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फिर फंसे शाहरुख

शाहरुख का क्रिकेट कनैक्शन उन्हें कई दफा विवादों में लपेट चुका है. कभी आईपीएल की आफ्टर पार्टी की कंट्रोवर्सी. ताजा मामला विदेशी मुद्रा विनिमय नियमों के उल्लंघन से जुड़ा है. खबर है कि ईडी ने शाहरुख को 100 करोड़ के विदेशी मुद्रा विनिमय नियमों के उल्लंघन के मामले में नोटिस भेजा है. जल्द ही उन्हें अपना पक्ष रखना होगा. आरोप है कि शाहरुख ने केकेआर टीम के शेयरों के ट्रांसफर के लिए कम कीमतें बताई थीं. वैसे उन्हें 4 साल पहले भी नोटिस भेजा गया था. आईपीएल खेल ही जुएबाजी का है, जहां तमाम टीम मालिक येनकेनप्रकारेण पैसा बनाने में लगे हैं. कोई सट्टेबाजी कर रहा है तो कोई दूसरे तरीकों से कैसीनोबाजी में उलझा है. आईपीएल की तो पूरी दाल ही काली है.

‘जिंदगी’ को नोटिस

पाकिस्तान के हिट व पुराने सीरियल्स को भारतीय चैनल ‘जिंदगी’ पर काफी सराहा जा रहा है. कम समय में अच्छीखासी टीआरपी बटोर चुके इस चैनल पर पाकिस्तानी सीरियल ‘दास्तान’ का नाम बदल कर ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ प्रसारण किया गया तो विवाद की आशंका का अंदाजा हो गया था. कारण है धारावाहिक में भारतपाक बंटवारे की विवादास्पद पृष्ठभूमि. खबर है कि आईबी मिनिस्ट्री को धारावाहिक में भारत की नकारात्मक छवि दिखाने के चलते काफी शिकायतें मिली हैं जो बीसीसीसी को भेज दी गई हैं. वैसे इन सीरियल्स को गंभीरता से लेना बेवकूफी है. इसे मनोरंजन की आंखों से देखें तो ही ठीक है.

गंगाजल-2 की आभा

बिहार के कुख्यात अंखफोड़वा कांड पर प्रकाश झा ने फिल्म गंगाजल बना कर काफी वाहवाही बटोरी थी. उस फिल्म में जहां अभिनेता अजय देवगन ने ईमानदार पुलिस औफिसर की भूमिका में जान फूंकी थी वहीं सालों बाद बन रहे इस के सीक्वल गंगाजल-2 से उन को हटाना खटकता है. गौरतलब है कि गंगाजल के दूसरे भाग में प्रियंका चोपड़ा मुख्य भूमिका में नजर आएंगी और प्रकाश झा निर्देशक की जिम्मेदारी के साथसाथ विलेन की भूमिका भी निभाएंगे. आईपीएस आभा माथुर के किरदार में उतरना प्रियंका के लिए जबरदस्त चुनौती रहेगी. बिहार के भ्रष्ट पुलिसिया सिस्टम की बारीकी से पड़ताल करती गंगाजल के पहले भाग की तरह दूसरे भाग में किस विवादास्पद कांड को कहानी का हिस्सा बनाया गया, स्पष्ट नहीं है. बस, डर है तो यह कि कहीं यह भी एक जबरन सीक्वल न बन कर रह जाए.

चंचल छाया

पीकू 

कब्ज को तख्तोताज पर काबिज करना और उस पर अमिताभ बच्चन व दीपिका पादुकोण जैसे सक्षम अभिनेताओं को बैठाना निर्मातानिर्देशक की खप्त ही कही जाएगी. चुटीले संवादों या वास्तविक लगने वाले माहौल के महान दर्शन करने के लिए जो फिल्मी थिएटर तक चले जाएं उन्हें शौचालय प्रेमी ही कहना पड़ेगा. पीकू का प्रचार चाहे जितना किया जाए पर यह नरेंद्र मोदी की स्वच्छ भारत के नारे की तरह खोखली फिल्म है जिस का उद्देश्य गंद को साफ करना भी नहीं, डाइनिंग टेबल पर परोसना है वह भी सितारों की प्लेट पर. फिल्म में अमिताभ बच्चन और दीपिका ने बड़ा सामाजिक अभिनय किया है पर दर्शक अंत में हाल से निकलते समय अगर साबुन से मलमल कर हाथ और दिमाग न धोएं तो उन में से घंटों बदबू आएगी ही. फिल्म न केवल कब्ज के वहम से पीडि़त एक वृद्ध पिता की कहानी है. यह उस पिता की भी कहानी है जो अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए अपनी युवा, सुंदर, सफल बेटी को अपने कब्ज और अपनी देखभाल के लिए हर समय बांधे रखता है ताकि वह न सफल हो पाए न शादी कर पाए. ऐसे विषय को लेना और ऐसे धर्म को प्रारंभ से अंत तक महिमामंडित करना फिल्मी परदे का टौयलेटीकरण है.

कहानी दिल्ली के चितरंजन पार्क में रहने वाले बंगाली बाबू भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) और उस की बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) की है. भास्कर बाबू 70 वर्ष के हो चुके हैं. उन्हें हर वक्त कब्ज की शिकायत रहती है. कब्ज को दूर करने के लिए वे होम्योपैथी, आयुर्वेदिक व ऐलोपैथिक दवाओं का सेवन करते रहते हैं. उन्हें ब्लडप्रैशर की भी शिकायत है. उन की बेटी पीकू उन का बीपी चैक करती रहती है. वे यदाकदा अपने मैडिकल टैस्ट कराते रहते हैं परंतु रिपोर्ट्स नौर्मल ही आती हैं. सारा दिन भास्कर बाबू पीकू को अपनी सेवा में लगाए रहते हैं. वे सूसू और पौटी तक के लिए पीकू पर निर्भर हैं. इस से पीकू के औफिस के काम में व्यवधान पड़ता है. जहां कहीं पीकू की शादी की बात चलती है तो भास्कर बाबू उस में अड़ंगा लगाते हैं और यहां तक कहते हैं कि पीकू वर्जिन नहीं है. अचानक एक दिन वे अपने पैतृक घर कोलकाता जाना तय करते हैं. हवाई जहाज में वे जाना नहीं चाहते क्योंकि पेट में गुड़गुड़ होगी और फिर हवाई जहाज में संडास भी छोटा होता है. रेल में वे इसलिए जाना नहीं चाहते क्योंकि रेल में धक्के लगते हैं. इसलिए वे पीकू को सड़क मार्ग से कोलकाता जाने के लिए राजी कर लेते हैं. राणा चौधरी (इरफान) भाड़े की टैक्सी चलाता है. वह भास्कर बाबू, पीकू और उन के नौकर को साथ ले कर कोलकाता के लिए अपनी कार में रवाना होता है. कोलकाता पहुंच कर पीकू राणा चौधरी की ओर आकर्षित होती है. एक दिन वहां भास्कर बाबू साइकिल उठा कर पूरे शहर का चक्कर लगाने निकल पड़ते हैं. खूब डट कर खाते हैं. घर आ कर उन्हें खुल कर पाखाना होता है और उन के चेहरे पर संतोष झलकता है. लेकिन अगले दिन ही वे चिरनिद्रा में लीन हो जाते हैं. इस से पहले राणा चौधरी वापस लौट चुका होता है. दिल्ली में भास्कर बाबू के रिश्तेदार व दोस्त उन की यादों को ताजा करते हैं. फिल्म की यह कहानी हमारे आप के परिवार जैसी लगती है. बेटी बाप की खिदमत बखूबी करती है. हर वक्त उस की पिता से नोकझोंक होती रहती है. कभीकभी वह पिता पर चिल्लाती और खीझती भी है. लेकिन फिर कहती है. बूढ़े पैरेंट्स जिंदा नहीं रह सकते, उन्हें जिंदा रखना पड़ता है. निर्देशक ने पीकू की मनोव्यथा को बहुत खूबसूरती से दिखाया है. वह अपना दुख किसी से कहती नहीं, चुपचाप अपनी आंखों की कोरों को पोंछ लेती है. 70 साल के बूढ़े भास्कर बनर्जी की भूमिका में अमिताभ ने जान डाल दी है. उस का मेकअप बहुत बढि़या किया गया है. इरफान का काम भी अच्छा है. काफी दिनों बाद मौसमी चटर्जी की उपस्थिति अच्छी लगी. फिल्म का निर्देशन काफी अच्छा है. फिल्म में ज्यादा उतारचढ़ाव नहीं है, न ही फिल्म में चौंकाने वाले सीक्वैंस हैं. एक सीधीसच्ची कहानी पर फिल्म बनाई गई है जो आप को यह याद दिलाएगी कि बूढ़े पिता अपनी देखभाल करवाने के लिए कितनी अति करते हैं कि बेटी उन्हें त्यागने की इच्छा करती है. फिल्म का वातावरण बंगाली है. कुछ संवाद बंगाली भाषा में हैं. एकाध गाना भी बंगला में है, जिसे सुन कर कानों में मिठास सी घुलती है. छायांकन अच्छा है. दिल्ली, वाराणसी और कोलकाता की लोकेशनों को खूबसूरती से फिल्माया गया है.

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गब्बर इज बैक

‘गब्बर’ फिल्म में फिल्म ‘शोले’ में अमजद खान द्वारा निभाए गए गब्बर के किरदार को भुनाने की कोशिश की गई है. लेकिन गब्बर डाकू का जो किरदार अमजद खान ने निभाया था, वह अक्षय कुमार तो क्या, कोई और कलाकार भी नहीं निभा सकता. निर्देशक कृष ने अमजद खान द्वारा बोले गए संवादों की नकल कर के इस फिल्म में भी कुछ संवाद डालने की कोशिश की है, मसलन, ‘कितने आदमी थे’, ‘तेरा क्या होगा कालिया’. अक्षय कुमार के मुंह से ये संवाद सुन कर हंसी ही आती है. निर्देशक ने अक्षय कुमार को बढ़ी हुई दाढ़ीमूंछों में दिखा कर उस का लुक बदलने की कोशिश भी की है परंतु वह खौफ पैदा नहीं कर पाया. वह गब्बर के नाम को जस्टिफाई करने में असफल रहा है. भ्रष्टाचार का मुद्दा फिल्मों में काफी समय से उठाया जाता रहा है. पिछले कुछ सालों में तो भ्रष्टाचार पर दर्जनों फिल्में बनी हैं. इस तरह की फिल्मों में मसाले ठूंसठूंस कर भरे जाते हैं. लेकिन जब मसालों का अनुपात सही न हो तो फिल्म बेमजा हो जाती है. यही हाल ‘गब्बर इज बैक’ का भी हुआ है. इस में कोई संदेश नहीं है, बस अक्षय कुमार की कई पुरानी फिल्मों की खिचड़ी है यह, यानी ऊंची दुकान फीका पकवान.

‘गब्बर इज बैक’ 2002 में रिलीज हुई तमिल फिल्म ‘रामन्ना’ की रीमेक है. फिल्म भ्रष्टाचार पर बेस्ड है. सरकारी दफ्तरों में रिश्वतखोरी है, पुलिस भ्रष्ट है. तहसीलदार, डी एम भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. अस्पतालों में डाक्टर मरीजों को लूटने में लगे हैं. ऐसे में एक नौजवान गब्बर (अक्षय कुमार) भ्रष्टाचार को खत्म करने का बीड़ा उठाता है. वह कुछ युवाओं को साथ ले कर एक टीम बनाता है और देखते ही देखते सरकारी अफसरों में दहशत फैल जाती है. गब्बर भ्रष्ट तहसीलदारों और डी एम को मार कर उन की लाशों को पेड़ पर लटका देता है. उधर आदित्य (अक्षय कुमार की दूसरी भूमिका) कालेज में प्रोफैसर है. उस की मुलाकात श्रुति (श्रुति हसन) से होती है. आदित्य एक निजी अस्पताल, जो मरीजों को बेवकूफ बना कर उन्हें लूटता है, की पोलपट्टी खोलता है. लोग अस्पताल के मालिक के बेटे को मार डालते हैं. अस्पताल का मालिक दिग्विजय पाटिल (सुमन तलवार) है. जब उसे आदित्य के बारे में पता चलता है तो वह भौचक रह जाता है. आदित्य को भी पता चल जाता है कि उस की पूर्व प्रेमिका (करीना कपूर) की मौत का जिम्मेदार दिग्विजय पाटिल ही है. गब्बर अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. उसे पकड़ने के लिए सीबीआई अफसर पाहवा (जयदीप अहलावत) को बुलाया जाता है. लेकिन तब तक आदित्य उर्फ गब्बर दिग्विजय पाटिल को मार कर खुद को पुलिस के हवाले कर देता है. उसे फांसी की सजा हो जाती है. फिल्म की इस कहानी में अंत में भ्रष्टाचार को खत्म करने वाले नायक को फांसी पर लटकाते दिखाया गया है यानी कि भ्रष्टाचार इस देश में कभी खत्म नहीं हो सकता, भ्रष्टाचार मिटाने वाला भले ही मर जाए. फिल्म का निर्देशन ढीलाढाला है. निर्देशक अक्षय कुमार में जोश नहीं भर सका है, न ही उस के संवाद दमदार बन सके हैं. फिल्म में सिर्फ अस्पताल वाला सीन ही दमदार बन पाया है. अक्षय कुमार का युवाओं में जोश भरने वाला आह्वान असरकारक नहीं बन सका है.

फिल्म न तो हंसाती है, न ही रुलाती है और न ही यूथ पावर की बात करती है, इसलिए वह इंप्रैस नहीं कर पाती. श्रुति हसन शोपीस बन कर रह गई है. करीना कपूर यूजलैस है. फिल्म की स्टोरीलाइन पुरानी है. चित्रांगदा सिंह द्वारा किया गया आइटम सौंग काफी हौट है. एक गीत करीना कपूर पर फिल्माया गया है. फिल्म के अन्य गीत साधारण हैं. छायांकन अच्छा है. संक्षेप में कहें तो इस गब्बर से ज्यादा उम्मीद रखना बेकार है.

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सब की बजेगी बैंड

‘सब की बजेगी बैंड’ एक बचकानी फिल्म है. ऐसा लगता है निर्देशक ने इसे किसी किटी पार्टी में फिल्माया है. फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिसे आप एंजौय करें. सैक्स संबंधित बातें, फनी जोक्स, वर्जिनिटी से जुड़े सवालों को कैमरे में कैद कर के दिखाया गया है. फिल्म के निर्देशक अनिरुद्ध चावला का दावा है कि यह देश की पहली रिऐलिटी फिल्म है. लेकिन ऐसा नहीं है. निर्देशक ने अपनी इस फिल्म को ‘पेज-3’ जैसा बनाने की कोशिश तो की है परंतु फिल्म एकदम फूहड़ बन गई है. फिल्म में बौलीवुड और ग्लैमर वर्ल्ड की अंदरूनी बातों को दिखाया गया है, लेकिन ये सब दर्शकों के गले नहीं उतर पाता. पहले ही दिन खाली पड़े सिनेमाहाल इस फिल्म को मुंह चिढ़ा रहे थे. सचमुच इस फिल्म की बैंड ही बज गई.

फिल्म की कहानी करण (अमन उप्पल) नाम के नौजवान की है जो डायरैक्टर बनना चाहता है, लेकिन उसे इस का मौका नहीं मिल पाता. एक दिन वह अपने फार्महाउस पर दोस्तों की पार्टी रखता है और उन से सवालों के जवाब देने को कहता है. उन से द्विअर्थी और एडल्ट बातचीत की जाती है. सारी बातें वह एक हैंडीकैम में कैद कर लेता है और एक फिल्म बना लेता है. दोस्तों की बातचीत को रिकौर्ड कर के तैयार की गई फिल्म दर्शकों के सामने है. इस फिल्म को आधा घंटा भी झेल पाना मुश्किल है. कई कलाकार इस फिल्म में हैं. सभी ने अपनी कुंठित सोच, लिव इन रिलेशन और भी कई अशिष्ट बातों का खुलासा किया है. स्वरा भास्कर जैसी जानीमानी अभिनेत्री ने यह फिल्म क्यों की, समझ से बाहर है. निर्देशन बेकार है. संवाद द्विअर्थी हैं. सभी कलाकारों ने बेमन से काम किया है. छायांकन कुछ अच्छा है.

खेल खिलाड़ी

खेल को खेल ही रहने दो

इन दिनों आईपीएल की खुमारी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही है. जिसे देखो टीवी से चिपका बैठा है. इस बीच अगर किसी चीज की कमी खल रही है तो वह है पाकिस्तानी खिलाडि़यों की. क्रिकेट के दीवानों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि बहुत जल्द भारत और पाकिस्तान के बीच टैस्ट सीरीज होने की संभावना है. दोनों क्रिकेट बोर्डों में सहमति बन गई है और इंतजार है सरकार के संबद्ध मंत्रालयों से मंजूरी मिलने का. दरअसल, पिछले 8 वर्षों से भारत और पाकिस्तान के बीच कोई टैस्ट सीरीज नहीं हुई है क्योंकि वर्ष 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमलों के बीच ऐसा माहौल बन गया कि दोनों टीमें टैस्ट सीरीज नहीं खेल पाईं. माना जा रहा है कि इसी वर्ष दिसंबर में दोनों टीमें आपस में भिड़ सकती हैं और दोनों देशों के बीच क्रिकेट के जरिए कूटनीतिक रिश्ते सुधर सकते हैं. लेकिन ये बातें केवल कहने की होती हैं, जमीनी धरातल पर कुछ नहीं होता. अगर रिश्ते सुधारने हैं तो दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों को मिल कर बातचीत करनी होगी क्रिकेट मैचों से बात नहीं बनेगी.

पाकिस्तान के आम नागरिक खुद आतंकवाद से पीडि़त हैं और वे सुकून से रहना चाहते हैं पर यह भी सच है कि पाकिस्तान आतंकवादियों को पनाह देता है. अब जब वह उस के लिए नासूर बन गया है तो बौखला गया है और अलगथलग पड़ गया है. भारत पाकिस्तान से बात करना नहीं चाहता. खेल को पहले धर्म बना कर प्रचारित करना फिर उसे आपसी संबंधों को सुधारने में इस्तेमाल करना फुजूल की कारस्तानी है. आईपीएल एक कैसीनो से ज्यादा कुछ नहीं है, जहां दुनियाभर के सट्टेबाज खिलाडि़यों को अपनी उंगली पर नचाते हैं. अगर क्रिकेट के इस जुए से हर देश के खिलाड़ी अपनी जेबें भर रहे हैं तो पाकिस्तानी खिलाडि़यों को दूर क्यों रखा जाता है. जिस तरह पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में काम करने पर विवाद उत्पन्न किया जाता है उस से दोनों देशों की अवाम में परस्पर देशों के लिए नफरत का जहर जरूर भर जाता है. इसलिए जरूरी है कि खेल की आड़ में कूटनीतिक संबंधों को सुधारने की फर्जी कवायद से बचें और असल मुद्दों पर बातचीत करने की दिशा में आगे बढ़ें.

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विश्व की सब से बड़ी भिड़ंत

जब अमेरिका के बौक्सर फ्लौयड मेवेदर और फिलीपींस के बौक्सर मैनी पैक्वे के बीच भारतीय समयानुसार 3 मई को फाइट शुरू हुई तो लोग दिल थाम कर टैलीविजन पर चिपके रहे तो कई लाइव मुकाबला देखने के लिए लास वेगास के एमजीएम एरीना के उस स्टेडियम में दिल थाम कर बैठे रहे जहां बौक्सरों के बीच नहीं बल्कि 2 रिंग मास्टर्स के बीच मुकाबला था. आखिरकार वेल्टरवेट (67 किलोग्राम) के इस मुकाबले में फ्लौयड मेवेदर ने बाजी मार ली. ऐसा सुपर मुकाबला वर्ष 2002 में हैवीवेट टाइटल के लिए माइक टायसन और लेनौक्स लुईस के बीच और वर्ष 2011 में व्लादिमीर कल्चिको और डेविड हे के बीच देखा गया था. मुकाबले से पहले मेवेदर ने कहा, ‘‘एक लड़का जो कभी भूख से तड़पता हुआ सड़क किनारे सो कर रात गुजारता था आज वह इस मुकाम पर है. मैं आज जहां भी हूं, उस की मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. प्रशंसक पैसे खर्च कर रहे हैं तो वे अच्छा मुकाबला देखने के हकदार हैं.’’

मेवेदर की बात सच भी हुई क्योंकि जो दर्शक उस स्टेडियम में पहुंचे वे कोई मामूली दर्शक नहीं थे. वे भारीभरकम रुपए दे कर टिकट खरीद कर आए थे. पूरी दुनिया में इस मुकाबले के टीवी अधिकार कुल 35 मिलियन डौलर में बिके. इस के लिए बढ़चढ़ कर बोली लगाई गई. मैनी पैक्वे की जहां तक बात है तो पैक्वे सांसद भी हैं. फिलिपींस में उन की तसवीर के साथ डाक टिकट भी जारी हुए हैं. कई ऐक्शन फिल्मों में वे काम भी कर चुके हैं. पैक्वे पर कई वीडियो गेम भी हैं. मेवेदर को इस जीत से हीरों से जड़ी 6 करोड़ रुपए की बेल्ट इनाम में दी गई. इस के अलावा 1142 करोड़ रुपए भी उन के खाते में गए. वहीं, पैक्वे को 761 करोड़ रुपए दिए गए. मेवेदर दुनिया के सब से ज्यादा कमाई करने वाले बौक्सर हैं.

बौक्ंिसग की बात की जाए तो जितने भी बड़े नाम हैं वे सब के सब विदेशों के ही हैं. भारत में मैरीकौम और विजेंद्र सिंह के अलावा शायद ही कोई बड़ा नाम हो. मैरी कौम भी अब ढलान पर हैं और विजेंद्र सिंह का कैरियर शुरू होने से पहले ही खत्म सा दिख रहा है. ऐसे में बौक्ंिसग के मामले में विदेशों से मुकाबला करने की बात शायद हम अभी सोच भी नहीं सकते हैं.

ये पति

हमारी एक परिचिता के पति थोड़े तुनकमिजाज और झगड़ालू किस्म के हैं. दांतों के जल्दी गिर जाने के कारण नकली बत्तीसी लगाते हैं. एक बार किसी बात पर पतिपत्नी के बीच झगड़ा हो गया. आदत के अनुसार पति तैश में आ कर जल्दीजल्दी और जोरजोर से बोलने लगे. जवाब तपाक से और आवेश में देने की क्रिया में, पता नहीं कैसे, उन की नकली बत्तीसी मुंह से बाहर आ कर गिर पड़ी. यह देख कर तनाव के उन क्षणों में भी पत्नी की हंसी छूट गई और परिवार के अन्य सदस्य भी हंसने लगे. बेचारे पति महाशय झेंप कर रह गए.

आनंद कुमार पारोचे, इटारसी (म.प्र.)

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हमारी नईनई शादी हुई थी. एक दिन हम पिक्चर देख कर हौल से बाहर निकले तो इन्होंने पार्किंग से अपनी मोटरसाइकिल निकाली और स्टार्ट कर के मुझ से बैठने को कहा. मैं अपनी भारीभरकम साड़ी को संभाल कर बैठने की कोशिश कर ही रही थी कि इन्होंने मोटरसाइकिल चला दी और गेट के बाहर निकल गए. मैं इन का नाम तो पुकारती नहीं थी, इसलिए ‘सुनोसुनो’ कहतीकहती पीछे दौड़ी. मगर वहां इतना शोर था कि इन तक मेरी आवाज नहीं पहुंची. उस समय मोबाइल नहीं हुआ करते थे कि मैं इन को फोन कर देती. मैं ने साड़ी संभाली और इन के पीछे दौड़ लगानी शुरू कर दी. सड़क तो वहां सीधी थी मगर शो छूटने के कारण भीड़ बहुत थी. ये पूरी रफ्तार से मोटरसाइकिल नहीं चला पा रहे थे. इन्हें ऐसा लग रहा था कि मैं इन के पीछे बैठ चुकी हूं और इसलिए ये थोड़ा पीछ़े मुड़मुड़ कर जोरजोर से बातें भी कर रहे थे. लोग इन को देख कर हंस रहे थे कि ये हवा में किस के साथ बात कर रहे हैं. मैं पीछेपीछे गिरतीपड़ती दौड़ लगाने की असफल कोशिश कर रही थी और यह नजारा भी देखती जा रही थी. जल्दी ही ये मेरी आंखों से ओझल हो गए.

किसी तरह रिकशा कर के मैं पूछतीपूछती घर पहुंची तो घर में हंगामा हो रहा था. इन की तो सिट्टीपिट्टी गुम थी कि मैं रास्ते में कहां गिर गई. मुझे ढूंढ़ने के लिए सभी घर से निकलने को तैयार खड़े थे. मैं ने जब सब को सारा किस्सा सुनाया तो सभी हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. आज शादी के लगभग 17 साल बाद भी जब भी मैं इन के साथ मोटरसाइकिल पर जाती हूं तो ये यह निश्चित कर लेते हैं कि मैं बैठ गई हूं.

भावना विधानी, आगरा (उ.प्र.)

कशिश

रुत मनुहार की आई है

संग सजनी का प्यार लाई है

नैन तेरे छलकते पैमाने

डूब गए कितने इन में दीवाने

होंठ तेरे दो गुलाबी कंवल

दिल चाहे उन पे, लिखूं मैं गजल

आंखों का काजल

जुल्फों की बदरी

आने दे ख्वाबों में

मुझे प्यारी पगली

दिल को सुकूं आए ऐसे यारा

पानी से बुझता जैसे अंगारा.

           – प्रीति पोद्दार

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