट, राइस, रोज, मटका, अंगूर और बेल वाली झालरें खूब बिक रही हैं.

इंटीरियर डिजाइनर मेघना प्रताप कहती हैं कि चीन से आने वाली इन झालरों की कीमत 40 रुपए से ले कर 200 रुपए के बीच होती है. सस्ती होने के साथसाथ ये झालरें काफी आकर्षक भी हैं. ट्यूब लाइट की झालर लेटैस्ट ट्रेंड में है. यह लाइट पूरे रोल में मिलती है. इस को जरूरत के हिसाब से लंबाई में लिया जाता है. थोक बाजार में यह झालर 55 रुपए से 65 रुपए मीटर में मिल रही है. घरों को सजाने के लिए गोलाकार, दिल के आकार वाली और दूसरी कई अच्छीअच्छी डिजाइन वाली फैंसी लाइटें खूब बिक रही हैं. इन की कीमत भी 70 रुपए से शुरू हो कर 300 रुपए के बीच आती है. सब से ज्यादा डिमांड बेल और फूलों वाली झालर की है. यह झालर 3 से 8 फुट के बीच लंबी होती है.

कम कीमत से बाजी मारी

दीवाली में बिजली के सजावटी सामान बेचने वाले दुकानदार प्रकाश अरोड़ा कहते हैं, ‘‘बिजली की झालरों में चीनी झालरों ने पूरे बाजार पर कब्जा कर लिया है. इस की सब से बड़ी वजह इन झालरों का सस्ता होना है. इस के अलावा ये झालरें खराब भी कम होती हैं. ये झालरें देशी झालरों के मुकाबले बहुत आकर्षक होती हैं. इन की साजसज्जा बहुत ही खूबसूरती के साथ की जाती है. इस साजसज्जा को देखते ही लोग घरों को सजाने के लिए इन को खरीद लेते हैं. घरेलू झालर की कीमत कम से कम 100 रुपए होती है. जबकि चाइना से आने वाली झालर 100 रुपए में बहुत अच्छी मिल जाती है. चाइनीज झालर कम कीमत के साथसाथ बिजली की खपत भी कम होती है. 50 बल्बों वाली चाइनीज झालर फुटकर बाजार में 50 रुपए की मिल जाती है.’’

लखनऊ के इलैक्ट्रौनिक मार्केट नाका बाजार में इसी तरह की एलईडी पाइप झालर 50 मीटर का बंडल 3 हजार में मिल जाता है. छोटी पैकिंग में यह झालर 280 रुपए की मिल जाती है. पाइप झालर की सब से खास बात यह होती है कि यह गर्म नहीं होती है. बरसात में भी इस को बाहर लगाने से किसी किस्म का नुकसान नहीं होता है. इस के अलावा बटरफ्लाई स्टार, ढोल और मटकी डिजाइन की झालरें भी खूब खरीदी जा रही हैं. चाइनीज झालरों के आगे देशी टांगने वाली झालरों को अब कोई नहीं खरीदता. मांग कम होने से दुकानदारों ने इन को रखना बंद कर दिया है. कम कमीशन मिलने के बाद भी दुकानदारों को चाइनीज झालर बेचने में कोई परेशानी नहीं आती है क्योंकि इन की रिपेयरिंग और वापसी का झंझट नहीं रहता है. चाइनीज झालरों में 50 किस्म की रेंज मौजूद है. इस की कीमत 50 रुपए से ले कर 4,500 रुपए के बीच होती है. हर आदमी अपनी जरूरत और जेब के हिसाब से घर सजाने का सामान खरीद सकता है. इलैक्ट्रौनिक सामानों के विक्रेता भुवन प्रसाद कहते हैं, ‘‘चाइनीज झालरों पर महंगाई का कोई असर नहीं पड़ा है. आज बिजली बाजार में 90 फीसदी माल चाइनीज हैं. पिछले साल के मुकाबले इस साल इन की कीमत में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है.’’

चीन के हवाले कैंडल बाजार

दीवाली आने से पहले देशी बाजार में कैंडल यानी मोमबत्ती बनाने का काम शुरू हो जाता है. दीवाली में दीयों के बाद सब से अच्छी सजावट कैंडल से ही हो सकती है. कैंडल की खास बात यह होती है कि इस से रोशनी के साथसाथ खुशबू भी मिलती है जिस से पूरा माहौल खुशनुमा हो जाता है. समय के साथसाथ अब इको फ्रैंडली कैंडल भी आने लगी हैं. इन की कीमत कुछ ज्यादा है पर धुएं से बचने के लिए लोग इन का प्रयोग खूब करते हैं. बाजार में चीन की बनी तरहतरह की कैंडल मिलने लगी हैं. इस से देशी कैंडल बाजार खत्म हो गया है.

कैंडल के कई प्रकार होते हैं. घर की सजावट में इन का खूब इस्तेमाल किया जाता है. फ्लोटिंग कैंडल को पानी से भरे एक बड़े बरतन यानी पौट में डाल दिया जाता है. यह कैंडल पानी के ऊपर तैरती रहती है. पानी में फूलों की पंखडि़यां पड़ी होती हैं. ये देखने में बहुत अच्छी लगती है. इन को डाइनिंग टेबल या उस जैसी किसी दूसरी बड़ी टेबल पर या फिर घर के मुख्यद्वार रखा जा सकता है. इस के अलावा फर्श पर इस को रख सकते हैं और इस के आसपास की जगह को खूबसूरत बनाने के लिए रंगोली से सजाया जा सकता है. फ्लोटिंग कैंडल की कीमत 20 रुपए से ले कर 250 रुपए के बीच होती है. यह कैंडल भीनीभीनी खुशबू भी बिखेरती रहती है. परफ्यूम कैंडल का उपयोग घर में रोशनी के साथसाथ सुगंध फैलाने के लिए किया जाता है. इन कैंडल को जलाने से घर में खुशनुमा माहौल बनता है. यह कैंडल चंदन, गुलाब, बेला, खस और दूसरी कई सुगंधों से भरी होती है. इन की लंबाई 2 इंच से ले कर 2 फुट तक होती है. इन कैंडल को बनाने के लिए अच्छी क्वालिटी के मोम का प्रयोग किया जाता है. इन की कीमत 50 रुपए से ले कर 1 हजार रुपए के बीच होती है. पेपर कैंडल का प्रयोग आमतौर पर होटल या रेस्तरां में किया जाता है.

घर में दीवाली के मौके पर डिनर करते समय इस का उपयोग कर सकते हैं. इस से आप को अलग किस्म का एहसास होगा. ये कैंडल खुशबूदार और सामान्य दोनों में मिलती हैं. इन की लंबाई 8 इंच से ले कर 12 इंच और इन की कीमत 100 रुपए से शुरू होती है. इस की रोशनी आंखों में नहीं चुभती. जैल कैंडल वैक्स कैंडल से अलग होती है. यह कैंडल पारदर्शी होती है. खूबसूरत बनाने के लिए इस को मोती या सीप से सजाया जाता है. इन की कीमत इन के ग्लास के हिसाब से तय की जाती है. जितना कीमती ग्लास होगा कैंडल की कीमत भी उतनी ही ज्यादा होगी. इन की कीमत 50 रुपए से शुरू हो कर 1500 रुपए के बीच होती है. डिजाइनर कैंडल बनाने में मेहनत करनी पड़ती है. इन को खूबसूरत बनाने के लिए अलगअलग डिजाइन के सांचों में ढाला जाता है. इस के बाद मोती और क्रिस्टल से सजाया जाता है. इन की कीमत भी 50 रुपए से ले कर 900 रुपए के बीच होती है.

दीवाली में कैंडल को उपहार के रूप में भी दिया जा सकता है. उपहार देने के लिए कैंडल को आकर्षक पैकिंग में सजाया जा सकता है. इस पूरे सैट को गिफ्ट सैट कैंडल कहा जाता है. इस में कैंडल के अलावा अगरबत्ती, कैंडल स्टैंड और घरों को सजाने के लिए आइटम भी रखे जाते हैं. यह सैट परफ्यूम और नौन परफ्यूम दोनों में आता है. इस गिफ्ट सैट कैंडल की कीमत 200 रुपए से ले कर 800 रुपए के बीच होती है. इको फ्रैंडली कैंडल बनाने के लिए मधुमक्खी के छत्ते से निकलने वाले मोम का इस्तेमाल किया जाता है. इस वजह से इन की कीमत कुछ ज्यादा होती है. इको फ्रैंडली कैंडल को बनाने में प्रयोग होने वाला मोम शुद्ध होता है. इस कैंडल की कीमत 300 रुपए से ले कर 1500 रुपए तक होती है. इन कैंडलों से प्रदूषण फैलाने का खतरा सब से कम होता है.

अंधविश्वास के अंधेरे में गुम होता रोशनी का त्योहार

साल भर छिपकलियों से डरती रहने वाली भोपाल के गुलमोहर इलाके में रहने वाली 55 वर्षीया सुविधा प्रकाश दीवाली के कोई सप्ताहभर पहले से छिपकलियों को झाड़ू से मारने और भगाने का अपना पसंदीदा काम बंद कर देती हैं. वजह, करोड़ों दूसरे लोगों की तरह उन का भी यह मानना है कि दीवाली की रात छिपकली दर्शन से साल भर पैसा आता रहता है. मन में झूठी उम्मीद लिए कई बार बेटियों से बहाने बना कर वे छत पर जाती हैं और चारों दिशाओं में निगाह दौड़ाती हैं कि शायद कहीं उल्लू दिख जाए तो फिर कहना ही क्या…लेकिन उल्लू आज तक उन्हें नहीं दिखा तो वे छिपकली ढूंढ़ते तसल्ली कर लेती हैं. दीवाली का जगमग करता त्योहार कैसेकैसे दिलोदिमाग पर अंधविश्वासों के अंधियारों में जकड़ा है, सुविधा तो इस की बानगी भर हैं नहीं तो इस रोशन त्योहार से जुड़े कई ऐसे पहलू मौजूद हैं जिन्हें देख कर लगता नहीं कि दीवाली उल्लास, खुशी और समृद्धि का त्योहार है, जैसा कि कहा और माना जाता है. ये अंधविश्वास, रूढि़यां, खोखली मान्यताएं और कुरीतियां कैसे दीवाली को भार और अभिशाप बना देती हैं यह जानने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं. अपने मन में झांकें तो हम सब भी इस की गिरफ्त में हैं.

दीवाली को वैश्यों यानी व्यापारियों का त्योहार गलत नहीं कहा गया है. कोई भी अखबार या पत्रिका उठा लें, कोई भी चैनल देख लें, हर कोई आप के लिए कुछ न कुछ औफर ले कर आया है. ऐसा औफर वाकई आप ने पहले कभी देखासुना नहीं. इसलिए आप अपने बजट को कोने में रख उन चीजों की खरीदारी का मन बनाने लगते हैं जिन की आप को कतई जरूरत नहीं. बेवजह की गैरजरूरी यह खरीदारी फिर सालभर कैसे आप को रुलाती है, यह आप से बेहतर कोई और समझ भी नहीं सकता.

जेब पर भारी

दीवाली पर नई चीजें और सोनाचांदी खरीदने का रिवाज कायम है. तमाम इलैक्ट्रौनिक्स कंपनियां, ज्वैलर्स, बिल्डर्स और औटोमोबाइल सैक्टर के रणनीतिकार ऐसी लुभावनी योजनाएं पेश करते हैं कि लोग न चाहते हुए भी उन के बिछाए जाल में जा फंसते हैं. हर कोई दीवाली पर भारी डिस्काउंट और कुछ न कुछ मुफ्त दे रहा है, अब भला 1 रुपए का आइटम जब 60 पैसे में मिल रहा है तो कोई क्यों मौका हाथ से जाने देगा. इश्तिहारी होती दीवाली पर इन औफर्स को और सहूलियत वाला बनाती हैं फाइनैंस कंपनियां, जो जीरो फीसदी ब्याज पर बगैर किसी प्रोसैसिंग फीस के आसान किस्तों में आप को सामान दिलवा रही हैं. खरीदारी कभी इतनी आसान और सहूलियत भरी नहीं रही कि बगैर ब्याज के आसान किस्तों में कर्ज पर ही सही मनचाहा सामान मिल रहा है. और इस बाबत आप को कोई भागादौड़ी करने की जरूरत नहीं, एक फोटो आईडी और ऐड्रैस प्रूफ, चैकबुक और पासबुक की फोटोकौपी ले जाइए. फाइनैंस कंपनी का मुलाजिम आप को चमचमाते शोरूम या मौल में हाजिर मिलेगा. अंगरेजी में छपा लंबाचौड़ा फौर्म वह खुद भर लेता है. आप को तो बस अग्रिम तारीखों के चैक देते 8-10 जगह दस्तखत करना है और सामान आप के हाथ में होता है, मानो मुफ्त में मिल गया हो.

किस्तों का भार आप को 3-4 महीने बाद समझ आता है जब मासिक बजट गड़बड़ाने लगता है और यह भी पता चलता है कि  20 हजार में खरीदे गए आइटम के आप को दरअसल, 24 हजार रुपए चुकाने पड़ रहे हैं. तब आप अपनी बेवकूफी पर पछताते हैं कि अरे, इस आइटम की हमें इतनी जरूरत थी ही नहीं, जितनी दीवाली के सम्मोहक माहौल में लग रही थी. दीवाली केवल एक आइटम की खरीदारी से पूरी नहीं हो जाती जब तक सालभर की बचत और कुल जमापूंजी का बड़ा हिस्सा आप खर्च नहीं कर लेते तब तक लक्ष्मी आगमन का यह त्योहार संपन्न नहीं होता. नए कपड़े, घर की रंगाई, पुताई, नए बरतन, इलैक्ट्रौनिक्स के आइटम, गहने और इन सब से भी गैरजरूरी और फुजूलखर्ची वाली चीज आतिशबाजी जब खरीदी जाती है तब कोई नहीं सोच पाता कि यह लक्ष्मी के जाने का त्योहार है या आने का.

लोगों की जेब में पैसा है नहीं जैसा कि प्रचार किया जाता है. भोपाल के एक वित्तीय सलाहकार संजीव अरोरा बताते हैं, ‘‘सब लोग, खासतौर से मध्यमवर्ग कर्ज में डूबा हुआ है यह कर्ज दीवाली पर और बढ़ जाता है. औसतन हर मध्यमवर्गीय 50 हजार रुपए दीवाली के दिनों में खर्च करता है और वह भी अधिकतर ब्याज पर लिया कर्ज ही होता है. यह दीगर बात है कि ग्राहक या उपभोक्ता को बेवकूफ बनाते समय उन्हें इस बात का एहसास नहीं होने दिया जाता और यही आज के बाजार की खासीयत व खूबी है. फिर पैसा कहां है, यह गुत्थी कोई लक्ष्मीदाता छिपकली या उल्लू भी नहीं सुलझा सकता, जिसे आप के यहां आने की फुरसत और जरूरत नहीं. उल्लू असल में किस की मुंडेर पर बैठता है यह दीवाली की सजावट खत्म होने के बाद समझ आता है.’’

सब पर भारी अंधविश्वास

छिपकली या उल्लू देखना प्रचलित और एक तरह से अब निचले दरजे के अंधविश्वास हो चले हैं. दीवाली हर कोई जानता है कि तंत्रमंत्र के लिए ज्यादा जानी जाती है. कार्तिक मास की अमावस्या की रात श्मशान साधना खूब होती है जिसे तांत्रिक अपने लिए नहीं बल्कि कार्य सिद्ध करने वाले भक्तों को बेचते हैं. बड़ेबड़े खर्चीले अनुष्ठान इस रात होते हैं. न हों तो जरूर गलतफहमी हो सकती है कि हम वाकई सभ्य आधुनिक और वैज्ञानिक सोच वाले हो गए हैं. इधर ज्योतिषी और पंडे भी बरगला कर आप की जेब कुतरने के लिए दीवाली का इंतजार करते हैं. लक्ष्मी पूजा एक खास मुहूर्त (समय) में की जाती है जो किसी नामी मठ से रिलीज होता है. दीवाली के पहले ही प्रचारित कर दिया जाता है कि यह दीवाली इन दुर्लभ संयोगों में पड़ रही है जो आप की राशि के मुताबिक प्रभाव डालेगी. मेष से ले कर मीन राशि तक के जातकों को तरहतरह के टोटके और उपाय बताए जाते हैं कि वे कैसे लक्ष्मी पूजन करें और क्याक्या एहतियात बरतें.

ज्यादा नहीं अब से कोई 10 साल पहले तक साल में एकाध बार आने वाला खरीदारी के लिए शुभ माना जाने वाला पुष्य नक्षत्र योग अब कभी भी टपक पड़ता है. इस के अक्तूबर 2015 से ले कर दिसंबर 2015 तक 8 बार आने की घोषणा से साफ हो गया कि अब इस योग के दिन खत्म हो चले हैं इसलिए जल्द ही इस से भी शुभऔर दुर्लभ योग बाजार में लौंच किया जाएगा. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि लोग मूढ़ बने रहें और दक्षिणा चढ़ाने में आनाकानी न करें, लक्ष्मी पूजन कैसे किया जाना चाहिए इस पर अखबारों और चैनल्स के अलावा अब सोशल मीडिया, खासतौर से वाट्सऐप पर लोग जानकारियां भेज रहे हैं. वास्तु के लिहाज से भी बताया जा रहा है कि देवीदेवता किस दिशा में रखे जाएं और जातक किस दिशा में मुंह कर के बैठे.

इन अंधविश्वासों को देख लगता है कि लोग मेहनत, ईमानदारी और प्रतिभा से नहीं बल्कि भाग्य से पैसे कमाना चाहते हैं और एक पूरी पीढ़ी एक वैज्ञानिक उपकरण स्मार्टफोन हाथ में रखे मूर्खता और बेहूदगी के समुंदर में गोते लगाते दूसरों का भी हाथ खींच रही है. धनतेरस से यह सिलसिला शुरू होता है तो देवउठानी ग्यारस (एकादशी) तक चलता है. धनतेरस पर पैसा खर्च करवाने का रिवाज दीवाली जितना ही पुराना है. इस का भी मुहूर्त होता है. नतीजतन बाजारों में पैर रखने तक को जगह नहीं मिलती और शहरों में जगहजगह जाम लग जाता है. बरतनों की दुकान देख ऐसा लगता है मानो सबकुछ मुफ्त में मिल रहा हो. पंडों की मरजी से कैसे लोग जेब ढीली करने के लिए उतावले रहते हैं यह दीवाली के दिनों में देखा और महसूस किया जा कता है. दीवाली के एक दिन पहले नर्क या रूप चौदस पर नहाने से नर्क जाने से बचने और सुंदर हो जाने की कथा इतनी प्रचलित है कि हर कोई नर्क जाने से बचना चाहता है और धर्म यानी पंडों द्वारा निर्देशित विधिविधान से पूजापाठ कर तसल्ली कर लेता है कि अब नर्क की यातनाएं नहीं झेलनी पड़ेंगी.

यह नर्क है कहां, यह किसी को नहीं मालूम और जो मालूम है उस के मुताबिक नर्क से मुक्ति के और भी बहुत सारे उपाय हैं फिर भी लोग डरतेसहमते कर्मकांड करते हैं तो सहज लगता है यह उल्लास, शुभकामनाओं और रोशनी का नहीं बल्कि आतंक, पाखंड और घबराहट का त्योहार है. जारी किए गए मुहूर्त पर दीवाली के दिन विधिविधान से पूजापाठ करते लोगों को कर्ज में डूबते देख यकीन हो जाता है कि दीवाली दरअसल एक अभिशाप है. लोग फुजूल पैसा खर्च करने को अभिशप्त हैं. पूजा सामग्री की आड़ में घासफूस तक महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है. तब कोई नहीं कहता कि अरहर की दाल 180 रुपए किलो क्यों है.

जुआ खेलना यानी बरबाद होना

किस्मत आजमाने का खेल जुआ भी दीवाली के दिनों में खेला जाता है तो लगता है कि साक्षात शकुनि, युधिष्ठिर और दुर्योधन अवतरित हो गए हैं. पूजापाठ से लक्ष्मी नहीं आती यह साबित करने के लिए द्यूतक्रीड़ा का यह चलन ही काफी है. एक रात में लाखों लोग अपनी गाढ़ी कमाई फड़ पर गंवा आते हैं, कई पुलिस छापों में पकड़ा कर अपनी इज्जत मिट्टी में मिलाते हैं. सालभर अदालत के चक्कर काटते रहते हैं. शायद यही उन का कथित भाग्य है. दरअसल, यह भाग्य नहीं बरबादी है जो पंडों ने रच रखी है. लोग तो पीढ़ीदरपीढ़ी रिवाजों को ढोते खुद पर आर्थिक, नैतिक और सामाजिक भार बढ़ा रहे हैं. 500 रुपए की लक्ष्मी की मिट्टी की मूर्ति (गूजरी) खरीदना  पैसा मिट्टी में मिलाना है ही जिस की उम्र एक दिन की होती है. हजारों रुपए पटाखों और बिजली की लाइटों पर खर्च करना दरिद्रता को आमंत्रण देना नहीं तो क्या है?

लाखों लोग खासतौर से बच्चे हर साल आतिशबाजी से जल कर स्थायी या अस्थायी अपंगता का शिकार हो जाते हैं. तब क्यों नहीं कोई लक्ष्मी, पार्वती या सरस्वती उन की रक्षा करने आती. बात वाकई समझ से परे है कि जो देवीदेवता रक्षा नहीं कर सकते उन्हेंपूजने व खुश करने के लिए इतने बड़े पैमाने पर त्योहार मनाने से फायदा क्या और उन की आड़ में जब पंडे कथित रक्षा करने की कीमत वसूलते हैं तो फिर हादसे क्यों होते हैं? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं क्योंकि मकसद ठगी और पैसे झटकना और खर्च करवाना भर जो रहता है.

इन का क्या अपराध

दीवाली बराबरी का और भेदभावरहित त्योहार है, यह बात उतनी ही झूठ है जितनी यह कि इस दिन लक्ष्मी पूजन से पैसा बरसने लगता है. दीवाली पर किस तरह सामाजिक भेदभाव ऐसे लोगों के साथ होता है जिन्हें सामाजिक बराबरी और अपने दुख कम करने की ज्यादा जरूरत होती है इस की मिसाल है शोक का या अनरहे का त्योहार. दीवाली की रात जब हर घर में दिए और बल्ब झिलमिला रहे होते हैं, लोग नए कपड़े पहन पटाखे फोड़ रहे होते हैं, पकवान उड़ा रहे होते हैं तब कई घर ऐसे भी देखने में आते हैं कि जिन में न दिए जलते, न ही खुशियां मनाई जातीं और न ही मिठाई पकवान खाए जाते हैं.ये वे घर होते हैं जिन में दीवाली के पहले सालभर में किसी की मृत्यु हुई होती है. इन लोगों को दीवाली मनाने का हक नहीं होता. धर्म द्वारा थोपी गई ऐसी मान्यताएं सहज सोचने पर मजबूर करती हैं कि यह भेदभाव क्यों? मृत्यु को शाश्वत कहने वाला धर्म क्यों रीतिरिवाजों के नाम पर लोगों का दुख बढ़ाता है? इस सवाल का जवाब भी किसी के पास नहीं. और होगा तो यही कि इन के यहां शोक की दीवाली है. यह शोक की अवधि इतनी लंबी और मान्य क्यों, इस पर कोई नहीं सोचता.

फिर शोकसंतृप्त परिवार के यहां लक्ष्मी कैसे जाएगी इस से एक बात तो साबित होती है कि पैसा कर्मठ और मेहनती लोगों के पास आता है. यह कतई जरूरी नहीं कि शोक में डूबा परिवार कंगाल ही हो. वह संपन्न और खातापीता भी हो सकता है यानी लक्ष्मी उन के यहां भी होती है. फिर पूजापाठ पाखंड क्यों? सिर्फ इसलिए कि वह परिवार अलग से विशिष्ट दिखे, मानो मरना कोई संगीन गुनाह हो. इसी तरह जिन घरों में दीवाली के दिन किसी की मौत हुई होती है वे फिर दीवाली नहीं मना सकते. यह थोपा गया अभिशाप नहीं तो क्या है? किस उमंग, उल्लास, उत्साह और खुशी की बात दीवाली की कथाओं में कही जाती है. एक राम ने एक रावण को मारा था इसलिए दिए जलाए जाते हैं, रोशनी की जाती है लेकिन जिस के यहां मौत हुई हो उसे एक कथित रावण की मौत पर भी खुश होने का हक क्यों नहीं?

जवाब साफ है कि दरअसल प्रतीकात्मक रूप में जिस राक्षसी प्रवृत्ति को खत्म करने की बात की जाती है वह ऐसे भेदभावों के जरिए ही जिंदा है. लोग अपनी मरजी से कुछ करने को स्वतंत्र नहीं हैं. इसलिए तमाम रोशनियों, उल्लास और शुभकामनाओं के बाद भी दीवाली एक अभिशाप भी धार्मिक तौर पर है जिस में लक्ष्मी सिर्फ ब्राह्मणों, पंडे, पुजारियों, ज्योतिषियों, कर्मकांडियों और बनियों  के पास जाती है. एक इस दिन बहीखाते का पूजन करता है तो दूसरा करवाता है जिस से सालभर दोनों का संयुक्त व्यवसाय फलताफूलता रहे. लोग फुजूल पैसा खर्च करते रहें, जुआ खेलते रहें, अंधविश्वासों और तंत्रमंत्र में डूबे लक्ष्मी के आने ही झूठी उम्मीद पाले रहें. इन अभिशापों से जाने हम कब मुक्त होंगे.

रंगरोगन से रंगीन हो आशियाना

कहते हैं दीवारों के भी कान होते हैं लेकिन मैं दीवारों को कान नहीं बल्कि घर का आईना मानता हूं. जब यह आईना साफसफाई के बाद चमकतादमकता है तो घर भी उस चमक में रोशन हो जाता है. घर की यह चारदीवारी जितनी रंगीन और रोशन होती जाती है, घर का मिजाज भी उतना ही खुशनुमा और रंगीन हो जाता है. यों तो साल भर हम कई त्योहार मनाते हैं लेकिन जो इंतजार दीवाली उत्सव को ले कर होता है वह शायद ही किसी और के लिए होता हो. इस उत्साह की अपनी वजहें भी हैं. दीवाली ही एकमात्र ऐसा त्योहार है जिस में घर की साफसफाई और पुताई पर जोर दिया जाता है. वरना बाकी त्योहार तो हुड़दंग और गंदगी फैलाने का मौका तो खूब देते हैं लेकिन सफाई की वकालत सिर्फ दीवाली पर की जाती है. सिर्फ साफसफाई ही नहीं बल्कि सजावट और रोशनी से सराबोर दीवाली मन के अंदर की तमाम अंधेरी गलियों को रोशन करने का संदेश देती है. घरद्वार की साफसफाई से रंगाईपुताई तक और मन को उजालों से भरने वाले त्योहार दीवाली को मनाने का अंदाज ही निराला होता है.

पुताई और रंगों का बाजार

दीवाली के कुछ दिन पहले से ही इस की तैयारियों का दौर शुरू हो जाता है. जाहिर है इस में रंगाईपुताई से ही शुरुआत होती है. लेकिन आजकल बढ़ती महंगाई और बाजारी रंगों के दामों में हुई अनापशनाप वृद्धि ने रंगाईपुताई को ले कर भी दिक्कतें बढ़ा दी हैं. साथ ही पुताई करने वालों ने भी अपने दामों में अनापशनाप तरीके से वृद्धि कर दी है. आजकल दिहाड़ी पुताई वाले अमूमन एक कमरे के लिए 500 से 1 हजार रुपए तक वसूल रहे हैं. जबकि ठेकेदार 25 हजार रुपए एकदो कमरों के फ्लैट के लिए मांगते हैं. हालांकि यह बजट महानगरों के लिए है और पेंटों की डिजाइन व इस्तेमाल होने वाले सामान के आधार पर घटताबढ़ता रहता है. जबकि कलर्स काउंसलर की मदद से घर की रंगाईपुताई का काम और महंगा पड़ता है. उस पर सामान खुद खरीद कर देना पड़ता है. पिछले साल की अपेक्षा इस साल रंग और पेंट्स के दामों में तकरीबन 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसलिए इस से बचने के तरीके निकालने जरूरी हैं. कितना बढि़या हो इस दीवाली घर की रंगाईपुताई आप खुद करने की ठानें.

जरूरी नहीं है कि बाजार से खरीदे महंगे पेंट ही इस्तेमाल करें बल्कि चाहें तो चूना, खरी और मामूली रंगों के घालमेल से भी बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं. डिजाइन बदल कर भी क्वालिटी पेंट जैसा परिणाम पाया जा सकता है. लेकिन सब से बेहतर है कि बाजार की चीजों और मजदूरों पर निर्भर न रहा जाए बल्कि कुछ जरा हट कर आजमाया जाए. अगर रंग से बचना चाहें तो आजकल वालपेपर भी नए विकल्प बन कर उभरे हैं. इस के अलावा कोई दीवार किसी रंग की वजह से अच्छी न लगे तो उस हिस्से को पेंटिंग्स या घर की तसवीरों का इस्तेमाल कर उस कमी को ढका जा सकता है. इस दीवाली आप भी अपने घर की रंगाईपुताई की योजना बना रहे होंगे. अमूमन तो लोग विज्ञापनों की चमकधमक और हर रंग कुछ कहता है की जुमलेबाजी में आ कर बाजार से महंगे पेंट खरीद कर घर चमकाने की सोचते हैं. लेकिन यह तरीका न सिर्फ काफी महंगा पड़ता है बल्कि दीवाली का बजट शुरुआत से ही असंतुलित करने लगता है. अगर इस महंगे खर्चे को बचा लिया जाए तो दीवाली पर और भी जरूरी खर्चे पूरे किए जा सकते हैं. और रही घर की रंगाईपुताई की बात तो इस के लिए इस बार जरा खुद ही हाथ आजमाएं. इस के 2 फायदे हैं. पहला तो आर्थिक मोरचे पर बचत होगी लेकिन दूसरा और सब से जरूरी फायदा यह कि रंगाईपुताई के जरिए न सिर्फ अपने घर को सजाएंगे बल्कि रिश्तों के मोरचे पर प्रगाढ़ता आएगी. वह ऐसे कि जब सब मिल कर कोई काम हंसीखुशी करेंगे तो मन में माधुर्य छलकेगा ही.

बीते दौर का मजा

जरा सोचिए, पुराने दिनों की तरह किसी आर्ट क्लास का असाइनमैंट पूरा करते समय आंगन में अपनों के साथ कलर्स और क्राफ्ट का काम कितने मजे से पूरा हो जाता था और परिवार की अहमियत भी समझ आती थी. लेकिन अब चूंकि न्यूक्लियर फैमिली का जमाना है और उस में भी वर्किंग क्लास और तकनीकी दखल ने कोई काम ऐसा छोड़ा ही नहीं जो सपरिवार मिलजुल कर मस्ती में पूरा किया जाए. हर कोई अकेले ही स्मार्ट फोन और कंप्यूटर में अपनेअपने कमरों में आंखें फोड़ रहा है. किचन में कामवाली बाई खाना बनाती है और बाकी लोग टीवी सीरियल से फुरसत नहीं पा पाते. ऐसे में इस दीवाली के दौरान रंगाईपुताई वह मौका है जब रंगों की कसरत में आप अपने रिश्तों में भी नई जान फूंकेंगे. अकसर यह सवाल जेहन में आता है कि त्योहार से पहले इतने बड़े पैमाने पर साफसफाई भला जरूरी क्यों हैं. दरअसल, इसी त्योहार के बहाने साल में एक बार घर के कोनेकोने को पूरी तरह साफ कर लिया जाता है. घर की धूलगंदगी दूर हो जाती है. इस के अलावा कार्तिक मास से पूर्व बारिश का समय रहता है. लिहाजा कई जगह दीवारें सीलन पकड़ लेती हैं और उन से चूना आदि झड़ने लगता है. साफसफाई और रंगाईपुताई की परंपरा के बहाने इन का भी समाधान हो जाता है.

सफाई के दौरान सर्दियों के कपड़ों को धूप दिखाने का काम भी हो जाता है. वास्तविकता तो यह है कि इतनी सफाई और रंगाई के बाद घर एकदम नया सा लगने लगता है. कई बार गैरजरूरी सामान जो बेकार में पड़ा होता है सफाई के बहाने निकल आता है और किसी जरूरतमंद को देने के काम भी आ जाता है. तीजत्योहारों का असल मकसद आपसी संबंधों में सौहार्द पैदा करना और बीते साल की कमियों और बुराइयों को दूर कर नए सिरे से नई शुरुआत करना होता है. हर दीवाली हम अपने घरों की सफाई तो करते हैं लेकिन जिस तरह सफाई और रंग करने से घर में एक अलग चमक आ जाती है वैसे ही अगर हम अपने मन की सफाई करें तो जीवन में नई उमंग आ जाए. जब तक मन साफ नहीं है, बाहर की सफाई और सौंदर्य व्यर्थ है. कितना अच्छा हो यदि हम अपने भीतर का भी सौंदर्यीकरण करें. अपने मन की उलझनों और पुराने विचारों को बाहर निकाल कर नकारात्मक विचारों के जाले साफ करें. घर की सजावट और रोशनी की झालरों के साथ मन के अंदर सद्विचारों की झालर लगाएं, फिर देखें कि कितनी रोशनी होती है मन की संकरी गलियों में. इस दीवाली कुछ सार्थक करें तभी सही माने में उत्सव का आनंद मिलेगा.

नेपाल : नया संविधान नया बावेला

नेपाल में 239 सालों से लागू ‘मुखे कानून छ’ के कहावत के दिन लद गए. इस कहावत का मतलब यही है कि राजा का मुंह ही वहां कानून माना जाता था. राजा ने जो कह दिया वही कानून हो जाता था. 7 सालों के लंबे इंतजार और मशक्कत के बाद नेपाल का नया संविधान लागू हो गया लेकिन उस के कई बिंदुओं के विरोध में उपद्रव भी शुरू हो गया है. खुशी, आतिशबाजी और हिंसा के बीच 20 सितंबर, 2015 को नेपाल को अपना संविधान मिल गया और उसे ‘संविधान-2072’ का नाम दिया गया है. 601 सदस्यीय संविधान सभा ने 85 फीसदी बहुमत के साथ नए संविधान को पास कर दिया. नए संविधान के लागू होते ही हिंदू राष्ट्र और राजशाही का चोला उतार कर नेपाल पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया है. नेपाल के नए संविधान में अब धर्म को बदलने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई है और सनातन हिंदू धर्म की हिफाजत का जिम्मा सरकार को सौंपा गया है. गाय को राष्ट्रीय पशु के तौर पर मान्यता दी गई है. नए संविधान की 5 प्रतियों पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रपति रामबरन यादव ने कहा, ‘‘हमारा देश बहुनस्ली, बहुभाषी, बहुधार्मिक और विविध संस्कृतियों वाला है. यह नया दस्तावेज सभी नेपाली भाइयों व बहनों के अधिकारों की रक्षा करेगा.’’

कब की कवायद

साल 2008 में हुए संविधान सभा के पहले चुनाव के बाद से माओवादी सब से बड़े दल के रूप में उभरे थे और तब संविधान बनाने की कवायद शुरू की गई थी. माओवादी 5 साल तक सरकार में रहे पर नया संविधान नहीं बना सके. संविधान के प्रारूप पर अंतिम फैसला लेने के लिए दर्जनों समितियां बनीं और सैकड़ों बैठकें हुईं उस के बाद भी संविधान नहीं बन सका. साल 1996 से ले कर 2006 तक चले गृहयुद्ध के खात्मे के बाद साल 2008 में पहली बार संविधान सभा का चुनाव हुआ था. उस के बाद 2013 में दूसरी दफा संविधान सभा का चुनाव हुआ, जिस में माओवादियों को करारी हार का मुंह देखना पड़ा था. राजनीतिक उथलपुथल की वजह से संविधान को अंतिम रूप देने की तारीख दर तारीख पड़ती रही. काफी जद्दोजेहद के बाद नेपाल को नया संविधान तो मिल गया है, लेकिन मधेशियों को वाजिब अधिकार नहीं मिलने की वजह से देश एक बार फिर नए आंदोलन की गिरफ्त में फंस गया है. संविधान का विरोध भारत और नेपाल के सीमाई इलाकों में हो रहा है. तराई इलाकों में रहने वाले तराई और पहाड़ी इलाकों को एक मानने का विरोध कर रहे हैं. उन का कहना है कि तराई और पहाड़ी इलाकों के लोगों की संस्कृति अलगअलग है. उन्हें मिलाने से मतभेद और हिंसा बढ़ेगी. वहीं मधेशियों के अधिकारों में कटौती को ले कर मधेशी समुदाय ने विरोध का झंडा उठा लिया है. वहीं दूसरी ओर नेपाल के महिला संगठन इस बात को ले कर नाराज हैं कि किसी मर्द के विदेशी महिला से विवाह करने पर उस की संतान को नेपाली नागरिक माना जाएगा, लेकिन महिलाओं के किसी विदेशी से शादी रचाने पर उस की संतान को नेपाली नागरिकता तभी मिलेगी जब उस का पति नेपाल की नागरिकता हासिल कर लेगा.

संविधान का विरोध

नए संविधान का सब से ज्यादा विरोध नेपाल के तराई इलाकों में हो रहा है. भारत से सटे सीमाई इलाकों में सब से ज्यादा मधेशी रहते हैं. पिछली 22 सितंबर को बीरगंज में कई जगहों पर उपद्रव और आगजनी की गई. माईस्थान पुलिस चौकी पर पैट्रोल बम से हमला किया गया और वार्ड नंबर 11 में नेपाली कांगे्रस के सांसद राजेंद्र बहादुर आमात्य के मकान पर भी प्रदर्शनकारियों ने पत्थर फेंके. उपद्रव को बढ़ता देख प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को मधेशी लोकतांत्रिक पार्टी के दफ्तर पहुंच कर आंदोलन को रोकने की गुहार लगानी पड़ी. मधेशी नेता उपेंद्र यादव कहते हैं कि नेपाल में मधेशियों की बहुत बड़ी आबादी है और नेपाल की तरक्की में काफी बड़ा योगदान है, इसलिए उन के आंदोलन को बंदूक और लाठी के बूते दबाना नेपाल के लिए ठीक नहीं होगा. उन के आंदोलन को कुचलने के बजाय सरकार को उन की नाराजगी को सुनना होगा, नहीं तो देश में स्थायी तौर पर शांति कायम करना मुमकिन नहीं हो सकेगा.

जाहिर है कि मधेशी इलाके भारत की सीमा से लगे हुए हैं और नेपाल में रहने वाले मधेशी भारतीय मूल के ही हैं. ऐसे में भारत भी नेपाल के इस संकट से खुद को अलगथलग नहीं रख सकता है. पहाडि़यों से मधेशियों की ज्यादा आबादी होने के बाद भी मधेशियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है. जिस तरह से संघीयक्षेत्रीय बंटवारा किया गया है उस में मधेशियों की नुमाइंदगी काफी कम हो जाएगी. चुनाव क्षेत्रों को इस तरह से बनाया गया कि पहाड़ी इलाकों को 100 सीटें और मैदानी इलाकों को 65 सीटें दी गई हैं. इस के अलावा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नाम पर ऊंची जाति के पहाडि़यों को आरक्षण दिया गया है, जिस से भी मधेशी खासे नाराज हैं. गौरतलब है कि राष्ट्रपति रामबरन यादव संविधान के कई बिंदुओं पर सहमत नहीं थे और उन्हें इस बात का अहसास था कि संविधान के कई मसलों पर हंगामा खड़ा हो सकता है. वे संविधान सभा में मतदान को टालने की जुगत में लगे रहे, लेकिन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला और संविधान सभा के अध्यक्ष सुबास चंद्र नेंबांग ने उन की सलाह की अनदेखी कर दी. भारत भी इस बात से खफा है कि साल 2007 में नेपाल में सभी राजनीतिक दलों ने जो समावेशी संविधान बनाने का भरोसा दिया था, उस का उल्लंघन किया गया है. संविधान में सभी वर्गों और इलाकों को वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है. भारत ने नए संविधान को इसी रूप में पारित नहीं कराने का आग्रह करते हुए विदेश सचिव एस जयशंकर को 18 सितंबर को नेपाल भी भेजा, पर नेपाल के नेताओं ने उन्हें तव्वज्जुह नहीं दी.

नेपाल और भारत मामलों के जानकार हेमंत राव बताते हैं कि ऐसा कर के नेपाल ने भारत को ज्यादा तरजीह नहीं देने का साफ संकेत दे दिया है. मधेशी भारत के समर्थक हैं और पहाडि़यों को नेपाल का करीबी माना जाता रहा है. किसी भी मधेशी पार्टी के नेता ने संविधान को स्वीकार करते हुए अपने हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जिस से नेपाल में नए बावेला का जन्म लेना तय है. 

मधेशियों का पेंच

गौरतलब है कि पिछले 5 दशकों से मधेशी ‘एक मधेश एक प्रदेश’ की मांग करते रहे हैं. मधेशियों की आबादी 52 फीसदी है लेकिन वह नेपाल के कुल क्षेत्रफल में से 17 फीसदी इलाके में ही रहते हैं और उन के बूते ही नेपाल सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व का 80 फीसदी हिस्सा आता है. नेपाल की कुल आबादी 2 करोड़ 95 लाख है जिस में से डेढ़ करोड़ मधेशी हैं. नेपाल में कुल 103 जातियां हैं जिन में 56 जातियां मधेशियों की हैं. इस के बाद भी नेपाल में मधेशियों की हालत ‘न घर के न घाट के’ की तरह ही रही है. नेपाल में मधेशियों की बदहाली का यह हाल है कि लंबी लड़ाई के बाद भी 40 फीसदी मधेशियों के पास न नागरिकता प्रमाणपत्र है और न ही वोट देने का अधिकार है. मधेशी गुहार लगा रहे हैं कि वे पूरी तरह से नेपाल के नागरिक हैं, उन्हें बाहरी नहीं समझा जाए. मधेशी न सरकारी योजनाओं का फायदा उठा सकते हैं और न ही वहां जमीन खरीद सकते हैं. तराई मधेशी राष्ट्रीय अभियान के संयोजक जयप्रकाश प्रसाद गुप्ता बताते हैं कि नेपाल की संविधान सभा का कोई मतलब ही नहीं रह गया है. नए संविधान में मधेशियों, आदिवासियों, जनजातियों और दलितों को हक और इंसाफ देने पर नेता चुप्पी साधे हुए हैं. अब नेपाल के नए संविधान में भी मधेशियों को अलगथलग करने की कोशिश करने से मधेशी हिंसक लड़ाई पर उतारू हो गए हैं. अगर समय रहते नेपाल में नए संविधान के तहत चुने गए प्रथम प्रधानमंत्री खड्गा प्रसाद ओली और राजनीतिक दलों ने मधेशियों को मनाने के लिए लचीला रुख नहीं अपनाया तो इस में शायद ही राजशाही को खत्म कर लोकतंत्र कायम करने का मकसद पूरा हो पाएगा.

त्योहारों पर रिश्तों को दें माधुर्य का निमंत्रण

भारत छोड़ कर दुनिया के लगभग सभी देशों के त्योहार न तो पूजापाठ को बढ़ावा देते हैं और न प्रदूषण को. फिर चाहे वह चीन का लाइट शो हो या यूरोपीय देशों में न्यू ईयर उत्सव व क्रिसमस सैलिब्रेशन. हर त्योहार मौजमस्ती से सराबोर होता है. पता नहीं हम कब बदलेंगे. रोजरोज की भागमभाग में जिम्मेदारियों को पूरा करतेकरते जीवन में उत्साह कहीं खो सा जाता है. ऐसे में त्योहार बहाना बनते हैं जिंदगी में खुशियां, उत्साह और उमंग लाने का. यों तो त्योहारों की मस्ती अगस्त में सावन के झूलों से ले कर राखी के साथ शुरू हो जाती है लेकिन मस्ती का पूरा रूप निखरता है दीवाली पर. दीवाली का मकसद भी जीवन में समरसता ला कर उसे उत्सव का रूप देना होता है. दीवाली बच्चों व बड़ों सब के लिए जश्न मनाने का बेहतरीन अवसर होता है. लेकिन नए कपड़ों, मिठाइयों, उपहार, घर की साजसजावट, पार्टी के बीच कुछ ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं. आइए, इस दीवाली पर कुछ ऐसा करें जिस से यह सब के लिए एक यादगार बन जाए.

जीवन में भरें रंग

हर आदमी पूरे साल अपने कामधाम में लगा रहता है. साल में कुछ मौके ही ऐसे आते हैं जब वह त्योहारों के बहाने एक जगह एकत्र हो कर हर्षोल्लास के साथ अपना समय व्यतीत करता है. उत्सवों के कारण ही दूरदराज शहरों में रहने वाले लोग अपने प्रियजनों, दोस्तों, नातेरिश्तेदारों से मिलने के लिए समय निकालते हैं. ऐसे में आपसी सुखदुख साझा करते हैं. इस से पूरे साल की थकान कम हो कर एक बार फिर से नई ऊर्जा, चेतना का संचार शरीर में होता है जिस से सालभर काम करने की ताकत मिलती है. दीवाली मिलन और एकता का संदेश देता है. दीवाली एक सामूहिक पर्व है. इस को व्यक्तिगत तौर पर न मना कर सामूहिक तौर पर मनाएं तो खुशियां दोगुनी हो सकती हैं. इस से आपसी प्यार, उल्लास और उमंग बढ़ती है.

परिवार के साथ मौजमस्ती

अगर आप पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में घर से दूर रहते हैं तो दीवाली वह बेहतरीन अवसर है अपनों के साथ मिल कर खुशियां बांटने का. तो फिर बिना देर किए अपना टिकट बुक कराइए और बना दीजिए इस दीवाली को यादगार दीवाली. एक बात और, जाने से पहले घर वालों, पड़ोसियों व दोस्तों के लिए उपहार ले जाना न भूलें. उपहार भले ही कीमती न हो लेकिन ऐसा अवश्य हो जो आप की भावनाओं को उन तक पहुंचाए. इन उपहारों में दीये, मिठाइयां, कपड़े या अपने हाथ से बना कोई उपहार या स्वीटडिश (जैसे चौकलेट) भी हो सकती है. ध्यान रहे आप उपहार सिर्फ त्योहार की रस्म अदायगी के लिए न दें. क्योंकि मन से दिए गए उपहार से अपनों के चेहरे पर आप को जो खुशी देखने को मिलेगी वह आप को दीवाली की असली खुशी व उमंग देगी.

दीवाली की पार्टी

इस दीवाली की पार्टी में अपने रिश्तेदारों के अलावा अपने पड़ोसियों को भी शामिल करें. भले ही वे किसी भी धर्म या जाति के हों क्योंकि अगर दीवाली खुशियों का त्योहार है तो खुशियां हर जगह होनी चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारे घर तो दीया जले, रोशनी हो, पार्टी हो और पासपड़ोस इस में शामिल न हो. इसलिए पार्टी में आने वाले हर मेहमान की सूची बना लें ताकि आप को आने वाले सदस्यों के अनुसार तैयारी करने में आसानी हो.

पार्टी की थीम

दीवाली की फैमिली पार्टी में ज्यादातर लोग ट्रैडिशनल थीम रखते हैं. आप चाहें तो इस में एक ट्विस्ट दे सकते हैं. जैसे आप मेहमानों को भिन्नभिन्न प्रदेशों की वेशभूषा पहन कर आने को कह सकते हैं. इस से पार्टी में शामिल बच्चों को भी देश की विभिन्न कला व संस्कृति की जानकारी मिलेगी और पार्टी का मजा दोगुना हो जाएगा.

सजावट हो कुछ ऐसी

दीवाली की पार्टी का जिक्र आते ही सब की आंखों के आगे दीपों की जगमगाहट, रंगोली, रंगबिरंगे बंदनवार, कंदील का नजारा सामने आ जाता है. और हर कोई चाहता है कि उन के घर की सजावट पारंपरिक होने के साथसाथ कुछ अलग हट कर हो लेकिन साथ ही वह बजट गड़बड़ाने से भी डरता है. ऐसे में कम खर्चे में रचनात्मक तरीके से घर को सजा कर घर की शोभा बढ़ाई जा सकती है.

रंगबिरंगी रंगोली

रंगोली के बिना दीवाली की सजावट अधूरी लगती है. आजकल बाजार में रेडीमेड रंगोली भी मिलती है लेकिन आप चाहें तो पारंपरिक रंगोली को फूलपत्तियों व सूखे रंगों से सजा सकते हैं जो रंगोली को पारंपरिकता के साथ आधुनिक झलक भी देगा और पार्टी में आने वाले लोग आप की रचनात्मकता की तारीफ किए बिना नहीं रह पाएंगे.

डिजाइनर बंदनवार

पहले घरों के मुख्यद्वार को फूलों, आम के पत्तों से बने तोरण से सजाया जाता था. आप भी इस दीवाली पर चाहें तो इस परंपरा को दोहरा सकती हैं. इस के अलावा घर पर सुंदर बंदनवार स्वयं भी बना सकती हैं जो बजट में होने के साथ आकर्षक भी लगेंगे. बंदनवार बनाने के लिए आप अपनी पुरानी सिल्क की साड़ी के जरी बौर्डर का प्रयोग कर सकती हैं. बौर्डर के पीछे बुकरम लगाएं व बौर्डर को स्टोन, मिरर व घुंघरुओं से सजाएं. अपने हाथ से बना यह बंदनवार डिजाइनर होने के साथ पारंपरिक लुक भी देगा.

रोशनी की जगमगाहट

दीयों के साथ आप मोमबत्ती को इस तरह सजाएं कि आप की पार्टी के डैकोरेशन को अलग लुक मिले. आप बाजार में मिलने वाले मोमबत्ती के स्टैंड को घर में मौजूद कांच के रंगीन ग्लास में रखें. इस से नया लुक मिलेगा. आप चाहें तो इन ग्लासेज को एक आईने के सामने समूह में सजा कर रख सकते हैं. साथ ही एक आकर्षक बाउल में पानी भर कर उस में कुछ ताजे फूल डालें व बीच में फ्लोटिंग कैंडिल्स रखें. यह आप की पार्टी के डैकोरेशन को खास बना देगा.

संगीत व डांस

दीवाली की पार्टी हो और संगीत न हो यह भला कैसे हो सकता है. आप पार्टी में आने वाले हर सदस्य की पसंद को ध्यान में रखते हुए संगीत व डांस नंबर्स का चुनाव करें. साथ ही घर में पार्टी के स्थान पर कुछ जगह खाली रखें ताकि वहां अगर किसी का गीतसंगीत पर थिरकने का मन करे तो वह थिरक सके व म्यूजिकल चेयर जैसे गेम्स भी खेले जा सकें.

प्लास्टिक को करें बायबाय

याद कीजिए वह समय जब घर की साजसजावट के लिए रंगीन कागज व हैंडमेड पेपर की बनी कंदील घरआंगन की शोभा बढ़ाती थी. इस दीवाली भी कोशिश कीजिए कि प्लास्टिक के बजाय पेपर से बने सजावटी सामान का प्रयोग करें क्योंकि प्लास्टिक का सामान न गलने की वजह से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है.

इको फ्रैंडली पटाखे

इस दीवाली आप निश्चय कीजिए कि इको फ्रैंडली पटाखे ही छोड़ेंगे. ये पटाखे न केवल कम वायु प्रदूषण फैलाते हैं वरन इन से ध्वनि प्रदूषण भी कम होता है. आप को जान कर हैरानी होगी कि दीवाली पर छोड़े जाने वाले अधिकांश पटाखों से 100 डेसिबल (ध्वनि नापने की इकाई) की आवाज आती है जबकि 50 डेसिबल से तेज आवाज मनुष्य के लिए खतरनाक होती है क्योंकि पटाखों की अचानक तेज आवाज व्यक्ति को बहरा भी कर सकती है. और तो और, इस कारण हृदय के मरीजों को दिल का दौरा पड़ने की संभावना भी रहती है.

त्योहारों पर न चढ़ाएं धर्म का रंग

त्योहार मौजमस्ती, हंसीखुशी और एकदूसरे से मिलनेमिलाने के लिए होता है. धर्म का प्रचार करने वाले ने त्योहारों की ताकत को समझते हुए इस को अपने प्रचार का जरिया बना लिया. धर्म ने त्योहारों पर आस्था और धर्म का ऐसा रंग चढ़ाया कि त्योहार अलगअलग जातिधर्म के समूह में बंट गए. इस का असर यह हुआ कि त्योहार मनाने वाले लोग मौजमस्ती कम और तनाव में ज्यादा जीने लगे. कोई भी त्योहार आता है, उस से पहले ही समाज में तनाव फैल जाता है. इस तनाव और समाज में फैले हुए खतरे से बचने के लिए लोगों ने एकसाथ त्योहार मनाना ही बंद सा कर दिया. अब जाति और धर्म में बंटे लोग अपने छोटेछोटे समूहों में त्योहार मना लेते हैं. इस से एकसाथ जुट कर त्योहार मनाने का रिवाज खत्म सा हो गया है. जरूरत इस बात की है कि सभी त्योहार सब मना सकें. ऐसा माहौल हो जहां हर कोई मौजमस्ती से त्योहार मना सके. आजकल पूरी दुनिया में इस बात का प्रयास हो रहा है. होली को अलगअलग रंगों में पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है. कहीं फूलों से होली खेली जाती है तो कहीं खुशबूदार कीचड़ से. कुछ लोग आइस यानी बर्फ से होली खेलते हैं तो कुछ टमाटर से होली खेलते हैं. होली के रंग और तौरतरीके अलग हो सकते हैं. इन में शामिल होने और मौजमस्ती करने का जज्बा कम नहीं होता. जरूरत इस बात की होती है कि त्योहारों पर चढे़ आस्था और अंधविश्वास को दूर कर उस में लाइफस्टाइल का रंग भरें. त्योहारों में आस्था की छुट्टी कर के जीवन के रंगों को भरा जाए. आस्था का रंग त्योहार को कुछ लोगों के बीच समेट देता है. आस्था और रूढि़वादी सोच कई बार इन त्योहारों में रंग को फीका कर देती है. जैसे होली में शराब पीकर हुल्लड़बाजी करने से तमाम दुर्घटनाएं हो जाती हैं. दीवाली में जुआ खेलने की परंपरा बुराई की याद दिलाती है.

दीवाली के उत्सव में रंग में भंग मिलाने का काम कई बार पाखंड वाले रीतिरिवाज करते हैं. दीवाली में भी पार्टी का मतलब जुआ और नशा हो गया है. जुआ खेलना और जुए में जीत हासिल करना इस त्योहार का सब से पुराना पाखंड हो गया है. नए जमाने में इस के अलगअलग रूप होने लगे हैं. हालात इतने बिगड़ गए हैं कि अब तो कुछ महिलाएं भी किटी पार्टी में जुआ खेलती हैं. जुआ खेलने वाले लोगों को जब इस के लिए मना किया जाता है तो वे धर्मग्रंथों का हवाला दे कर तर्क देते हैं कि यह तो धर्मग्रंथों में लिखा है. यह सच बात है कि धर्मग्रंथों में जुए के महत्त्व को लिखा गया है. धर्मग्रंथों में जो लिखा है वह सच नहीं है. सब से पहले तो इस बात को समझ लेने में ही भलाई है. धर्मग्रंथों में ऐसे तमाम किस्सेकहानियां लिखी गई हैं जो अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं. जुआ खेलने के समय अंधविश्वास यह है कि जो आज जीतेगा उस के पास सालभर लक्ष्मी यानी पैसा आता रहेगा.

पैसा मेहनत से आता है जुआ खेलने से नहीं. जुए में जीत के चक्कर में तमाम लोग अपना काफी पैसा हार जाते हैं. इस के बाद एक बार फिर से वे अपने भाग्य को कोसते हुए नशा करने लगते हैं. आज के समय में जुआ खेलना शान समझा जाता है. देखा जाए तो जुआ खेलना शान की नहीं शर्म की बात होती है. महाभारत का जुआ इस बात का प्रमाण है कि जुआ किस हद तक विनाशकारी हो सकता है. दीवाली के एक सप्ताह पहले से जुआ खेलना शुरू हो जाता है और एक सप्ताह बाद तक जुआ चलता रहता है. अब तो समूचा परिवार इस खेल को खेलता है. नएनए कपल्स भी दूसरों की देखादेखी इस में फं सते जाते हैं. त्योहार हमें अवसर देते हैं कि हम अपने जीवन को किस तरह से खुशियों से भरें. हमें खुशियों से सराबोर होना चाहिए. स्थानीयस्तर पर ऐसे तमाम आयोजन त्योहारों में होते हैं जहां आस्था के नाम पर भीड़ का जमावड़ा हो जाता है. कई बार ऐसी जगहों पर भगदड़ मचने से सैकड़ों की मौत हो जाती है.

गणेश पूजा, दुर्गा पूजा ऐसे तमाम मौके होते हैं जिन में नाव पर चढ़ कर मूर्तियों को नदी के बीच ले जाया जाता है. इस में कई शहरों में नदी में नाव के डूबने की घटनाएं घट जाती हैं. त्योहारों में आस्था के ऐसे रंग खूब देखने को मिलते हैं. एक धर्म त्योहार मना रहा है उसी बीच दूसरे धर्म के लोग आ गए तो टकराव शुरू हो जाता है जिस से मारपीट, भगदड़ मच जाती है. ये घटनाएं पूरे विश्व में होती हैं. शैतान को पत्थर मारने के दौरान मक्का में कई बार भगदड़ मचती है जिस में तमाम निर्दोष लोग जान गंवा बैठते हैं. धीरेधीरे पूरी दुनिया में यह चलन शुरू हो रहा है जिस में त्योहारों में लोग आस्था की घुट्टी दे कर खूब मजे करते हैं. जो लोग धार्मिक आस्था और रूढि़वादी ताकतों से ज्यादा घिरे हैं वे ही त्योहार में आस्था का रंग तलाश करते हैं. धर्म की दुकान चलाने वालों के लिए ऐसे त्योहार बहुत मुफीद होते हैं. वे त्योहार को धर्म के आडंबर से जोड़ कर रखते हैं. इस से वे अपना लाभ हासिल करते हैं. ऐसे में जरूरी है कि त्योहार में आस्था को घुट्टी दे कर अपने जीवन में खुशियों के रंग भरे जाएं.         

पूजा नहीं उत्सव मनाएं

दीवाली में त्योहार के पहले से बाद तक एक के बाद एक पूजा का दौर चलता है. पूजा और उत्सव में फर्क होता है. पूजा निजी मामला होता है जबकि उत्सव में सामूहिकता का मिश्रण होता है. पूजा खुद के लिए होती है. इस में अपने खुद के कल्याण का भाव निहित होता है. उत्सव में मिलजुल कर खुशी मनाने की बात होती है. उत्सव में जब पूजा को जोड़ा जाता है तो यह कई दूसरे धर्मों को अलगथलग कर देता है. उत्सव में जरूरी है कि सादगी के साथ दोस्तों के साथ मनाया जाए. पूजा का नाम आते ही उस के साथ तमाम तरह के रीतिरिवाज जुड़ जाते हैं. कमाई करने वालों ने पूजा को विशुद्ध रूप से कारोबारी शक्ल दे दी है. दीवाली पूजा के लिए सोनेचांदी का सिक्का खरीदना जरूरी होता है, जिस से इस दिन बाजार से ये सिक्के पूरी तरह से गायब हो जाते हैं. कई बार दीवाली के मौसम में मिलावटी सिक्के बाजार में आ जाते हैं. लोग हड़बड़ी में उस को खरीद लेते हैं. महंगी मिठाई, फल और फूल के साथसाथ हर साल नई मूर्तियां खरीदनी होती हैं. बाद में इन मूर्तियों को नदी में प्रवाहित किया जाता है. नदी में जा कर ये मूर्तियां पूरी तरह से पानी को दूषित कर देती हैं. अदालत के फैसले के बाद भी मूर्तियों का नदियों में विसर्जन जारी है. दीवाली पूजा के नाम पर लोग अपनी हैसियत के लिहाज से लंबाचौड़ा खर्च करते हैं. इस से बचने की जरूरत होती है. धर्म के कारोबारियों ने दीवाली जैसे त्योहारों में भी धर्म और पाखंड को घुसाने का काम किया है. जबकि इन की कोई जरूरत नहीं थी. दीवाली में लक्ष्मी यानी धन के आगमन के लिए पूजापाठ, हवनयज्ञ और मंत्रसिद्धि जैसे पाखंड किए जाते हैं. पूजा के लिए शुभ मुहूर्त की गणना का काम पंडेपुजारी करते हैं. पाखंड के नाम पर होने वाले ऐसे खर्चों से बचने की जरूरत होती है.

मिटाएं धार्मिक दूरियां

दीवाली जैसे त्योहारों को हंसीखुशी से मनाने की जरूरत होती है. परिवार और दोस्तों के साथ मिल कर स्वादिष्ठ पकवानों, मिठाइयों, पटाखों, फुलझड़ी और रोशनी का आनंद लेने की जरूरत होती है. धर्म की दुकानदारी करने वाले कुछ स्वार्थी लोगों ने होली की तरह दीवाली में भी धर्म और पाखंड को बुरी तरह से घुसा दिया है जिस से दूसरे धर्म के लोग इस में शामिल होने से बचने लगे हैं. कुछ समय से समाज का सामाजिक और धार्मिक ढांचा काफी प्रभावित हुआ है. समाज में एकसाथ रहने के बाद भी हमारे बीच भेदभाव और दूरी बढ़ गई है. आज कोई उत्सव आता है तो पूरा प्रशासन उसे ठीकठाक ने निबटाने में लग जाता है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि हम ने उत्सवों को पाखंड में बांट कर उन को मजहबी बना दिया है. हमें लगता है कि दूसरा हमारे धर्म और उत्सव को खराब कर सकता है. इस वजह से समाज में लगातार दूरी बढ़ती जा रही है.

धर्म का प्रचारप्रसार करने वाले सभी वर्ग के लोग दावा करते हैं कि धर्म शांति का पाठ पढ़ाता है. सब को एकसाथ मिल कर रहने की सलाह देता है. सही बात यह है कि धर्म अशांति फैलाने की सब से बड़ी जड़ है. हमारे समाज में होने वाले ज्यादातर झगडे़ धर्म की वजह से ही होते हैं. धर्म की वजह से ही बारबार समाज में टकराव की नौबत आती है. त्योहारों को संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं के दायरे से बाहर करने की जरूरत है.  दीवाली मनाने के पीछे की जो भी धार्मिक कथाएं सुनाई जाती हैं सभी में ऐसे पाखंड को बढ़ाने वाली बातें होती हैं. त्योहार को ले कर कोई न कोई मान्यता गढ़ दी जाती है. त्योहार को जब हम धर्म से जोड़ देते हैं तो समाज के सभी वर्गों का एकसाथ आना मुश्किल हो जाता है.  हर धर्म ने अपने अलगअलग त्योहार बना लिए हैं. ऐसे में एकजुट हो कर त्योहार मनाए ही नहीं जा सकते. ऐसे में समाज हमेशा अलगअलग खांचों में बंटा रहेगा. इस का लाभ हर धर्म के कट्टरपंथियों को होता है और इस का खमियाजा पूरे समाज को उठाना पड़ता है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार किसी का भी हो उस में पाखंड के रंग भरने के बजाय मिलजुल कर मनाने का काम किया जाए. इस से समाज को एकजुट किया जा सकेगा. धार्मिक दूरी नहीं होगी तो त्योहारों में निकलने वाले जुलूस और झांकियों के वक्त एकदूसरे का विरोध कम होगा. समाज में शांति और अमनचैन बना रहेगा.

जरूरत इस बात की है कि हम अपने अंदर के अंधकार को खत्म करें. घरपरिवार, समाज में प्रेम और खुशियों की फुलझड़ी चलाएं. तभी सही माने में त्योहार का मजा लिया जा सकता है. समाज में धर्म का अंधकार दूर करने के लिए जरूरी है कि हम जीवन में खुशियों के रंग भरें, पाखंड के नहीं. तभी हमारा त्योहार मनाना सार्थक साबित होगा. इसी से हमारे जीवन में फैले दुख और अंधकार को भी दूर करने में मदद मिल सकेगी. -साथ में ललिता गोयल

गोमांस पर राजनीति

गोहत्या और गोमांस पर पूरे देश में एक आंदोलन करना भारतीय जनता पार्टी की नीति का एक हिस्सा है पर यह मामला तो बहुत पुराना है. गाय को मां या देवता कहने वाले हिंदू धर्म के समर्थक इस देवी की कितनी कद्र करते हैं यह तो देश भर की सड़कों पर देखा जा सकता है और इस पर ज्यादा कहना या लिखना पुरानी बातों को दोहराना होगा. फिलहाल इस आंदोलन को जो रूप दिया जा रहा है वह किसी तरह से मरी गायों के चमड़े के व्यापार में लगे मुसलमानों को आर्थिक हानि पहुंचा कर कमजोर करना है. यह एक बहाना भी है जिस से कट्टर हिंदुओं को हथियार दिया जा रहा है कि गायें कट गईं कह कर वे कहीं भी, कैसा भी उत्पात मचा सकते हैं और राज्य प्रशासन को उत्पात से पीडि़तों को ही दोषी मानना पड़ेगा. देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह गोसेवकों की यूनिटें पैदा हो गई हैं जो गाय की रक्षा के नाम पर लड़नेमरने को तैयार हैं क्योंकि उन के सामने स्पष्ट दिखने वाला शत्रु है और दंगा करने के लिए उस का घर व संपत्ति है. बदले में ये यूनिटें जम कर या कहिए लड़ कर, चंदा वसूली में लग गई हैं और जो इन्हें इनकार करता है उसे हिंदू विरोधी कह कर राष्ट्रद्रोही घोषित करते देर

नहीं लगती.

गाय की महत्ता उसे पालने से कहीं ज्यादा निसंदेह उस की पूजा में है. गाय के नाम पर चंदा वसूला जाता है. गोशालाओं के नाम पर बागबगीचों को हथिया लिया जाता है. गोसेवकों को खाना खिलाने का इंतजाम कर लिया जाता है. गोदान तो इस देश की सब से बड़ी धार्मिक व्यवस्था है जिस पर प्रेमचंद की कहानी के पात्र आज भी इर्दगिर्द मौजूद हैं. गोहत्या के नाम पर उत्तर प्रदेश के दादरी जिले के बिसाहड़ा कसबे में अखलाक की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या सैकड़ों हत्याओं में से एक है जो गाय के नाम पर की गई पर चूंकि यह यादवों के गढ़ में बिहार चुनावों के ऐन पहले हुई है, इस का राजनीतिक महत्त्व बढ़ गया है. गोपूजा का हिंदू धर्मग्रंथों में जो बड़ा गुणगान है उस का कारण यही है कि यह ऐसी संपत्ति थी जिसे ब्राह्मण दान के साथ जजमान के घर से ले जा सकता था. युगों तक इस देश के आम आदमी के पास घड़े भर अनाज के अलावा कुछ होता था तो वह दुधारू गाय होती थी और ब्राह्मणों ने उसे ही दान में लेने का निशाना बनाया. हिंदू ग्रंथ उन राजाओं के गुणगान से भरे हैं जिन्होंने हवन या आयोजन के बाद गायें दान में दीं. आज इस बात को दोहराया जा रहा है जबकि गायों की संख्या अब लगातार घटती जा रही है. गोदान या गोपूजा हिंदुओं को हमेशा बड़ी महंगी पड़ी है और लगता है फिर इस पर विवाद उठा कर देश में दंगों और मारकाट की तैयारी हो रही है. गाय के व्यापार में, यह न भूलें, मुसलमानों के अलावा दलित व पिछड़े भी हैं. अभी तक वे मुसलमानों का साथ नहीं दे रहे पर इस व्यापार पर पाबंदी लगी तो समाज दो फाड़ हो सकता है.

नकली नोटों को असली बनाने की शातिर चाल

कोलकाता में पिछले दिनों नकली नोटों का एक बड़ा और अनोखा मामला सामने आया. गिरफ्तार चंद्रशेखर जायसवाल पुराने और सड़ेगले असली नोटों के ‘सिल्वर सिक्योरिटी थ्रेड’ को निकाल कर उस से नकली नोट तैयार करता था. एक और बड़ी बात यह कि चंद्रशेखर न केवल नकली भारतीय करेंसी तैयार करता था, बल्कि डौलर, यूरो समेत कई अन्य देशों की भी नकली करेंसियां उस के यहां से बरामद हुई हैं. यह तो थी एक खबर. आइए, अब देखते हैं नकली नोटों का कारोबारी चंद्रशेखर जायसवाल अपना यह कारोबार किस तरह चला रहा था. मध्य कोलकाता के बऊबाजार में 2 लाख रुपए के नकली नोटों के साथ चंद्रशेखर जायसवाल नामक एक व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई. इस के बाद कांकुड़गाछी स्थित उस के घर से 10 करोड़ रुपए के नकली नोट बरामद हुए. इस से पहले नकली नोटों के ऐसे कई मामले सामने आए हैं. इन मामलों से पता चला है कि बरामद नकली नोट की छपाई पाकिस्तान व बंगलादेश में होती है और पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल की सीमा से हमारे देश में ये नकली नोट पहुंचाए जाते हैं. लेकिन चंद्रशेखर जायसवाल का मामला कई माने में अनोखा साबित हो रहा है. चूंकि यह मामला नकली विदेशी करेंसी से भी जुड़ा है, इसीलिए जांच एजेंसी की नजर में यह मामला देश की आंतरिक सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है.

गिरफ्तार चंद्रशेखर जायसवाल ने कबूल किया कि सिल्वर सिक्योरिटी थ्रेड उसे रिजर्व बैंक की पटना शाखा के एक ठेकेदार की मारफत मिला करते थे. हावड़ा जिले के डोमजुड़ में चंद्रशेखर जायसवाल बाकायदा नकली नोटों का एक बड़ा कारखाना चलाता था. स्पैशल टास्क फोर्स ने इसी कारखाने के गोदाम में छापेमारी कर के नकली नोट बनाने के तमाम सामान बरामद किए हैं. टस्क फोर्स के अधिकारी अमित जावलगी के अनुसार, छापेमारी में सब से चौंकाने वाला जो सामान बरामद हुआ है वह पुराने खस्ताहाल, सड़ेगले असली पुराने नोटों की 20 बोरियां हैं. पूछताछ में चंद्रशेखर ने एजेंसी के अधिकारियों के सामने कबूल किया कि इस की आपूर्ति रिजर्व बैंक का एक ठेकेदार किया करता था. कारखाने से पुराने असली नोटों के अलावा नोट छापने वाले कागज, स्टैंप, स्याही के साथ 450 नकली नोटों की बोरियां भी बरामद हुई हैं. बरामद हुए नकली नोटों में केवल 500 और 1000 रुपए के नोट थे. आयरन स्क्रैप के कारोबारी चंद्रशेखर का यह कारखाना स्थानीय रूप से लोहे की कील बनाने वाले कारखाने के रूप में जाना जाता था. स्थानीय लोगों को कारखाने की चारदीवारी के उस पार लोहे के स्क्रैप का ढेर दिखता था. स्थानीय रूप से प्रचारित यही किया गया था कि कारखाने में स्क्रैप को गला कर विभिन्न साइज की कीलें तैयार की जाती हैं. लेकिन इस कारखाने में पिछले 2 साल से नकली नोट छापे जा रहे थे.

मामले की जांच कर रही स्पैशल टास्क फोर्स की जांच से खुलासा हुआ कि गिरफ्तार चंद्रशेखर के नकली नोटों का कारोबार खास कोलकाता और डोमजुड़ के बीच फलफूल रहा था. छापेमारी में इस कारखाने से न केवल नकली भारतीय नोट बरामद हुए, बल्कि डौलर और यूरो समेत टर्की, जिम्बाब्वे व अन्य कई देशों की करेंसियों के भी नकली नोट बरामद हुए. जाहिर है इस कारखाने से चंद्रशेखर विदेश में भी अपना कारोबार चला रहा था. इसीलिए इस मामले को राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंप दिया गया.

रिजर्व बैंक की सुरक्षा में सेंध

नकली नोट में सिक्योरिटी थ्रेड का इस्तेमाल अपनेआप में एक अनोखा खुलासा था. चंद्रशेखर के कारखाने में तैयार नकली नोटों को ‘ग्रेड वन’ नकली नोट बताया गया. इस की वजह, नकली नोट में बाकायदा सिक्योरिटी थ्रेड का इस्तेमाल है. नकली नोट की जांच का काम जितना आगे बढ़ता गया, जांच अधिकारी के आगे एक से बढ़ कर एक चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. अब तक नकली नोट तैयार करने का जितना भी खुलासा हुआ है उस में असली नोट जैसे कागज का इस्तेमाल करने, वाटर मार्क की नकल और उम्दा स्याही के इस्तेमाल की बातें सामने आई थीं. सिक्योरिटी थ्रेड का इस्तेमाल पहली बार हुआ है. इसीलिए यह रिजर्व बैंक की सुरक्षा में सेंध का मामला बन गया. टास्क फोर्स के अधिकारी बताते हैं कि नकली नोट छापने के लिए भी विशेष रूप से प्रशिक्षित लोगों की जरूरत होती है. कारखाने में 20 कर्मचारी अत्याधुनिक मशीन पर नकली नोट छापते थे. चंद्रशेखर के पास ऐसे 3 प्रशिक्षित कर्मचारी थे, जिन्हें वह मुंबई से ले कर आया था.

चूंकि इस से पहले ऐसा कोई मामला टास्क फोर्स के सामने नहीं आया था इसीलिए टास्क फोर्स ने रिजर्व बैंक के नोट विशेषज्ञों से भी पत्र लिख कर जानना चाहा कि पुराने असली नोट के ‘सिल्वर सिक्योरिटी थ्रेड’ का इस्तेमाल नकली नोटों में कैसे किया जा सकता है? मजेदार बात यह कि रिजर्व बैंक के नोट विशेषज्ञों के लिए भी यह बड़ा चौंकाने वाला मामला था. रिजर्व बैंक के नोट विशेषज्ञों की राय में सिक्योरिटी थ्रेड को निकाल कर फिर से इस्तेमाल करना कोई नामुमकिन बात भी नहीं है. दरअसल, यह सिक्योरिटी थ्रेड चांदी की पन्नी हुआ करती थी. नोट भले ही सड़ जाए, लेकिन चांदी की पन्नी को फिर भी निकाला जा सकता है. रिजर्व बैंक के अनुसार, पन्नी का फिर से इस्तेमाल पूरी तरह से भले ही नहीं किया जा सकता हो लेकिन आंशिक तौर पर किया ही जा सकता है. रिजर्व बैंक ने यह भी माना कि हर रोज कोलकाता के तमाम बैंकों से बड़े पैमाने पर नकली नोट पकड़े जा रहे हैं. जांच में पता चला कि नकली नोट का कारोबार करने वालों में से अब तक किसी ने सिक्योरिटी थे्रड का इस्तेमाल नहीं किया है. नकली नोटों में असली सिक्योरिटी थे्रड का इस्तेमाल इतनी सफाई से किया गया था कि नकली नोटों की शिनाख्त लगभग नामुमकिन ही थी. कोलकाता पुलिस के इतिहास में नकली नोट का इतना बड़ा कारोबार इस से पहले कभी नहीं पकड़ा गया था. जब इस मामले का खुलासा हुआ तो सब से पहले मध्य कोलकाता के बड़ा बाजार में आतंक का माहौल देखा गया. रुपए का लेनदेन मुश्किल हो गया. गौरतलब है कि बड़ाबाजार के थोक कारोबार का एक बड़ा हिस्सा नकदी में चलता है. जांच कर रही टास्क फोर्स का कहना है कि बैंकों के जरिए नकली नोट कोे लंबे समय तक चलाते जाना इतना भी सहज नहीं है. नकली नोट का कारोबार थोक बाजार में अधिक होता है, क्योंकि थोक बाजार से ये नोट आसानी से बैंकों तक पहुंच जाते हैं.

पुराने नोट का निबटारा

रिजर्व बैंक के एक अधिकारी ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि पहले रिजर्व बैंक द्वारा पुराने, फटे, सड़ेगले नोटों को एक तय समय के बाद जला कर नष्ट कर दिया जाता था. इस के बाद कुछ वर्ष पहले पुराने नोटों को नीलाम करने का चलन शुरू हुआ. इस के लिए पहले पेपर कटर मशीन में डाल कर उस के टुकड़ेटुकड़े करना जरूरी है. इस के बाद ही इन्हें नीलाम किया जा सकता है. नियमानुसार इन स्क्रैप नोटों को कटर मशीन में डाल कर इन में रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर समेत नोटों में वाटर मार्क और सिक्योरिटी थ्रेड वाले हिस्से कुछ इस तरह नष्ट करना जरूरी है, ताकि उन का फिर से इस्तेमाल न किया जा सके.

टास्क फोर्स अधिकारी अमित जावलगी ने बताया कि रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर, वाटर मार्क और सिक्योरिटी थ्रेड नष्ट करने के बाद ही सड़ेगले, पुराने नोटों की नीलामी होती है. नीलामी में रिजर्व बैंक में पंजीकृत कंपनी ही भाग ले सकती है. पंजीकृत कंपनी ही रिजर्व बैंक का ठेकेदार कहलाती है. ठेकेदार कंपनी इन सड़ेगले नोटों का व्यवहार अपने तरीके से कर सकती है. पर पुराने नोट का ठेकेदार कंपनी कुछ भी करे, उस का पूरा दायित्व ठेकेदार कंपनी का होता है. लेकिन नियमानुसार रिजर्व बैंक से प्राप्त सड़ेगले नोट ठेकेदार कंपनी के मारफत किसी भी सूरत में बाहरी लोगों के हाथों तक पहुंचना गैरकानूनी है. रिजर्व बैंक के ऐसे ही एक ठेकेदार की मारफत चंद्रशेखर असली नोट का सिक्योरिटी थे्रड हासिल किया करता था. नीलामी से प्राप्त असली नोट से सिक्योरिटी थे्रड को निकाल कर उस का इस्तेमाल बड़ी सफाई से नकली नोटों में किया जाता था. यही कारण है कि कभीकभी असलीनकली नोट की परखने वाली मशीन भी गच्चा खा जाया करती है.

बहरहाल, ठेकेदार की शिनाख्त हो चुकी है और उस से पूछताछ में पता चला कि सिक्योरिटी थे्रड प्राप्त करने के लिए चंद्रशेखर पुराने नोट खरीदने में उस के मूल्य से दोगुना पैसा खर्च किया करता था. 50 हजार रुपए से भी कम कीमत के सड़ेगले खस्ताहाल नोटों को चंद्रशेखर 1 लाख रुपए में खरीद लेता था. कारखाने में नकली नोटों पर यह सिल्वर थ्रेड बिठा दिया जाता था. टास्क फोर्स के अधिकारी का कहना है कि इस से पहले पश्चिम बंगाल में जो भी नकली नोट बरामद हुए हैं, उन में से ज्यादातर पाकिस्तान व बंगलादेश में छपे थे. पाकिस्तान में छपे नोट असली नोट के काफी करीब हुआ करते हैं. डोमजुड़ से बरामद हुए नकली नोट असली भारतीय नोट के करीब तो नहीं, लेकिन पाकिस्तान में तैयार किए गए भारतीय नोट के ज्यादा करीब थे.

छोटे नोटों की किल्लत

जांच में जो तथ्य निकल कर सामने आया है वह यह कि छोटे नोटों की किल्लत के बीच नकली बड़े नोटों का बाजार चलता है. गौरतलब है कि कोई भी राज्य क्यों न हो, हर राज्य के बड़े शहरों से ले कर गांवदेहात और कसबे में 20 और 50 रुपए के नोटों की किल्लत आम है. वहीं, ज्यादातर एटीएम में 100, 500 और 1000 रुपए के ही नोट मिलते हैं. दरअसल, बड़े नोटों का छुट्टा 50-100 रुपए की खरीदारी में आसानी से हो जाता है. ये नोट दुकानदार की मारफत हाथोंहाथ हर जगह पहुंच जाते हैं.

जहां तक छोटे नोटों की किल्लत का सवाल है, राष्ट्रीयकृत बैंक सारा दोष यह कह कर रिजर्व बैंक के मत्थे मढ़ देते हैं कि वहां से पर्याप्त मात्रा में छोटे नोट नहीं आते. एक अधिकारी का कहना है कि शालबनी, देवास और नासिक से नोट रिजर्व बैंक की विभिन्न शाखाओं में पहुंचते हैं. नोट का शालबनी कारखाना रिजर्व बैंक के अधीन है, लेकिन देवास और नासिक के कारखानों पर मालिकाना हक केंद्रीय वित्त मंत्रालय का है. रिजर्व बैंक की किसी शाखा को किस डिनौमिनेशन यानी किस मूल्य का कितना नोट भेजा जाए, वित्त वर्ष की शुरुआत में ही यह मुंबई स्थित रिजर्व बैंक के मुख्यालय में तय हो जाता है.

अब इस बारे में रिजर्व बैंक के एक सूत्र का कहना है कि 50 और 20 रुपए के नोट की किल्लत के कई कारण हैं. इन का आवंटन 10 रुपए, 100 रुपए, 500 रुपए और 1000 रुपए के नोट की तुलना में महज 10 से 20 प्रतिशत होने के कारण इन की किल्लत बनी रहती है. साल के दौरान समयसमय पर 20 और 50 रुपए का संकट बना रहता है. लेकिन इस तरह की किल्लत की समस्या हर वित्त वर्ष के अंत में अधिक देखी जाती है. इस की वजह यह है कि जिस तरह के कागज में 20 और 50 रुपए के नोटों की छपाई होती है, उस के आयात में कभीकभी दिक्कत पेश आती है.

वहीं एटीएम में 100 रुपए का नोट न मिलने के बारे में आईसीआईसीआई बैंक के एक अधिकारी का कहना है कि किसी एटीएम में रुपए स्टोर करने की जो जगह है उस में एक बार में अधिकतम 50 लाख रुपए से अधिक नहीं डाले जा सकते. अब अगर मशीन में 100 रुपए के नोट डाले जाएं तो 50 लाख रुपए से कम राशि ही डाली जा सकेगी. यही कारण है कि ज्यादातर एटीएम में 500 और 1000 रुपए के ही नोट डाले जाते हैं. 100 रुपए के नोट भी एटीएम में डाले जाते हैं लेकिन कम संख्या में. साफ है, इन्हीं स्थितियों का लाभ उठा कर नकली नोटों का कारोबार फलताफूलता है.

यात्री सुरक्षा के लिए ओला की पहल

टैक्सी सेवा प्रदाता कंपनियां पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों में टैक्सी ड्राइवरों की आपराधिक वारदात के कारण चर्चा में रही हैं. दिल्ली के लोगों के लिए, खासकर महिला सुरक्षा के लिए टैक्सियों का सफर खतरनाक सेवा के रूप में सामने आया था. टैक्सियों में छेड़छाड़ की घटनाओं के बढ़ने से टैक्सी महिलाओं के लिए अत्यधिक असुरक्षित सेवा मानी जाने लगी थी लेकिन ओला जैसी कंपनियों ने अपनी सेवाओं में तरहतरह के तकनीकी सुधार कर के ग्राहकों का भरोसा जीतने का प्रयास किया था. इस क्रम में टैक्सी सेवा प्रदाता ओला ने 2 करोड़ डौलर खर्च कर टैक्सी सेवा में सुरक्षा व्यवस्था को बढ़ाने का फैसला किया.

इस निधि का इस्तेमाल ओला टैक्सी द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के उपाय पर खर्च किया जाएगा. यात्री सुरक्षा के लिए ओला टैक्सी के ड्राइवर के मोबाइल पर सब से पहले ऐसा मास्क लगाया जाएगा कि टैक्सी ड्राइवर ग्राहक से बात तो कर सकेगा लेकिन उसे ग्राहक का मोबाइल नंबर नहीं दिखाई देगा. उस से अपराधी अथवा शातिर ड्राइवर मोबाइल नंबर का इस्तेमाल आपराधिक वारदात के लिए नहीं कर सकेगा और न ही वह ऐसी प्रकृति के किसी अपराधी को ग्राहक का मोबाइल नंबर दे सकेगा. कंपनी का कहना है कि इस से ग्राहक की निजता की सुरक्षा के संरक्षण के साथ ही ड्राइवर पर बराबर नजर भी रखी जा सकेगी. ड्राइवर की बातचीत और उस के व्यवहार पर ओला प्रशासन की नजर होगी और साथ ही, ड्राइवर की मोबाइल कौल पर खर्च होने वाले पैसे को भी बचाया जा सकेगा. कंपनी का कहना है कि उसे अगले वर्ष मार्च तक टैक्सी सेवा में सुधार के लिए 2 करोड़ डौलर यानी करीब 135 करोड़ रुपए खर्च करने हैं.

 

लिव इन पार्टनर्स

अदालतें और सरकार लिव इन पार्टनरों को शादीशुदा सा स्तर देने में लगी हैं. अगर 2-4 साल साथ रह चुके जोडे़ में से औरत अदालत का दरवाजा खटखटाती है कि उसे गुजारा भत्ता दिया जाए तो अदालतें विवाह न होने पर भी औरत को गुजारे के लिए पैसे देने को पुरुष को मजबूर करने लगी हैं. यह दोतरफा हथियार है. अच्छा है कि औरत को कोई पुरुष कई साल तक इस्तेमाल करने के बाद धक्के दे कर घर से यों ही निकाल नहीं सकता. पुरुष को अपने काम के अंजाम के प्रति सतर्क रहना होगा. लिव इन पार्टनर के साथ रहने का खमियाजा भुगतने का डर उसे बहुत से समझौते करने को मजबूर करेगा. वहीं, यह औरतों के लिए भी घातक है. बहुत से सक्षम पुरुष औरतों को घर में पनाह दे देते हैं. उन्हें बिना विवाह की औपचारिकताओं और बंधनों के कोई सहयोगी मिल जाता है. लाखों अकेली रहती अविवाहिताओं, परित्यक्ताओं, तलाकशुदाओं और विधवाओं के लिए यह वरदान है कि कोई साथी उन्हें मिल रहा है जो लगभग बराबरी का सा दरजा दे रहा है. लेकिन पुरुष अब औरतों को पनाह देने में सावधानी बरतेंगे.

अकेलापन और आर्थिक तंगी कितना परेशान करती है, यह भुक्तभोगी महिलाएं ही जान सकती हैं. अकेली औरत को धन मिलना कठिन होता है और उन्हें राक्षसरूपी पुरुषों की लोलुप नजरों से बचना भी कठिन होता है. बच्चों वाली अकेली औरतें भी, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद, अपने अकेलेपन से भयभीत हो जाती हैं. एक पुरुष जो कानूनन चाहे पति न हो, किसी पत्नी का पति हो, अगर साथ रहने लगे तो जीवन के ठूंठ में 2-4 हरे पत्ते झलकने लगते हैं. पर अगर अदालतों और सरकार ने उन पुरुषों पर जबरन कुछ जिम्मेदारियां लादीं तो यह प्यार का और सहज समझौते का संबंध एक बंधन बन जाएगा और शुरू के दिनों में ही छोटा सा विवाद भी अलग रहने को मजबूर कर सकता है. एक नया साथी ढूंढ़ना और उस का मनमाफिक होना आसान नहीं होता. अच्छा यही रहेगा कि लिव इन पार्टनर्स पर कोई जबरदस्ती न लादी जाए. ज्यादा से ज्यादा सरकार मैत्री करार के तरह का लिव इन पार्टनर को थर्ड पार्टी यानी बच्चों, मातापिता, भाईबहन, इंश्योरैंस कंपनी, पुलिस, अस्पताल आदि के मामलों में कुछ हक बनाने को दे दे, एक प्रगाढ़ मित्र की तरह के. वरना लिव इन पार्टनर्स को वैसा ही माना जाना चाहिए जैसा 2 रूममेटों को माना जाता है जो एकदूसरे के दुखसुख में साथ देते हैं पर अपना स्वतंत्र जीवन बिताने के हकदार होते हैं.

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