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पूंजी बाजार

खराब मानसून की आशंका से बाजार लुढ़का

चालू वर्ष में मानसूनी बारिश के कम रहने की आशंका से भारतीय शेयर बाजार सहम गया. जून के पहले सप्ताह के दूसरे दिन सूचकांक में जबरदस्त गिरावट आई. उसी दिन भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रीपो रेट में 0.25 फीसदी की कटौती करने की घोषणा के बाद इस में गिरावट गहरा गई. सेंसेक्स 600 अंकों से ज्यादा लुढ़क गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी में भी गिरावट आई और यह करीब 200 अंक लुढ़क कर 8,240 पर आ गया. मुद्रा नीति की घोषणा करते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी खराब मानसून के कारण आने वाले दिनों में महंगाई बढ़ने की आशंका जताई. राजन ने 2016 से अनुमानित महंगाई दर 5.8 फीसदी से बढ़ा कर 6 फीसदी कर दी. इस के पहले मई के प्रथम सप्ताह में सूचकांक 26 हजार के नजदीक पहुंचने के बाद माह के पहले पखवाड़े के दौरान 27 हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया था. लगभग हर दिन बाजार में बड़ा उतारचढ़ाव का माहौल रहा. लेकिन हर सप्ताह सूचकांक तेजी पर ही बंद होता रहा.  संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण के अंतिम दिनों में वित्तमंत्री के न्यूनतम वैकल्पिक कर-मैट विवाद की धार को कुंद करने के लिए उपाय करने की घोषणा से बाजार की सुस्ती को विराम लगा और कई दिनों की उदासी के बाद 8 मई को सूचकांक ने ऊंची छलांग लगाई. मौसम के खराब मिजाज के मद्देनजर सेंसेक्स में सब से ज्यादा पिटाई एसबीआई और एचडीएफसी के शेयरों में हुई है. बैंक, रियल्टी, आटो और कैपिटल गुड्स के शेयरों में खासी गिरावट आई है.

खुदरा और ई कारोबार का दायरा

खरीदारी की पुरानी चेन बदलते वक्त के अनुसार टूटने लगी है. पहले गांव का आदमी अपनी जरूरत की खरीदारी के लिए महीनों कसबे का चक्कर लगाता था. उसी तरह कसबे के लोग थोड़ा ज्यादा जरूरत पर शहरों की तरफ और शहर का आदमी बड़ी खरीदारी के लिए बड़े नगरों का रुख करता था. बड़े नगर पूरी तरह से महानगरों पर निर्भर रहते थे. नगरों और महानगरों में लोगों में खरीदारी यानी शौपिंग का प्रचलन एक उत्सव की तरह देखने को मिलता था. अब स्थिति बदली है. लोग चुपचाप अपने नजदीकी बाजार से खरीदारी कर रहे हैं. महल्लों में ही कई जगह दुकानों की लंबी चेन बनी है और खुदरा बाजार का हर माल हर गली तक पहुंच गया है. यही स्थिति अब कसबों तक की हो चुकी है. कसबों और गांव में युवकयुवतियां महानगरों में मिलने वाले सामान की मांग कर रहे हैं और खुदरा कारोबारी युवाओं की खरीदारी के उत्साह को देखते हुए उन की जरूरत का सामान उन तक पहुंचा रहे हैं. जहां कारोबारी चूक करते हैं और फैशनेबल तथा ब्रैंडेड सामान नहीं पहुंचा रहे हैं वहां ई-कौमर्स का दौर चल पड़ा है और औनलाइन खरीदारी की जा रही है. जिन छोटे कसबों व जिला मुख्यालयों में अब तक औनलाइन खरीदारी की व्यवस्था नहीं है वहां के युवा नजदीकी नगर के अपने रिश्तेदारों के घर पर सामान मंगा रहे हैं. इस नए प्रचलन से खुदरा कारोबार काफी बढ़ गया है. भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ यानी फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार, युवकों में खरीदारी की इस नई उमंग के कारण देश का खुदरा कारोबार तेजी से बढ़ रहा है और अगले एक दशक में यह कई गुना बढ़ कर 2.1 खरब डौलर यानी करीब 133 लाख करोड़ रुपए का हो जाएगा. वर्तमान में यह बाजार करीब 550 अरब डौलर का है. इसी तरह से ई-कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है और अगले एक दशक में यह करीब 150 अरब डौलर बढ़ कर 500 अरब डौलर तक पहुंच जाएगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि छोटे शहरों में उपभोक्ताओं, खासकर युवा पीढ़ी में खरीदारी का चस्का बढ़ा है. फैशनपरस्त युवा शहरों की नकल कर रहे हैं और उन की बराबरी में खड़े होने की हसरत में वे खुदरा कारोबार की रीढ़ साबित हो रहे हैं.

करों से बचने के लिए घर खरीदना आसान

अपना घर हर आदमी का सपना होता है. इंसान कहीं भी रहे, अपनी छत उस के जीवन की महत्त्वपूर्ण मंजिल होती है. व्यक्ति की इसी संवेदनशील भावना का दोहन राजनेता कई बार वोटबैंक की राजनीति के लिए भी करते हैं. वे आवास देने जैसे आश्वासन दे कर मतदाता को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं. शहरों में इसी वजह से भवन निर्माताओं की चांदी है और उन की भवन निर्माण की बड़ीबड़ी योजनाएं महानगरों में चमक रही हैं. परिस्थितियां बदली हैं तो लोग बैंक से ऋण ले कर घर खरीद रहे हैं. घर खरीदने के लिए बैंकों में ऋण देने वाले एचडीएफसी बैंक की महारत मानी जाती है. बैंक का भी दावा है कि वह सब से ज्यादा लोगों को घर खरीदने के लिए ऋण दे रहा है. उसी बैंक ने हाल ही में एक आंकड़ा तैयार किया है जिस के अनुसार पिछले 10 वर्षों में भवनों की कीमत अत्यधिक बढ़ी है लेकिन इस कीमत पर भी खरीदारों की संख्या कम नहीं हुई है. बैंक का मानना है कि हाल के दिनों में महंगी दर में भी खरीदारों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है. आंकड़ों के अनुसार, लोगों की खरीदारी का स्तर बढ़ा है. इस की दूसरी बड़ी वजह उन की आय में हुई बढ़ोतरी है. रिपोर्ट के अनुसार महानगरों में लोगों की वार्षिक औसत आय लगभग 12 लाख रुपए और घर की औसत कीमत 53 लाख रुपए है. बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि लोग घर बनाने के लिए गृहऋण पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. गृहऋण लोगों पर लगाने वाले करों में राहत देने वाली बड़ी कड़ी है.

बैंक के इस डाटा में एक चौंकाने वाली बात यह है कि बेऔलाद यानी बिना बच्चे वाले जोड़ों के कारण भवन खरीद में तेजी आई है. उन की डबल आय उन्हें महंगे घर खरीदने के लिए उत्साहित करती है और उन की दोहरी आय देख कर बैंक उन्हें आसानी से ऋण उपलब्ध करा रहे हैं. आंकड़ों का सार यह है कि गृहऋण ले कर आयकर में छूट पाने तथा दोहरी आय के कारण पिछले 10 साल में घर खरीदारों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है.

फेसबुक के विस्तार का नया अध्याय

सोशल साइट फेसबुक नित नए कीर्तिमान स्थापित कर के अपने विस्तार के नएनए अध्याय लिख रही है. इस की ताकत का एहसास इसी बात से हो जाता है कि दुनिया में सवा अरब से अधिक लोग इस साइट से जुड़े हैं. यह अद्वितीय मंच है और इस की ताकत को भारत सहित कई लोकतांत्रिक देशों में नेताओं ने सत्ता तक पहुंचने के लिए इस्तेमाल किया है. उन्हें उम्मीद से कहीं अधिक सफलता भी मिली है. फेसबुक अब सिर्फ मित्रों से संपर्क का जरिया नहीं रह गया बल्कि यह लोगों को बौद्धिक स्तर पर भी मजबूत बनाने की पहल करने लगा है. इस क्रम में उस ने उन्हें अपनी खबरों तथा लेखों के साथ दुनिया के हर कोने में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का भरोसा दिलाया है और द न्यूयार्क टाइम्स, नैशनल ज्योग्राफी, द गार्जियन और बीबीसी न्यूज जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृहों के साथ समझौता किया है. फेसबुक की यह महत्त्वपूर्ण छलांग है. इस क्रम में वह लोगों को समाचार भी देगा और इन प्रतिष्ठित प्रकाशन गृहों में दी जा रही खबरों, विश्लेषणों और समसामयिक विषयों पर प्रबुद्ध लोगों के विचारों से अवगत होने का मौका भी देगा. समझौते के अनुसार अभी आईफोन के जरिए यह सूचना हासिल की जा सकती है. मजेदार बात यह है कि इस का यह ऐप्स पहले के ऐप्स की तुलना में दस गुनी तेज गति वाला है. इस प्रक्रिया में प्रकाशन गृह का ‘लोगो’ खबर के शीर्ष पर दिखाई देगा और खबर पढ़ने का इच्छुक यूजर जैसे ही लोगो पर क्लिक करेगा तो उस के समक्ष खबर को सब्सक्राइब करने का औप्शन आएगा. इस तरह से यूजर घर बैठे ही दुनिया के शीर्ष अखबारों के लेख एक झटके में पढ़ सकेगा. फिलहाल यह काम प्रयोग के तौर पर हो रहा है. प्रयोग के दौरान इसे मिल रही सफलता से दुनिया के दूसरे बड़े प्रकाशक भी इस प्लेटफौर्म का इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित हो रहे हैं.

जनता परिवार

सियासी लोभ और आपसी तनातनी के बाद कभी टुकड़ों में बंटे जनता दल के कुनबे एक बार फिर से जुड़ गए हैं. महाविलय और महागठबंधन के नाम पर मुलायम सिंह यादव की अगुआई में बिखरे समाजवादियों ने एकजुट हो कर नरेंद्र मोदी को तगड़ी चुनौती दी है. पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद ही नरेंद्र मोदी के बढ़ते कदम और सियासी असर ने अलगअलग राज्यों में इलाकाई दलों के रूप में बिखरे हुए समाजवादियों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया था. अपने राजनीतिक वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहे नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, एच डी देवगौड़ा और मुलायम सिंह यादव एक मंच पर आ कर मोदी को चुनौती देने का ऐलान कर चुके हैं. महागठबंधन की कामयाबी की उम्मीद इसलिए भी बढ़ गई कि मोदी का जादू शिखर पर पहुंचने के बाद अब ढलान की ओर चल पड़ा है. फरवरी महीने में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल 2 सीटें मिलने से महागठबंधन के पैरोकारों का हौसला बुलंद है.

महाविलय का पहला इम्तिहान नवंबर महीने में होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में होगा. इस मेलजोल के लिए नीतीश ही सब से ज्यादा बेचैन थे क्योंकि उस चुनाव के नतीजे यह साफ करेंगे कि नीतीश और लालू बिहार के सियासी अखाड़े में जमे रहेंगे या उन्हें बोरियाबिस्तर समेटना पड़ेगा. वैसे देश में कमजोर पड़ चुकी नरेंद्र मोदी की लहर से जनता दल परिवार के बीच खुशी और उम्मीद की लहर परवान चढ़ने लगी है. महागठबंधन की कामयाबी के लिए उस से जुड़े नेताओं को मोदी लहर से ज्यादा खुद अपने ही साथियों की महत्त्वाकांक्षाओं से खतरा होगा. महागठबंधन के तमाम नेताओं को खुद की पिछली गलतियों से सबक लेने की दरकार है क्योंकि जनता दल परिवार के नेताओं के बारे में यह मशहूर है कि वे मिलते हैं बिखरने के लिए.

मोदी के गिरते ग्राफ के बाद भी महाराष्ट्र, जम्मूकश्मीर, झारखंड और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली कामयाबी की वजह से महागठबंधन को कड़ी मेहनत की दरकार है. बिहार में इस साल के आखिर में और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा के चुनाव होने हैं. इसी वजह से जनता दल को जिंदा कर नई सियासी ताकत बना कर नीतीश, लालू और मुलायम दरअसल अपने सियासी वजूद को बचाने की ही लड़ाई लड़ रहे हैं. लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान महागठबंधन की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं कि देशभर में मोदी की आंधी चल रही है, ऐसे में महागठबंधन के नेताओं की हवा निकलनी तय है. आंधीतूफान के समय एकदूसरे से परहेज करने वाले भी जान बचाने के लिए एक ही छत के नीचे आ जाते हैं. महागठबंधन के नेताओं का ऐसा ही हाल है.

महागठबंधन में शामिल समाजवादी पार्टी के पास 5 सांसद, राष्ट्रीय जनता दल के खाते में 4, जनता दल यूनाइटेड, इंडियन नैशनल लोकदल और जनता दल सैकुलर की झोली में 2-2 सांसद हैं. यानी लोकसभा में इन की ताकत कुल 15 सांसदों की है. इन दलों को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 7.1 फीसदी ही वोट मिले थे. पिछले लोकसभा चुनाव में कांगे्रस समेत सभी इलाकाई दलों का तंबू मोदी की आंधी से उखड़ चुका है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तक सिमट कर 5 सीटों पर रह गई तो बिहार में जदयू 20 सीटों से गिर कर 2 सीटों पर सिमट गई. राजद को 4 सीटों से ही संतोष करना पड़ा और जनता दल (एस), सजपा, इनेलो की हालत तो पानी मांगने वाली भी नहीं रही. ऐसे में ये सभी दल मिल कर फिर से जनता दल परिवार के नाम पर एक छतरी के नीचे जमा हुए हैं.

नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि बिहार के सियासी अखाड़े में नीतीश और उन के ताजाताजा दोस्त बने लालू यादव दोबारा अपना पैर जमा पाते हैं या नहीं. अगर विधानसभा चुनाव में इस महागठबंधन को कामयाबी नहीं मिलती है तो आगे उस की राजनीतिक मौत तय है. साल 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मुलायम सिंह यादव गठबंधन से सब से पहले छिटकेंगे. वे अकेले दम पर चुनाव लड़ने में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे. अब तक यही देखा गया है कि देश में नया गठबंधन, तीसरा मोरचा या नैशनल फ्रंट बनाने वाले सारे दलों की परेशानी यह है कि पूरे 5 सालों तक वे अपनी डफली अपना राग अलापते रहते हैं और चुनाव आते ही साथ मिल कर सियासी खिचड़ी पकाने लगते हैं. अगर कांगे्रस और भाजपा को सही में उन की औकात बतानी है तो पूरे 5 साल तक महागठबंधन को मजबूत करने और सभी को जोड़े रखने की जरूरत पड़ेगी. चुनावों से पहले एकता की कवायद हमेशा रेत की दीवार ही साबित हुई है.

गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव के पहले देश के 11 क्षेत्रीय दलों को मिला कर नया फं्रट बनाने की नाकाम कोशिश की गई थी. उस में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता एच डी देवगौड़ा, बीजू जनता दल के सुप्रीमो नवीन पटनायक, एआईएडीएमके की जयललिता और माकपा नेता प्रकाश करात जैसे क्षेत्रीय दबंग शामिल थे. सब से पहले 1977 में जयप्रकाश नारायण ने जनता दल का सपना देखा और उसे जमीन पर उतारा गया. कुरसी की खींचतान की वजह से यह दल जल्दी ही बिखर गया. उस के बाद कांगे्रस से नाराज हो कर बाहर निकले वी पी सिंह ने 1988 में फिर से जनता दल का गठन किया. 1989 में उस जनता दल को सत्ता तो मिली पर 1990 में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने की लालसा हिलोरे लेने लगी और वे दल से अलग हो गए. 1992 आतेआते मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी अलग राह पकड़ ली. साल 1994 में जौर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने भी अलग हो कर समता पार्टी बना ली. उस के बाद 1997 में लालू यादव ने अलग हो कर राष्ट्रीय जनता दल का झंडा बुलंद कर लिया.

साल 1998 में ओमप्रकाश चौटाला ने भी बायबाय कर दिया और जनता दल का किला पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. पिछले 2 दशकों के दौरान जनता दल की ईंट बजाने वालों ने ही फिर से उस की बिखरी ईंटों को समेट और सहेज कर खड़ा किया है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार मिलने के बाद उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. सियासी मजबूरी में ही सही, पर एक बार फिर से महागठबंधन बना कर एकजुट हुए जनता दल परिवार के सामने सब से बड़ी चुनौती अपने कुनबे को जोड़े रखना, नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाना और कांगे्रस व भाजपा विरोधी वोट को अपने पक्ष में गोलबंद करने की है.

इस के बाद ही वह अपने ऊपर लगे इस आरोप को झुठला सकता है कि महागठबंधन नई बोतल में पुरानी शराब भर नहीं है. भाजपा नेता और नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार की सोच और काम करने का ढर्रा केवल मतलब पर आधारित है. 17 साल तक भाजपा से गठबंधन रखने वाले नीतीश अकसर कहा करते थे कि उन्होंने बिहार में लालू यादव और उन के जंगलराज से बिहार की जनता को नजात दिलाने के लिए ही भाजपा से नाता जोड़ा है. आज अपनी सियासत बचाने के लिए उन्हीं लालू यादव की गोद में जा बैठे हैं, जिन्हें हटाने के लिए जंगलराज का हल्ला मचाया करते थे. जदयू के एमएलसी रणवीर नंदन कहते हैं कि बिहार में 10 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया है कि पिछले 3 महीने में ही वोटर का मिजाज बदल गया है. अप्रैल में हुए आम चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर कब्जा जमा कर आसमान में उड़ रही भाजपा औंधे मुंह जमीन पर गिरी है. भाजपा की हार की वजह लालू और नीतीश की ताकत से ज्यादा खुद भाजपा की कमजोरी और भीतरघात रही. उपचुनाव में भाजपा को 2 सीटों का नुकसान हुआ तो जदयू और कांगे्रस को 1-1 सीट का फायदा मिल गया. राजद को अपनी 1 सीट गंवानी पड़ी.

उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि नमो की लहर को बिहार के भाजपाई कायम नहीं रख पाए और उस के कई नेता अतिआत्मविश्वास के सागर में गोते लगाते हुए अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में लगे रह गए. भाजपा को पूरा यकीन था कि नरेंद्र मोदी की लहर का असर विधानसभा चुनाव तक कायम रहेगा और लोकसभा की तरह बिहार में भी भाजपा को बहुमत मिल जाएगा. इसी खयालीपुलाव पकाने के चक्कर में सुशील मोदी, प्रेम कुमार, अश्विनी चौबे समेत कई नेता खुद को मुख्यमंत्री का बेहतर दावेदार बताने की होड़ में लगे रहे. उन्हें लालू और नीतीश के मिलन की ताकत का अंदाजा नहीं लग सका. उधर महागठबंधन को मिली जीत पर नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार की जनता ने भाजपा को आईना दिखा दिया है और उन्माद की राजनीति को दरकिनार कर सद्भाव की राजनीति में भरोसा जताया है, वहीं, भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए हैं. भाजपा के साथ थे तो वे ‘बड़े भाई’ की भूमिका में थे, पर लालू के साथ मिलने से उन्हें ‘छोटा भाई’ का दरजा मिला है. भाजपा को 2 सीटों का घाटा उठाने के सवाल पर मोदी कहते हैं कि यह तो नौकआउट मैच था, फाइनल मैच तो नवंबर में होगा. भाजपा की तैयारियों में कहां कमी रह गई, इस का आकलन कर नए सिरे से तैयारियों में जुटा जाएगा. फिलहाल 242 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में जदयू के 119, भाजपा के 88, राजद के 24, कांगे्रस के 5, सीपीआई के 1 विधायक समेत 5 निर्दलीय विधायक हो गए हैं.

कान में मसान

कान फिल्म समारोह में अपनी मौजूदगी को ले कर हर वक्त चर्चा में रहने वाले अनुराग कश्यप की फिल्म ‘बौंबे वैल्वेट’ भले ही पिट गई हो लेकिन उन की राह पर चल कर निर्देशक नीरज घेवन की ऋचा चड्ढा अभिनीत फिल्म ‘मसान’ कान अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में झंडे गाड़ रही है. उन की फिल्म को अनसर्टेन रिगार्ड श्रेणी में एफआईपीआरईएससीआई पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.अनुराग की फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ में उन के सहायक रह चुके नीरज की फिल्म वाराणसी की पृष्ठभूमि पर बनी है. इन दिनों देसी कसबों व ठेठ किरदारों से लैस फिल्में ज्यादा सफल हो रही हैं. इन में ‘रांझणा’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘पीकू’, ‘दम लगा के हइशा’ जैसे नाम प्रमुख हैं. अच्छी बात यह है कि अब फिल्मकार विदेशी फिल्मों की नकल करने के बजाय अपने देश के कोनेकसबों की कहानियां गढ़ रहे हैं और सफल भी हो रहे हैं.

फ्री वाईफाई के फेर में

यह लेख उन तमाम वोटरों को समर्पित है जिन्होंने दिल्ली में फ्री वाईफाई की उम्मीद में अरविंद केजरीवालजी को 95 फीसदी सीटों पर जीत दिलवाई. आखिर जीत के लिए कुछ लुभावना वादा तो चाहिए ही था और आजकल की यंग जैनरेशन को फ्री वाईफाई के अलावा और क्या आकर्षित कर सकता था. अब इतना बड़ा दावा कर दिया पूर्ण दिल्ली को वाईफाई से लैस करने का तो इस के लिए आय के स्रोत भी तो बनाने होंगे. केजरीवालजी कहते हैं कि एक साल लगेगा पर हम जैसे नौजवान, जो हरदम घोड़े पर सवार रहते हैं, 365 दिन इंतजार कैसे करेंगे. इसी से प्रेरित पेश हैं कुछ चुनिंदा टैक्स जिन्हें फ्री वाईफाई की उम्मीद में, हर स्मार्टफोनधारक देने के लिए सहसा तैयार हो जाएगा.

फ्रैंड रिक्वैस्ट टैक्स

यह टैक्स उन सभी नौजवानों, बूढ़ों पर लगाना चाहिए जो अनजान सुंदर लड़कियों को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजते रहते हैं, वह भी एकदो बार नहीं तब तक जब तक वे ऐक्सैप्ट नहीं करती. इस श्रेणी में वे सब आते हैं जो ऐसी रिक्वैस्ट भेजना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. कभी ये बोर हो रहे होते हैं तो झट से कोई भी नाम सर्च कर के फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज देते हैं. यह बीमारी हर छोटेबड़े को लगी हुई है. हर युवक औसतन कम से कम 10-20 ऐसी रिक्वैस्ट दिन में भेज ही देता होगा. सोचो, अब अगर हर रिक्वैस्ट पर टैक्स लगे तो कितना पैसा इकट्ठा हो जाएगा. वह खुशीखुशी ऐसा टैक्स भर देगा क्योंकि यह उस की तरफ से सहयोग होगा फ्री वाईफाई की उपलब्धता के लिए. वाईफाई मिलने से वह इस अति जरूरी काम को कहीं पर भी अंजाम दे पाएगा. इंटरनैट का खर्चा बचेगा तो टैक्स भर ही देगा.

कैंडी क्रश सागा

कैंडी क्रश सागा को तो लोगों ने इतना क्रश किया है कि उसे आमपापड़ ही बना दिया. इस के इतने दीवाने हुए जा रहे हैं कि पूछो मत. मौल हो, मैट्रो हो, आ रहे हों, जा रहे हों, लोगों के लिए कैंडी क्रश ही सगा है, शेष सब पराए. यहां तक कि फेसबुक पर स्टेटस डालने के बावजूद लोग कैंडी क्रश को रिक्वैस्ट भेजना बंद नहीं करते. तो सोचो, अगर ऐसे लोगों पर टैक्स लगा दिया जाए तो कितना पैसा इकट्ठा हो जाएगा.

सैल्फी टैक्स

आजकल नवयुवकों को नई बीमारी लगी है, फेसबुक पर सैल्फी डालने की. वे टेढ़ामेढ़ा मुंह बना कर, आड़ेतिरछे पोज में फोटो खींच कर फेसबुक पर डालते रहते हैं. फिर उन सब लोगों से, जिन की सैल्फी, अच्छी नहीं आती, अपील करते हैं कि उन की फोटो को न सिर्फ वे लाइक करें बल्कि अच्छेअच्छे कमैंट्स भी करें. ऐसे लोगों पर तो डबल या ट्रिपल टैक्स लगाना चाहिए. 2 से ज्यादा फोटो पोस्ट कीं तो टैक्स लगना चाहिए. कुछ लोगों को सुबह उठने से ले कर एकएक सांस की फोटो खींच कर फेसबुक पर डालनी होती हैं. उन के लिए शायद यह काम सांस लेने से भी ज्यादा जरूरी होता है. उन्हें ऐसे लोग निर्धारित टैक्स के अंदर लाने चाहिए. ऐसे लोग कहीं पर भी जाएंगे स्टेटस अपडेट के साथ सब से पहले फोटो खींचेंगे और वाईफाई मिलते ही फेसबुक पर पोस्ट कर देंगे. फिर दोस्तों, रिश्तेदारों को वाट्सऐप पर मैसेज कर के बोलेंगे, ‘मेरी लेटेस्ट पिक देखो एफबी पर.’ पहले तो गुस्सा फेसबुक पर था अब वाट्सऐप पर भी आ गया. इतने फोटो डालते हैं कि बंदा सोचता रहता है कि कहीं इस ने किसी खास मकसद के लिए पोर्टफोलियो तो नहीं बनाया. काम वाले बंदों का टाइम बरबाद करने के लिए इन पर टैक्स लगाना तो बनता ही है.

ग्रुप मैसेज

ग्रुप मैसेज भेजने वाले तो अति महान हैं. उन पर तो तगड़े से भी तगड़ा टैक्स बनता है. वे ऐसेऐसे सैंटी, इमोशनल, रिलीजस और डरावने मैसेज भेजते हैं कि बंदा मजबूर हो जाता है उन्हें आगे फौरवर्ड करने को. और वह भी एकदो दोस्तों को नहीं, इकट्ठे 10-20 दोस्तों को. ऐसे भयंकर मैसेज होते हैं जिन के आखिर में लिखा होता है कि यह मैसेज अपने 7 दोस्तों को भेजो और 1 घंटे के अंदर आप को अपने प्रिय का कौल आ जाएगा. वह बंदा पहले ही फुंका बैठा होता है कि कोई प्रिया अभी तक फोटो देख कर पटी नहीं है. किसी मैसेज के आखिर में लिखा होता है, ‘मुझे कसम है शनिदेव की कि मैं यह मैसेज कम से कम 10 लोगों को भेजूंगा. अगर नहीं भेजूंगा तो कितना अनर्थ होगा यह सोच लो, शनिदेव की कसम जो लगी हुई है.’ या फिर और भी खतरनाक कि ‘यह मैसेज सब को सैंड करो और देखो कौन क्या जवाब देता है. और अगर 8 में से 4 का भी जवाब आ गया, तो लक्ष्मीजी आप की मनपसंद चीज आप को दिला देंगी.’

नतीजतन, बंदा, बंदर बना आगे से आगे फौरवर्ड करता रहता है. अब एक आदमी औसतन 10-20 ऐसे मैसेज आगे भेजता होगा और अगर हर मैसेज टैक्स के दायरे में आ जाए तो केजरीवालजी के चुनावी वादे बड़ी जल्दी हकीकत का आकार ले लेंगे. सरकार भी खुश और जनता भी खुश. आखिर फ्री वाईफाई का सवाल है भई. सप्रेम एक भुक्तभोगी के दिल से निकली दुआ जिस के पास न वाईफाई है, न फेसबुक भी ढंग से चलाता है और अपनी सैल्फी देख कर तो वह खुद ही डर जाता है. हो सकता है कि फ्री वाईफाई मिल जाए तो वह भी इंस्टाग्राम पर अपनी कोई अच्छी सी पिक एडिट कर के एफबी पर डाल दे और आने वाले समय में वह भी ऊपर लिखे टैक्सपेयर की श्रेणियों में से किसी एक में जगह बना ले.  

बच्चों के मुख से

मेरा बेटा तुषार 3 साल का था. एक दिन मैं पौधों को ठीक कर रही थी, तभी उस ने पूछा, ‘‘मम्मी, पौधे क्या खा कर बड़े होते हैं?’’ मैं ने कहा कि मिट्टी खा कर. तब वह कहने लगा कि गुडि़या भी बड़ी हो कर पौधा बन जाएगी क्योंकि वह भी मिट्टी खाती है.

मधु गोयल, बागपत (उ.प्र.)

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मैं अपने 8 वर्ष के बेटे को सामान्य ज्ञान पढ़ा रही थी. उस में एक प्रश्न था कि भारत का फ्लाइंग सिख कौन है?

मैं ने उसे बताया, ‘‘मिल्खा सिंह.’’

उसे सुनाई दिया, मिल्का सिंह. वह मुझ से बोला, ‘‘मम्मी, दूध वाला अपनी बाइक ले कर कैसे उड़ा होगा?’’ यह सुन कर मुझे उस के भोलेपन पर हंसी आ गई.  

हेमलता गुप्ता, जयपुर (राज.)

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मेरी 7 वर्षीय पुत्री श्रेया स्वभाव से बड़ी चंचल, शरारती और हाजिरजवाब है. एक दिन वह मेरे पास बैठी अपने विद्यालय में मिले गृहकार्य को दिखा रही थी और उसे पूरा कराने के लिए ट्यूशन लगवाने की जिद कर रही थी. इस पर मैं ने श्रेया को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम तो पहले से ही बड़ी होशियार हो, फिर ट्यूशन की क्या जरूरत है?’’

इस बात को कुछ दिन ही बीते थे. एक दिन मैं अपनी पत्नी के साथ बैठा बातें कर रहा था. वहीं श्रेया भी बैठी थी. वह बातें पकड़ने में बड़ी तेज है. घर में काम की व्यस्तता के चलते पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘क्यों न घर के काम के लिए एक बाई को रख लिया जाए?’’ यह सुन कर एकाएक अपने चंचलतापूर्ण भोलेपन से उस ने कहा, ‘‘मां, तुम तो घर का काम करने में होशियार हो, फिर काम करने के लिए बाई रखने की क्या जरूरत है?’’ उस की इस हाजिरजवाबी पर हम सब ठहाका मार कर हंस पड़े.

भौलेंद्र कुमार चतुर्वेदी, फीरोजाबाद (उ.प्र.)

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एक दिन मैं अपने 14 वर्षीय पुत्र को समझा रही थी कि किसी भी आंटी की उम्र नहीं पूछनी चाहिए और किसी भी अंकल की सैलरी नहीं पूछनी चाहिए. यह अच्छा नहीं समझा जाता. मेरी 7 वर्षीय बेटी, जो हमारी बातों को काफी ध्यान से सुन रही थी, तपाक से बोली, ‘‘और भैया, सब के सामने किसी बच्चे की पर्सेंटेज औफ मार्क्स भी नहीं पूछना चाहिए. यह भी अच्छा नहीं समझा जाता.’’ हम दोनों मुसकरा दिए क्योंकि उस की बातों में दम था.

निभा सिन्हा, गया (बिहार)

सुनियोजित जीवन जिएं

75 वर्षीय देवेंद्र कुमार आज दानेदाने को मुहताज हैं. जिन बेटों पर उन्होंने अपना सर्वस्व लुटा दिया वे आज उन्हें दो वक्त की रोटी देने में भी आनाकानी करते हैं. अब देवेंद्रजी उस दिन को कोसकोस कर रोते हैं जिस दिन उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति बेटों के नाम कर दी थी. दरअसल, उस वक्त उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि उन के अपने बच्चे उन के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करेंगे. उस समय अगर उन्होंने समझदारी से काम लिया होता तो आज उन की यह दशा न होती. अधिकांश भारतीय परिवारों में बुजुर्ग जैसे ही कामकाज से रिटायरमैंट ले लेते हैं वे सबकुछ बच्चों को सौंप कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं. लेकिन उन का यह रवैया आगे चल कर पूरी तरह उन्हें बच्चों पर निर्भर बना देता है और वे अपनी हर जरूरत के लिए बच्चों पर निर्भर हो जाते हैं.

आप के साथ भी कहीं ऐसा न हो, इसलिए जरूरी है जरा सी समझदारी :

जीतेजी कभी भी अपनी संपत्ति का नियंत्रण दूसरों को न सौंपें. बहूबेटों या भाइयों को भी नहीं. पावर औफ अटौर्नी देने से पहले चार बार सोच लें. संबंधों को बदलते समय नहीं लगता. बेहतर होगा कि अपने चहेते के नाम वसीयत लिख दें, जिस से आप की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व में परिवर्तन हो. इसे बदलने का मौका भी आप को जीवनपर्यंत मिलेगा.

भारतीय घरों में अकसर रुपएपैसे या जमीनजायदाद व दूसरी धनसंपत्ति के मामले पुरुष ही देखते, संभालते हैं और उन्हीं को पूरी जानकारी भी रहती है. घर की महिलाएं इन मामलों से अनजान रहती हैं. समझदारी इस में है कि पति अपनी पत्नी को भी पूरी जानकारी दे कर रखे और ‘डील’ करने की न सही, रिकौर्ड रखने की आदत जरूर सिखाए. क्योंकि कई बार अगर जीवन की राह पर पति की पहले मृत्यु हो जाए तो पत्नी वित्तीय मामलों से पूरी तरह अनजान होने के कारण अपने अधिकारों से वंचित रह जाती है और बच्चे इस स्थिति का लाभ उठाने लगते हैं.

गोपाल ने अपनी जीवनभर की पूंजी एक कोऔपरेटिव बैंक में जमा करवा दी जिस का दीवाला निकलते ही गोपाल हार्ट अटैक का शिकार हो गया. ‘बैंक’ शब्द आप के धन की सुरक्षा की गारंटी नहीं देता. कोऔपरेटिव बैंक तो अकसर फेल होते ही रहते हैं, सभी प्राइवेट बैंकों की साख भी एक सी नहीं होती. बेहतर होगा पब्लिक सैक्टर बैंकों पर भरोसा करें.

अपने क्रैडिट कार्ड स्टेटमैंट और बैंक अकाउंट्स पर पूरी नजर रखें.

कई बार मेकिंग ज्यादा न देनी पड़े इसलिए लोग पासपड़ोस के ज्वैलर्स से ज्वैलरी खरीद लेते हैं जो हौलमार्क नहीं होती जो उस समय तो सस्ती लगती है पर शुद्धता के चलते उस के पूरे दाम नहीं मिलते इसलिए सोने के आभूषण खरीदें तो हौलमार्क अवश्य देखें. कई बार इस में खोट की वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ जाता है.

कई कंपनियां या वित्तीय संस्थाएं काफी ऊंची ब्याजदर पर फिक्स डिपौजिट के लिए रकम स्वीकार करती हैं. इन से सावधान रहें. इन की साख कमजोर होने की वजह से लोग इन्हें रकम देने से कतराते हैं, इसीलिए इन की ब्याज दर ज्यादा होती है. पोस्टऔफिस जमा या सरकारी बौंड ज्यादा सुरक्षित होते हैं.

आईपीओ में शेयर के लिए आवेदन हमेशा फायदे का सौदा नहीं होता. आजकल ज्यादातर शेयर अलौट की गई कीमत से कम पर ही बाजार में उपलब्ध हो जाते हैं.

टैक्स की छूट खर्च की किन मदों में मिलती है, इस की पूरी जानकारी रखें, जैसे सीनियर सिटीजंस, अपाहिजों को, बीमारी के इलाज, चैरिटी ट्रस्ट में डोनेशन आदि में टैक्स डिडक्शन मिलता है.

जिन डैबिट कार्ड्स के प्रयोग के लिए पिन नंबर की जरूरत नहीं पड़ती उन्हें शौपिंग के लिए इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं.

ध्यान रखें ‘जीरो इंटरैस्ट’ नाम की कोई चीज वास्तविक नहीं होती. जरा सोचें, कोई व्यक्ति बिना ब्याज या फायदे के आप को क्यों फाइनैंस करेगा. शून्य ब्याज पर खरीदे उपभोक्ता सामान या अन्य चीजें एमआरपी पर यानी बिना डिस्काउंट के लेनी पड़ती हैं, इस के अलावा इन में प्रोसैसिंग फीस, सर्विस टैक्स व अन्य चार्ज भी लग जाते हैं. आप को छिपे रूप में 20-24 प्रतिशत तक ब्याज देना पड़ सकता है.

इस तरह, समझदारी के साथ जीवन जीने की योजना बनाएंगे तो आप को उम्र के आखिरी पड़ाव में भी आर्थिक दिक्कत नहीं आएगी और परिवार के सदस्य आप की सेवा में लगे रहेेंगे.

नाम में धर्म ढूंढ़ने की ओछी सोच

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुसलिमबहुल मंगोलिया यात्रा और उसी दौरान नई दिल्ली इलाके में मुसलिम शख्सीयतों के नाम दर्शाने वाली कुछ सड़कों के नामपट्ट पर कालिख पोतने की घटना का कोई संयोग नहीं है फिर भी सैकड़ों साल पहले भारत में मंगोलों की घुसपैठ के साथ पड़ी मुगल काल की नींव में मजहबी नफरत का एक और रूप देखा जा सकता है. केंद्र में मोदी सरकार के एक साल पूरा होने के जश्न में विकास के गुणगान के बीच हिंदू कट्टरपंथ की यह ओछी सोच सामने आई. 14 मई को नई दिल्ली इलाके में मुसलिम शख्सीयतों के नाम दर्शाने वाली कुछ सड़कों के नामपट्ट पर कालिख पुती देखी गई तो अनेक लोग हैरान रह गए. सफदर हाशमी रोड, फिरोजशाह रोड, औरंगजेब रोड और अकबर रोड के साइनबोर्डों पर काला रंग पोत कर ये नाम मिटा दिए गए. इस पर नई दिल्ली नगर पालिका के अधिकारियों द्वारा संपत्ति को बिगाड़ने का मामला पुलिस थाने में दर्ज कराया गया.

एफआईआर में किसी का नाम नहीं लिखाया गया लेकिन मामला साफ है. ऐसा करने वालों ने साइनबोर्डों पर जो पोस्टर चिपकाए हैं उन में स्पष्ट लिखा है, ‘भारत में इसलामीकरण मंजूर नहीं, सफर में मुश्किलें आएं तो हिम्मत और बढ़ती है, कोई अगर रास्ता रोके तो जरूरत और बढ़ती है. जय हिंद, जय भारत.’ इस के नीचे ‘शिवसेना हिंदुस्तान’ और इस संगठन के पदाधिकारियों के नाम लिखे हुए थे. मामले को ले कर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने हिंदूवादी कट्टरपंथियों की आलोचना की पर भाजपा और केंद्र सरकार अभी तक चुप हैं. मजे की बात है कि काला रंग पोत कर जिन नामों के प्रति नफरत जताई गई है उन के कामों को नहीं, मात्र मजहब को देखा गया. सफदर हाशमी एक प्रगतिशील कम्युनिस्ट कलाकार, नाटककार, निर्देशक, लेखक, कवि थे. 1989 में साहिबाबाद में एक नुक्कड़ नाटक के दौरान कांग्रेसी कट्टरपंथियों ने उन की हत्या कर दी थी. फिरोजशाह, तुगलक वंश के संस्थापक थे. अकबर को महान मुगल शासक कहा जाता है और उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष शासक माना गया है. उन्होंने  संस्कृत, पालि भाषा की हजारों पांडुलिपियों को न केवल संरक्षित कराया, उन का फारसी में अनुवाद किए जाने का बंदोबस्त भी कराया. औरंगजेब के राजकाज को भी भारत के लिए बुरा नहीं समझा गया है. दिल्ली में इन मुसलिम शासकों के अलावा वीवीआईपी मार्गों का नामकरण बाबर, शाहजहां, सफदरजंग, हुमायूं, सिकंदर, लोदी, शेरशाह सूरी, बहादुर शाह जफर के नामों पर भी है. ये वे क्षेत्र हैं जहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट के न्यायाधीश तथा अन्य बड़ेबड़े नौकरशाह रहते हैं. इलाके के मार्गों के मुसलिम शख्सीयतों के नामों पर कभी विवाद नहीं हुए. न कभी किसी नेता ने, न किसी संगठन ने विरोध किया. सरकारें बदलीं तो कुछ मार्गों का नाम जरूर हिंदू सामाजिक और धार्मिक नेताओं के नाम पर करा दिया गया पर इन नामों को बदलने की बात भी नहीं उठी.

मुगलों से मिली विरासत

धर्म के चश्मे से देखने वालों को अकबर, औरंगजेब, बाबर, शाहजहां जैसे शासकों के कार्य दिखाईर् नहीं दिए. पिछले करीब 1000-800 सालों के मंगोलमुगल शासकों द्वारा भारत के निर्माण में कराए गए कार्यों को देखा जाए तो जिस महान हिंदू सभ्यता, संस्कृति का दिनरात गुणगान किया जाता है, उस के हिंदू शासक कहां ठहरते हैं. मुगलों ने एक समृद्ध विरासत छोड़ी है. इमारतें, चित्रकारी, खूबसूरत बागबगीचे और नई बस्तियों का निर्माण, शहरों को सड़कों से जोड़ना, समुद्री मार्ग आदि मुगलकालीन देन मानी जाती है. भारत के इतिहास में अन्य की तुलना में मुगल काल ने भारतीय, ईरानी और मध्य एशिया की कलात्मक, बौद्धिक और साहित्यिक परंपरा का अधिक सम्मिश्रण देखा. कलात्मक डिजायन और आनंद व सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रशंसा के लिए मुगल जितना देते थे उस से कहीं अधिक लेते भी थे.

शुरुआत बाबर से हुई. मध्य 16वीं और 17वीं शताब्दी के अंत तक मुगल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति था. 1526 में स्थापित यह साम्राज्य 1857 तक नाममात्र का बचा रहा, जब यह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया. मुगल विस्तार का सब से बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) में परिपक्व था. वर्तमान भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तराधिकारी जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब द्वारा इस साम्राज्य को अगले 100 साल के लिए प्रमुख शक्ति के रूप में बनाए रखा गया था. अकबर ने महत्त्वपूर्ण नीतियों को शुरू किया, मसलन, धार्मिक उदारवाद (जजिया कर उन्मूलन), साम्राज्य के मामलों में हिंदुओं को शामिल करना आदि. औरंगजेब की नीतियों में जरूर धार्मिक सहिष्णुता का कम स्थान था. इस के अलावा औरंगजेब ने तकरीबन अपने पूरे जीवन में डेक्कन और दक्षिण भारत में अपने दायरे का विस्तार करने की कोशिश की. इस प्रयास में साम्राज्य के संसाधनों को बहा दिया जिस से मराठा, पंजाब के सिखों और हिंदू राजपूतों के अंदर मजबूत प्रतिरोध उत्तेजित हुआ.

भारत के इतिहास में अन्य की तुलना में मुगल काल ने भारतीय, ईरानी और मध्य एशिया की कलात्मक, बौद्धिक और साहित्यिक परंपरा का एक बेजोड़ सम्मिश्रण देखा. इस साम्राज्य ने कलात्मक प्रतिभा के विकास के लिए एक सुरक्षित ढांचा प्रदान किया और इस उपमहाद्वीप के इतिहास में अनूठे धन और संसाधनों को बढ़ावा दिया गया. मुगल शासक कला व स्थापत्यकला के बड़े संरक्षक थे. दरअसल, मंगोलों के कई समूह अलगअलग समय में भारत में आए और उन में से कुछ यहीं पर बस गए. चंगेज खां और तैमूर मंगोल थे. इतिहासकारों का मानना है कि मंगोल लोग ही मुगल कहलाने लगे. दिल्ली में बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे शक्तिशाली सुलतानों को मंगोलों के आक्रमण रोकने में एड़ीचोटी का जोर लगाना पड़ा था. 1398 में तैमूर के हमले ने दिल्ली सल्तनत की नींव हिला दी थी और मुगल वंश की स्थापना का रास्ता खोल दिया. बाद में मुगलों ने 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन की स्थापना होने तक इस देश में राज किया.

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए मुगलों का प्रमुख योगदान उन की अनूठी वास्तुकला ही नहीं, व्यापारिक सोच भी थी. मुगल काल के दौरान मुसलिम सम्राटों द्वारा ताजमहल सहित कई बड़े स्मारक बनवाए गए. मुसलिम मुगल राजवंश ने भव्य महलों, कब्रों, मीनारों और किलों का निर्माण कराया था जो आज दिल्ली, आगरा, जयपुर, ग्वालियर, धौलपुर समेत बंगलादेश और पाकिस्तान के कई अन्य शहरों में मौजूद हैं. निर्माण बाबर के साथ शुरू होता है. शाहजहां और औरंगजेब के शासनकाल के दौरान दिल्ली की महत्ता बढ़ी और मुख्य शहर व्यापार व शिल्प का इंपोरियम बन गया. मुगल काल में 3,200 कसबे विकास के केंद्र थे और 120 शहर प्रशासनिक केंद्र, व्यापार, वाणिज्यिक स्थान, तटीय शहरों, बंदरगाहों और धार्मिक व शिक्षा केंद्रों में शामिल थे. मुगलों ने व्यापार और वाणिज्यिक केंद्रों के विकास को बढ़ावा दिया. तरक्की के लिए शहरों का विकास किया. आगरा, पटना, इलाहाबाद, जम्मू, अजमेर समेत पाकिस्तान और बंगलादेश के कई शहर व्यापारिक गतिविधियों के बड़े केंद्र थे.

मुगल काल में नई बस्तियां बसाईर् गईं. यात्रियों के लिए सराय निर्माण का काम इसी काल से शुरू हुआ. रेल मार्गों का निर्माण अंगरेजों के समय से शुरू हुआ. औरंगजेब के शासनकाल के बाद साम्राज्य में गिरावट शुरू हुई. बहादुर शाह जफर के साथ शुरुआत से मुगल सम्राटों की सत्ता में उत्तरोत्तर गिरावट आई. 18वीं शताब्दी में इस साम्राज्य के दौर में पर्शिया के नादिर शाह और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली जैसे हमलावरों ने बारबार दिल्ली में लूटपाट की. 1803 में शक्तिहीन शाहआलम द्वितीय ने औपचारिक रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का संरक्षण स्वीकार कर लिया था. क्या इन की तुलना में मठों, मंदिरों, तीर्थस्थलों के विकास को विकास माना जाए? हिंदू शासकों द्वारा धर्म के नाम पर बड़ेबड़े गढ़, मठ बनाए गए और ये व्यक्ति के अहं और उस के द्वारा बनाए गए नियमों को जनता पर थोपने का अड्डा बन गए ताकि कुंठित धर्माधिकारी धन, ऐश्वर्य के बूते ऐयाशी कर सकें. आश्रम, तीर्थ, मंदिर का निर्माण व्यक्तिगत और अपनी महत्त्वाकांक्षा के नतीजे थे. उन की नजरों में जनकल्याण, शिक्षा और तरक्की की भावना गौण थी. 

आम हिंदू और मुसलिम यहां एकदूसरे की संस्कृतियों को सम्मान देते आए हैं पर मजहब के नाम पर बने संगठन एकदूसरे के खिलाफ वैमनस्य का प्रदर्शन करते रहे हैं. जब से भाजपा केंद्र में सत्ता में आई है, मजहबी नफरत फैलाने वाली वारदातों में वृद्धि हो रही है. हिंदू कट्टरपंथियों की इस तरह की हरकतें आएदिन देखने को मिल रही हैं. कट्टरपंथी संगठनों और इन के नेताओं के हौसले बुलंद हैं.

धर्म की कठपुतली बने शासक

देश की राजधानी में मुसलिम शासकों के नामों वाले मार्गों से घिरा हुआ संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, तमाम बड़े मंत्रालयों वाला इलाका अपनेआप में इन के काम की महत्ता को जताने के लिए काफी है. दिक्कत यह है कि धर्म प्रगति पर हावी होने लगा. शासक धर्म के पनाहगार बन गए. धर्म के अनुसार राजकाज संचालित होने लगा और समाज को नियंत्रित किया गया. अंगरेजों के समय, इस से पहले मुगल राज और मुगल काल से पहले भी हिंदुओं का ध्यान सदा से मानव विकास के बजाय धर्म के विकास पर अधिक रहा है. धर्म के ठेकेदार फलतेफूलते रहे, आम हिंदू गरीब, अभावग्रस्त, पीडि़त बना रहा. आज भी हिंदुओं के नाम पर सैकड़ों संगठन बने हुए हैं, फिर भी आम हिंदू गरीब, पिछड़े हैं. हिंदू अपने धर्म के प्रचार में लगा रहा और दूसरों के प्रति नफरत फैलाने में पीछे नहीं रहा.

आमतौर पर भारत में जितने भी विदेशी आक्रमणकारी आए, उन का उद्देश्य अपने धर्र्म का विस्तार नहीं था, हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराना नहीं था, बल्कि सत्ता का विस्तार और लूटपाट का था.हिंदू अब भी धर्म की पूंछ पकड़े बैठा है. हिंदू धर्म में खुद अनगिनत अंतर्विरोध हैं, भेदभाव है कि हिंदू एक ही नहीं. धर्म की खामियां बताने वालों पर हमले किए जाते हैं. महाराष्ट्र में भगवा गिरोह द्वारा की गई नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याओं पर आज तक सरकार और धर्म के रखवालों की चुप्पी नहीं टूटती. इतिहास मानवता और भौतिक विकास को देखेगा या  धर्म के खोखले ढकोसलों के विकास को. धर्म ने किस का विकास किया? केवल धर्म की पैरवी करने वालों का न. किसी भी देश के आम आदमी की धर्म ने किसी भी तरह से तरक्की नहीं होने दी. उलटे, उस ने विकास की राह में रोड़े अटकाए. ऐसे में देश को विकास का इतिहास देखना चाहिए या धर्म की संकीर्णता का.

धर्म की संकीर्णता ने विकास और विकास की सोच को निर्ममता से तहसनहस किया है. 7वीं सदी में आदि शंकराचार्य से ले कर आज 21वीं सदी के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती तक ने हिंदू धर्र्म के प्रचार मात्र पर ही काम किया. देश के चारों कोनों में 4 मठों की स्थापना और प्रचार ही उन का मुख्य उद्देश्य रहा. आदि शंकराचार्य के बाद आए हिंदू शासकों से धर्म को भरपूर प्रश्रय मिला. हिंदू शासकों ने देश के विकास की रूपरेखा नहीं बनाई, दरअसल, धर्म ने बनने ही नहीं दी. शासक धर्म की कठपुतली बने रहे. वे एकदूसरे से राज्य विस्तार के लिए लड़तेमरते रहे. बाहरी आक्रमणकारी आए तो लालच में उन से मिल गए. धर्म की चिंता करने वाले यही लोग हैं जो हिंदू शासकों की उपलब्धियों, तरक्की के कामों के लेखेजोखे पर बगलें झांकने लगते हैं. कट्टर हिंदू संगठन मुसलिम शासकों के नामपट्टों को नष्ट कर के केवल अपनी संकीर्ण सोच को ही उजागर कर रहे हैं. आप अपने विकास की सोच, नीतियों व कार्यों की मुगलों व अंगरेजों के कामों से तुलना तो कीजिए. देशभर के शहरों में मुंह बोलते ऐतिहासिक प्रमाण स्वयं बता देंगे, हाथ कंगन को आरसी क्या.

मोदी डालडाल राहुल पात पात

ये है सोशल मीडिया पर कांग्रेस के युवराज, गांधीनेहरू खानदान के चश्मेचिराग यानी शहजादे राहुल गांधी की छवि के संदेशों की एक झलक. सोशल मीडिया वाले तो उन के गोया दीवाने हैं. उन पर न जाने कितने चुटकुले गढ़े जाते हैं. उन्हें पप्पू, मुन्ना, राहुल बाबा कह कर संबोधित किया जाता है. यह बताने की कोशिश की जाती है कि राहुल गांधी की उम्र भले ही 43 साल की हो गई हो मगर दिमागी तौर पर वे अभी बच्चे हैं. उन्हें सामान्य सी चीजें समझ में नहीं आतीं. वे कार्टूनिस्टों के भी बहुत चहेते हैं. उन्हें राहुल के कार्टून बनाने में बड़ा मजा आता है. यह सिलसिला तब से ही चल रहा है जब से राहुल राजनीति में आए हैं. तब से उन की खैर नहीं है. लोग समझते हैं कि राहुल मुंह में चांदी की चम्मच ले कर पैदा हुए हैं. इस का मतलब यह लगाया जाता है कि राजनीतिक सफलता भी घुट्टी में ही मिल जाती है. लेकिन लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता. यहां की हकीकत और है, नेता वही जो वोटर मन भाए. कांग्रेसी भले ही राहुल बाबा की आरती उतारते हुए न थकते हों लेकिन देश की जनता ने कभी राहुल को नेता की तरह स्वीकार नहीं किया. भले ही वे 2 बार अमेठी से चुनाव जीत चुके हैं.

विडंबना यह है कि राहुल राजनीति में आना नहीं चाहते थे लेकिन खानदान और कांग्रेस के लिए उन्हें राजनीति की दुनिया में आना पड़ा. लेकिन  नानुकुर करते हुए राजनीति में आ भी गए तो इस तरह से राजनीति करने लगे जैसे गोया राजनीति पर ही एहसान कर रहे हों. ऐसी अदा से राजनीति करते रहे कि राजनीति के पिंजरे में उन्हें बंद तो कर दिया गया है लेकिन जब चाहेंगे वे पिंजरा ले कर उड़ जाएंगे. लेकिन वे भूल गए कि वे दिन हवा हो चुके हैं जब जनता कुलगोत्र जान कर नेता मान लेती थी. उस पर राहुल गांधी की राजनीति के प्रति अगंभीरता ने अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने के बजाय उन्हें मजाक का पात्र बना दिया. जब से राहुल आए हैं, उन के नाम नाकामियां ही लिखी हुई हैं. कई बार तो लगता है कि राहुल की कांग्रेस की राजनीति में बिस्मिल्लाह ही गलत हुई. सब से पहले उन्हें बिहार के विधानसभा चुनाव की कमान दी गई, फिर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अभियान की बागडोर थमाई गई. ये दोनों ही राज्य ऐसे थे जहां पिछले कई वर्षों में कांग्रेस का सफाया हो चुका था और अगले कई वर्षों तक उस के लौटने के कोई आसार नहीं हैं. इसलिए वही हुआ जो होना था यानी राहुल गांधी को कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में नाकामी मिली. लेकिन राहुल गांधी पर जरूर हमेशा के लिए ठप्पा लग गया कि उन के नेतृत्व में कांग्रेस हमेशा हारती ही रही है. तब से मीडिया के लिए वे मजाक के पात्र बन गए हैं. उन से जुड़ी हर बात पर व्यंग्य किया जाता. वे छुट्टी पर जाते हैं तो व्यंग्य का निशाना बनते हैं, लौट कर आते हैं तो मजाक का केंद्र बनते हैं.

लेकिन ऐसा नहीं था कि राहुल गांधी केवल मीडिया का ही निशाना बन रहे हैं बल्कि उन का सब से ज्यादा विरोध कांग्रेसियों की तरफ से हो रहा है. लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद तो  कांग्रेस में ही राहुल के बुरे दिनों की शुरुआत हो गई. कांग्रेसी नेता जो पहले उन का गुणगान करने के लिए ही मुंह खोलते थे, अचानक उन के मुंह में जबान आ गई. कोई राहुल को जोकर कहने लगा, कोई नेतृत्व करने में अक्षम. पार्टी में ओल्ड टीम और टीम राहुल के बीच सिविल वार शुरू हो गई. कैप्टन अमरिंदर सिंह, किशोर चंद्र देव, शीला दीक्षित और उन के बेटे संदीप दीक्षित जैसे कांग्रेसी नेताओं ने तो यह कहते हुए राहुल के प्रति अपने अविश्वास को स्पष्ट कर दिया था कि पार्टी की कमान सोनिया को अपने पास ही रखनी चाहिए. केवल सोनिया का नेतृत्व ही पार्टी में नए सिरे से जान फूंक सकता है. दूसरे शब्दों में, वे यह कहना चाह रहे थे कि राहुल गांधी राजनीति से दूरी ही बनाए रखें तो अच्छा. कुछ लोगों ने प्रियंका लाओ देश बचाओ’ का राग अलापना शुरू कर दिया.

माहौल से ऊब कर राहुल गांधी संसद का सत्र छोड़ कर छुट्टी पर चले गए तो उन की आलोचना की सारी हदें पार हो गईं. कहा गया, राहुल गांधी ने बहुत गैरजिम्मेदाराना हरकत की है. पार्टी को बीच मझधार में छोड़ कर चल दिए. ऐसा भगोड़ा व्यक्ति पार्टी का क्या नेतृत्व करेगा. यह कयास लगाए जाने लगे कि राहुल कहां गए हैं. किसी ने कहा उत्तराखंड में गए हैं, किसी ने कहा थाईलैंड गए हैं मसाज कराने तो किसी ने कहा मन शांति के ले विपश्यना कर रहे हैं. जितने मुंह उतनी बातें. गए तो 20 दिन के लिए लेकिन 59 दिन बाद लौटे. तब पार्टी का धैर्य जवाब दे चुका था. आखिरकार राहुल लौटे मगर कांग्रेसियों में उन को ले कर खास उत्साह नहीं था. फिर भी कुछ निष्ठावान  कांग्रेसियों ने पटाखे फोड़ कर उन का स्वागत जरूर किया. पुरानी पीढ़ी के कांग्रेसी उन के आगमन से ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आए. वे जानते थे कि कांग्रेस में सांगठनिक बदलावों और पुराने नेताओं की भूमिका को ले कर मांबेटे में मतभेद उभर आए हैं. पार्टी के ‘ओल्ड गार्ड’ के प्रति राहुल की अरुचि किसी से छिपी नहीं है और लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने यह भी कोशिश की थी कि खराब छवि वाले अनेक पुराने कांग्रेसी नेताओं को टिकट न दिया जाए. लेकिन सोनिया और उन के सलाहकार इस से सहमत नहीं हुए और पार्टी के प्रति परंपरागत रूप से वफादारी दिखाते आ रहे नेताओं को ही प्राथमिकता दी.

वरिष्ठ नेताओं के प्रति राहुल के रवैए को ले कर सोनिया हमेशा से चिंतित रही हैं और वे राहुल को समझाती रही हैं. लोकसभा चुनावों में राहुल ने अपनी मां की बात मानी लेकिन पार्टी का बंटाधार ही हुआ. तभी यह साफ हो गया था कि कांग्रेस संगठन के स्तर पर दोफाड़ हो गई है. ऐसे घोर निराशा के माहौल में राहुल गांधी के छुट्टी से लौटने के बाद किसी को उन से कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन हुआ उलटा. जिस ने भी राहुल गांधी के एकदो भाषण सुने, उसे लगा यह तो चमत्कार हो गया. कांग्रेसियों और देशवासियों ने महसूस किया, बदलेबदले मेरे सरकार नजर आते हैं. कायाकल्प हो गया है राहुल गांधी का. ऐसा आत्मविश्वासभरा राहुल गांधी उन्होंने पहले नहीं देखा था.  सोशल साइट्स वालों ने भी महसूस किया कि उन का पप्पू पास हो गया है. 58 दिनों के ‘अज्ञातवास’ के बाद लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब पहले से बेहतर फौर्म में नजर आ रहे हैं. कभी राहुल का भाषण शुरू होने के बाद श्रोता खिसकने लगते थे. इन दिनों हर जगह राहुल गांधी के भाषण के चर्चे हैं. अब वे अपने भाषणों में भारी आक्रामक हो गए हैं. वे यह बात समझ गए हैं कि मीडिया और लोग सरकार की तीखी आलोचना, उस का मजाक उड़ाया जाना पसंद करते हैं.

लौटने के बाद दिए पहले ही भाषण में उन्होंने मोदी सरकार की जम कर आलोचना की. उसे गरीब विरोधी और सूटबूट की सरकार बताया और कहा कि यह सरकार चंद कौर्पोरेट कंपनियों के लिए काम कर रही है. उन का यह भाषण ऐसा सुपर हिट रहा कि देश समझ गया कि यह राहुल गांधी नया है. उन का सूटबूट वाली सरकार जुमला बच्चेबच्चे की जबान पर चढ़ गया. इस के बाद तो उन के एक से बढ़ कर एक भाषणों का तांता लग गया. इस के अलावा वे देश के कई हिस्सों में पदयात्रा कर के आम लोगों से संवाद कर रहे हैं. छुट्टी से लौटने के बाद राहुल दिल्ली के रामलीला मैदान पर एक सभा को संबोधित कर चुके हैं, संसद में 20-20 मिनट के 2 ऊर्जावान भाषण दे चुके हैं और 16 किलोमीटर की केदारनाथ और 20 किलोमीटर की विदर्भ में पदयात्रा कर चुके हैं. वे पहले से कहीं सक्रिय व आक्रामक लग रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि इन कुछ ही दिनों में राहुल ने इतना कुछ कर लिया है, जितना कि वे अपने पूरे एक दशक के राजनीतिक जीवन में भी नहीं कर पाए थे.

बदला अंदाज

राहुल का एक और अलग अंदाज उस समय देखने को मिला जब भिवंडी जाते समय खारेगांव नाके के जाम में उन की गाड़ी फंस गई. तभी एक मूंगफली बेचने वाला उन की गाड़ी के शीशे के पास आ कर मूंगफली लेने के लिए जिद करने लगा, हालांकि राहुल गांधी के अंगरक्षकों ने उसे मना करने की कोशिश की लेकिन राहुल ने इशारे से उन्हें मना कर दिया और गाड़ी का शीशा नीचे कर के बोला कि देदे भाई, मूंगफली. पैसे देने के लिए जब बौडीगार्ड ने पैसे देने की पेशकश की तो राहुल ने उन्हें तब भी मना कर दिया और अपने पौकेट से 10 रुपए निकाल कर उस वैंडर को दिए जबकि बाकी के 10 रुपए उन के बगल में बैठे सहयोगी ने दिए. यही कारण है कि अब सक्रिय राजनीति में राहुल की वापसी कई धारणाओं को बदल देने वाली है. लेकिन अगर आज देश तक राहुल गांधी की आवाज पहुंच रही है, तो क्या इस का कारण खुद राहुल में आई नई ऊर्जा है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति देश के उत्साह में आई गिरावट? शायद दोनों ही. मोदी कभी राहुल, सोनिया और कांग्रेस की निंदा कर खूब तालियां बटोरते थे. यूपीए सरकार को मांबेटे की सरकार, राहुल को शहजादा कह कर लोगों को खूब हंसाते थे. अब राहुल भी इस कला में माहिर हो गए हैं. वे मोदी की सरकार को  उद्योगपतियों की सरकार कह कर खूब वाहवाही लूट रहे हैं.

बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से देश को चाहे जितना नुकसान हुआ हो, राहुल के राजनीतिक कैरियर के लिए ये घटनाएं एक वरदान की तरह साबित हुई हैं और आपदाग्रस्त किसानों की सहानुभूति जीतने में वे कामयाब होते दिख रहे हैं. पहली बार मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की आवाज मुखर हो रही है. किसानों की समस्याओं पर संसद में बोलते हुए राहुल गांधी ने जिस आत्मविश्वास के साथ अपनी बातें रखी थीं, उस ने कई भाजपा नेताओं को चकित कर दिया. मोदी सरकार पर उन्होंने करारे हमले किए और चुटकियां भी लीं. किसानों के मुद्दे पर राहुल बारबार एक सवाल उछालते हैं जो मोदी सरकार को बहुत चुभता है.वे सवाल करते हैं कि नरेंद्र मोदी विदेश जाते हैं तो किसानों के बीच क्यों नहीं जाते? राहुल की ऐसी आलोचना भाजपा के लिए भारी पड़ती जा रही है. राहुल मोदी सरकार को जिस तरह घेर रहे हैं उस से मोदी डालडाल तो राहुल पातपात वाली स्थिति पैदा होती जा रही है. राहुल जो मुद्दे उठा रहे हैं उन का जवाब भाजपा के मंत्रियों को देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. हाल ही में तो मोदी ने इंटरव्यू दे कर राहुल द्वारा उठाए मुद्दों के जवाब दिए हैं. छुट्टी के बाद पहली बार अमेठी पहुंचे राहुल में बदलाव की यह झलक वहां भी महसूस की गई. 8 महीने बाद अमेठी में जो भी राहुल से मिला, वह आश्चर्यचकित था. अकसर अमेठी में भी ‘रिजर्व’ रहने वाले राहुल इस बार किसान पंचायतों में जमीन पर बैठ कर किसानों की समस्याएं सुनते दिखे. लोगों का कहना था, राहुल के पास पहले एसपीजी का बहुत मजबूत घेरा रहता था. वे लोगों से मिलते थे लेकिन इतने रिलैक्स अंदाज में पहली बार मिले हैं.

मोदी पर तीखा हमला

मोदी सरकार का 1 साल पूरा होने पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हमलावर तेवर और तीखे हो गए हैं. पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई के कार्यक्त्रम में सरकार को कोसने के बाद मोदीमनमोहन की मुलाकात से बैक फुट पर गई पार्टी को राहुल ने राह दिखाई है. मुलाकात को ले कर सियासी अंदाज में राहुल ने कहा कि ‘मोदीजी को समझ में नहीं आ रहा कि अर्थव्यवस्था कैसे चलती है? इसलिए अर्थव्यवस्था समझने के लिए मनमोहन सिंहजी को बुलाना पड़ा. मनमोहन सिंहजी ने अर्थव्यवस्था पर मोदीजी की 1 घंटे की पाठशाला लगाई. नरेंद्र मोदी के सब से महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इंडिया की भी राहुल ने  खूब खिंचाई की और कहा कि सरकार एक के बाद एक गलती कर रही है. मेक इन इंडिया से जीरो निकलेगा. सरकार को लगता है कि 2-3 कंपनियों को ताकत देने से काम हो जाएगा. लेकिन इस से कुछ नहीं होगा. बदलाव के लिए देश की जनता को ताकत देनी होगी. उन्होंने कहा कि 1 साल में किसी को भी रोजगार नहीं मिला. 

प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिवादी कार्यशैली पर सीधे प्रहार करने से भी नहीं चूकते राहुल, वह भी व्यंग्यात्मक शैली में. सुनिए उन की जबानी. ‘हर बात आजकल एक ही व्यक्ति जानता है. शिक्षा की बात हो या कपड़ों की बात. सिर्फ एक व्यक्ति जानता है.’ उन के अनुसार, ‘कांग्रेस में हम सब से बात करते हैं और हल निकालते हैं. जो पार्टी कहती है, हम तय करते हैं, हमारे यहां आंतरिक बातचीत होती है, लेकिन वहां (भाजपा) यह सब नहीं है. अब देश को एक ही सोच चला रही है. हम गरीबों की मदद की बात करते हैं. वह फ्रांस, अमेरिका, नेपाल यहां तक कि मंगोलिया भी हो आए, लेकिन किसान, मजदूर व गरीब के घर नहीं गए.’

राहुल यहीं तक सीमित नहीं. उन्होंने भाजपा के मूल आधार संघ पर भी हमला करना शुरू कर दिया है. वे बताते हैं कि किस तरह आरएसएस की सोच तानाशाहीपूर्ण है तो कांग्रेस की सोच लोकतांत्रिक. उन्होंने कहा, ‘10 साल में मुझे एक बात समझ में आई है. पहले संगठन में मैं अनुशासन के पक्ष में था. सोचता था कि कांग्रेस में ऐसा क्यों नहीं है. लेकिन अब मैं समझ गया हूं. यह संगठन हर समय सब की सुनना चाहता है. हम सब की बात सुनना चाहते हैं.’ आरएसएस की तुलना नाजियों से करते हुए कहा कि उन की शाखा में लाइन एकदम सीधी लगती है. चूं करने वाले पर लाठी चल जाती है. आरएसएस व भाजपा एक जैसी चलती हैं. अनुशासन उन के लिए विरोध की आवाजों की हत्या करने का बहाना है. आज यही सोच हिंदुस्तान को चला रही है. कहना न होगा कि राहुल गांधी के इस हमले से भाजपा और आरएसएस तिलमिलाए हैं. आरएसएस ने तो राहुल की आलोचना का जवाब देते हुए तुरंत बयान जारी किया है, जिस में राहुल की आलोचना का करारा जवाब दिया गया है. यानी केवल मोदी ही नहीं, संघ को भी राहुल की आलोचना का जवाब देने को मजबूर होना पड़ा है. बदले हुए राहुल के तेवरों को देख कर सवाल उठने लगे हैं कि क्या अतीत में राहुल का उचित मूल्यांकन किया गया था? क्या उन्हें कांग्रेस पार्टी पर एक बोझ बताने वाले लोग गलत थे? या फिर कांग्रेसी अपने ‘युवराज’ के फौर्म में लौट आने पर जरूरत से ज्यादा उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हैं?

सक्रिय राजनीति में वापसी के बाद उन में इस बात की समझ नजर आई है कि उन्हें किस वर्ग को संबोधित करना है और किस भाषा में. उन्होंने इस बात को भी अच्छे से समझा है कि वामदलों की विश्वसनीयता क्षीण होने के बाद से कोई भी पार्टी किसानों, गरीबों और वंचितों के हितों की हिमायती होने की अपनी भूमिका को बहुत अच्छे से निभा नहीं पाई है. कांग्रेस को यह भूमिका निभानी चाहिए. लोकसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी जिस तरह बिखरेबिखरे लग रहे थे उस लिहाज से ये राहुल गांधी अलग हैं.लेकिन लाख टके का सवाल तो यही है कि राहुल गांधी मोदी सरकार को घेरने और एक सफल विपक्षी नेता के तौर पर उभरने में भले ही कामयाब हुए हों लेकिन उन की ये तमाम कोशिशें मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस में क्या प्राण फूंक पाएंगी या कहीं राहुल अपनी पुरानी आदत के वशीभूत हो कर खुद ही तो खराब सेहत की समस्या से जूझ रही अपनी मां को फिर से पार्टी चलाने की जिम्मेदारी सौंप कर कहीं गायब तो नहीं हो जाएंगे? यही वजह है कि राहुल की राजनीति की दिशा के बारे में कोई भी निर्णय लेने से पहले थोड़े समय और इंतजार करने की जरूरत है.

‘आप’ की सरकार

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का हाल वही हो रहा है जो ममता बनर्जी की सरकार का पश्चिम बंगाल में हो रहा था. पश्चिम बंगाल में कभी सारदा चिटफंड घोटाले या कभी छात्र विवाद को ले कर यह दिखाने की कोशिश की जा रही थी कि तृणमूल कांगे्रस राज करने के काबिल नहीं है, और आज दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को आंतरिक व प्रशासनिक मुद्दों पर उलझाया जा रहा है. यह कोई नई बात नहीं है. जब भी वर्षों तक सत्ता में रहे शक्तिशाली लोगों को हटा कर नए लोग काम संभालते हैं तो यही दर्शाया जाता है कि नए लोग काम नहीं, काम तमाम करना जानते हैं. अरविंद केजरीवाल को नौसिखिया साबित करने की हर कोई कोशिश कर रहा है और यह कोशिश बनावटी है, यह साफ दिखता भी है.

अरविंद केजरीवाल ने पिछले दिनों में कोई चमत्कार किया हो, ऐसा नहीं है. सरकारों से चमत्कार की उम्मीद करना ही गलत है. न नरेंद्र मोदी ने चमत्कार किया है, न तेलंगाना में चंद्रशेखर राव ने, न हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने. ये सब रोजमर्रा की कठिनाइयों में उलझे हैं. पर जब तक नीयत ठीकठाक हो, फिर भी इन पर ज्यादा तोहमत लगे तो बेचैन नहीं होना चाहिए. जो लोग राजनीति में हैं उन्हें इस तरह के निरंतर प्रहारों की आदत डालनी चाहिए क्योंकि अखबारों का तो कर्म ही है खामियां निकालने वाली खबरें प्रकाशित करना. जनता को उपलब्धियां तो सरकार अपने भारीभरकम प्रचार माध्यम से बताती ही रहती है. गलतियों को वह छिपाना चाहती है. अगर अरविंद केजरीवाल जनता को ऐसे मौके दे रहे हैं तो यह उन की अपनी जिम्मेदारी है और उन का साहस है. अरविंद केजरीवाल की सब से बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के रौकेट को फुस कर दिया और उस में कुछ पानी ममता बनर्जी ने भी डाल दिया. इन दोनों को जो भारी बहुमत मिला वह साबित करता है कि चूंचूं बिरादरी जितना चाहे शोर मचा ले, उस के बस में कुछ करनाधरना नहीं. जैसे प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की कहानी समाप्तप्राय हो गई है वैसे ही केजरीवाल बनाम नजीब जंग (उपराज्यपाल) की लड़ाई ठंडी हो जाएगी. इन का प्रशासन पर कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि प्रशासन तो वैसे ही कछुए की खाल वाला है और उसी चाल चलता रहेगा.

नेत्रहीनों की पीके

पोंगापंडितों और धार्मिक आडंबरों पर कटाक्ष करती फिल्म ‘पीके’ का औडियो वर्जन नैरेशन के साथ खासतौर पर नेत्रहीनों के लिए तैयार किया जा रहा है. इस नए प्रयोग से नेत्रहीन नैरेशन की वजह से फिल्म की कहानी भी समझेंगे. रमी सेठ ने इस से पहले फिल्म ब्लैक का भी औडियो डिस्क्रिप्शन तैयार किया था. आमतौर पर एक फिल्म को इस तरह तैयार करने के लिए करीब 1 लाख रुपए का खर्च होता है. यह प्रयोग सराहनीय है क्योंकि मनोरंजन सब को चाहिए. कई बार शारीरिक अपंगता राह में रोड़ा बन जाती है लेकिन तकनीक ने सबकुछ आसान कर दिया है.

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