Download App

इन्हें भी आजमाइए

  1. गरमी में फेशियल करवाने से अच्छा है कि आप खूब सारे फल और सब्जियां खाएं. इस से आप को ढेर सारा मिनरल, विटामिन और ऐंटीऔक्सिडैंट मिलेगा, जिन से त्वचा हमेशा स्वस्थ बनी रहेगी.
  2. तोंद कम करने के लिए सोने से पहले खीरे के जूस का सेवन करें. यह काफी लाभदायक होता है और पेट को साफ भी कर देता है. इस के साथ ही यह फैट भी नहीं बढ़ाता है. इस में कैलोरी की मात्रा बहुत कम होती है.  
  3. अवसर के हिसाब से सही ड्रैस का चयन करें. ऐसा न हो आप कुछ अलग दिखने के चक्कर में हंसी के पात्र बनें. आप की ड्रैस बिलकुल आरामदायक होनी चाहिए.
  4. एंटीएजिंग क्रीम केवल महिलाओं के लिए ही नहीं होतीं, पुरुष भी इसे लगा सकते हैं. ऐसी एंटीएजिंग क्रीम लगानी चाहिए जिस में विटामिन ए, सी और ई हों.
  5. वाशिंग मशीन को साफ रखने के लिए थोड़ी सी ब्लीच डाल कर इसे कुछ देर के लिए यों ही चलता छोड़ दें. इस से मशीन में छिपे बैक्टीरिया और वायरस मर जाएंगे.
  6. गंदे और मैले कपड़ों को रोजाना नहीं तो कम से कम 2 दिन में जरूर धो लें. इस से उन में कीटाणु नहीं पनपेंगे.

हाय सफेद बाल

बाल सफेद होने का अब कोई मतलब नहीं रह गया है. पहले सफेद बाल व्यक्तित्व की पहचान हुआ करते थे. बाल सफेद होने पर आदमी को समझदार, शिष्ट तथा गरिमामय माना जाता था. राजा दशरथ ने एक बार कान के पास एक सफेद बाल देखा तो उन्होंने राजपाट छोड़ कर संन्यास की तैयारी कर ली थी. सफेद बालों की ही देन थी कि लोग संन्यासाश्रम एवं वानप्रस्थाश्रम में चले जाया करते थे, लंगोट लगा लेते थे. अब मामला उलटा है. सारे वे काम सफेद बालों के बाद होने लगे हैं जो काले बालों में किए जाते थे. 50 वर्ष की उम्र में भी बाल सफेद हों तो लोग इसे खानपान अथवा तेलादि का विकार मान कर शिष्टता धारण करने को ही तैयार नहीं हैं. उलटे मेहंदी लगा लेंगे, सैलून में डाई करा लेंगे तथा अन्य कई प्रकार के लोशन लगा कर सफेदी को छिपा लेंगे. ज्यादा समझाओ कि भाई, बाल सफेद हो गए, अब तो धैर्य धरो, तो कहेंगे कि बाल सफेद हो गए तो क्या, दिल तो अभी काला है.

यह सही है कि जब तक दिल काला रहेगा, बाल के सफेद होने का कोई अर्थ नहीं रहेगा. पहले के लोग ही मन से साफ होते थे और बाल सफेद होने के बाद तो और भी पावन हो जाया करते थे. घर में मुखिया के बाल ज्यों ही सफेद होने लगे कि वह संजीदगी ओढ़ कर साधु का आचरण करने लगता था. महल्ले के लोग ‘ताऊ’, ‘बाबा’ अथवा ‘बुड्ढा’ मान कर सम्मान दिया करते थे. उस की बात को तवज्जुह दी जाती थी. न्याय करने में ऐसे लोग पहल किया करते थे. उन की न्यायप्रियता प्रसिद्ध होती थी. अब देखिए, सफेद बालों की आड़ में काले कारनामे किए जाते हैं. सारी बेईमानियां इन की आड़ में करने का प्रयास किया जाता है. अब सफेद बालों वाले आदमी से ‘ताऊ’ अथवा ‘बाबा’ कह कर देखिए, उस से पहले उस की पत्नी आप से झगड़ लेगी. तुरंत बाजार जा कर बाल काले करने की दवा ले आएगी और सिर पर मलना शुरू कर देगी. वह नहीं चाहती कि उन पर असमय ह बुढ़ापा थोपा जाए. शरीर से बूढ़े हुए लोग मन से जवान रहने के कारण सफेद बालों की विशिष्टता को नकार रहे हैं. बाल सफेद होने की प्रक्रिया से अकेला पुरुष ही परेशान हो, ऐसा नहीं है, महिलाएं भी इन का नामोनिशान मिटा कर इन की खेती को समूल नष्ट करने की दिशा में जागरूक हैं. जो महिलाएं 40 की उम्र में बुढ़ापे के चिह्न शरीर पर आने पर अपना गौरव समझती थीं, अब देखिए, महिलाएं अपनी षष्टिपूर्ति के बाद भी इस फसल को सिर पर नहीं देखना चाहतीं. वे भी बालों को दवा, मेहंदी अथवा ब्यूटीपार्लर में जा कर काले करा रही हैं. सफेद बालों की यह समस्या दिनोंदिन विकट होती जा रही है. महिलाओं का सामान्यतया इस मामले में तर्क यह है कि यदि वे सफेद बालों को पनपने दें तो पुरुष उन की ओर देखना बंद कर देते हैं. कमोबेश रूप में यही स्थिति पुरुषों की है. वे भी 58 पार कर जाने के बाद भी यही चाहते हैं कि कोई हसीना उन पर भी एक न एक दिन नजर डालेगी, यदि उस समय उन के सिर पर बाल सफेद हुए तो सारा खेल बिगड़ जाएगा. इसलिए वे भी बाल रंग रहे हैं.

अनेक लोगों को देखा है, वे बच्चों से सफेद बाल तुड़वाते रहते हैं. बच्चों का इस से मन भी लग जाता है तथा पुरुषों की समस्या भी हल हो जाती है. परंतु यह व्यवस्था बाल कम संख्या में सफेद हों तब तक ही कामयाब रहती है, बाल सघन रूप से सफेद होने के बाद यदि इस व्यवस्था को जारी रखा जाए तो गंजा होने के अवसर बढ़ जाते हैं. अनेक पत्नियां, पतियों के तथा अनेक पति पत्नियों के सफेद बाल उखाड़ते देखे जा सकते हैं. उन की नजर में बाल सफेद होना बुढ़ापा, थकान और निराशा का प्रतीक है. इसलिए अनेक लोग तो इस के लिए आयुर्वेदिक औषधियों, आंवले तथा अरिष्ट का प्रयोग करते देखे गए हैं. वे अपनी व्यस्त दिनचर्या का अधिकांश समय बालों की चिंता में ही बिताते हैं. कभी कोई चूर्ण फांका तो कभी मेहंदी लगा कर बैठे हैं. उस समय हालत देखिए जब एक पुरुष मेहंदी लगा कर बैठा हो तथा उस पर नजर डालने वाली हसीना आ जाए. उस समय उस के पास ‘अंकल’ का रोल करने के अलावा और क्या चारा रह जाता है.

आजकल स्कूटर आदि पर हैलमेट लगाने का प्रचलन होने से कुछ लोगों को राहत मिली है. हैलमेट में बाल छिपे होने से आदमी को स्वयं ही तसल्ली रहती है कि कोई उस के सफेद बाल नहीं देख पा रहा. लोग हैट, टोप तथा पगड़ी भी शायद इसीलिए बांधते रहे हैं. आजकल देश के 50 प्रतिशत लोग रोज दाढ़ी बनाते हैं. फकत इसलिए कि उन की मूंछों तथा दाढ़ी में उग आए सफेद बालों को कोई देख न ले. अनेक पुरुष ऐसे भी देखे गए हैं जो सो कर उठने के बाद और सोने से पहले दाढ़ी बनाते हैं. आदमी में यह चेतना शायद सफेद बालों ने ही जगाई है. जो लोग मूंछ रखते हैं वे सफेद बालों के प्रादुर्भाव के बाद मूंछ ही साफ कर देते हैं. ऐसी मूंछ किस काम की जो व्यक्ति की पोल खोल दे. पोल छिपाने का जोर है, इसलिए जो भाई लोग मूंछ रखना अनिवार्य समझते हैं वे उन्हें काला कर रहे हैं. वैसे तो बालों का सफेद होना प्राकृतिक एवं शारीरिक देन है परंतु आजकल यह मर्ज रूप में कम उम्र के लोगों में भी देखी जा सकती है. कम उम्र के लोगों पर इन की छाया पड़ने से शादीविवाह तथा प्रेमवे्रम के मामले में अड़चन अथवा असफलता हाथ लगती है. कोई 50 वर्ष की उम्र में भी इन्हें नहीं देखना चाहता. लोग इसे किसी विकार का नाम दे कर उम्र छिपाते हैं. ऐसे लोगों का तर्क यह है कि उन के बाल भले सफेद हो गए हों परंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से पूरी तरह स्वस्थ व सक्षम हैं.

बालों का सफेद होना एक मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसे साइकोट्रीटमैंट की ही जरूरत है. इस में आदमी थोड़ा आत्मनियंत्रण नहीं रखे तो पागलपन तक की नौबत आ सकती है. अनेक लोग इन से त्रस्त हो कर अपना सिर नोंच डालते हैं तथा लहूलुहान हुए क्रोध में दांत पीसते रहते हैं. गोया बाल किसी पड़ोसी ने सफेद कर दिए हैं.  यदि उस की उम्र के ही व्यक्ति के बाल काले हैं तो सफेद बाल वाले व्यक्ति की शंका की पुष्टि होने लगती है तथा वह टोनेटोटके द्वारा उस की शक्ति को क्षीण करने के उपाय भी करता है. धीरेधीरे मनोविकार बढ़ते जाते हैं तथा मैंटल केस के रूप में ‘डैवलप’ होने लगते हैं. आपसी वैमनस्य, कुढ़न, कुंठा, घुटन, त्रासदी तथा आपराधिक भावनाएं परस्पर पनपती हैं तथा वातावरण विषाक्त होने लगता है. सफेद बाल वाले को काले बाल वाला फूटी आंख भी नहीं सुहाता. दिनोंदिन भीषण होती सफेद बालों की यह समस्या अपने समाधान के लिए मुंहबाए खड़ी है. यदि किसी के पास इस का बिना डाई के कोई समाधान हो तो मुझ से मिले, क्योंकि मेरे भी बाल सफेद होने की दिशा में तेजी से पहल कर रहे हैं. आप यह सोचते होंगे कि मैं वानप्रस्थ अथवा संन्यासाश्रम में प्रवेश कर जाऊंगा, यह तो मुझ से संभव है नहीं, बल्कि बाल सफेद होने के बाद तो गृहस्थाश्रम में मेरी रुचि बढ़ गई है, बस, थोड़ा सफेद बालों का मनोवैज्ञानिक दबाव मन पर सदैव बना रहता है. 

सूचना तकनीक

संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर्राष्ट्रीय टैलीकम्युनिकेशन यूनियन आईटीयू की एक रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया है कि साल के आखिर तक 3.2 अरब से ज्यादा लोग औनलाइन हो जाएंगे, जबकि दुनिया की जनसंख्या फिलहाल 7.2 अरब है. साफ है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी सूचना और तकनीक के संक्रमण से गुजर रही है. अगर विश्व की जनसंख्या से नवजात शिशुओं, बुजुर्गों और शारीरिक तौर पर अक्षमों की संख्या हटा दी जाए तो कहना कतई गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया ही इंटरनैट और डिजिटल युग में खो चुकी है. वर्चुअल वर्ल्ड में गोता लगाती इस दुनिया को जरा भी भान नहीं है कि सूचना और तकनीक की ओवरडोज किस तरह तन और मन को अवसाद, तनाव व मानसिक व्याधियों के घेरे में घेर चुकी है. मौजूदा दौर में अगर अपने आसपास के सूचना और तकनीक से घिरे किसी कामकाजी व्यक्ति की दिनचर्या पर बारीकी से गौर फरमाएं तो उस का दिन कुछ यों बीतता है :

सुबह उठते ही सोशल मीडिया यानी फेसबुक, वाट्सऐप, इंस्टाग्राम, टंबलर या ट्विटर पर अपने स्टेटस में गुड मौर्निंग या हैविंग कौफी नाऊ अपडेट कर औफिस जाने की तैयारी होती और नाश्ते की टेबल पर नाश्ते से ज्यादा ध्यान उस टैबलेट या आइपैड पर होता है जिस में ई न्यूज या इंटरटेनमैंट की मुफ्त खुराक परोसी जा रही होती है.

घर से दफ्तर की राह में कानों में इयरफोन लग जाता है. तमाम रास्ते यूट्यूब के वीडियो या आईट्यूंस पर गाने सुनते हुए दफ्तर तक का सफर पूरा होता है.

दफ्तर में दाखिल होते ही पहला काम पीसी यानी कंप्यूटर को स्टार्ट करना होता है. जहां काम की फाइलें जमा करने के साथ सोशल मीडिया की हलचल पर नजर डालने से ले कर जीमेलिंग का खेल शुरू हो जाता है. इसी सूचना और तकनीक की गोद में बैठेबैठे दोचार प्रैजेंटेशन निबटा दिए जाते हैं.

लंचबे्रक होते ही स्मार्ट फोन अपनी स्मार्टनैस दिखाने लगता है. वाट्सऐप चालू हो जाता है और जीभर कर गौसिप, बौस को ले कर बनाए नए जोक्स और वेजनौनवेज चुटकुलों की साझेदारी होने लगती है. इस बीच दोचार फोन भी खटखटा लिए जाते हैं. लंचबे्रक के बाद नजरें फिर कंप्यूटर स्क्रीन पर शाम तक के लिए गड़ जाती हैं.

फ्तर बंद होता है और एक बार फिर स्मार्ट फोन की बैटरी फुल हो जाती है, जिस पर फिर से फेसबुक पर उंगलियां रेंगने लगती हैं. घर पहुंचने तक यह सिलसिला चलता रहता है.

घर पहुंच कर नातेरिश्तेदारों को कौन्फ्रैंस कौल में ले कर या वीडियो चैट लिए लैपटौप की खिड़की खुल जाती है. और जब तक यह खिड़की बंद होती है तब तक सोतेसोते गुडनाइट या स्वीटड्रीम के आखिरी स्टेटस के साथ दिनचर्या खत्म होती है. अगली सुबह फिर वही कहानी चलती है. इस बीच कई लोग ब्लौगिंगश्लौगिंग भी करते हैं. कमोबेश, यही हाल स्कूलकालेज जाते छात्रों और अन्य युवाओं का है.

पहलेपहल आकर्षक सी लगने वाली यह डिजिटल दिनचर्या इतनी सीधी नहीं जितनी दिखती है, बल्कि यह भविष्य के गर्भ में सब के लिए घातक बीज बो रही है. आज के दौर में सब का मन और तन सूचना तकनीक की गिरफ्त में आ चुका है. उस के होने वाले खतरों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चीन में इंटरनैट एडिक्ट के लिए ट्रीटमैंट कैंप चलते हैं. यानी वर्चुअल दुनिया में व्यस्त हो चुके लोग अब मानसिक तौर पर बीमार हो रहे हैं, जिन के इलाज के लिए नएनए कैंप खुल रहे हैं. ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है. भारत का हाल भी कुछ अच्छा नहीं है. दुनियाभर के देशों में इंटरनैट की लत से लोगों को निकालने के लिए स्पैशलिस्ट सैंटर्स होते हैं, वैसे ही भारत में भी खुलने शुरू हो चुके हैं. दिल्ली के एक एनजीओ ‘सैंटर फौर चिल्ड्रैन इन इंटरनैट ऐंड टैक्नोलौजी डिस्ट्रैस’ इंटरनैट की लत से पीडि़त बच्चों की काउंसिलिंग करता है.

यह एनजीओ वर्कशौप, काउंसिलिंग सैशन आदि आयोजित कराता है, जिस में बच्चे अपनी बात कह सकते हैं. बच्चों को साथ बैठा कर इंडोरगेम्स खिलाए जाते हैं. उन्हें इंटरनैट से दूर रखने की कोशिश की जाती है. हताशा का आलम यह है कि दुनियाभर के रिसर्चर्स में यह बहस अभी भी चल रही है कि इंटरनैट एडिक्शन को मैंटल डिसऔर्डर की लिस्ट में रखा जाए या नहीं. यानी सूचना और तकनीक की यह दुनिया आप के तन को न सिर्फ बीमार कर रही है बल्कि मन को पागलपन की हद तक ले जाने पर आमादा भी है. आज युवा पीढ़ी मोबाइल और इंटरनैट के जरिए नैटवर्किंग से निरंतर जुड़े हुए हैं. इस से दैनिक जीवन में व्यस्तता आशातीत रूप से बढ़ गई जो अपनेआप में तनाव का एक बड़ा कारण है. सोचने वाली बात यह है कि इंटरनैट की जिस मैली गंगा में पूरी दुनिया डुबकियां लगाने को बेताब दिखती है वहां काम की जानकारी मिले न मिले मन को भटकाने, बीमार करने वाले तत्त्व बेतहाशा मौजूद हैं. मसलन, 37 प्रतिशत वैब में पौर्न भरा है जबकि 30 हजार वैबसाइट्स रोज हैक होती हैं. इतना ही नहीं, शांति और सुकून के लिए माकूल माने जाने वाले माउंट एवरेस्ट तक हाईस्पीड इंटरनैट की पहुंच हो चुकी है. आलम यह है कि इंटरनैट ट्रैफिक में इंसानों से ज्यादा गूगल बोट और मालवेयर रहते हैं. रोज तकरीबन 1 लाख नए डौट कौम डोमैन रजिस्टर होते हैं. और तो और, चीन में पीसी से ज्यादा मोबाइल इंटरनैट यूजर हैं. ये तमाम आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि आज के दौर में सूचना और तकनीक के माध्यम बुरी तरह से अपनी जड़ें लोगों के तन और मन में जमा चुके हैं.

व्यक्तिगत इस्तेमाल के अलावा समाज को भी सूचना और तकनीक के डंक ने बुरी तरह से घायल किया है. इस की बानगी तब देखने को मिली जब सोशल मीडिया में उड़ी अफवाहों के चलते पूर्वोत्तर के लोग अपनेअपने राज्यों और घरों को भागने पर मजबूर हो गए थे. दंगों तक की नौबत आ गई थी. सूचना तकनीक के क्षेत्र में इन्फौर्मेशन यानी सूचना का अतिशयोक्ति बन कर लोगों के मन में घर होना या राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनना दीपिका पादुकोण के माई चौइस वीडियो, एआईबी रोस्ट या ऐसे ही किसी सनसनीखेज वीडियो के वायरल होने के दौरान देखा जाता है. इस दौरान हर कोई अपना जरूरी काम छोड़ कर मन और तन के साथ इन्हीं सूचनाओं को शेयर करने, कमैंट करने या बहस करने में व्यस्त दिखता है. मन को विक्षिप्त करने वाले डिजिटल वर्ल्ड में गैरसामाजिक व अश्लील सामग्री भी भरी पड़ी है. कुंठित मानसिकता से ग्रस्त लोग जो अश्लील वीडियो, रेप की घटना से संबंधित वीडियो को चटकारे ले कर शेयर करते हैं या फिर पौर्न कंटैंट, एमएमएस अपलोड करते हैं, वे युवाओं तक पहुंच कर उन के मन में सिवा गंदगी के और कुछ नहीं भरते.

इसी कड़ी से बिगड़े युवा साइबर क्राइम की चपेट में उलझते जाते हैं जहां वैबसाइट हैक करना या फिर इंटरनैट पर ठगी जैसी वारदातें सामने आती हैं. सैकड़ों युवा तो औनलाइन संसार में आशिकी के चक्कर में सिर्फ धोखा ही खाते हैं. कोई फर्जी आईडी बना कर फेसबुकिया प्यार में इन्हें उलझा कर इन का तन, मन और धन सब लूट लेता है तो कोई इस सूचना तकनीक का दुरुपयोग कर आतंकी वारदातों को अंजाम देने से नहीं चूकता. तन और मन को घेरती सूचना और तकनीक के इन पहलुओं को आइए जरा विस्तार से समझते हैं.

मशीन पढ़ लेगी मन को

कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि उन्होंने 1 साल पहले ऐसी मशीन बना ली है जिस के जरिए किसी के जटिल से जटिल मन की बात को पढ़ पाना संभव होगा. और इस मशीन के जरिए पकड़े गए अपराधियों व आतंकवादियों के मन को पढ़ पाने में सफलता मिलेगी. यही नहीं आतंकी वारदात को अंजाम देने में या आतंकियों को अपने मकसद में कामयाब होने से रोका जा सकेगा, क्योंकि यह मशीन अपराधी प्रवृत्ति के लोगों के मन का खाका बना देती है. न्यूरल इंजीनियरिंग पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया था कि ब्रौडली गे्रग के नेतृत्व में वैज्ञानिकों का एक दल मस्तिष्क द्वारा दिए गए संकेतों को शब्दों में रूपांतरित करने की दिशा में काफी समय से लगा हुआ था, हालांकि उन का मकसद अपराधियों या आतंकियों के मन को पढ़ना नहीं था.दरअसल, इन वैज्ञानिकों ने पक्षाघात के मरीजों, जो बोल पाने या समझ पाने में अक्षम होते हैं, को ध्यान में रख कर इस पर काम शुरू किया था, ताकि उन के मन की बात को समझने में सहूलियत हो. ब्रौडली गे्रग और उन के सहयोगी वैज्ञानिकों  ने अपना ध्यान मस्तिष्क के उस हिस्से पर केंद्रित किया जिस हिस्से में शब्दों का गठन होता है.

वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के उस हिस्से में एक बटननुमा यंत्र लगाया. यह बटन पहले मन से संकेतों को प्राप्त करता है. फिर उन का विश्लेषण कर के उन्हें कंप्यूटर पर भेज देता है. इन संकेतों और इन के विश्लेषणों को कंप्यूटर संरक्षित कर लेता है. बाद में कंप्यूटर अपने तथ्य भंडार से उन संकेतों का मिलान कर सूचित करता है कि मरीज के मन में क्या चल रहा है. रोजेनफील्ड का मानना था कि अगर यह मशीन पहले बन गई होती तो 9/11 जैसी वारदात को रोका जा सकता था. कुछ साल पहले यह मशीन अखबारों की सुर्खियां बनी थी ‘झूठ पकड़ने वाली मशीन’ के नाम से. आम भाषा में यह ‘लाई डिटैक्टर मशीन’ कहलाई.

लेकिन पौलीग्राफ टैस्ट की विश्वसनीयता को ले कर हमेशा से ही सवाल उठाए जाते रहे हैं और अब भी उठ रहे हैं. इस कारण ऐसे टैस्ट के नतीजे को ले कर दुनियाभर में कई शोध हुए और आज भी हो रहे हैं. अब तक के शोध का नतीजा यही सामने आया है कि इस पर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता. लोगों के दिलोदिमाग में घुसपैठ करती सूचना तकनीक जबतब प्रयोगों के दौर से गुजरती रहती है. ज्यादातर मामलों में तकनीक के साइडइफैक्ट इस की उपयोगिता पर भारी पड़ जाते हैं. लिहाजा, अभी हमें इस के नुकसानों से बच कर इसे नियंत्रित करना होगा, वरना इस की मनमरजी हित में नहीं है.

छलावा है फेसबुकिया प्यार

पटना के रहने वाले युवक मनीष और मुंबई में रहने वाली नाबालिग लड़की रीना की दोस्ती फेसबुक के जरिए हुई. चैटिंग होतेहोते फेसबुकिया दोस्ती मुहब्बत में तबदील हो गई. दोनों ने एकदूसरे का मोबाइल नंबर लिया और बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. 6 महीने तक यह सिलसिला चलता रहा. उस के बाद दोनों ने एकदूसरे से फेस टू फेस मिलने का मन बनाया. मनीष रीना से मिलने मुंबई जा पहुंचा. उस के बाद कुछ दिनों तक दोनों के बीच प्यार की गुटरगूं चलती रही और फिर रीना अपने घरवालों को बताए बगैर चुपके से मनीष के साथ पटना चली आई. 4 फरवरी को 14 साल की रीना घर से भागी तो उस के पिता ने अपने स्तर से काफी छानबीन की. रीना का पता नहीं चला. 6 फरवरी को उस के पिता ने मुंबई के कांपली थाना में एफआईआर दर्ज कराई. पुलिस ने रीना के मोबाइल नंबर को सर्विलांस पर डाल दिया. कुछ ही समय के बाद पुलिस को उस का नंबर पटना के बुद्धा कालोनी थाना के आसपास का मिला.

मुंबई पुलिस की टीम पटना पहुंची और रीना को बुद्धा कालोनी के हौस्पीटो इंडिया जांचघर के पास से बरामद कर लिया. पुलिस को देख कर मनीष भागने में कामयाब हो गया. फेसबुक के जरिए दोस्ती गांठने के बाद चैटिंग की शुरुआत होती है और फिर प्यार की पींगें बढ़ने लगती हैं. उस के बाद लड़का और लड़की नई दुनिया बसाने का सपना लिए घर से फरार हो जाते हैं. समाजविज्ञानी हेमंत राव बताते हैं कि फेसबुक का प्यार रेगिस्तान में पानी की धारा होने का भ्रम पैदा करने की तरह ही है. इस छलावे में फंसने वाले को अकसर धोखा ही मिला है. फरेबी बातों के जाल में फंस कर लड़के व लड़कियां अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हैं और अपने परिवार वालों के लिए परेशानियां खड़ी कर रहे हैं.

फेसबुकिया प्रेम के जाल में युवा ही नहीं, शादीशुदा लोग भी फंस रहे हैं. मगध विश्वविद्यालय, पटना के प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं कि फेसबुक पर सैकड़ोंहजारों दोस्त बने होते हैं, जिन में से ज्यादातर लोगों के बारे में तो पता ही नहीं होता है. फेसबुक अकाउंट खोलने पर दर्जनों फ्रैंड रिक्वैस्ट आती हैं और लोग दोस्तों का आंकड़ा बढ़ाने के चक्कर में हर रिक्वैस्ट को स्वीकार कर लेते हैं. फेसबुक पर अकसर लड़कियां और लड़के एकदूसरे का फोटो व प्रोफाइल देख चैटिंग शुरू कर देते हैं. चैटिंग के जाल में जो फंसा, उस की जिंदगी में उथलपुथल होना तय है. कई लोग तो फेसबुक पर अपना फोटो लगाने के बजाय किसी दूसरे का या हीरोहीरोइनों के फोटो लगाते हैं. फर्जी फोटो के झांसे में लड़के और लड़कियां फंस जाते हैं और फिर पहले चैटिंग, उस के बाद लव और आखिरकार धोखा मिलता है.

पारिवारिक मामलों की वकील सीमा सहाय कहती हैं कि आज की भागमभाग जिंदगी में फेसबुक समेत कई सोशल वैबसाइटों ने अपने पांव जमा लिए हैं. युवा ही नहीं, अधेड़ और बुजुर्ग भी इस के मायाजाल में फंसे हुए हैं. फेसबुक के जरिए पनपने वाली मुहब्बत रेगिस्तान की मरीचिका ही साबित होती है. इस से जुड़े अपराध यही साबित करते हैं कि बच्चों और अभिभावकों के बीच तेजी से संवादहीनता बढ़ रही है. प्रोफैसर रीमा राय कहती हैं कि काम में व्यस्त मातापिता अपने बच्चों, उन के रवैयों, उन के दोस्तों, उन के हावभाव, उन की परेशानियों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं.

लड़कियों के नाम से अकाउंट

फेसबुक पर हजारोंलाखों अकाउंट फर्जी नाम और फोटो से बने हुए हैं. इन पर रोक लगाने के लिए फेसबुक समयसमय पर एहतियात बरतती रहती है. पर फर्जी अकाउंट पर रोक नहीं लग सकी है. पटना से सटे बिहटा इलाके का रंजय मिश्रा बताता है कि उस ने सुनीता कुमारी के नाम से फेसबुक पर फर्जी अकाउंट बना रखा है और फोटो किसी महिला मौडल की लगा दी है. वह लड़की बन कर करीब 4 लड़कों के साथ चैटिंग करता है और प्यार व सैक्स की बातें करता है. लड़के खूब मजे ले कर उस के साथ चैटिंग करते हैं. उस ने बताया कि एक दिन एक लड़के ने उस से मोबाइल नंबर मांगा और फोन पर बात करने को कहा. रंजय ने चैटबौक्स में लिखा कि उस के मोबाइल में बैलेंस नहीं है. लड़के ने उस का मोबाइल नंबर मांगा और तुरंत 200 रुपए का रिचार्ज करा दिया. उस के बाद रंजय लड़की की आवाज बना कर उस से बातें करने लगा. उस के बाद रंजय ने बाकी तीनों फेसबुक फ्रैंड के साथ भी यही नुस्खा आजमाया और अपने मोबाइल फोन को रिचार्ज कराया. रंजय बताता है कि उस के मोबाइल में हमेशा हजार दो हजार रुपए का बैलेंस रहता है. इस तरह के न जाने कितने फर्जी अकाउंट फेसबुक पर होंगे और न जाने कौन किस तरह से उस का बेजा इस्तेमाल कर रहा होगा.

मोबाइल नंबर देने से पहले

ऐंटीवायरस और कंटैंट सिक्योरिटी सौल्यूशन प्रदान करने वाले प्रमुख नाम ईस्कैन ने महिलाओं को अपना मोबाइल नंबर कहीं देने से पहले एक बार सोचने के लिए सावधान किया है. आज के डिजिटल युग में हमारे पास बेहद चर्चित क्रौस मोबाइल मैसेजिंग प्लेटफौर्म वाट्सऐप मौजूद है जिस के पास 700 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हैं. पूरी दुनिया में लोग इस के जरिए 3 हजार करोड़ संदेश रोजाना भेजते हैं. फेसबुक द्वारा इस के अधिग्रहण के बाद भी इस मोबाइल मैसेजिंग सेवा का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है और इस के उपयोगकर्ताओं की संख्या ट्विटर के 28.4 करोड़, इंस्टाग्राम के तकरीबन 30 करोड़ और खुद फेसबुक के कुल उपयोगकर्ताओं की संख्या से भी अधिक है.

इस लोकप्रियता ने विभिन्न प्रचार गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया है जो मुख्यरूप से वाट्सऐप उपयोगकर्ताओं को टारगेट करते हैं. वाट्सऐप बल्क मार्केटिंग सर्विस इस ऐप का इस्तेमाल करने वाले सैकड़ोंहजारों यूजर्स को बड़ी संख्या में वाट्सऐप टैक्स्ट/फोटो संदेश भेजने का वादा करती है. इस सर्विस को एक लोकप्रिय प्लेटफौर्म माना जाता है जो उपयोगकर्ताओं को एकदूसरे से संपर्क करने की सुविधा देता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक कंपनियां अपने टारगेट ग्राहक वर्ग तक पहुंचने के लिए इस सेवा को चुनने लगी हैं. लेकिन यहां एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि क्या वाट्सऐप उपयोगकर्ताओं की जानकारी बेचता है? जैन कुम, जिन्होंने ब्रायन एक्टन के साथ मिल कर वाट्सऐप की शुरुआत की, बताते हैं कि यह मैसेजिंग सेवा अपने उपयोगकर्ताओं की काफी कम जानकारी इकट्ठा करती है. यह मुफ्त ऐप उपयोगकर्ता का ईमेल पता नहीं पूछता और न ही इस के लिए कोई वास्तविक साइनअप की जरूरत होती है. अन्य दूसरी चीजें जो वाट्सऐप इकट्ठा नहीं करता है, वे हैं घर का पता, जीपीएस लोकेशन, आप की पसंद और सर्च हिस्ट्री.

सवाल है कि अगर खुद वाट्सऐप अपने उपयोगकर्ताओं की जानकारी इकट्ठा नहीं कर रहा है तो फिर ऐसी कंपनियों को मोबाइल नंबरों का डाटाबेस कहां से मिलता है जिस में लाखों वाट्सऐप उपयोगकर्ताओं के नंबर होते हैं?

इन परिस्थितियों में देते हैं नंबर

हम जरूरत से अधिक अपना मोबाइल नंबर बांटते हैं. जब भी हम कोई फौर्म भर रहे होते हैं तो अपना मोबाइल नंबर देने में नहीं हिचकिचाते, फिर चाहे यह कोई लकी ड्रा हो, एक साइनअप फौर्म हो, कौंटैस्ट एंट्री हो, वारंटी रजिस्ट्रेशन हो या फिर सोशल नैटवर्किंग प्रोफाइल के लिए हो. हम में से कई तो ईमेल के हस्ताक्षर में भी अपना मोबाइल नंबर देते हैं.

हम में से अधिकतर लोग ऐप इंस्टौल करते वक्त उपयोग की शर्तों को स्वीकार कर लेते हैं. मोबाइल उपभोक्ता ‘उपयोग की शर्तें’ पढ़े या समझे बिना ही उन्हें स्वीकार कर लेते हैं.

डेटिंग वैबसाइट्स पर मोबाइल नंबर भी खूब दिए जाते हैं. मोबाइल उपयोगकर्ता डेटिंग और रोमांस वैबसाइट्स पर साइनअप के दौरान आसानी से अपना मोबाइल नंबर दे देते हैं.

सोशल मीडिया साइट्स पर अपने नंबर देने से लोग हिचकिचाते नहीं. सोशल नैटवर्किंग साइट्स उपयोगकर्ताओं के फोन नंबर और ईमेल पते दर्शाती हैं. यह एक अन्य जरिया है जिस से कंपनियों को आप का मोबाइल नंबर हासिल होता है.  

प्रोडक्ट वारंटी कार्ड्स के चलते लोग अपने नंबर औनलाइन दे देते हैं. जब कोई उपभोक्ता किसी नए प्रोडक्ट को खरीदने के लिए औनलाइन रजिस्टर करता है, तो उसे अपना मोबाइल नंबर, नाम, पता और ईमेल दर्ज करना होता है, जिसे बाद में मार्केटिंग कंपनियों और डाटा कलैक्शन ब्रोकर्स को बेचे जाने की संभावना होती है.

यों बरतें सावधानी

कभी भी अपना फोन नंबर बताने के लिए जल्दबाजी न करें. हो सकता है कि सिर्फ आप के ईमेल ऐड्रैस से ही काम चल जाए.

किसी कौन्टैस्ट या लकी ड्रा में रजिस्टर करते वक्त सावधान रहें. वहां दी गई जानकारी और कौंटैस्ट के नियमों को ध्यान से पढ़ें.

वैबसाइट्स पर रजिस्टर करते वक्त सावधान रहें.

स्मार्टफोन पर कोई ऐप डाउनलोड करते वक्त, उस ऐप की प्राइवेसी पौलिसी पढ़ें और ऐप को इंस्टौल करने से पहले उस की सही जानकारी हासिल करें.

इंटरनैट ठगी से बचें

इंटरनैट के बढ़ते प्रचलन के साथ ही एक नए किस्म की ठगी की शुरुआत हुई है, यह है हैकिंग या इंटरनैट ठगी. हैकर्स कंप्यूटर सौफ्टवेयर के अति कुशल ज्ञाता होते हैं जो अति चतुराई से अनधिकृत रूप से कंपनियों, बैंकों या आम लोगों के कंप्यूटर सिस्टम में प्रविष्ट हो कर वहां से महत्त्वपूर्ण जानकारियां चुरा लेते हैं जिन से वे नाजायज लाभ उठाते हैं. इंटरनैट ठग सर्वप्रथम औनलाइन बैंकिंग सुविधा का इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों के औनलाइन बैंकिंग पासवर्ड चुराते हैं. ये पासवर्ड वे गुप्त कोड होते हैं जिन के जरिए किसी भी बैंक खाताधारी के खाते में से पैसे निकाले जा सकते हैं. पासवर्ड चुराने की प्रक्रिया को फिशिंग के नाम से जाना जाता है. जिस तरह एक चतुर मछुआरा पानी में तैरती हुई मछलियों को अपने जाल में फांस लेता है उसी तरह शातिर हैकर्स बड़ी सफाई से इंटरनैट में ट्रांसमिट होते हुए औनलाइन बैंकिंग पासवर्डों का पता लगा लेते हैं. इंटरनैट ठगी के शिकार ज्यादातर वे लोग होते हैं जो साइबर कैफे में इंटरनैट का इस्तेमाल करते हैं. चालाक हैकर्ज साइबर कैफे में जा कर वहां के कंप्यूटरों में अपना सौफ्टवेयर स्थापित कर देते हैं.

आजकल हैकर्स ने पासवर्ड फिश्ंिग के लिए एक अन्य अनूठा तरीका ढूंढ़ निकाला है. वे बैंकों के ग्राहकों को क्रैडिट कार्ड या होमलोन की किसी नई स्कीम के बारे में एक आकर्षक ईमेल भेजते हैं. ईमेल पढ़ने वाले को ऐसा लगता है कि यह ईमेल उस के बैंक ने ही भेजा है क्योंकि उस में उस के बैंक के लोगो की हूबहू नकल होती है. इस स्कीम के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए ग्राहक को जवाबी ईमेल भेजना होता है जिस में उसे अपना औनलाइन बैंकिंग पासवर्ड भी देना होता है. इस ईमेल का जवाब देते ही ग्राहक हैकर के शिकंजे में फंस जाता है क्योंकि उस का यह जवाबी ईमेल उस के बैंक को न जा कर हैकर की किसी जाली इंटरनैट साइट पर जा पहुंचता है. चूंकि इंटरनैट ठगी का खुलासा होने से बैंकों की औनलाइन सुविधाओं की पासवर्ड सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न खड़े हो सकते हैं, इसलिए हैकिंग के कई मामलों में बैंक अधिकारी अपने ग्राहकों को हरजाने के तौर पर थोड़ेबहुत पैसे दे कर मामले को रफादफा करा देते हैं. वैसे भी, अभी तक इंटरनैट अपराधियों को दंड देने के लिए हमारे देश में कोई विशेष कानून नहीं बना है. इस का लाभ इंटरनैट ठग उठा रहे हैं और बखूबी पनप रहे हैं.

साइबर अपराध

सूचना व तकनीक का एक बड़ा खमियाजा साइबर क्राइम के रूप में आया है. साइबर अपराध की घटनाएं दिनबदिन बढ़ रही हैं. तथ्यों की चोरी ही नहीं, इन के बेजा इस्तेमाल की भी कई घटनाएं इन दिनों घट रही हैं. अभी कुछ साल पहले की घटना है. एक साइबर क्रिमिनल संजय केडिया को साइबर अपराध के तहत गिरफ्तार किया गया था. यही संजय केडिया कभी दिल्ली आईआईटी का मेधावी स्टूडैंट रहा था. लेकिन पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने कोलकाता के साल्टलेक के सैक्टर-5 में अपना औफिस खोला. इस औफिस से वह 29 अमेरिकी दवा संस्थाओं के लिए आउटसोर्सिंग किया करता था. अमेरिकी दवा कंपनी के साथ कुछ दिन काम करने के बाद डाक्टरों के मार्फत फर्जी प्रेस्क्रिप्शन यानी पर्ची बनवा कर इंटरनैट के जरिए अमेरिका और यूरोप के खरीदारों को निषेध दवाओं को बेचा करता था. संजय केडिया सैक्टर-5, कोलकाता के औफिस से हर रोज लगभग 5 लाख डौलर का कारोबार किया करता था. 2007 में अमेरिकी ड्रग एन्फोर्समैंट विभाग से कोलकाता पुलिस को मिली खबर के आधार पर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने संजय को गिरफ्तार किया.

इसी तरह तथ्यों की चोरी और उन का बेजा इस्तेमाल भी देखनेसुनने में आता है. अमेरिका और यूरोप के अनगिनत लोगों के क्रैडिट कार्ड के नंबर और लोगों के आर्थिक लेनदेन के तमाम तथ्य चुरा कर उन के पैसे ले उड़ने की खबरें अब भारत में भी आम हो गई हैं. इस के अलावा विभिन्न बैंकों व विश्वविद्यालयों की वैबसाइटों को हैक करना भी देखा गया. नैट के जरिए हासिल गुप्त संकेतों से आतंकी आपस में सुरक्षित संपर्क बनाए रख कर भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सालों पहले देशभर के पुलिस और खुफिया विभाग के लिए सूचना तकनीक आधारित अपराध दमन का प्रशिक्षण देने के लिए एक योजना तैयार की थी, लेकिन यह कितनी कारगर है, बताने की जरूरत नहीं.

कंप्यूटर के अनदेखे खतरे

हम काफी हद तक अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में कंप्यूटर पर निर्भर हो चुके हैं, चाहे वह ट्रेन टिकट, हवाई टिकट या किसी नई पिक्चर की टिकट बुकिंग, देशविदेश की ताजा जानकारी हासिल करना, नएनए उत्पादों की जानकारी निकालना, पुराने दोस्तों को ढूंढ़ना अथवा वर्तमान मित्रों से बातचीत करना हो. इंटरनैट ने जहां हमारी जिंदगी को नए आयाम दिए हैं वहीं उस ने कई साइबर खतरों को जन्म भी दिया है. मुंबई का 27/11 का केस भी इंटरनैट टैक्नोलौजी की ही देन है. कई आपराधिक मामलों में सोशल नैटवर्किंग साइट्स का भरपूर उपयोग किया जाता है. कई साइट्स स्पैम मेल द्वारा हमारी ईमेल आईडी व पासवर्ड हैक कर के उन का दुरुपयोग किया जा सकता है. कई बार आप ने सुना होगा कि अपराधी किसी गलत आईडी से डराने वाला मेल करते हैं व बेगुनाह लोग फंस जाते हैं. आज आवश्यकता है हमें जागरूक होने की तथा इन अनजानेअनदेखे खतरों से बचाव करने की.

कंप्यूटर वायरस आमतौर पर 3 तरीकों से फैल सकता है. रिमूवेबल मीडिया से, इंटरनैट डाउनलोड से और ईमेल अनुलग्नकों से. कुछ वायरस हमें दोस्तों द्वारा भेजे गए ईमेल से होते हैं और कुछ अनजान स्रोतों से. परंतु जैसे ही हम इसे खोलते हैं, वायरस कंप्यूटर के अंदर घर कर लेता है. वायरस अकसर कंप्यूटर के अनियमित व्यवहार का कारण होते हैं, जैसे स्क्रीन गायब होना, गति धीमी होना, स्माइली चेहरा आना, फाइलों का डुप्लीकेट होना या कंप्यूटर क्रैश होना आदि. कुछ वायरस सिस्टम में निष्क्रिय स्थिति में रहते हैं और एक निश्चित तिथि को अटैक करते हैं. कुछ स्थितियों में कंप्यूटर काम के बीच में ही क्रैश हो सकता है या काफी समय के लिए फ्रीज हो जाता है.

स्पायवेयर एक ऐसा खतरनाक प्रोग्राम है जो प्रयोगकर्ता के जाने बिना कंप्यूटर से महत्त्वपूर्ण सूचना एकत्रित कर लेता है, जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा कुछ व्यक्तिगत कारणों से विजिट किया गया वैबपेज, उस में प्रयुक्त की गई जानकारी, क्रैडिट कार्ड नंबर, पासवर्ड इत्यादि. व्यक्तिगत जानकारी का चोरी होना किसी के लिए भी एक वास्तविक चिंता का कारण हो सकता है. उस का दुरुपयोग किया जा सकता है. स्पैममेल यानी अवांछित ईमेल अकसर किसी संदिग्ध वित्तीय या यौन प्रकृति के उत्पादों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पोस्ट किए जाते हैं. इस से बचने के लिए आप कभी भी संदिग्ध वैबसाइटों और इंटरनैट बुलेटिन बोर्ड पर अपना ईमेल पता न दें. कई बार आप ने कोई ऐसा ईमेल देखा होगा जिस में आप के लिए किसी बड़े धनसंबंधी इनाम या किसी लौटरी का संदेश होता है. ऐसे मेल को खोलना काफी खतरनाक हो सकता है क्योंकि जब आप ऐसे मेल को खोलते हैं तो आप को कुछ व्यक्तिगत जानकारी देनी होती है जो किसी अनजाने व्यक्ति द्वारा आप को परेशान करने के लिए उपयोग में लाई जा सकती है.

फिश्ंिग तकनीक भी आजकल इंटरनैट व ई-बैंकिंग का प्रयोग करने वालों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है. इस तकनीक में आप को बहुत ही विश्वसनीय स्रोतों, जैसे कि इ-बे या आप का बैंक भी हो सकता है, से आप के बैंक अकाउंट का विवरण जांचने के लिए ईमेल प्राप्त हो सकता है. ये जानकारियां दिखने में वास्तविक लगती हैं परंतु ये सब उपयोगकर्ता का नाम व पासवर्ड जानने के लिए करते हैं. इस से बचने के लिए आप दिए गए सीधे लिंक पर न जा कर ब्राउजर की नई विंडो खोलें. पौर्नोग्राफी बच्चों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है. इस के लिए जब आप के बच्चे औनलाइन हों तो उन पर नजर रखें कि वे होमवर्क या पढ़ाई से संबंधित सर्च कर रहे हैं या कोई अवैध साइट अथवा पौर्नोग्राफी तो नहीं देख रहे हैं. कई बार ऐसे वैबपेज, कुछ सर्च करते समय किसी विज्ञापन की तरह भी आ सकते हैं जिन्हें ऐडवेयर कहते हैं.इन सब से बचने के लिए आप उन के वैबपेज ऐक्सैस को ब्लौक कर सकते हैं या किसी सर्विलांस टूल का उपयोग कर सकते हैं. आप बच्चों को सेफ सर्च सिखाएं व किसी अनजान व्यक्ति से चैट न करने के लिए समझाएं. 

खतरों से बचने के लिए आप निम्नलिखित उपायों को अपना सकते हैं :

एक विश्वसनीय एंटीवायरस प्रोग्राम इंस्टौल करें : जिस क्षण से आप कंप्यूटर चालू करते हैं उसी क्षण से आप के सिस्टम में विश्वसनीय एंटीवायरस होना चाहिए. चाहे आप का कंप्यूटर इंटरनैट से जुड़ा हो या नहीं, एक कम लागत वाला विश्वसनीय एंटीवायरस मशीन के लिए वरदान है. इंटरनैट पर कई फ्री डाउनलोडेबल एंटीवायरस उपलब्ध हैं, जो आप के कंप्यूटर को वायरस से बखूबी बचा सकते हैं. एंटी मैलवेयर व एंटी स्पायवेयर स्थापित करें : मैलवेयर से तात्पर्य ऐसे सौफ्टवेयर से है जो कि कंप्यूटर को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस के मुख्य उदाहरण वायरस, वार्म, ट्रोजन होर्स व स्पायवेयर हैं. इंटरनैट पर कई उच्च क्वालिटी के एंटीस्पायवेयर मुफ्त उपलब्ध हैं.

संदिग्ध वैबसाइटों से बचें : वायरस सब से ज्यादा इंटरनैट से फैलता है. जब भी आप किसी हानिकारक वैबसाइट को विजिट या सौफ्टवेयर डाउनलोड करने का प्रयास करते हैं तो एक अच्छा एंटीवायरस आप को चेतावनी देता है. सो, अगर आप को कभी भी ऐसी चेतावनी मिले तो ऐक्शन को रोक दें वरना आप मुश्किल में पड़ सकते हैं.

अपने डाउनलोड्स पर नजर रखें : इंटरनैट का सब से मजेदार पहलू गाने, फिल्में व अन्य मनोरंजक सामग्री डाउनलोड करना है. चूंकि ये साइट्स काफी भारी होती हैं, सो वायरस चुपके से इन के साथ आ जाता है. इसलिए आप या तो इन्हें किसी विश्वसनीय साइट से डाउनलोड करें अथवा खोलने से पहले स्कैन करें.

फायरवौल इंस्टौल करें : फायरवौल एक ऐसा प्रोग्राम है जो इंटरनैट व नैटवर्क टै्रफिक को कंट्रोल करने के साथसाथ किसी भी अनधिकृत पहुंच से भी कंप्यूटर को बचाता है.

स्कैन करें : पैनड्राइव व अन्य बाहरी मीडिया को प्रयोग करने से पहले स्कैन अवश्य करें.

उपयुक्त उपायों से अपने कीमती कंप्यूटर को सुरक्षित रख सकते हैं. अगर आप कोई अच्छा व सस्ता एंटीवायरस लेना चाहते हैं तो कोई भी मल्टीयूजर पैक ले सकते हैं. इसे एक से ज्यादा लोग मिल कर लाइसैंस फी के साथ एक तय अवधि के लिए प्रयोग कर सकते हैं. भारत में 60-70 के दशक में क्रांति के तौर पर शुरू हुई सूचना तकनीक अपने परिपक्वता की अवस्था तक आतेआते देशदुनिया का तन और मन इस कदर बीमार कर देगी, किस ने सोचा था. भले ही सूचना तकनीक के आने से आधुनिक युग में विकास को गति प्राप्त हुई, जो अब मानव जीवन का एक आवश्यक हिस्सा भी बन चुकी है, लेकिन यह एक पैन्डोरा बौक्स की तरह तमाम बुराइयों व बीमारियों को कैद कर खुद में समाती जा रही है. जाहिर है इस बौक्स के खुलने से होने वाले नुकसान बेहद गंभीर होंगे. 2008 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए बराक ओबामा, जब अमेरिका घोर मंदी से जूझ रहा था, ने अमेरिका को ले कर अपने देश के आईटी महारथियों को खुले शब्दों में एक मंच से चेतावनी देते हुए कहा था, ‘आप लोग चेत जाइए नहीं तो बेंगलुरु आप से आगे निकल जाएगा.’

दरअसल, उस दौरान भारत की सौफ्टवेयर कंपनियां बड़ी तेज रफ्तार से दुनिया के आईटी मार्केट में सिलिकौन वैली के वर्चस्व को चुनौती दे रही थीं. ओबामा की उस चेतावनी पर अब तक हम गाहेबगाहे काफी खुश होते रहते हैं लेकिन जिस तरह से डिजिटल दुनिया ने हमें अपनी गिरफ्त में फंसाया है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि हम अपने ही बनाए हथियार के शिकार होते जा रहे हैं. इसलिए अब चेतने की बारी अमेरिका की नहीं, बल्कि हमारी है. अभी भी देर नहीं हुई है. सूचना और तकनीक के इस बवंडर को सूनामी बनने से पहले ही काबू किया जा सकता है वरना सूचना और तकनीक से लैस स्मार्ट फोन्स की यह डिजिटल दुनिया आदमी से दुनिया का सब से स्मार्ट प्रजाति होने का तमगा छीनने में जरा भी देर नहीं लगाएगी.

– राजेश कुमार के साथ बीरेंद्र बरियार ज्योति, साधना शाह, चांदनी अग्रवाल, मनोज सूद

नेताओं की हकीकत समझने लगे हैं मुसलिम

जनता दल राष्ट्रवादी के राष्ट्रीय संयोजक अशफाक रहमान का मानना है कि देश में हिंदू और मुसलमान के बीच विवाद राजनीतिक दलों के द्वारा पैदा किए जाते हैं. विवाद की आग में राजनेता राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे हैं. आज सभी राष्ट्रीय और इलाकाई दल मुसलमानों व दलितों का शोषण कर राजनीति कर रहे हैं. सैकड़ों सालों तक राजाओं, सामंतों और जमींदारों ने दलितों व मुसलमानों को चूसा और वही काम आज राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं. वे कहते हैं कि कुछ सालों तक उन्होंने समता पार्टी से जुड़ कर राजनीतिक बदलाव की कोशिश की पर उन्हें लगा कि वे किसी दूसरे दल में रह कर अपनी सोच को जमीन पर नहीं उतार सकेंगे. तब साल 2013 में उन्होंने अपनी नई पार्टी जनता दल राष्ट्रवादी का गठन किया. इस साल होने वाले बिहार के विधानसभा चुनाव में वे 100 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की तैयारियों में लगे हैं. पेश हैं उन से हुई बातचीत के अंश :

आप की नई पार्टी नीतीशलालू के महागठबंधन को किस तरह चुनौती देगी क्योंकि दोनों ही दलितों और अल्पसंख्यकों के मसीहा माने जाते हैं? हम जनता के बीच जा कर बता रहे हैं कि 15 साल तक लालू और 10 साल तक नीतीश ने दलितों व अल्पसंख्यकों को बरगलाने का काम किया है. इन समुदायों के हित को ध्यान में रख कर और उन में राजनीतिक चेतना जगाने के मकसद से ही हम ने पार्टी बनाई. हमारा नारा है कि हर जाति और वर्ग को उस की आबादी के हिसाब से सत्ता में भागीदारी मिले.

कारोबारी से अचानक राजनेता बनने का मकसद क्या है?

राजनीति मेरे लिए नया मैदान नहीं है. 1990 से 1995 तक बिहार की राजनीति में रहा और सब से पहले मुसलमानों को आरक्षण देने की बात मैं ने ही उठाई थी. उस समय समता पार्टी से जुड़ा रहा और बिहार स्टेट मुसलिम कौन्फ्रेंस का प्रधान महासचिव भी रहा. चुनाव भी लड़ा पर कामयाबी नहीं मिल सकी. राजनीतिक दलों की मौकापरस्ती और जनता को धोखा देने वाली नीयत को देख कर राजनीति से मन उचट गया था. राजनीति से कई साल तक कटा रहा पर हमेशा मुसलमानों व दलितों की बदतर हालत को देख कर कोफ्त होती थी, इसलिए नए सिरे से कमर कस कर राजनीति में उतरा हूं.

आप की नजर में राजनीति क्या है?

राजनीति मिलबांट कर जनता की मेहनत की कमाई को खाने का धंधा बन कर रह गई है, जबकि इस का असली मकसद जनता की सेवा करना है. बिहार की राजनीति की ही बात करें तो यहां कांगे्रस के विरोध में लालू यादव का जन्म हुआ. लालू राज का विरोध कर नीतीश कुमार का उदय हुआ. इन तीनों दलों की लूटखसोट की नीति ने भाजपा को पांव जमाने का मौका दिया. आज कांगे्रस, लालू और नीतीश एकसाथ हो गए हैं, यह स्वार्थ की राजनीति नहीं तो क्या है? चुनाव का बिगुल बजते ही हर दल मुसलमानों को रिझाने और खुद को सब से बड़ा सैक्युलर साबित करने की कोशिश में लग जाता है. ऐसा क्यों होता है?

राजनीतिक दलों की नजर में सैक्युलरिज्म का मतलब धोखे से मुसलमानों का वोट लेना ही रह गया है. देश का हर दल मुसलमानों का वोट पाने के लिए ढोंग रच रहा है. मुसलिम टोपी पहन कर और मजारों पर चादर चढ़ा कर हर दल के नेता खुद को मुसलमानों का सच्चा हितैषी साबित करने में लगे हुए हैं, जबकि उन की साजिश है कि मुसलमानों और दलितों को अनपढ़ व जाहिल बना कर रखा जाए. चुनाव आते ही हर छोटेबड़े दल के नेताओं में टोपी पहनने और मजार पर चादर चढ़ाने की होड़ मच जाती है. नेताओं के असली चेहरे को मुसलमान अब समझने लगा है. 

लालू, नीतीश और मुलायम के गठबंधन को मुसलमानों का वोट मिलेगा?

इन नेताओं ने मुसलमानों की तरक्की के लिए कभी कुछ नहीं किया. लालू के राज में मुसलमान नेता की पहचान ‘कबाब मंत्री’ और ‘शराब मंत्री’ के तौर पर ही की जाती थी. नेताओं ने मुसलमानों को अपना पिट्ठू बना कर ही रखा है. नीतीश ने एक मुसलमान मंत्री को इसलिए हटा दिया क्योंकि उन्होंने एक्साइज घोटाले का भंडाफोड़ कर दिया था. फारबिसगंज उपद्रव के दौरान अल्पसंख्यक की लाश पर चढ़ कर नाचने वाले सिपाही को आज तक सस्पैंड नहीं किया गया है. साल 1947 में 33 प्रतिशत मुसलमान सरकारी नौकरियों में थे और आज यह आंकड़ा मात्र 3 प्रतिशत रह गया है.  बिहार में मुसलमानों की आबादी 22 फीसदी है और 4 फीसदी ही पढ़ेलिखे हैं. क्या यही है मुसलमानों की तरक्की? सैक्युलर का ढोल पीटने वाली किसी भी पार्टी को मुसलमानों की चिंता नहीं है. चुनाव आते ही पार्टियां मुसलमानों को 4 फीसदी, 9 फीसदी और 19 फीसदी आरक्षण देने का राग अलापने लगती हैं और चुनाव के बाद सब खत्म. सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को सरकारी अलमारियों में सड़ने के लिए छोड़ दिया गया है.

नरेंद्र मोदी ‘सब का साथ, सब का विकास’ के नारे लगा रहे हैं, क्या इस से मुसलमानों में भरोसा जगा है?

मोदी भी मुसलमानों को लौलीपौप ही दिखा रहे हैं. उन्होंने भारत के मुसलमानों को समझा ही नहीं है. अपने शपथग्रहण जलसे में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बुला कर उन्होंने मान लिया कि इस से भारत का मुसलमान उन का पक्का वोटर बन जाएगा. जबकि असल में ऐसा नहीं है. मोदी समेत हर नेता भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति को गलत तरीके से आंकता रहा है. भारत का मुसलमान कभी भी पाकिस्तान के समर्थन में नहीं रहा है.

आप बाकी राजनीतिक दलों से खुद को अलग कैसे साबित करेंगे?

पिछले लोकसभा चुनाव में हम ने 12 उम्मीदवार उतारे थे और उन्हें आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिले थे. पढ़ेलिखे और जागरूक लोगों को ही विधानसभा चुनाव में उतारा जाएगा. हमारी पार्टी ठगी की राजनीति नहीं करेगी. शोषित (मुसलिम) समाज को तालीम देने से ही उन में हर तरह की जागरूकता आएगी और कोई उन का शोषण नहीं कर सकेगा. हम युनाइटेड मुसलिम, युनाइटेड हिंदू और युनाइटेड नैशन में यकीन रखते हैं. हमारी पार्टी किसी खास जाति या वर्ग की बात नहीं करती और न ही जाति और धर्म के आधार पर टिकट बांटने में यकीन रखती है.

धर्म का तेंदुआजाल वास्तुशास्त्र

पिछले दिनों बिहार के एक सरकारी विभाग का समाचार टीवी के विभिन्न चैनलों पर दर्शाया गया है, जिस में पहली बात तो यह है कि विभाग का मुखिया नया आया है, दूसरी यह कि वह कर्मचारियों की कार्यशैली से असंतुष्ट है. कोई देर से आता है, कोई जल्दी चला जाता है, कोई अपनी सीट पर नहीं मिलता, कोई फाइल को अनावश्यक तौर पर दबाए रखता है, कोई सीट पर बैठा सिगरेट पी रहा है, कोई महिला कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करता है. नया मुखिया इन्हें अनुशासित करना चाहता है. उस के पास ऐसी शिकायतें भी पहुंचती हैं कि कई कर्मचारी पैसे लिए बिना छोटा सा बिल तक पास नहीं करते. विभागाध्यक्ष के पास इस के सिवा और कोई चारा नहीं है कि वह 1-2 बार समझाने के बाद भी सही रास्ते पर न आने वालों को कारण बताओ नोटिस जारी करे. उस ने यही किया.

यज्ञ की निरर्थकता

अब बिगड़े हुए कर्मचारी चिंताग्रस्त हैं. वे एक बैठक करते हैं, जिस में यह निर्णय लिया जाता है कि इस दैवी विपत्ति को दूर करने के लिए हमें आपस में पैसे इकट्ठे कर के दफ्तर में यज्ञ का आयोजन करना चाहिए. सरकारी दफ्तर में यज्ञ हो गया, परंतु उस से न तो नोटिस वापस हो सकते थे और न आगे दिए जाने बंद हो सकते थे. कुछ दिन बाद कई और कर्मचारी नोटिस मिलने से परेशान हो उठे. अब दोबारा बैठक हुई. इस बार निर्णय हुआ कि किसी वास्तुशास्त्र विशेषज्ञ को बुला कर दफ्तर में से वास्तुशास्त्रीय दोष दूर करवाए जाएं. तथाकथित विशेषज्ञ आया. उस ने किसी की कुरसी का मुंह इधर को करवाया तो किसी की मेज का उधर को. परंतु वह दफ्तर में तोड़फोड़ व नया निर्माण चाहता था – वाशरूम उधर बनाया जाए, सीढि़यां यहां से हटा कर वहां बनाई जाएं. इस के लिए विभागाध्यक्ष की मंजूरी ही नहीं, सरकारी पैसा भी चाहिए था. विभागाध्यक्ष इस के खिलाफ था. कर्मचारी तनावग्रस्त थे. कर्मचारी अच्छी तनख्वाह लेते हैं. अपने स्वार्थ के सारे काम वे बड़ी सूझबूझ से करते हैं. वे जिले का प्रशासन चलाते हैं, परंतु उन के दिमाग में यह कभी नहीं आया कि यदि किसी को लेट आने पर कारण बताओ नोटिस मिलता है तो इस का हल यही है कि वह भविष्य में लेट न आने का प्रण करे और समय पर दफ्तर पहुंचे. इसी तरह अन्य कर्मचारियों को अपनाअपना तौरतरीका सुधारने की जरूरत है.

सीखने से परहेज

वे यज्ञ की निरर्थकता से सबक नहीं सीखते, बल्कि नया अंधविश्वास आजमाते हैं–वास्तुशास्त्रीय दोष दूर करने की सोचते हैं. जब दशरथ ने श्रीराम को वनवास के लिए घर से निकाला, तब उन के साथ लक्ष्मण भी गए और सीता भी अर्थात घर के 3 सदस्य 2 बेटे और 1 वधू. दशरथ ने किसी वास्तुशास्त्रविशेषज्ञ को नहीं बुलाया था कि इस घर में ऐसा क्या है कि मेरे बेटे और बहू इस में नहीं रह पाए. जब इस देश के अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के दरबार में द्रौपदी (पुत्रवधू) को नग्न किया गया तब उस ने भी विशेषज्ञ नहीं बुलाए कि इस दरबार में ऐसा क्या है कि हमें अपनी ही पुत्रवधू को नग्न होते देखना पड़ा. ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि दशरथ बिहार के उन सरकारी कर्मचारियों जैसे नहीं थे. उन्हें पता था कि राम के वनवास का कारण वास्तुशास्त्रीय दोष नहीं, बल्कि सौतियाडाह है. यदि घर में कोई ‘दोष’ होता तो राजा को 4-4 पुत्र कैसे प्राप्त हो जाते?

धृतराष्ट्र को भी पता था कि द्रौपदी की नग्नता का कारण वास्तुशास्त्रीय दोष नहीं, बल्कि उस के 5 पति परमेश्वरों की जुए की लत है. यदि दरबार में दोष होता तो इतना बड़ा साम्राज्य कैसे खड़ा होता? वे बेचारे कर्मचारी यह नहीं सोचते कि यदि दफ्तर में वास्तुशास्त्रीय दोष होता तो वे वर्षों से इतनी बड़ीबड़ी तनख्वाहें ले कर ऐश कैसे कर सकते थे? उन की पदोन्नतियां कैसे हो सकती थीं? वे, लगता है कि बूढ़े दशरथ और अंधे धृतराष्ट्र से ज्यादा गएबीते हैं जो असली दोष को देखने में असमर्थ हैं. वे अपनी भ्रष्ट आदतें, भ्रष्ट आचार एवं अनुशासनहीनता को नहीं देख पा रहे हैं. उन्हें लगता है कि देर से दफ्तर जाना, समय से पहले दफ्तर से भाग आना, अपनी सीट पर विराजमान न होना, फाइलों को रिश्वत की आशा में दबाए रखना, दफ्तर में सिगरेट पीना, महिला कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करना आदि उन का जन्मसिद्ध अधिकार है. इसलिए वे दोष अपने में नहीं देखते, बल्कि दफ्तर की कुरसियों, वाशरूम तथा सीढि़यों के नाम मढ़ रहे हैं.

धर्म का पेंच

यज्ञ, वास्तुशास्त्र आदि सब धर्म का ही तेंदुआजाल है. जब तक इसे नष्ट नहीं किया जाता तब तक हर भ्रष्ट कर्मचारी, हर अपराधी, भ्रष्टाचार का अपराध कर के धर्म के इस या उस काउंटर पर जा कर अपराधक्षमा करवाने का यत्न करता रहे, परंतु अपने आचरण को, अपनी आदतों को, न कभी सुधारने का यत्न करेगा और न कभी अपना कोई दोष स्वीकार करेगा. वह उसी तरह का बना रहेगा और रिश्वत का कुछ पैसा धर्म के इस या उस धंधेबाज को रिश्वत के तौर पर दे कर अर्थात दान दे कर या कहीं चढ़ावा चढ़ा कर, यह समझता रहेगा कि वह धर्मात्मा है, वह विशुद्ध है और अपराधबोध के बोझ से मुक्त ढीठ सरकारी कर्मचारी बना रहेगा. इस में कुसूर उस का नहीं, बल्कि उन धार्मिक धंधेबाजों का है जो उसे सिखाते हैं कि दान दे कर, तीर्थयात्रा कर के या जागरण करवा कर आदमी बडे़ से बड़े पाप से मुक्त हो जाता है. गंगास्नान के नाम पर कथित कईकई जन्मों के पाप काटने वाले पंडों के बड़ेबड़े पापक्षमा के कारोबार इसी तथ्य के द्योतक हैं. जब तक धर्म भ्रष्टाचार के साथ मिल कर मौसेरे भाई की भूमिका निभाता रहेगा, कोई माई का लाल इस देश को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं कर पाएगा. हे भ्रष्टाचार, डर मत, जब तक धर्म है तब तक तू भयमुक्त रह, कोई तेरा बाल भी बांका नहीं कर पाएगा. भ्रष्टाचार, तू धर्म का पालनपोषण कर, रिश्वत में से देवीदेवता के नाम पर रिश्वत दे, चढ़ावा चढ़ा, धर्म तेरा पालनपोषण करेगा. इसी लिए तो कहा गया है :

धर्मो रक्षति रक्षत:.       (महाभारत)

हमारे यहां शास्त्रों की बाढ़ आई हुई है. शुद्ध अथवा अशुद्ध संस्कृत में लिखी गई पुस्तक को ‘शास्त्र’ कह कर धौंस देने की आदत बन चुकी है, हालांकि इन में से अधिकतर कथित शास्त्र आज बेकार और दिनातीत (आउटडेटेड) हो चुके हैं. शायद गीता को छोड़ कर अन्य किसी शास्त्र में आदर्श व्यक्ति के काम करने की विधि अथवा काम करने की आदर्श विधि वर्णित नहीं है. परंतु गीता में आदर्श व्यक्ति के काम करने की जो विधि बताई गई है, वह संक्षेप में यही है कि ‘लुक बिजी, डू नथिंग’ (काम में व्यस्त दिखो, पर करो कुछ नहीं). गीता के अध्याय 4 में यही शब्द हूबहू संस्कृत में कहे गए हैं :

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति स:.

(गीता, 4/20)

स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित अद्वैत आश्रम से छपी गीता में इस श्लोक का अनुवाद करते हुए कहीं कोई संदेह नहीं रहने दिया गया है.  यह काम में व्यस्त दिखने पर भी वास्तव में कुछ न करना ही वह आदर्श स्थिति है जिस का गीता बखान करती है और लगभग सब सरकारी कर्मचारी इसी आदर्श को क्रियान्वित करते हैं. यहां प्रश्न उठता है कि कर्मचारियों का इस में क्या दोष है जब वे उस गीता के आदर्श को ही व्यवहार में ला रहे हैं जिसे कुछ ऐसे अत्युत्साही लोग राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने के लिए चिल्ला रहे हैं, जिन्होंने शायद एक बार भी पूरी पुस्तक नहीं पढ़ी है. जब आदर्श ही दोषग्रस्त हो तब उसे चाहे कितने ही बढि़या ढंग से व्यवहार में लाएं, उस का सुपरिणाम नहीं निकल सकता. सुपरिणाम तभी संभव है यदि आदर्श दोषरहित हो और उसे बढि़या ढंग से व्यवहार में लाया जाए. गीता के आदर्श को तो व्यवहार में लाने से वही परिणाम निकलेगा जो वर्षों से सरकारी दफ्तरों में दिख रहा है.

अंधविश्वास के शिकार

हमारी सभ्यता व संस्कृति में और तो शायद कुछ काम का हो परंतु ठीक से काम करने की विधि व प्रेरणा का एकदम अभाव है. यहां काम करने की संस्कृति कभी विकसित नहीं हुई, क्योंकि इतिहास के किन्हीं मनहूस क्षणों में हमारे पूर्वज इस अंधविश्वास के शिकार हो गए थे कि कर्म किए जाने पर करने वाले को चिपट जाता है और उसे उस के फल भोगने पड़ते हैं. यजुर्वेद से पता चलता है कि तभी हमारे ऋषियोंमुनियों ने ऐसे उपाय ढूंढ़ने शुरू कर दिए थे जिन से कर्म के चिपटने को रोका जा सके :

न कर्म लिप्यते नरे

(यजुर्वेद 40/2)

वस्तुत: प्राचीनकाल के ऋषि और समाज के ऐसे ही अन्य ठेकेदार कर्म करने पर होने वाली थकावट से परेशान हो उठते थे, क्योंकि तब न उत्पादन के आधुनिक साधन थे, न श्रम करने वाली मशीनें थीं और न विकसित कार्यविधियां ही. काम करना सख्त था, थक कर लोग बैठ जाते थे और कोई कथित दैवी शक्ति भी किसी काम की नहीं थी. सो, वे काम करने की बुराई से बचने का भरसक प्रयास करते थे. परंतु पेट की आग बुझाने के लिए कुछ न कुछ करने की विवशता सदा बनी रहती थी. वे कर्म करने की बुराई को ढोने को मजबूर थे.

इस अपरिहार्य बुराई के साथ जीने के लिए उन्होंने कल्पित व बचकाने उपाय खोजने शुरू कर दिए जिन की पराकाष्ठा गीता में दिखाई पड़ती है, जहां कहा गया है कि कर्म को इस चतुराई से करो कि किए हुए कर्म के अच्छेबुरे फल तुम्हारे साथ चिपटें नहीं, यही योग है :

जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते,

योग: कर्मसु कौशलम्.

(गीता, 2/50)

वह चतुराई या युक्ति यही है कि काम को आधेअधूरे मन से अर्थात अन्यमनस्कता एवं उदासीनतापूर्वक करो, काम करते हुए दिखो, पर काम करो नहीं. हाथ कार (कर्म) में, दिल यार (ईश्वर) में.

कर्म प्रधान है

सारे संसार में मानवजाति के सामने कर्म करने की विवशता थी, बिना काम किए पेट भरना कठिन था. पर काम करने व परिश्रम करने पर थकान होती थी. इसलिए कोई काम करना चाहता नहीं था. दुनियाभर के समाजों ने बुद्धि और अनुभव के आधार पर धीरेधीरे ऐसी भौतिक युक्तियां अर्थात तकनीकें विकसित कीं जिन से कर्म करने में कम श्रम लगे. परवर्ती शताब्दियों में पशुओं से कई तरह की सहायता ली जाने लगी, फिर मशीनों का आविष्कार हुआ. बिजली, भाप का इंजन आदि सब कर्म करने में होने वाले श्रम को कम करने के साधन के तौर पर दूसरे समाजों ने विकसित किए. हम इस तरह के आविष्कार क्यों नहीं कर पाए? हम से भिन्न दूसरे समाज ऐसे आविष्कार कर पाने में कैसे सक्षम हो सके? उन समाजों की समझबूझ हमारे ऋषियों की अपेक्षा ज्यादा भौतिक थी. वे भौतिक साधनों में कर्म  में होने वाले श्रम का हल ढूंढ़ते थे, क्योंकि वे अवलोकन करते थे, जबकि हमारे ऋषि आंखें बंद कर के बैठते थे और अवलोकन से आंख चुराते थे. इसलिए उन के कर्म से बचने के साधन भौतिक न हो कर हवाई और काल्पनिक थे. उन्हीं तरीकों को गीता प्रतिपादित करती है और उन्हें ही सरकारी कर्मचारी क्रियान्वित करते हैं.

क्या गीता के तरीके से चलने पर देश विकास की उस रफ्तार को हासिल कर पाएगा जिस के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी प्रतिबद्धता बारबार दोहराते हैं? राष्ट्रपति के अभिभाषण का जवाब देते हुए उन्होंने संसद में (27 फरवरी, 2015) जो कुछ कहा है वह गीता की कार्यविधि को एकदम रद्द करने के समान है. उन्होंने कहा है कि संविधान इस देश का राष्ट्रीय व धार्मिक ग्रंथ है. यह उन्होंने गीता को राष्ट्रीय धर्मग्रंथ घोषित करने के लिए शोर मचाने वालों को सटीक उत्तर दिया है और एक तरह से स्पष्ट कर दिया है कि विकास के लिए गीता नहीं, संविधान प्रासंगिक है. देश के स्वस्थ विकास का रास्ता गीता के श्लोक का शीर्षासन लगाने में निहित है: कर्म के फल में आसक्ति रख कर अर्थात परिणाम दर्शाने को अपना लक्ष्य बना कर जो सदा पूर्णता प्राप्ति के लिए अतृप्त रहता है, किसी गौडफादर का सहारा न ले कर जो आत्मविश्वास से कार्य करता है, जो कर्म में न लगा होने पर भी उस को बेहतर ढंग से संपन्न करने में रुचि रखता हो, वही विकास को अभिवांछित स्वस्थ गति प्रदान करता है. मोदी सरकार एवं इस विशाल देश को यही कुछ चाहिए.

चाटुकारिता की चरम सीमा

प्रधानमंत्री इस देश की चरणस्पर्श की संस्कृति को पहले ही नकार चुके हैं. उन्होंने मंत्रियों, सांसदों आदि के और अपने चरणस्पर्श को रद्द करते हुए कार्यकुशलता की ओर ध्यान देने पर बल दिया है. नेताओं का चरणस्पर्श मंदिर की मूर्ति के प्रति किए जाते व्यवहार का प्रतिबिंब है. जैसे मंदिर की मूर्ति का चरणस्पर्श कर के, बिना कोई सार्थक काम किए, अपने भले के लिए कृपादृष्टि के लिए प्रार्थना व कामना की जाती है, उसी तरह नेता/सांसद/मंत्री आदि की कृपादृष्टि की आड़ में कर्मचारी सार्थक, पूरा और अभिवांछित काम करने से बचे रहते हैं और पदोन्नत प्राप्त करते रहते हैं. इसलिए चरणस्पर्श की नीति अकुशलता, निठल्लापन, कामचोरी आदि की जननी एवं रक्षिका है.इसी चरणस्पर्श की, चाटुकारिता की, चरमसीमा है शासक को देवता बनाने की चाल. प्रधानमंत्रीजी ने न केवल चरणस्पर्श के चलन को चलता कर दिया है, बल्कि खुद भी चाटुकारों के जाल में फंसने से समय रहते दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया है.

नतीजतन, अहमदाबाद में बनाए गए. ‘नरेंद्रमोदी मंदिर’ का उद्घाटन न हो सका और चाटुकारों को अपना कार्यक्रम रद्द करने को विवश होना पड़ा. श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि राजा इसी प्रक्रिया में देवता, अवतार आदि न जाने क्याक्या बना दिए गए हैं.यह ज्ञात नहीं कि इन लोगों को उन के जीवनकाल में ही देवता बना दिया गया था और मंदिरों में सजा दिया गया था अथवा उन के मरणोत्तर काल में ऐसा हुआ. यदि जीवनकाल में यह सब घटित हुआ तो स्पष्ट है कि वे चाटुकारों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह अपना दामन बचा पाने में असमर्थ सिद्ध हुए.

कड़वी दवा जरूरी

संक्षेप में, चाटुकारिता, चरणस्पर्श, वास्तुशास्त्रीय अवैज्ञानिक मान्यताएं आदि बेकार की बातें हैं, जबकि हमें विकास अपेक्षित है. प्रधानमंत्री मोदी का यह मार्ग निठल्लों, कामचोरों, सिफारिशी तत्त्वों और अध्यात्म की पिनक में रहने वाले कर्मचारियों को रास नहीं आएगा, परंतु यदि हमें विश्व में एक सुपरपावर के रूप में उभरना है तो इस कड़वी दवा को स्वास्थ्य लाभ के लिए खुशीखुशी पीना ही होगा. खेद है कि प्रधानमंत्री के समर्थकों में ही ऐसे तत्त्व हैं जो उन के कहे पर पानी फेरने को तत्पर दिखाई देते हैं. मसलन, हरियाणा सरकार को लें जो उन्हीं के दल की है. उक्त सरकार ने स्कूलों में गीता अनिवार्य पढ़ाने का आदेश जारी कर दिया है. लगता है, उस सरकार में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने गीता पढ़ रखी है और जानते हैं कि इस की सारी शिक्षाएं बच्चों के लिए उपयोगी नहीं, इसलिए सरकार ने एनसीईआरटी से निवेदन किया है कि वह वे श्लोक सुझाए जो पाठ्यक्रम में पढ़ाए जा सकें. सरकार का आदेश गीता को उस की समग्रता में बच्चों के लिए उपयोगी नहीं मानता, बल्कि एनसीईआरटी से आशा करता है कि वह संस्था उसे बताएगी कि ‘भगवान’ के कथित कथनों में से कौन से पढ़ाए जाने योग्य हैं और कौन से ऐसे ही पड़े रहने देने चाहिए.

इस संदर्भ में हमारा निवेदन है कि सरकार को एनसीईआरटी के चुनाव पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि किसी संस्कृतज्ञ से भी उन श्लोकों की भाषा शुद्ध करवा लेनी चाहिए जो बच्चों को स्कूलों में पढ़ाने के लिए चुने जाएं, क्योंकि गीता में व्याकरण की दृष्टि से ऐसी अशुद्धियों की भरमार है जैसी अशुद्धियों को संस्कृत की परीक्षाओं में शुद्ध करने के लिए छात्रों को कहा जाता है. मैं ने स्वयं 1982 में 165 अशुद्धियां गीता में ढूंढ़ कर सूचीबद्ध की थीं और यह भी दर्शाया था कि कौन से अशुद्ध शब्द का शुद्ध रूप क्या है. यह सब मेरी पुस्तक ‘गीता की शव परीक्षा’ में देखा जा सकता है, जो वर्षों से अप्राप्य हो चुकी है. उस की सहायता से बच्चों को पढ़ाए जाने वाले श्लोकों की भाषा को शुद्ध करने में आसानी हो सकेगी. स्पष्ट है, गीता के अंश वैचारिक दृष्टि से ही आपत्तिजनक नहीं, बल्कि भाषिक दृष्टि से भी निरापद हैं. ऐसे में राष्ट्रीय ग्रंथ ‘भारतीय संविधान’ ही देश की प्रगति का मार्गदर्शक रह जाता है. हमें इसी की शरण ग्रहण करनी होगी.

गीता कहती है :

मामेकं शरणं व्रज.      (गीता, 18/66)

(केवल मुझ एक की शरण जा).

हम कहते हैं :

संविधानमेकं शरणं व्रज.

(अकेले संविधान की शरण जा).

मैगी से खतरनाक स्ट्रीट फूड

भारतीय बाजार में मैगी बेहद लोकप्रिय थी. नूडल्स बाजार के 75 फीसदी हिस्से पर मैगी का कब्जा था. मैगी को बनाने वाली कंपनी नैस्ले ने देश में तकरीबन 2 हजार करोड़ रुपए की कमाई की थी. मैगी के कुछ पैकेटों में तय मात्रा से अधिक लेड यानी सीसा की मात्रा पाए जाने की खबर ने मैगी की लोकप्रिय छवि पर दाग लगा दिया. मैगी को ले कर पूरे देश में ऐसा माहौल बन गया जैसे मैगी से जहरीला कोई पदार्थ नहीं है. मैगी विवाद की बहती गंगा में हाथ धोने के लिए तमाम संगठन सामने आए. ये संगठन मैगी विवाद की आड़ में स्वदेशी बनाम विदेशी उत्पाद की राजनीति में हाथ सेंकना चाहते थे.   मैगी के खिलाफ ही नहीं, मैगी का प्रचार करने वाले अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और माधुरी दीक्षित के खिलाफ कई जगहों पर मुकदमे दर्ज हो गए. रातोंरात मैगी पर कई राज्यों में बैन लग गया. सेना की कैंटीन से ले कर बिग बाजार और वालमार्ट बाजार तक से मैगी को हटा दिया गया. सोशल मीडिया पर इस बात की भी चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि जल्द ही कोई स्वदेशी कंपनियां देशी मैगी बना कर बाजार में उतारने वाली हैं. यह बात अपनी जगह पर दुरुस्त है कि मैगी के कुछ सैंपल जहां फेल हुए हैं वहीं कुछ पास भी हुए हैं. यह पता नहीं चल पा रहा है कि यह अलगअलग प्रयोगशालाओं में होने वाली जांच का कमाल है या मैगी का हर पैकेट खतरनाक नहीं है? 

मैगी के ताजा विवाद की शुरुआत उत्तर प्रदेश के बाराबंकी शहर से हुई है. बाराबंकी राजधानी लखनऊ से 27 किलोमीटर ही दूर है. बाराबंकी में तैनात एक खाद्य अधिकारी ने ईजी डे के स्टोर से मैगी का पैकेट खरीदा. इस पर लिखा था कि नो मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी). यह बात खाद्य अधिकारी को खटक गई. शक के आधार पर इस का सैंपल लिया गया. सैंपल पहली ही जांच में फेल हो गया. इस के बाद नैस्ले कंपनी ने अपने तर्क दिए जो माने नहीं गए. खाद्य सुरक्षा विभाग के नोटिस के बाद पूरे देश में मैगी के सैंपल लेने का काम तेजी से शुरू हो गया. कु छ राज्यों में मैगी के सैंपल में कोई नेगेटिव रिपोर्ट नहीं आई. देशभर में खाने वाली चीजों की टैस्ंिटग की अलगअलग लैब हैं. सब का रखरखाव अलग तरह से होता है. यहां लगी मशीनें एकजैसी नहीं हैं. नैस्ले कंपनी ने मैगी को खाने के लिए सुरक्षित बताते हुए कहा कि खाने की कुछ चीजों में प्राकृतिक रूप से मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी) पाया जाता है. कंपनी मैगी बनाते समय ऐसा कोई तत्त्व अलग से नहीं मिलाती जिस में सीसा या लेड पाया जाता हो.

खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि मैगी को चटपटा बनाने के लिए जिन मसालों का प्रयोग किया जाता है उन में प्राकृतिक रूप से लेड बनता है. यह मात्रा अधिक होने पर मैगी टैस्ट में फेल हो जाती है. ऐसा केवल मैगी के साथ ही नहीं हुआ है, ऐसा दूसरे नूडल्स के साथ भी हो सकता है. आज भारत के बाजार में चाइनीज और जापानी फूड का प्रयोग बढ़ने लगा है. केवल बडे़बडे़ होटलों में ही नहीं, सड़क के किनारे लगने वाले खाने के ठेलों में भी चाउमीन और मोमोज का प्रयोग तेजी से होने लगा है. उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोरखपुर, सिद्धार्थनगर से ले कर लखनऊ, आगरा, मेरठ और कानपुर जैसे देश के तमाम शहरों में चाउमीन सब से ज्यादा बिकने वाला आइटम होता जा रहा है. इस को बनाने में नूडल्स का प्रयोग किया जाता है. चाउमीन के ही साथ मोमोज को भी खूब बेचा जाता है. यह छोटेमोटे रोजगार का एक साधन हो गया है. चाउमीन और मोमोज के साथ दिए जाने वाली टोमैटो सौस कद्दू से तैयार की जाती है. इस में टमाटर की मात्रा बेहद कम होती है. इस के बाद भी इस को बेचने से रोका नहीं जाता. इस तरह स्ट्रीटफूड तो मैगी से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है.   

मैगी के बंद पैकेट के मुकाबले इस तरह के चाउमीन और मोमोज के ठेले सेहत के ज्यादा बडे़ दुश्मन हैं. इन दुकानों पर नैस्ले जैसी कंपनी का ब्रैंड नेम नहीं है. इसलिए इन से होने वाले नुकसान की न तो खाद्य सुरक्षा विभाग को परवा है और न ऐसे विवाद को इमरजैंसी जैसा माहौल बनाने वाले दूसरे लोगों को. केवल चाउमीन और मोमोज ही नहीं, पूड़ी, खस्ता कचौड़ी, गोलगप्पे, बर्गर और समोसा भी सेहत के लिए खतरनाक हैं. सड़क किनारे चल रही तमाम दुकानों पर इन को सही खाद्य सामग्री से नहीं बनाया जाता. इन को खाना मैगी खाने से ज्यादा खतरनाक है. मैगी विवाद के बाद नैस्ले कंपनी बाजार से मैगी को वापस ले लेगी पर इन स्ट्रीट फूड पर क्या कोई असर पड़ेगा, यह सोचने वाली बात है.

लेड से किडनी को खतरा

खाने की चीजों में पाए जाने वाले लेड और मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी सेहत के लिए खतरनाक माने जाते हैं. डाक्टरों का कहना है कि लेड की वजह से किडनी खराब हो जाती है. इस से आदमी का नर्वस सिस्टम भी खराब हो सकता है. लेड एक तरह का विषैला द्रव्य है. तय मानक के अनुसार, किसी भी फूड प्रोडक्ट में लेड की मात्रा  2.5 पीपीएम तक ही होनी चाहिए. इस वजह से लेड को एमएसजी से भी खतरनाक माना जाता है. लेड के शरीर में ज्यादा मात्रा में चले जाने से इस का असर शरीर के न्यूरो सिस्टम पर पड़ता है. इस की वजह से ब्रेन प्रभावित होता है.

कुछ मामलों में लेड ब्लड सप्लाई को भी प्रभावित कर सकता है. लेड किडनी पर भी खतरनाक असर डालता है. यह शरीर के इम्यून सिस्टम को प्रभावित करता है जिस से शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है. लेड पानी, मिट्टी या फिर कंपनी में पाई जाने वाली खराब चीज (इंडस्ट्रियल वेस्ट) से खाने में पहुंचता है. लेड अगर वातावरण और मिट्टी में है तो वह अनाज में चला जाएगा. उसी अनाज का प्रयोग खाने की सामग्री को बनाने में किया जाएगा तो खाने में लेड की मात्रा मिल सकती है. दूसरी ओर, एमएसजी खाने की चीजों में ऊपर से मिलाया जाता है. इस के मिलाने से खाने का फ्लेवर अच्छा होता है. 

इमेज को लगा धक्का

मैगी के नमूने सही नहीं पाए गए. उस की ब्रैंड इमेज को जो धक्का लगा है उस की भरपाई नहीं हो सकती. संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल खाद्य असुरक्षा के 10,200 मामले सामने आए थे. इन में से केवल 913 को ही सजा मिल सकी. मिलावट के मामले में केवल 10 फीसदी लोगों को सजा मिलने से पता चलता है कि कहीं न कहीं इस में लंबी गड़बडि़यां हो जाती हैं. देश में कानून का सहारा ले कर जिस से रिश्वत ली जाती है उस से इस बात की भी प्रबल आशंका होती है कि लोगों को डराने के लिए तो सैंपलिंग का सहारा नहीं लिया जाता. दीवाली और होली के आसपास खोए के सैंपल भरने की घटनाएं बढ़ जाती हैं. कई खोया बेचने वालों और मिठाई की दुकान चलाने वालों के यहां छापे मारे जाते हैं. दीवाली और होली पर मिठाई की ब्रिकी ज्यादा होती है. होली, दीवाली के अलावा खोया मंडी या मिठाई की दुकानों पर सैंपल नहीं लिया जाता है. इस से कहीं न कहीं साजिश की बू आती है.

फूड सेफ्टी बिल आने के बाद खाद्य सुरक्षा विभाग को बहुत ही मजबूत कानून का सहारा मिल गया है. फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथौरिटी औफ इंडिया यानी एफएसएसएआई का गठन 2011 में किया गया था. यह प्राधिकरण खाद्य उत्पादों के सुरक्षित निर्माण, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात को वैज्ञानिक आधार पर बनाने के मानक तय करता है जिस से खाने के रूप में इस्तेमाल होने वाली चीजें पूरी तरह से सुरक्षित रहें. यह खाद्य पदार्थ के प्रचार की निगरानी का काम भी करता है. एफएसएसएआई और राज्यों के खाद्य सुरक्षा विभाग ऐसे मामलों में नमूनों की जांचपड़ताल करते हैं. फूड सेफ्टी बिल आने के बाद से सैंपलिंग के नाम पर शोषण का काम हो रहा है. यही वजह है कि 10,200 मामलों में से केवल 913 के खिलाफ ही कार्यवाही की जा सकी. एक तरह से यह कानून दहेज कानून जैसा बन गया है जिस के जरिए शिकायत के आधार पर किसी का भी उत्पीड़न किया जा सकता है. खाने के कारोबार से जुडे़ व्यापारी चाहते हैं कि इस कानून में सुधार हो. सैंपल भरने के बाद जल्द से जल्द कार्यवाही हो. अगर सैंपल में कोई गलती नहीं पाई जाती है तो सैंपल भरने वाले के खिलाफ वैसी ही कार्यवाही की जाए जैसी सैंपल में गलती पाई जाने पर कारोबारी के साथ होती. जब तक सैंपल भरने वालों की जवाबदेही तय नहीं होगी तब तक यह कानून उत्पीड़न का जरिया बना रहेगा.

दिल्ली, उपराज्यपाल और केंद्र

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के इशारे पर चल रहे दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच गहमागहमी चल रही है. अरविंद केजरीवाल का मानना है कि चूंकि जनता ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया है कि उन की बात मानी जानी चाहिए पर उपराज्यपाल बारबार संविधान का हवाला दे कर कह रहे हैं कि दिल्ली तो केंद्र प्रशासित राज्य है और हर मामले में उपराज्यपाल यानी केंद्रीय गृह मंत्रालय यानी नरेंद्र मोदी सरकार ही निर्णय लेगी. एक तरह से नरेंद्र मोदी की सरकार कह रही है कि उन की बला से कि आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीती होंगी, राज तो भारतीय जनता पार्टी कर रही है. आम आदमी पार्टी अफसरों की नियुक्तियों, भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो और कई मामलों में केंद्र सरकार से उलझने को मजबूर हुई है. भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और भजभज मंडली के समर्थक लगातार कहने की कोशिश कर रहे हैं कि काम तो नियमकायदे से होना चाहिए. उन का रवैया तो पंडों जैसा है कि रिवाज और रस्में, पूजा और हवन, दान और दक्षिणा तो हिसाब से ही होंगे. आम आदमी पार्टी तो जजमान है जो चाहे कितनी सही हो, उसे काम तो पंडे नजीब जंग और महापंडित नरेंद्र मोदी के हिसाब से करना होगा.

केंद्र सरकार की यह जिद गलत है, खासतौर पर तब जब मुद्दे आम जनता के मतलब के हों. भ्रष्टाचार, अफसरों की पसंद आदि पर विवाद करना भाजपाई तानाशाही है जो पौराणिक ग्रंथों की या कम्युनिस्टी झलक देती है, जैसे एक मामला उद्योगों को दी गई पट्टे के आधार पर जमीन है. जमीन बेचने के बाद सरकार का दखल समाप्त हो जाना चाहिए पर दिल्ली ही नहीं, देशभर में कई जगह सरकारों ने चाय के प्याले में चम्मच की तरह अपनेआप को निरर्थक ठूंस रखा है. अब मुंह में प्याला लगाओ तो झटकेगा ही. आम आदमी पार्टी कहती है कि चम्मच को हटाओ, पट्टे के हक को समाप्त करो पर सरकारी अफसर और भाजपा सरकार तैयार नहीं है क्योंकि उस से ऊपर की काफी आमदनी होती है. जनता को परेशान करने का यह अनूठा तरीका है जो 100 साल से चला आ रहा है. संविधान चाहे जो कहे, काम जनता की राय पर और जनता की सुविधा के अनुसार होना चाहिए. अगर मोदी सरकार दिखाना चाहती है कि वह लोकतंत्र की इज्जत करती है तो उस को पटखनी देने वाली पार्टी की बात चुपचाप मान लेनी चाहिए थी. पर वह लगातार उलझ कर दर्शाना चाहती है कि अरविंद केजरीवाल को राज करना नहीं आता. जैसे एक पंडा सैकड़ों लोगों की शादी ग्रहों के नाम पर रुकवा सकता है वैसे आधुनिक पुराण संविधान का हवाला दे कर नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से जीती सरकार को उलटने की तैयारी में हैं.

दूसरी शादी बच्चों की बरबादी

मैं फ्रंटियर मेल से कोटा से रवाना हो कर मुंबई जा रही थी. कुछ ही देर बाद 10-11 वर्ष का किशोर मेरी सीट के पास आ कर बैठ गया. मेरे साथ मेरा 8 साल का पोता था. मैं स्कूल में प्राध्यापिका रही हूं और मनोविज्ञान मेरा विषय रहा है. मैं उस सामान्य से दिखने वाले किशोर को देख रही थी. वह स्कूल की यूनिफौर्म में था. बारबार इधरउधर झांकती भयभीत सी उस की आंखें मुझ से छिपी न रह सकीं. देखने में वह संभ्रांत एवं शिष्ट किशोर था. अंगरेजी माध्यम में पढ़ रहा था. धीरेधीरे मेरे पोते से वह हिलमिल गया और उस के साथ खेलता रहा. इस बीच, टिकटचैकर आया पर संयोग कि उस किशोर का न टिकट चैक किया और न ही उसे कुछ कहा. हमारा टिकट चैक कर के वह चला गया. मैं ने अपने पोते को खाने को जो दिया वह उस को भी दिया और उस ने खा भी लिया. उसे हमारे साथ बैठे 4-5 घंटे हो गए थे. तब मैं ने उसे कुरेदते हुए उस की शिक्षा, घरपरिवार की कुछ जानकारी ले ली. वह बच्चा नागदा (मध्य प्रदेश) का था. उस के सौतेले पिता उसे बहुत मारते थे, इसीलिए वह घर छोड़ कर भागा हुआ था. मेरी एक मित्र नागदा में थी. मैं ने तत्काल उसे फोन लगाया और सारी स्थिति बताते हुए चुपचाप उस की मां से मिलने को कहा और सारी बात मुझे फोन कर के बताने को भी कह दिया. मेरी युक्ति सफल हुई. मैं ने बच्चे से अलग हो कर उस की मां से बात की, उस के दिल की हालत समझी और सांत्वना दी. दरअसल, उस की मां ने विधवा होने के बाद दोबारा शादी की थी और अब नया पति अपने 2 बच्चों के साथ इस बच्चे को सहन नहीं कर पा रहा था.

ऐसी ही एक विपरीत स्थिति का परिचय मुझे कुछ समय पहले भी हुआ था. वहां मां सौतेली थी और बच्ची 12 वर्ष की थी. रातदिन घर के काम में वह बच्ची लगी रहती थी और एक दिन वह भी रोरो कर घर से चली गई थी. सौतेले मातापिता के साथ यह एक गंभीर सामाजिक समस्या बन गई है. स्ट्रीट चिल्ड्रन के एक सर्वे में मैं ने पाया कि 70 प्रतिशत बच्चे पारिवारिक प्रताड़ना के कारण अपना भविष्य चौपट कर बैठते हैं. मातापिता जो पुनर्विवाह करते हैं उन्हें विवाह के साथसाथ इन बच्चों के लिए भी कुछ सोचना होगा. वे बच्चों के भविष्य को प्राथमिकता दें. यदि आप पुनर्विवाह कर रहे हैं, दोनों में एक के पास बच्चा है या दोनों के पास हैं तो सब से पहले दोनों ही उन्हें अपना बच्चा समझें. उन बच्चों का समुचित पालनपोषण करना आप का दायित्व है.

समझदारी से काम लें

दूसरी शादी कर महिला यदि अपना बच्चा साथ ले कर पति के घर जा रही है तो उसे यह समझदारी तो रखनी होगी कि दूसरी पत्नी को एडजस्ट करना ही आसान नहीं होता और बच्चे के साथ यह और भी कठिन होता है. वह अपने नए पति की आय और उस के स्वभाव के अनुसार एडजस्ट करे. हो सकता है आप का पहला पति अधिक संवेदनशील हो, बच्चे पर ज्यादा समय देता हो, ज्यादा खर्च करता हो. नई परिस्थिति में बारबार पुरानी बात न दोहराएं वरना दूसरे पति को बच्चे से ही चिढ़ होने लगती है और इस से आप दोनों के संबंध भी कटु हो जाएंगे. पति की आर्थिक स्थिति का ध्यान रखें : हो सकता है अब आप दूसरी शादी कर जिस घर में आई हों उस की आर्थिक स्थिति पहले घर जैसी न हो, आप की और आप के बच्चे की कई आदतें और अभिरुचि न पूरी हो पाएं. ऐसे में बारबार पहले की बातें करना उचित नहीं होगा. अब जब ऐसे घर को स्वीकारा है तो वहां के अनुसार अपने को एडजस्ट करने की कोशिश करें. किसी के बच्चे को अपना समझने का दिल हर किसी में नहीं होता. आप बच्चे के पुराने खिलौने, खानेपीने के शौक, वस्त्रों आदि की अधिक चर्चा न करें, इस से केवल तनाव ही बढ़ेगा. फिर अब इन बातों से कुछ लाभ भी होगा नहीं. आप नए घर की आर्थिक स्थिति और अपने नए जीवनसाथी की सलाह ले कर ही बच्चे की परवरिश करें.

बच्चों की कोमल भावनाओं को आहत न करें : जिन बच्चों ने अपने मातापिता को छोटी सी अवस्था में खो दिया है उन की मानसिक स्थिति का खयाल रखें. उन्हें संतुलित प्यार दें. उन का भविष्य बनाना अब आप दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है. यदि आप का अपना बच्चा भी हो जाता है तो दोनों में अंतर नहीं, समान सुविधाएं व समान प्यार दें. ध्यान रखें कि बच्चा अपनी माता या पिता के खोने के आघात को सहज ही नहीं भूलता. वह बारबार अपने अतीत को सामने रखता है. जरा सी भी कमी उसे दुखी करती है.

ऐसे बच्चों की रचनात्मक गतिविधियां बढ़ाएं. इनडोर अभिरुचि विकसित करें. आप का भावनात्मक संबल उन के लिए संजीवनी है. ऐसे बच्चे दोहरी मार से ग्रस्त होते हैं. एक तो उन का प्यार लुट गया, दूसरे, नए घर में जहां अभी जिस के साथ आया उस की ही जड़ें जमीं नहीं. ऐसे में बच्चे में मनोवैज्ञानिक रूप से कुंठा, उग्रता, हीनभावना, क्षुब्धता, जिद्दीपन पनपने की संभावना रहती है. इसलिए धीरेधीरे बच्चों से संवाद बनाएं और स्पष्ट रूप से बता भी दें कि अब वे नए घर में हैं और उन्हें नए लोगों की बातें माननी हैं, अपनी आदतें भी बदलनी हैं. चूंकि अकेले रहना संभव नहीं है इसलिए समझौता करना पड़ेगा.

बच्चे का भविष्य आप की प्राथमिकता : दूसरा विवाह करते समय केवल अपने ही वर्तमान और भविष्य की न सोचें. जिस बच्चे को आप ने जन्म दिया है उस का भविष्य संवारना भी आप की प्राथमिकता होनी चाहिए. आप परिपक्व हैं पर बच्चा अभी अबोध है. वह पहले ही मानसिक आघात से ग्रस्त है. आप की छाया में उसे अपनत्व की खुशबू मिलेगी और अभाव की संपूर्ति. किसी भी हालत में ऐसा वैवाहिक समझौता न करें जो बच्चे के भविष्य को चौपट कर दे. आप पर दोहरी जिम्मेदारी है.

बच्चों को ले कर अधिक अपेक्षा भी न करें : यह सच है कि आप के सामने आप के अपने जीवन की भी रूपरेखा है. आप अपना जीवन भी जीना चाहेंगी. यदि बच्चा साथ है तो यह भी मान लीजिए कि बच्चा आप का है जिस से पुनर्विवाह कर रहे हैं उस का नहीं. सो, जो भावनात्मक लगाव आप को अपने बच्चे से हो सकता है, दूसरे को नहीं. उस के लिए प्राथमिकता आप हैं. अब आप की समझदारी इसी में है कि बच्चे को ले कर संबंधों में कटुता न लाएं. जरूरी नहीं कि आप की तरह वे भी आप के बच्चे की देखभाल करें, ध्यान दें, उस की भावनाओं का खयाल रखें.

यह मान कर ही चलिए कि बच्चा आप का है तो उस की जिम्मेदारी आप की ही बनती है इसलिए आप को अपनी हर सुविधा में बच्चे के लिए कटौती करनी है. अपने ममत्व को दूसरों के सम्मुख प्रदर्शन करने से मायूसी और टकराहट ही हाथ लगेगी. आप की समझदारी से ही नया घर आप के और आप के बच्चे के लिए शीतल छाया बन सकता है वरना बच्चे को ले कर जिंदगी अभिशप्त होते भी देर नहीं लगती.

दूसरों की उपेक्षा की अनदेखी करें : दूसरी शादी कर नया घर आप के लिए नया परिवेश है. क्या पता आप के बच्चे को स्वीकार करना नए पति और उस के घरवालों के लिए उन की विवशता हो. कई बार ऐसी विवशता अनचाहे प्रकट भी हो जाती है. ऐसे में आप संयम रखें. कभीकभी सबकुछ सामान्य होने में समय लगता है. बच्चे को नए वातावरण में खिन्नता महसूस होती है, झुंझलाहट भी. उस की खीझ को समझें, कुछ इग्नोर करें. बच्चे के साथ वाली स्त्री या पुरुष के लिए विवाह करना अग्निपरीक्षा से कम नहीं होता. हर पल तनाव उत्पन्न होने की आशंका रहती है. आप की समझदारी, सकारात्मक सोच और सामंजस्यता की शीतल धाराएं ही आप की नई बगिया को पुष्पित, पल्लवित कर सकती हैं. अपने बच्चे के साथ रहना, सहना और ढलना यदि आप को आ गया तो 2 परिवारों के साथसाथ 2 पीढि़यां लहलहा उठेंगी, बचपन मुसकराएंगे और आप न जाने कितनों के प्रेरणास्रोत बनेंगे.

समस्याएं अब नहीं रहेंगी अनसुलझी

मैं 19 वर्षीय युवक हूं. एक लड़की से पिछले 2 साल से प्यार करता हूं. वह भी मुझ से प्यार करती है. पर न जाने क्यों उस के घर वाले मुझे पसंद नहीं करते. मैं उसी लड़की से विवाह करना चाहता हूं. मैं क्या करूं, उपाय बताइए?

आप की बात से लगता है, न आप का प्यार मैच्योर है, न अभी आप की इच्छा पढ़लिख कर कैरियर बनाने की है. जब आप पढ़लिख कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएं, समाज में सम्मानित स्थान पा लें तब तक अगर वह लड़की आप का इंतजार कर सके तब ही उस लड़की के मातापिता से अपने विवाह की बात कीजिए. हो सकता है कि तब वे इस रिश्ते के लिए मान जाएं. 19 वर्ष की उम्र में विवाह की बात सोचना ही गलत है.

*

मैं 24 वर्षीय युवक हूं, पिछले 6 साल से एक लड़की से प्यार करता था. लेकिन पिछले साल उस का विवाह हो गया. मेरी अभी भी उस से बात होती है तो वह कहती है, ‘‘मैं यहां नहीं रहूंगी. मुझे यहां से ले चलो, नहीं ले चलना तो बता दो, मैं कुछ कर लूंगी. मुझे तुम्हारे बगैर नहीं रहना.’’ मैं भी उस के बगैर नहीं रह सकता. क्या मैं उसे वहां से ले आऊं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा. आप सलाह दीजिए?

पहली गलती तो उस लड़की ने की है, जब उसे वैवाहिक रिश्ते को निभाना ही नहीं था तो विवाह क्यों किया? और दूसरी गलती आप ने की जो उस के विवाह के बाद भी उस से संपर्क बनाए हुए हैं. आप दोनों उस लड़के की जिंदगी क्यों बर्बाद करने पर तुले हैं. बेहतर तो यह होगा कि आप उस लड़की से किसी भी तरह का कोई भी संपर्क न रखें और उस से कहें कि वह भी पूरी ईमानदारी के साथ अपने पारिवारिक जीवन को निभाए, उसी में उस की और आप की भलाई है. आप का उस लड़की से संबंध रखना आप दोनों को मुसीबत में डाल सकता है. अगर उस के पति ने पुलिस में अपहरण की शिकायत कर दी तो आप रातों की नींद और दिन का चैन खो बैठेंगे.

*

मैं किसी इंसान को दिल और दिमाग से निकाल कर उसे भूलना चाहता हूं लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं उसे भूल नहीं पा रहा हूं. पता नहीं क्यों? क्या करूं, सलाह दें.

आप ने न तो अपनी उम्र बताई है और न ही यह बताया कि वह इंसान कौन है जिसे आप भुलाना चाहते हैं. क्या वह आप की कोई पे्रमिका है जिस ने आप को धोखा दिया है या फिर कोई अन्य नजदीकी रिश्ता है जिस से आप बेहद प्यार करते थे और वह आप से दूर हो चुका है? इन सभी हालात में आप की समस्या का हल यही है कि जिंदगी में बीती बातों को भूल कर आगे बढ़ें, जिन्होंने धोखा दिया है उन्हें माफ कर दें, जो बिछड़ चुके हैं उन्हें वापस नहीं लाया जा सकता. आप अपना ध्यान कहीं और लगाएं. समय किसी भी बडे़ से बड़े घाव को भर देता है. समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. इसी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ें.

*

मैं 28 वर्षीय युवती हूं. एक युवक से प्यार करती हूं. वह इतना अच्छा है कि सब के काम आता है, सब की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है. हर वक्त जरूरतमंदों की सेवा में लगा रहता है. उस की यही परोपकारिता मुझे उस की ओर आकर्षित करती है. मैं उस से विवाह कर के उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हूं लेकिन न जाने क्यों घर वाले उस को बुरा समझते हैं. कृपया मेरी मदद कीजिए. हम ऐसा क्या करें कि जिस से घर वाले हमारे विवाह के लिए राजी हो जाएं?

सब से पहले आप अपने मातापिता से इस बात का कारण जानिए कि वे उस लड़के को क्यों नापसंद करते हैं. आप के मातापिता आप के शुभचिंतक हैं, वे आप का बुरा हरगिज नहीं चाहेंगे. क्या पता वे उस लड़के के बारे में कुछ ऐसा नकारात्मक जानते हों जो आप को पता नहीं है वैसे भी आज आप को उस लड़के का सेवाभाव का जो गुण आकर्षित कर रहा है, हो सकता है वही गुण विवाह के बाद आप दोनों के बीच कलह का कारण बन जाए. हो सकता है विवाह के बाद उस लड़के का दूसरों की मदद करने का गुण और उस के चक्कर में आप की अवहेलना करना आप को बुरा लगने लगे और आप को अपने निर्णय पर पछतावा हो. इसलिए अपने मातापिता की सलाह से जो भी निर्णय लें, सोचसमझ कर लें. यह जिंदगीभर का फैसला है, जल्दबाजी न करें.

*

मैं 28 वर्षीय युवती हूं. पिछले 8 साल से एक लड़के से प्यार करती हूं. कुछ दिन पहले पता चला है कि वह लड़का मांगलिक है जिस की वजह से मेरे परिवार वाले उस से शादी करने के लिए राजी नहीं हो रहे हैं. कृपया मांगलिक दोष का कोई समाधान बताइए.

मांगलिक दोष, कुंडली मिलान ज्योतिषियों व पंडेपुजारियों द्वारा फैलाया गया भ्रमजाल मात्र है. यह सिर्फ भोलीभाली जनता को अंधविश्वास के घेरे में घेर कर पैसे ऐंठने का जरिया मात्र है. इस तरह के व्यर्थ के अंधविश्वासों में न पड़ें व विवाह के लिए एकदूसरे की स्वास्थ्य जांच कराइए. एकदूसरे से विचारों का मेल कराइए. अगर आप दोनों के बीच आपसी अंडरस्टैंडिंग और प्यार है तो मांगलिक जैसी बेकार की बातों को परे रख कर अपने मातापिता को समझाइए व स्वस्थ रिश्ते की नींव रखिए जो अंधविश्वास की जगह तर्क पर बना हो.  

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें