मेरे पति आर्मी में थे और उन का ट्रांसफर अंबाला कर दिया गया. अत: शादी के तुरंत बाद हम अंबाला के लिए रवाना हुए. ट्रेन में हमारा एक सूटकेस चोरी हो गया जिस में पति के सर्विस से संबंधित जरूरी कागजात और पेबुक आदि थे. नई जगह और जेब में पड़े हुए मात्र कुछ रुपए ले कर जैसेतैसे हम अंबाला पहुंचे. वहां रहने के लिए हमें ‘फैमिली क्वार्टर’ मिल गया. किंतु घर खर्च कैसे चले. पेबुक के बिना तनख्वाह भी नहीं मिल पाएगी, यह पति जानते थे. अनजान शहर में किस से मदद मांगी जा सकती थी? हम लोग बहुत ही पसोपेश में थे. पति के सीनियर अफसर को जब यह बात पता चली तो उन्होंने न केवल पैसे बल्कि अन्य जरूरी सामान भेज कर हमारी मदद की और पेबुक बनवाने की कार्यवाही में भरपूर सहायता की. 2 महीने के बाद जब पति की दूसरी पेबुक बन कर आई तब उन्हें वेतन मिला.जब हम ने सीनियर अफसर को उन के रुपए देने चाहे तो उन्होंने लेने से इनकार कर दिया, बोले, ‘‘यदि तुम्हारी जगह मेरा अपना बेटा होता, तो क्या मैं उस से पैसे वापस लेता? तुम दोनों मेरे बेटेबहू समान हो.’’ उन के द्वारा कहे गए ये वाक्य मेरे दिल को छू गए और ऐसा लगा मानो अनजान शहर में हमें हमारे मातापिता मिल गए हों.

संतोष कुलश्रेष्ठ, आगरा (उ.प्र.)

*

बात वर्ष 1953 की है. तब दिल्ली शांत व सुरक्षित शहर था. यमुना नदी पानी से भरपूर थी. सुबह 4-5 बजे स्त्रीपुरुष यमुना नदी में स्नान आदि के लिए चल पड़ते थे. मेरी दादी भी नित्य यमुना स्नान के लिए तोता के घाट पर जाती थीं. उस दिन हमें 6 बज कर 40 मिनट वाली ट्रेन से कहीं जाना था, सो, दादीजी ड्राइवर के साथ 5 बजे ही यमुना चली गईं. नहाते समय वे अचानक यमुना में गिर गईं और उन की हीरे की 3 अंगूठियां न जाने कहां गायब हो गईं. उन का शोर सुन कर कई लोग आए पर किसी की हिम्मत डुबकी लगा कर अंगूठियां निकालने की नहीं हुई. एक लड़के ने डुबकी लगालगा कर आखिरकार तीनों अंगूठियां निकाल दीं. दादी के पास उस समय, समय की भी कमी थी व ज्यादा रुपए भी नहीं थे. उन्होंने उस लड़के से वादा किया कि वे वापस आ कर उस से अवश्य मिलेंगी. वापस आने पर दादी ने उसे इनामस्वरूप सोने की अंगूठी दी.

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