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अद्भुत खजाना : ड्रमहैलर

कनाडा के एल्बर्टा प्रदेश की राजधानी एडमन्टन के दक्षिणपूर्व की ओर 300 किलोमीटर की दूरी पर ड्रमहैलर नामक एक प्रसिद्ध स्थान है. कनाडा के बैडलैंड इलाके में वर्ष 1913 में एक बहुत छोटे गांव के रूप में बसने के बाद इसे वहीं के एक व्यक्ति सैमुअल ड्रमहैलर के नाम से जाना जाने लगा. उसी समय इस गांव के समीप कोयले का विशाल भंडार पाए जाने से वह स्थान कनाडा के सब से तेजी से विकसित स्थान में परिवर्तित हो गया तथा केवल 17 वर्षों के अल्पकाल में वर्ष 1930 तक यह गांव पूरे पश्चिमी संसार का सब से तेजी से विकसित हो कर एक अत्यंत सुंदर शहर में परिवर्तित होने वाला केवल कनाडा का ही नहीं, बल्कि विश्व का एक ज्वलंत उदाहरण बन गया. दरअसल, जैसे ही कोयला भंडार पाए जाने की खबर कनाडा के साथ अमेरिका तथा यूरोप में पहुंची, वहां उथलपुथल सी मच गई, विशेषकर उन देशों की कोलमाइंस की कंपनियों में. एल्बर्टा प्रदेश बेहद ठंडा होने के कारण कोयला वहां के घरों को गरम रखने तथा भोजन आदि बनाने के लिए एक प्राकृतिक देन थी. कोल भंडार की विशालता को देखते हुए तमाम देशों से आ कर 139 माइंस कंपनियां रजिस्टर्ड हो गईं और सभी ने कार्य प्रारंभ कर दिया.

हजारों की संख्या में यूरोप, अमेरिका आदि से इन कंपनियों में काम करने वाले ड्रमहैलर पहुंच गए. उन के रहने के लिए बहुत से मकान आदि बनाए जाने लगे. इधर अच्छी बात यह हुई कि उस स्थान से निकलने वाला कोयला, मकानों में जलाने के दृष्टिकोण से बहुत उत्तम क्वालिटी का था. कनाडा सरकार ने बिना समय नष्ट किए ड्रमहैलर से, समीप के पूर्ण विकसित शहर कैलगरी तक 1913 में ही रेल लाइन बिछा दी ताकि कोयला ढोने तथा वितरण में आसानी हो जाए. कहते हैं कि उस समय ड्रमहैलर में यूरोप की 20-25 भाषाओं को बोलने वाले व्यक्ति रहते थे जो वहां की माइंस के कर्मचारी थे. अगले 50 वर्षों तक बहुत बड़ी मात्रा में वहां की माइंस द्वारा कोयला निकाला जाता रहा. रिकौर्ड्स के अनुसार 60 मिलियन टन कोयला ड्रमहैलर से बाहर भेजा गया. यही समय था कि माइंस में कोयला समाप्त होने लगा था. यह वर्ष 1979 का समय था कि कोयले के भंडार कम होते ही उस स्थान पर तेल तथा गैस के विशाल भंडार मिल गए. इस समय तक वहां के आसपास खेती के साथ टूरिज्म का भी तेजी से विकास हो गया था. सो, खानों को बंद कर दिया गया जो अब टूरिस्टों के देखने का केंद्र बन गई हैं.

गैस तथा तेल के निकलते ही कनाडा के उस बेहद ठंडे प्रांत में, जो संसार के उत्तरी धु्रव के बहुत पास होने से बहुत ठंडा, विशेषकर जाड़ों के मौसम में, जबकि इस प्रदेश में अकसर बर्फीले तूफान आते एवं हिमपात होता है, गैस के मिल जाने से वहां के मकानों को कोयला जला कर गरम करने के स्थान पर अब वैज्ञानिक तरीकों से गैस द्वारा सैंट्रली हीटेड बना कर इच्छानुसार तापक्रम पर रखा जा सकता है जो सुविधाजनक हो गया. साथ ही, अब इस भाग के मकानों में एक भाग अंडरग्राउंड भी बनाने के प्रावधान होने लगे ताकि यदि कभी बड़े भयंकर तूफान आने से मकान के ऊपरी भागों के नष्ट होने की संभावना हो तो अंडरग्राउंड वाले भाग में जा कर सुरक्षित रहा जा सकता है. मौसम के क्षेत्र में यहां के विश्वविद्यालयों में कमाल के अनुसंधान हुए हैं जिन के कारण मौसम विभाग में बहुत से ऐसे वैज्ञानिक यंत्र लग गए हैं जिन की भविष्यवाणियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन आए हैं जो सत्यता के अत्यंत समीप हैं. लगातार मौसम की भविष्यवाणियां टैलीविजनों, इंटरनैट, मोबाइल फोनों पर आती रहती हैं ताकि नागरिक उसी के अनुसार सतर्कता बरत सकें.

यह अच्छी बात है कि मेरा बड़ा पुत्र संजय अपनी फैमिली के साथ एल्बर्टा प्रदेश की राजधानी एडमन्टन में रहता है. भारत एवं कनाडा का दोहरा नागरिक है. मैं गरमी में अकसर उस के पास कनाडा आताजाता रहता हूं. हम सब इन्हीं दिनों कनाडा के दर्शनीय स्थलों को देखने जाते हैं. हम लोगों ने डायनासौर के प्राचीन गढ़ ड्रमहैलर को देखने जाने का प्रोग्राम बनाया. मौसम विभाग की इस भविष्यवाणी के आधार पर कि सुबह से शाम 6 बजे तक ड्रमहैलर का मौसम सामान्य रहेगा तथा शाम 6 बजे से मौसम खराब होने के साथ तेज बारिश होने की संभावना है, सुबह 8.30 बजे घर से चल कर ठीक 3 घंटे में ड्राइव कर रास्ते के बसंती वातावरण का आनंद लेते हुए हम लोग 11.30 बजे ड्रमहैलर के सुंदर टाउन में पहुंच गए. कहीं कोई भीड़ नहीं थी. वातावरण शांत था.

इस स्थान का नक्शा हम ने यहां आने से पहले ही इंटरनैट द्वारा निकाल लिया था तथा उसी के अनुसार हम टाउन के मध्य में बने एक अत्यंत सुंदर पार्क में पहुंच गए जहां डायनासौर की एक बहुत विशाल स्टेच्यू ने हमारा स्वागत किया. पता चला कि मानव निर्मित यह स्टेच्यू डायनासौर की सब से विशाल प्रतिमा थी. हम सब उसे देख कर दंग रह गए. उस की ऊंचाई 86 फुट तथा वजन 1,45,000 पाउंड्स था जिसे ज्यादातर स्टील द्वारा बनाया गया था तथा इस पर लगे पेंट्स इस का प्राकृतिक रूप देते हैं. इस विशाल मूर्ति के पास ही विजिटर्स इन्फौरमेशन के लिए अत्यंत सुंदर इमारत थी. इसी इमारत के एक ओर से एक जीना बना था जिस के द्वारा इस विशाल मगर अंदर से खोखले डायनासौर के खुले जबड़ों तक जाया जा सकता था, जहां से खड़े हो कर संपूर्ण ड्रमहैलर टाउन के साथ दूरदूर तक की पहाडि़यों को देखा जा सकता था. यह उसी विशाल डायनासौर की प्रतिमा थी जिस के पूर्वज लगभग 100 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी के इसी भाग में स्वच्छंदता से घूमा करते थे तथा इन्हीं प्राणियों का संपूर्ण अमेरिकी कौंटिनैंट में एकछत्र साम्राज्य था. एल्बरटोसौरस प्रजाति का यह भयंकर प्राणी लगभग 69 मिलियन वर्षों से 100 मिलियन वर्षों के बीच एल्बर्टा के इसी भाग में बहुलता से घूमा करते थे. ड्रमहैलर के बहुत से मकानों, दुकानों तथा मौलों के सामने विभिन्न आकारों की इसी प्राणी की प्रतिमाएं लगी हुई थीं. बड़ी प्रतिमा वाले पार्क में बैंचों पर बैठ कर हम ने लंच किया. फिर हम 30 किलोमीटर की दूरी पर प्रकृति का हुडूज नामक वह आश्चर्यजनक चमत्कार, जिसे हम लोगों ने जीवन में पहली बार ही सुना था, देखने के लिए चल दिए.

हम लोग कुछ ही किलोमीटर आगे गए थे कि सड़क के दोनों ओर की पहाडि़यों के निचले भाग में जमीन से 2-3 फुट की ऊंचाई पर लगभग 11/2 फुट की ऊंचाई के साथ पहाडि़यों के बड़े भाग में स्थित कुछ अजीब सी प्रतिमाएं दिखीं. हम हैरान थे. इस प्रकार की रचनाएं केवल एक पहाड़ी पर ही नहीं, बल्कि बीसियों पहाडि़यों पर मौजूद थीं. ठीक उसी तरह जैसे बहुत से प्राचीन मंदिरों में देवीदेवताओं की प्रतिमाएं हों. कुछ भी समझ में नहीं आया कि यह क्या है. आखिरकार हम उस स्थान पर पहुंच गए जहां नक्शे के अनुसार हमें जाना था. उस स्थान पर लगभग 50-60 व्यक्ति मौजूद थे. हम लोग गाड़ी पार्क कर वहीं पहुंच गए. वहां उसी तरह की प्रतिमाएं थीं जो हम ने मार्ग की पहाडि़यों के निचले भागों में बनी देखी थीं. साथ ही बहुत से प्राचीन भवनों के खंडहरों के थमलों की आकृतियां, जो लगभग 5-6 फुट ऊंचाई की थीं तथा विभिन्न आकारों की थीं, भी देखीं. वहां खड़े एक व्यक्ति से मैं ने पूछा कि यह क्या है तो उस ने बताया कि ये हुडूज हैं. ये ज्वालामुखी से निकले लावे की गरम मिट्टी एवं बैडलैंड में उपस्थित ग्लेशियर्स के ज्वालामुखी के अत्यंत गरम लावे के संपर्क में आने से बर्फ के पिघले पानी से मिल कर यहां की तेज हवाओं, पहाड़ों के इरोजन आदि के प्रभाव से कई मिलियन वर्षों में बनी प्रतिमाएं हैं, जो हुडूज कहलाती हैं.

बाद में हम लोगों ने वहां बनी स्टील की सीढि़यों पर चढ़ कर बहुत से अन्य तरह तरह के आकारों की प्रतिमाओं को बहुत पास से देखा. प्रकृति का यह मनोहारी दृश्य देख कर हम आश्चर्यचकित रह गए. कुछ इन्फौरमेशन सैंटर से मिले लिटरेचर में मैं ने यह भी पढ़ा कि हुडूज ड्रमहैलर की मिट्टी, कुछ सीमेंट के समकक्ष मिट्टी, ज्वालामुखी लावा, समुद्री शैल, सैंडस्टोन आदि के मिक्स्चर के पानी में मिलने के बाद तेज हवाओं, फ्रोस्ट आदि के प्रभाव से लाखों साल में ये अजीबअजीब प्रतिमाओं की शक्ल में परिवर्तित हुई हैं. प्रकृति की ये भूगर्भीय रचनाएं ड्रमहैलर की लगभग 11 हैक्टेअर बैडलैंड भूमि में ईस्ट काउली नामक स्थान तक बहुतायत में पाई जाती हैं.

हुडूज देखने के बाद हम लोग 12 किलोमीटर दूर स्थित घोस्टटाउन देखने गए. उस स्थान पर जाने के लिए करीब 1 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए स्टील के बने 11 पुलों से गुजरना पड़ा. एक प्राचीन नदी, जिस का नाम वाइंडिंग रोज बड रिवर है, पर लगभग 1 किलोमीटर के रास्ते को पार करने के लिए 11 पुल हैं जो सब एकलेन पुल हैं. ये पुल प्राचीनकाल में कोयले की खानों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए कोयला ढोने के काम आते थे. इन पुलों को पार किया. वहां एक उजाड़ टाउन था जिस में 10-15 घर बने थे. सब खाली पड़े थे. पास में एक अत्यंत प्राचीन बार भी थी. इस स्थान पर हम ने 2-3 आदमियों को घूमते भी देखा था किंतु वे घोस्ट नहीं लग रहे थे. हम लोग फिर उन 11 ब्रिजेज को पार करते हुए सीधे ड्रमहैलर पहुंचे तथा वहां से लगभग 10 किलोमीटर पर स्थित अत्यंत सुंदर पहाडि़यों से घिरे ‘मिडलैंड प्रोविंशियल पार्क’ पहुंचे जिस में डायनासौर का म्यूजियम बना हुआ है. इसे रौयल टाइरैल म्यूजियम नाम से 1985 में कनाडा सरकार ने बनवाया था. इसे देखने संसार के विभिन्न भागों से प्रतिवर्ष 4 लाख से अधिक सैलानी पहुंचते हैं.

अब तक की हमारी यात्रा में हम ने कहीं भी भीड़ नहीं देखी थी, यहां तक कि ड्रमहैलर एक बड़ा शहर होने पर भी इस की जनसंख्या केवल 8,200 ही होने से कहीं भी भीड़भाड़ न थी किंतु हम उस स्थान पर कम से कम 2 हजार पर्यटकों को देख कर चकित हो गए. हम टिकट ले कर जैसे ही प्रथम हौल में पहुंचे, एक अत्यंत विशाल डायनासौर का संपूर्ण अस्थिपंजर दिखा जिस की विशालता देख कर हम दंग रह गए. यह अस्थिपंजर लगभग 100 मिलियन वर्षों पुराने डायनासौर का था. संजय, मधु, सिद्धार्थ एवं अनीष चारों के पास कैमरे थे जिन्होंने उस प्राचीन अस्थिपंजर के चित्र लिए. हम लोग काफी समय तक उस विशाल अस्थिपंजर को देखते रहे. अन्य विशाल हौल में 3 और बड़े एवं लगभग 37 अन्य छोटे डायनासौर के बच्चों एवं मध्यम आकार के डायनासौर के अस्थिपंजर थे. सभी अस्थिपंजरों को बहुत सुंदरता के साथ यथास्थान पर प्रदर्शित किया गया था.

इस म्यूजियम की बड़ी बात यह है कि इस के एक बड़े भाग में एक विशाल लैबोरेटरी भी स्थित है जिस में नए खोजे गए फौसिल्स को पूरी तरह वैज्ञानिक ढंगों से साफ कर के सारे अस्थिपंजरों को एसैंबल किया जाता है जिस के लिए आधुनिकतम वैज्ञानिक यंत्र लगे हैं. विशेषकर उन वयस्क विशाल शरीर वाले डायनासौर के अस्थिपंजरों को जोड़ने के लिए उस विशाल लैब की छत पर भी यंत्र लगे हैं जो अस्थिपंजरों को जोड़ते समय सही पोजीशन पर आवश्यकतानुसार उन की पोजीशन आदि बदल कर उन्हें सुरक्षित रख सकें. इस लैब तथा म्यूजियम के बीच की दीवार पूर्णतया पारदर्शक शीशे द्वारा बनी हुई है ताकि म्यूजियम के दर्शक आसानी से लैब में होता हुआ काम स्वयं देख सकें. म्यूजियम के एक भाग में प्रीहिस्टोरिक पानी के पौधों का अपूर्व संग्रह है जिन्हें मुख्यतया वान्कूवर द्वीपों की नर्सरियों से खरीदा गया है. ऐसे पौधे अभी तक पैसीफिक महासागर की तलहटी में पाए जाते हैं जो लगभग पूर्णतया अंधकार में ही उगते हैं तथा प्रीहिस्टोरिक एल्बर्टा के पौधों से बहुत मिलतेजुलते हैं. क्योंकि गहरे पानी में अंधकार में उगने वाले ये पौधे, अंधकार में ही उग सकते हैं अत: म्यूजियम के एक बड़े भाग में इस प्रकार के बहुत से पौधों के लिए एक अलग भाग है जहां पूर्ण अंधकार रहता है. साइड में लगी बहुत कम लाइट के साथ शीशे के पीछे स्थित पानी में इन्हें देखा जा सकता है.

इस म्यूजियम में एक बहुत बड़ी चट्टान भी रखी है जिस के मध्य में लाखों वर्ष पूर्व दब जाने से एक मीडियम आकार के डायनासौर का सारा भाग आसपास की मिट्टी आदि के साथ चट्टान में परिवर्तित हो गया था तथा डायनासौर का पूरा शरीर एक फौसिल में परिवर्तित हो गया था, दिखता है. उस चट्टान को इस प्रकार तोड़ा गया है कि पूरे डायनासौर के फौसिल के एक साइड का पूरा शरीर स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है. इस के अतिरिक्त लगभग 4-5 फुट चौड़ी तथा इतनी ही ऊंची एक चट्टान का शिलाखंड भी वहां रखा है जिस में संसार के बहुत से बेहद कीमती हीरे तथा अन्य तरहतरह के कई रंग वाले बेहद कीमती पत्थर दिखते हैं. चट्टान पर लिखा है कि इस चट्टान की कीमत कई बिलियन डौलर है. यहां मैं पाठकों को यह भी बताना चाहूंगा कि एक जीववैज्ञानिक होते हुए भी मेरी डायनासौर्स के आकारों के बारे में एक बहुत बड़ी भ्रांति इस म्यूजियम के देखने के बाद दूर हो गई है. म्यूजियम में लगभग 145 से 200 मिलियन वर्ष पूर्व के एक डायनासौर की, पैर से घुटने तक की काफी मोटी तथा 11 फुट ऊंची हड्डी का फौसिल रखा है. अब अनुमान कीजिए कि जिस प्रीहिस्टोरिक प्राणी की नीचे के पंजे से ले कर घुटने तक की लंबाई 11 फुट थी तो उस का पूरा शरीर कितना बड़ा होगा? किंतु जैसेजैसे समय बीतता गया, इन प्राणियों के आकार छोटे होते गए जो प्रदर्शित फौसिल्स से सिद्ध हो जाता है. डायनासौर के 1-2 मिलियन वर्ष पूर्व के उन के आकार उन के 200 मिलियन पूर्व के बुजुर्गों की अपेक्षा लगभग 1/3 ऊंचाई के ही रह गए थे. यही कारण है कि उन के आकारों से संबंधित मेरी भ्रांति दूर हो गई थी.

‘रौयल टाइरैल म्यूजियम औफ पैलान्टोलौजी’ से बाहर आने तक शाम को 5:15 बज चुके थे. यद्यपि ड्रमहैलर का एक और मुख्य आकर्षण केंद्र वहां की सदैव के लिए बंद माइन्स थीं किंतु उन्हें देखने के लिए हमारे पास समय का अभाव था. दूसरे, हमें यह भी ज्ञात था कि शाम 6 बजे से बहुत तेज वर्षा का प्रकोप होने वाला है, हम ने तत्काल अपनी गाड़ी एडमन्टन की ओर दौड़ा दी. हम लोगों ने लगभग 100 किलोमीटर का सफर तय किया था कि ड्रमहैलर में बेहद तेज बारिश के साथ मौसम बहुत खराब हो चुका था. यह सूचना हमें अपने मोबाइल द्वारा प्राप्त हो गई थी. हमें तसल्ली थी कि हम ने अपने मिशन का विशेष भाग अत्यंत सफलतापूर्वक पूरा कर लिया था तथा ठीक 8:15 बजे शाम को हम लोग एडमन्टन में अपने घर पहुंच गए थे.

डाक्टरी : सेवा या व्यवसाय

डाक्टर और मरीज के बीच संबंध बहुत ही निजी और जरूरत भरे होते हैं. कुछ साल से इन संबंधों में दरार आने लगी है. डाक्टर और मरीज के बीच टूटती भरोसे की कड़ी के बीच पैसे की दीवार खड़ी हो गई है. ऐसे में कई बार दोनों के बीच टकराव इस हद तक पहुंच जाता है कि अस्पतालों में तोड़फोड़ की घटनाएं भी होने लगती हैं. ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि डाक्टरी पेशा सेवा है या व्यवसाय. मैडिकल बिजनैस के जानकार इस की वजह महंगे होते इलाज को मानते हैं. ऐसे लोगों का कहना है कि पहले स्वास्थ्य के नाम पर इलाज के लिए कुछ ही दवाएं थीं. मरीज की जांच के नाम पर डाक्टर के पास एक स्टैथोस्कोप ही होता था. उसी से वह मरीज की बीमारी का पता लगाने का काम करता था. डाक्टर अपने अनुभव के आधार पर दवा लिख देता था. उस के बदले अपनी फीस ले लेता था.  

समय के साथ चिकित्सा जगत में नए प्रयोग हुए. नई किस्म की दवाएं, जांच की मशीनें और जिंदगी को लंबा बनाने के दूसरे साधन आने लगे. जिस डाक्टर के पास जांच के लिए बेहतर मशीनें होती हैं वहां मरीज ज्यादा जाते हैं. ऐसे मेंदूसरे डाक्टर के लिए जरूरी होता है कि वह अपने अस्पताल को भी पूरी तरह से सुविधाजनक बनाए. इस के लिए डाक्टर को अस्पताल बनाने में बहुत सारा पैसा निवेश करना होता है. इस पैसे को निकालने के लिए डाक्टर मरीज के ऊपर निर्भर होता है. इस से इलाज का खर्च बढ़ जाता है. मरीज शुरुआत में तो इस महंगे इलाज को वहन कर लेता है, जैसेजैसे वह ठीक होने लगता है, इलाज का महंगा खर्च उस को अखरने लगता है. जिन मामलों में इलाज के दौरान मरीज की मृत्यु हो जाती है वहां मरीज के साथी पैसे देने में आनाकानी करने लगते हैं. इस से टकराव बढ़ जाता है. दोनों के ही अपनेअपने तर्क हैं. मरीज वाले कहते हैं कि डाक्टरी का पेशा सेवा का है, इसे व्यवसाय नहीं बनाना चाहिए. डाक्टर तर्क देता है कि मरीज की बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए हम जो साधन जुटाते हैं उस की वजह से इलाज महंगा हो जाता है.

सरकार नहीं करती मदद

लखनऊ नर्सिंग होम एसोसिएशन की अध्यक्षा डा. रमा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘शिक्षा और स्वास्थ्य समाज की 2 बड़ी जरूरतें हैं. सरकार ने दोनों का निजीकरण किया. सरकारी स्कूलों के साथसाथ प्राइवेट स्कूल भी बनाए गए. सरकारी अस्पतालों के साथसाथ प्राइवेट नर्सिंग होम भी बनाने शुरू किए गए. सरकार ने स्कूल और नर्सिंग होम के बीच भेदभाव किया. सरकार प्राइवेट स्कूल खोलने वालों को तमाम तरह की सुविधाएं देती है. प्राइवेट नर्सिंग होम खोलने वालों को किसी भी तरह की सुविधा नहीं दी जाती है. 10 बैड के मामूली से अस्पताल को बनाने में 4 करोड़ रुपए से अधिक की रकम लगानी होती है. इस के लिए बैंक से लोन लेना पड़ता है.’’

डा. रमा आगे कहती हैं, ‘‘डाक्टर और मरीज के बीच टकराव की वजह बीमारी में लगने वाला पैसा ही होता है. मरीज को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अस्पताल में मिलने वाली सुविधाओं की कीमत उसे देनी पडे़गी. इलाज में जांच की मशीनों ने बेहतर सहयोग दिया है. मशीनों से खतरनाक से खतरनाक औपरेशन भी सुविधाजनक तरीके से होने लगे हैं. नर्सिंग होम में होने वाले बेहतर निवेश से ही मरीजों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं. ऐसे में मरीज को समझना चाहिए कि आज का डाक्टर सेवा के साथ सुविधाएं भी देता है.’’

सेवाभाव से कार्य करें

स्वास्थ्य सेवा में कौर्पोरेट के आने व डाक्टरों में बढ़ती कमर्शियल एप्रोच पर इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के महासचिव डा. के के अग्रवाल का कहना है, ‘‘मैडिकल प्रोफैशन के व्यावसायिक पेशा हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि यह एक नेक पेशा न रहे. व्यावसायिक संस्थान लाभ के लिए व्यवसायीकरण करते हैं. कौर्पोरेट अस्पताल और ट्रस्ट अस्पताल में यह फर्क होता है कि कौर्पोरेट अस्पताल को होने वाली आय का प्रयोग बोर्ड औफ डायरैक्टर्स द्वारा निजी तौर पर भी किया जा सकता है जबकि ट्रस्ट द्वारा अर्जित आय को सिर्फ ट्रस्ट के तय उद्देश्यों के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है. जहां तक डाक्टरों की बात है वह चाहे ट्रस्ट के अस्पताल में कार्य करें या कौर्पोरेट अस्पताल में, उन का फर्ज है कि वे पारदर्शिता, नैतिकता और सेवाभाव से कार्य करें.’’

जरूरी है मरीज की काउंसलिंग

कानपुर के राज हौस्पिटल एंड इनफर्टिलिटी सैंटर की डा. ममता अग्निहोत्री कहती हैं, ‘‘मरीज और डाक्टर के बीच संबंध को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है कि मरीज की बात को ध्यान से सुना जाए. किसी भी इलाज में होने वाले खर्च, उस में मिलने वाली सफलता के संबंध में डाक्टर को मरीज से पूरी बात करनी चाहिए. कई बार डाक्टर ज्यादा मरीजों को देखने के चक्कर में मरीज को पूरा समय नहीं देते हैं. ऐसे में मरीज को लगता है कि डाक्टर ने उस की पूरी बात नहीं सुनी. यहां से डाक्टर और मरीज के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी होने लगती है. अगर ठीक से मरीज को पूरी बात समझाई जाए तो उस की धारणा बदलने लगेगी. डाक्टर को चाहिए कि वह मरीज को इलाज में लगने वाले औसतन खर्च की जानकारी जरूर दे.’’ हमारे यहां अभी भी समय की कोई कीमत नहीं समझी जाती है. ऐसे में डाक्टर जो समय मरीज को देता है उस की कीमत मरीज नहीं समझता. डाक्टरों को ज्यादा से ज्यादा मरीजों को देखने की होड़ से बचना चाहिए. उन को क्वालिटी इलाज देना चाहिए जिस से मरीज को यह लगे कि वह जो फीस चुका रहा है उस के बदले सही इलाज मिल रहा है. परेशानियां वहीं खड़ी होती हैं जहां पर इस तरह की सोच बनने लगती है. ऐसे में मरीज की काउंसलिंग कर के उस को समझाया जा सकता है. मरीज डाक्टर पर यकीन कर के ही अस्पताल में आता है. वह अच्छे से अच्छे डाक्टर की सेवाएं लेना चाहता है.

गोरखपुर के स्टार हौस्पिटल की डा. सुरहिता करीम का मानना है कि डाक्टरी पेशे को ले कर कई तरह की भ्रांतियां समाज में फैल रही हैं. यह सच बात है कि कुछ सालों में डाक्टरी पेशा सेवा भर नहीं रह गया है, उस की जवाबदेही सेवा से अधिक आगे बढ़ चुकी है. ऐसे में मरीज इसे बिजनैस मान लेता है. अस्पताल को चलाना भले ही बिजनैसका काम हो पर मरीज का इलाज करना आज भी सेवा का ही हिस्सा है. वे कहती हैं, ‘‘कुछ दुष्प्रचार भी डाक्टरी पेशे की छवि को खराब करने का काम करता है. कई बार मरीज की बीमारियां ऐसी होती हैं जो बेहतर इलाज से भी ठीक नहीं हो सकती हैं. ऐसे में यह सोचना ठीक नहीं होता कि डाक्टर ने पैसे ले लिए और इलाज नहीं किया. कोई भी डाक्टर अपने मरीज का बुरा नहीं चाहता. वह बेहतर इलाज करने का प्रयास करता है. ऐसी घटनाएं सरकारी अस्पतालों में भी घटती हैं. वहां मरीज हल्ला नहीं मचाता.’’

नए रास्तों से निकले समाधान

इस बात को तो सभी स्वीकार करते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं बदल रही हैं. लोगों को केवल सरकारी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. अब तो कई ऐसे अस्पताल सरकार खुद बनाती है जहां पर मरीजों को बीमारी में होने वाले खर्च को चुकाना पड़ता है. जब ऐसे अस्पतालों में पैसा देना पड़ता है तो प्राइवेट अस्पतालों में पैसा देना जरूरी हो जाता है. अगर प्राइवेट अस्पतालों से मरीजों को राहत देने के प्रयास किए जाएं तो नर्सिंग होम चलाने वाले डाक्टरों को अस्पताल के लिए सस्ती जमीन, कम ब्याज पर लोन और टैक्स के बोझ को कम करने की जरूरत है. इस के अलावा हैल्थ बीमा को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिस से मरीज को महंगे इलाज की मार नहीं सहनी पडे़गी. 

कृष्णा मैडिकल सैंटर की डा. मालविका मिश्रा कहती हैं, ‘‘डाक्टरी पेशा सेवा के साथ किया जाने वाला बिजनैस है. इस में डाक्टर और मरीज के बीच जो रिश्ता बनता है वह दूसरे किसी बिजनैस में नहीं बनता. डाक्टर मरीज से जो फीस लेता है वह ज्यादा नहीं होती. आज विज्ञान ने ऐसी बहुत सारी तकनीकें ईजाद की हैं जिन से मरीज की सेवा बेहतर तरीके से की जा रही है. ऐसी मशीनों और दवाओं का प्रबंध करने के लिए अस्पतालों को सुविधाएं जुटानी पड़ती हैं. अगर डाक्टरी पेशे को नोबल पेशे के रूप में देखना है तो सेवा और व्यवसाय के बीच का रास्ता बनाना होगा. दोनों को एकदूसरे की जरूरतों को समझना पडे़गा. समयअसमय इमरजैंसी में जिस तरह से डाक्टर अपनी सुविधा का ध्यान न रखते हुए मरीज की सेवा करता है यह भाव किसी दूसरे प्रोफैशन में फीस लेने के बाद भी नहीं दिखता है.                            

जर्जर जहाज के कप्तान सीताराम येचुरी

सीताराम येचुरी भले आदमी हैं लेकिन वे जर्जर जहाज के कप्तान बने हैं या वे ऐसे गांव के मुखिया बने हैं जहां कोई रहता नहीं है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी के पार्टी के महासचिव बनने पर ऐसी टिप्पणियां होनी लाजिमी ही हैं. किसी समय भारतीय राजनीति में महाबली मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वाममोरचे की हालत इन दिनों बेहद खस्ता है. केरल व पश्चिम बंगाल में शासन करने वाली माकपा चुनाव ही नहीं हारी, हिम्मत भी हार चुकी है. केवल त्रिपुरा जैसा छोटा राज्य ही बचा है जहां वह अब भी सत्ता में है. लोकसभा में उस की संख्या सिकुड़ चुकी है. येचुरी के लिए तो सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े वाली कहावत सही साबित हुई कि माकपा अपना गढ़ रहे पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव में बुरी तरह से पराजित हो गई. कोलकाता के 144 वार्डों में से केवल 15 वार्डों में ही वह जीत पाई. शेष बंगाल में तो हालत और भी बुरी रही. 91 स्थानीय निकायों में से केवल 6 निकायों में ही वह जीत पाई. मतलब साफ है कि पार्टी रसातल में पहुंच चुकी है.

वक्त ने क्या सितम ढाया है कि कभी जो कम्युनिस्ट पार्टी लाल किले पर लाल निशान फहराने के सपने देखती थी वह आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के जमाने में लुप्त प्रजाति बनती जा रही है. ऐसे समय में सीताराम येचुरी माकपा के महासचिव चुने गए हैं. यह तो अच्छा ही हुआ कि सीताराम येचुरी की माकपा का महासचिव बनने की हसरत पूरी हो गई जिस के लिए हमेशा उन का पूर्व महासचिव प्रकाश करात के साथ टकराव होता रहता था लेकिन माकपा की हालत देखते हुए तो यही लगता है कि यह पद कांटो भरा ताज है. येचुरी के कुछ प्रशंसक ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि उदारवादी येचुरी माकपा के डेंग सियाओपिंग, जो चीन के नेता थे, की तरह माकपा के तारनहार साबित हो सकते हैं. यह बात अलग है कि येचुरी ने कम से कम अब तक इस बात का प्रमाण नहीं दिया कि उन में लीक से हट कर सोचने की क्षमता है और वे अगर डेंग न सही तो कम से कम मोदी की तरह अपनी पार्टी का कायाकल्प कर सकते हैं.

12 अगस्त, 1952 को तमिलनाडु के चेन्नई में जन्मे सीताराम येचुरी का बचपन हैदराबाद में गुजरा. मैट्रिक हैदराबाद के ही औल सेंट्स हाईस्कूल से किया. उस के बाद की पढ़ाई के लिए वे दिल्ली आए और प्रैसिडैंट्स इस्टेट स्कूल से विद्यालयी शिक्षा पूरी की, फिर सेंट स्टीफंस कालेज से अर्थशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई की. इस के बाद उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए कंपलीट किया. जेएनयू के दिनों में ही इन का विवाह सीमा चिश्ती से हुआ. हालांकि सीमा चिश्ती से पहले उन का एक विवाह हो चुका था. पहली शादी से उन के एक बेटा और एक पुत्री भी हैं. दिल्ली के अमीरों के बच्चों को पढ़ाने वाले सेंट स्टीफंस कालेज और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़े येचुरी आपातकाल के दौरान गिरफ्तारी के कारण अपनी पीएचडी पूरी नहीं कर पाए. रिहाई के बाद वे जेएनयू छात्रसंघ के 3 बार अध्यक्ष चुने गए. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की जोड़ी हमेशा ही चर्चा में रही क्योंकि दोनों ने ही पार्टी में तेजी से तरक्की की. दोनों ही महासचिव के सर्वोच्च पद तक पहुंचे. लेकिन उन की इस तरक्की को बहुत सराहा नहीं जाता. उन के बारे में लोग व्यंग्य में कहते हैं कि ये दोनों माकपा कालेज रिकू्रट हैं तो कुछ कहते हैं ये पार्टी की सिविल सर्विस से आए हुए हैं.

माकपा का अपने बारे में यह खयाल है कि वह क्रांतिकारी पार्टी है और उस का नेतृत्व जनआंदोलनों की आग में तप कर निकलता है. तभी तो बी टी रणदीवे, पुछलापल्ली सुंदरैया, ईएमएस नंबूदिरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे लोग महासचिव बने. इन के विपरीत प्रकाश करात और सीताराम येचुरी ने छात्र आंदोलनों के बाहर कोई बड़ा काम नहीं किया, न उन का कोई जनाधार है. दरअसल ये दोनों, पार्टी के शीर्ष नेताओं के बहुत प्रिय थे. नेताओं ने इन्हें भविष्य के नेता के तौर पर तैयार करने का फैसला किया. फिर पार्टी संगठन में उन की तेजी से तरक्की हुई. 

बहुत कम उम्र में दोनों पार्टी की पोलितब्यूरो के सदस्य बन गए थे. ऐसा नहीं था कि माकपा में तब युवा और बौद्धिक रूप से प्रखर कार्यकर्ताओं की कमी थी लेकिन उन्हें हाशिये पर डाल कर माकपा के नेताओं, हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु आदि द्वारा प्रकाश करात, सीताराम येचुरी को पसंद करने के पीछे माकपा के शीर्षस्थ नेताओं की अपनी असुरक्षा की भावना काम कर ही थी. उन्हें ऐसे नेता रास नहीं आते थे जिन के पास बौद्धिक प्रखरता के साथ जनाधार भी हो. उन से वे असुरक्षित महसूस करते थे. लेकिन करात और येचुरी ने भी एक बार शीर्ष नेताओं को झटका दिया ही था. 1996 में जब महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु को तीसरे मोरचे की सरकार का प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे तब येचुरी और करात सहित पार्टी की पोलितब्यूरो के कई सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने के कारण ज्योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. कई कम्युनिस्ट नेताओं ने इसे ऐतिहासिक गलती बताया था जिस के कारण देश में कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के बनने का मौका माकपा ने खो दिया.

माकपा नेतृत्व के ये दोनों चिकनेचुपड़े चहेते शीर्ष पदों तक पहुंचे. इन में करात पहले महासचिव बने, जिन्हें कट्टरवादी माना जाता था. जबकि येचुरी की गिनती उदारवादियों में होती है. करात के महासचिव बनने के बाद येचुरी और करात के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ गई. तब येचुरी कहते थे कि माकपा पर एक गुट हावी है जिसे वे साहिब, बीवी और गुलाम का गुट कहते थे. इस से उन का मतलब होता था साहिब यानी प्रकाश करात, बीवी यानी उन की पत्नी वृंदा करात और गुलाम से उन का मतलब था पोलितब्यूरो के सदस्य रामचंद्र पिल्लई, जो इस बार महासचिव के चुनाव में उन के प्रतिद्वंद्वी थे दिल्ली के येचुरी और करात के बहुत तेजी से शीर्ष तक पहुंच जाने की एक और वजह थी कि माकपा का शीर्ष नेतृत्व राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रपों से बना हुआ है और वे दिल्ली में रहना पसंद नहीं करते. वे पार्टी की बैठकों में सुबह के विमान से आते  शाम के विमान से चले जाते. उन की चिंता का विषय उन के अपने क्षेत्र हैं न कि दिल्ली. ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाले नेता माकपा को कभी अखिल भारतीय पार्टी न बना पाए, तो अचरज कैसा.

वैसे येचुरी अपने मिलनसार व्यक्तित्व के कारण माकपा ही नहीं, बाकी पार्टियों के नेताओं में भी खासे लोकप्रिय हैं. बताया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने येचुरी को कैबिनेट मंत्री पद देने का प्रस्ताव रखा था लेकिन येचुरी अपनी विचारधारा पर अडिग रहे. विशाखापट्टनम में हुए चुनाव में रामचंद्र पिल्लई और येचुरी के मुकाबले में कुछ बातें पहले से ही येचुरी के पक्ष में गई थीं. येचुरी, रामचंद्र पिल्लई की तुलना में 15 साल छोटे हैं. इसलिए ज्यादा युवा हैं. वे 12 अगस्त, 2015 को 63 साल के होंगे. येचुरी 2 दशक तक राष्ट्रीय राजनीति में वामदलों का चेहरा रहे हैं और राज्यसभा में पार्टी की आवाज. राज्यसभा में उन के कामकाज और भाषणों की काफी सराहना भी होती है. वे हिंदी, अंगरेजी, बंगला के अलावा तेलुगू के भी जानकार हैं.

आज की राजनीति में ये सारी विशेषताएं महत्त्वपूर्ण हैं. लेकिन माकपा आज बहुत ही दयनीय स्थिति से गुजर रही है, उसे नरेंद्र मोदी नहीं तो कम से कम अरविंद केजरीवाल जैसा नेता चाहिए जिस के लिए लोग दीवाने हों और जो पार्टी में नई जान फूंक सके, देश में एक नई बहस छेड़ सके. येचुरी बहुत मधुरभाषी, मिलनसार, पढ़ेलिखे, सभी राजनीतिक नेताओं से अच्छे रिश्ते रखने वाले हैं, लेकिन पार्टी में नई जान फूंकने वाली नेतृत्व क्षमता उन में नजर नहीं आती. उन में कुछ नया सोचने, कुछ नया करने की क्षमता का अभाव है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि येचुरी युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं लेकिन यह लोकप्रियता उन्हें मौजूदा हालात में मजबूती प्रदान कर पाएगी, इस में थोड़ा संशय है.

चुनौतियों का पहाड़

येचुरी पूर्व माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के लंबे समय तक शिष्य रहे हैं, इसलिए इस देश की सक्रिय राजनीति का उन्हें लंबा अनुभव है. कभीकभी लगता है येचुरी की यही सब से बड़ी खामी है. सुरजीत पार्टियों के बाकी बुजुर्ग नेताओं से किसी माने में बेहतर नहीं थे. दरबारी राजनीति करने में उन का कोई सानी नहीं था. मगर रहे वे लकीर के फकीर ही. माकपा को वे न कभी नई सैद्धांतिक दिशा दे पाए, न ही केरल और पश्चिम बंगाल के बाहर पार्टी का कोई विस्तार कर पाए. इसलिए येचुरी यदि सुरजीत के सच्चे शिष्य हैं तो उन से कुछ नया या क्रांतिकारी करने की उम्मीद नहीं की जा सकती. सीताराम येचुरी के सामने सब से बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में लैफ्ट की खोई सियासी जमीन को वापस दिलाने की होगी. पश्चिम बंगाल माकपा का सब से बड़ा गढ़ है जिस में उस ने 34 साल निरंतर शासन किया है. दिक्कत यह है कि माकपा चुनाव ही नहीं हारी, हिम्मत भी हार चुकी है.

कभी माकपा राष्ट्रीय मान्यताप्राप्त पार्टी थी लेकिन उस की राष्ट्रीय मान्यता 2014 के चुनावों में खो गई है. 2009 में पार्टी के 24 सांसद थे जो अब घट कर 9 रह गए हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में वामदलों के मतों का प्रतिशत 7 था जो घट कर 4.5 रह गया. जो पार्टी वर्ग, चरित्र और जातीय समीकरणों व संरचना को ले कर सैद्धांतिक तौर पर बहुत चिंतित रहती है उस के कैडर में 6.5 प्रतिशत ही युवा हैं जबकि देश की 51 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है. जिस पार्टी के पास युवा कार्यकर्ता नहीं हों उस का भविष्य क्या होगा. वैसे भी आज का युवा साम्यवाद या समाजवाद को वैचारिक कबाड़ समझता है और उस की तरफ झांकना भी नहीं चाहता.

इस सिलसिले में अरविंद केजरीवाल की यह उपलब्धि माननी पड़ेगी कि उन्होंने भ्रष्टाचार के विमर्श पर ही दिल्ली में एक ऐसी पार्टी खड़ी की जिस का आधार माकपा का सर्वहारा यानी दलित, मजदूर, किसान, झुग्गीझोपड़ी वाले हैं. जिस ने चुनाव में ऐसी चुनावी सफलता हासिल की जिसे भूतो न भविष्यति कहा जा सकता है. लेकिन कोई कम्युनिस्ट ऐसा एक भी रचनात्मक प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं कर पाया. वह पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ना, समाजवाद को मजबूत बनाना जैसी घिसीपिटी शब्दावली से बाहर नहीं निकल पाता. महासचिव चुने जाने के बाद माकपा बैठक को संबोधित करते हुए येचुरी ने कहा कि यह भविष्य का सम्मेलन है, हमारी पार्टी के भविष्य का और देश के भविष्य का. हमारा काम वाम और लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत करना है. इस सम्मेलन का सुस्पष्ट निष्कर्ष है कि दुनिया में पूंजीवाद संकट गहराता जा रहा है. समाजवाद के लिए संघर्ष बढ़ाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. मानव सभ्यता का कोई भविष्य है तो वह भविष्य समाजवाद में है.

देश के वाम आंदोलनों में जान फूंक कर दूसरे वामदलों को माकपा से जोड़ने का कोई खाका भी येचुरी के पास नहीं है. चुने जाने के बाद उन्होंने यह कहा कि माकपा और भाकपा का विलय जरूर उन के एजेंडे पर है, जल्दी ही यह काम होगा. लेकिन आज के समय में इतना काफी नहीं है. दरअसल, भाकपा की ताकत इतनी कम है कि इस से माकपा की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आएगा. यों भी वाम एकता की कोशिश करना मेढक तौलने की तरह है.     

लचर कानून व शासन तंत्र

जयराम जयललिता को कानूनी आतंक से मुक्ति मिलने के बाद लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षक जिस तरह का सियापा पीट रहे हैं उस से आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इस देश की शिक्षित जनता की आदत हो गई है कि वह अपने मन के बनाए खलनायकों को तुरंत फांसी पर चढ़वाने की वकालत करती है पर आसपास मंडराते सैकड़ों राक्षसों के उत्पातों को सहन करती जाती है. तमिलनाडु की अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी की नेता जयललिता ने 19 वर्ष पहले अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल में कुछ हेराफेरियां की थीं या नहीं, इस पर मुकदमे चल रहे थे और वे कभी जेल में होतीं, कभी बाहर. पर कानूनी तूफानों के बावजूद उन का सूरज चमकता रहा और वे न केवल कांगे्रस को धराशायी कर पाईं, अपनी प्रबल प्रतिद्वंद्वी द्रविड़ मुनेत्र कषगम को चित कर पाईं बल्कि भारतीय जनता पार्टी को राज्य में पैर नहीं जमाने की इजाजत तक नहीं दी.

तमिलनाडु की यह नेता गुनाहगार थी या नहीं, यह कभी पता नहीं चलेगा पर देश की चैटरिंग, बकबकिया क्लास ने उन्हें वर्षों से अपराधी मान रखा है. यह ठीक नहीं है. हमारे यहां जो उंगलियां उठाते हैं वे भूल जाते हैं कि देश का कानून, प्रशासनिक तंत्र ऐसा है कि हर किसी को पहले दिन गुनाहगार मान लेना आसान है पर गुनाह साबित करना असंभव सा है. हमारे यहां समय के चलते गवाह मुकरते रहते हैं, सरकारी वकील खरीदे जाते हैं, जजों की पसंदनापसंद बदलती रहती है. सब से बड़ी बात यह है कि हमारा नैतिकता का आधार पानी पर तैरता है, जब चाहे ऊपर हो जाए, जब चाहे नीचे, जब चाहे उत्तर से बहने लगे, जब चाहे दक्षिण में धकेल दे. हमारी नैतिकता का ढोल पीटने वाले उन ऋषियों, मुनियों, अवतारों की पूजा करते हैं जिन के नैतिक काम ढूंढ़ने के लिए माइक्रोस्कोप चाहिए.

हमारे यहां नैतिकता के दावेदार लाइनें तोड़ कर आगे बढ़ते हैं, रिश्वत दे कर या सिफारिश लगवा कर काम करवाते हैं, रातदिन मेहनत कर के कानूनों का ऐसा जाल बुनवाते हैं कि कोई शरीफ बचे ही नहीं और सभी पर कालिख लगी हो. हमारे यहां 100-200 राजनीतिबाजों को तो कोसा जाता है पर उन करोड़ों सरकारी अफसरों को दिल का लाड़ला बना कर रखा जाता है जो सिर्फ लूटना, मौज करना, राज करना जानते हैं. उन्हें रातदिन संरक्षण मिलता है और नेताओं को, जिन्हें जनता चुनती है, मानवीय प्रलाप सहना पड़ता है. जयललिता गुनाहगार थीं या नहीं, यह सवाल नहीं, सवाल यह है कि ऐसा तंत्र क्यों बना कि एक मुख्यमंत्री बजाय जनता के हितों की रक्षा करने के अपने हितों की सोच भी सकती है जबकि उस की डोर हर समय जनता के हाथ में रहती है और वह दसियों तरह के चुनावों व लगातार संसद या विधानसभा की जांच के दायरे में रहती है. नेता इसलिए बेईमानी करता है क्योंकि उस के पिछलग्गू लोकतंत्र के लिए नहीं, प्रभाव के लिए काम करते हैं और वे चाहते हैं कि नेता उन्हें पालने के लिए अपनी जेब से खर्च करे.

यहां नेता को मानसम्मान उस के गुणों के कारण नहीं, उस के पीछे की भीड़ पर निर्भर है. वह बाबाओं की तरह भी हो सकता है और मटका किंग की तरह भी या फिल्मी नचैया की तरह भी. जिस समाज को काली मूर्तियों को पूजने की आदत हो वह शुद्ध, सफेद नेताओं की कल्पना कैसे कर सकता है?

बिखर गया कम्युनिस्टी सपना?

‘दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी’-यह लिखा था हिंदी के कवि शमशेर बहादुर सिंह ने साम्यवाद और वामपंथ की ऐतिहासिक अनिवार्यता के बारे में. यह कविता तब लिखी गई थी जब आधी दुनिया लाल थी. साम्यवादी सोवियत संघ महाशक्ति था और अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद को चुनौती देता था. पूर्वी यूरोप के देश हंगरी, चैकोस्लोवाकिया, पोलैंड, पूर्वी जरमनी उस के उपनिवेश थे.

बाल्कान के देशों–यूगोस्लाविया, रूमानिया, अलबानिया आदि में भी कम्युनिज्म की तूती बोलती थी. दुनिया की सब से ज्यादा आबादी वाला चीन माओवाद के रास्ते से तरक्की कर रहा था.  इस के अलावा वियतनाम, कंबोडिया, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, लाओस आदि में साम्यवाद का झंडा फ हराता था. दुनिया के ज्यादातर देशों में कम्युनिस्टों व वामपंथी दलों के नेतृत्व में मजदूर और किसानों के जुझारू आंदोलन चलते थे, जहां ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे गूंजते थे. तब एक सपना पलता था कि धीरेधीरे सारी दुनिया लाल हो जाएगी. एक नई सुबह आएगी, जब शोषण और दमन खत्म हो कर नई खुशहाली आएगी. लेकिन वह सपना टूट गया, इसलिए टूट गया क्योंकि कम्युनिज्म का सपना दुस्वप्न साबित हुआ लोगों के लिए. सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप एबाल्कान में साम्यवादी साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह ढह गया. कम्युनिस्ट देश चीन पूंजीवादी हो कर बाजारू अर्थव्यवस्था की शरण में चला गया. उस ने बोर्ड तो कम्युनिज्म का लगा रखा है पर वहां माल पूंजीवाद का बिक रहा है. यह तो साम्यवादी विचारधारा की जड़ों पर कुठाराघात  था. महाशक्ति  अमेरिका को धूल चटा देने वाले हो ची मिन्ह का वियतनाम अब अमेरिका के सामने मदद के लिए कटोरा फैला रहा है. फिदेल कास्त्रो का क्यूबा साम्यवाद का म्यूजियम बन कर अब भी किसी तरह जिंदा है. वह भी अंकल सैम की तरफ  दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है.

जब सारी दुनिया को साम्यवाद का प्रकाश देने वाले देश एकएक कर ढह गए तो विश्व साम्यवाद भी राह से भटक गया. कई जगह तो साम्यवादी पार्टियों ने लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा को अपना लिया. नेपाल जैसे देशों में तो माओवादियों ने भी संसदीय लोकतंत्र की राह पकड़ ली. साम्यवाद के इस विखंडन का सब से बड़ा असर मनोवैज्ञानिक था. पहले आम कम्युनिस्ट में यह विश्वास होता था कि कम्युनिज्म आ कर ही रहेगा, वह ऐतिहासिक अनिवार्यता है. लेकिन वह भावना चूरचूर हो गई. दुनियाभर की कम्युनिस्ट पार्टियां उस का बुरी तरह शिकार हुई हैं.  आखिर ऐसा क्या हो गया कि जो विचारधारा देखतेदेखते सारी दुनिया पर छा जाती हुई लग रही थी वह अचानक कहां खो गई? दुनिया को लाल बनाने का सपना कहां गुम हो गया? कुछ इतिहास और अर्थशास्त्र के अध्येताओं का कहना है कि दुनिया केवल सपने से नहीं अर्थशास्त्र के कठोर नियमों से चलती है. आखिरकार वही व्यवस्थाएं, वही सभ्यताएं जीती हैं जो अर्थशास्त्र के नियमों और मानव मन की गहरी समझ के बल पर खड़ी होती हैं.

पूंजीवाद एक ऐसी ही व्यवस्था है और इसीलिए वह कई सदियों से अपना अस्तित्व बनाए हुए है. पिछली 3-4 सदियों में उस ने बहुत सारे देशों और करोड़ों लोगों को खुशहाल बनाया है, फिर भी जिंदा है और अपना निरंतर पुनर्नवीनीकरण भी कर रहा है. इस के विपरीत साम्यवाद समृद्धि और समानता की बात करता है लेकिन वह दरिद्रता का दर्शन है और गरीबी का अर्थशास्त्र है. यही वजह है कि वह पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था के सामने टिक नहीं पाया और अपने अंतर्विरोधों के बोझ से दब कर खत्म हो गया. मजदूर तो कम्युनिज्म के नाम से ही दूर भाग रहे हैं. क्यों न भागें? कम्युनिज्म उन्हें जो देने का वादा करता था उस से कहीं ज्यादा तो शोषक पूंजीवाद ने दे दिया. अब तो यह भी अपील नहीं की जा सकती कि दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. क्योंकि पश्चिमी देशों में पूंजीवादी व्यवस्थाओं ने उन का भरपूर शोषण करने के बावजूद उन्हें मालामाल कर दिया. वहां मजदूर पहले की तरह कड़का, सर्वहारा  नहीं रहा. उस के पास खोने के लिए बहुत कुछ है–फ्लैट है, गाड़ी है, टीवी है, फ्रि ज है, एसी है, मोटी बीमा पौलिसियां हैं. जब मनी हो और हनी हो तो फि र भला वह क्रांति, भ्रांति के चक्कर में क्यों पड़ेगा.

पिछले कुछ वर्षों में साम्यवाद और समाजवाद बीते जमाने की बात हो गए और ज्यादातर देशों को विकास का पूंजीवादी रास्ता ही रास आ रहा है. वक्त ने कुछ ऐसी पलटी मारी कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के जमाने में यह कहने की नौबत आ गई. दिशा दक्षिण दक्षिण दक्षिण, समय पूंजीवादी यानी कवि ने कभी जो कहा था कि ‘दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी’ आज फिट नहीं है. फिर ऐसे में साम्यवादी विचारधारा और आंदोलनों का भविष्य क्या होगा? क्या यह माना जाए कि कम्युनिज्म के साथ मनुष्यता का  समता पर आधारित समाज का सपना भी खत्म हो गया?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिज्म के पतन का असर बाकी दुनिया की तरह भारत पर भी पड़ा है. कभी कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में कम्युनिस्ट क्रांति का सपना देखते हुए नारा लगाती थीं : ‘लालकिले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान.’ लेकिन वक्त के सितम तो देखिए कि कुछ ही दशकों में देश का कम्युनिस्ट आंदोलन टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखर गया. कभी देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां इतनी कमजोर हो चुकी हैं. भारत की मूल साम्यवादी पार्टी थी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा. तब कम्युनिस्ट पार्टी सही माने में अखिल भारतीय पार्टी थी. देशभर में उस का प्रभाव था. 1964 में चीन के भारत पर हमले को ले कर पार्टी में फूट पड़ गई. इन में से भाकपा रूस परस्त पार्टी थी जो अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से सोवियत संघ पर निर्भर होती थी. वह इस कदर सोवियत संघपरस्त थी कि मास्को में बारिश होती थी तो भाकपाई कामरेड हिंदुस्तान में छाता तान लेते थे. इसलिए सोवियत संघ का विघटन भाकपा के लिए तो जानलेवा साबित हुआ. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट माकपा ने सोवियत संघ और चीन दोनों से समान दूरी बनाए रखी पर वह सोवियत संघ की नाकामी व चीन  के भटकाव का विश्लेषण करतेकरते खुद भी भटक गई. उस के वैचारिक भटकाव ने सारे काडर को भी प्रभावित किया.

माकपा का उजड़ना

जिस पश्चिम बंगाल पर 34 बरसों तक माकपा निरंतर शासन करती रही वहां वह इतनी बुरी तरह हारी कि उस के लिए फिर से उठ खड़े होना मुश्किल हो रहा है. केरल में जहां वह बारीबारी से कांग्रेस के मुकाबले सरकार में रहती थी वहां भी हार चुकी है. छोटे से राज्य त्रिपुरा में ही उस की सरकार बची है. उस की सरकार के अलावा सबकुछ उजड़ गया महान क्रांतिकारी नेता प्रकाश करात के महासचिव रहते. इसलिए राजनीतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि प्रकाश करात पार्टी में नीतियों का नया प्रकाश लाने के बजाय सैद्धांतिक  कट्टरतावाद का अंधेरा ले कर आए जो पार्टी की चुनावी पराजय का कारण बना. अब उन की जगह सीताराम येचुरी महासचिव बने हैं. येचुरी उदारवादी हैं, इस का मतलब केवल इतना है कि वे करात की तरह सैद्धांतिक मामलों में कट्टर ही हैं मगर वे कांग्रेस के साथ सहयोग करने को भी तैयार हैं. आज हालत यह है कि केवल कम्युनिस्ट एकता से बात नहीं बनेगी. देश के वाम आंदोलनों में जान फूंक कर उन्हें माकपा से जोड़ने का कोई खाका भी येचुरी के पास नहीं है. इस समय देश में 30 वाम संगठन हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की सब से त्रासदी यह है कि वैचारिक पाखंड उन का स्वभाव बन गया है. माकपाभाकपा संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी कर तो रही हैं लेकिन उन्होंने सर्वहारा की तानाशाही जैसी अपनी लोकतंत्र विरोधी अवधारणाओं को छोड़ा भी नहीं है. ऐसे में कैसे माना जाए कि वे लोकतांत्रिक हैं. वे मानव अधिकारों की बात करती हैं मगर उन्होंने स्तालिन और माओ जैसे अपने नेताओं को नकारा नहीं है जिन के हाथ लाखों निर्दोष लोगों के खून से रंगे हुए हैं. ऐसी स्थिति में सिर्फ  यही कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट पार्टियां लोकतांत्रिक होने का ढोंग कर रही हैं ताकि संसदीय राजनीति में हिस्सा ले सकें जबकि मार्क्सवाद की लोकतंत्र विरोधी अवधारणाओं से उन्होंने मुक्ति नहीं पाई है.

इसी तरह उन का आर्थिक एजेंडा भी स्पष्ट नहीं है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि साम्यवाद की उत्पादन और वितरण  के साधनों पर सरकारी स्वामित्व और नियोजित अर्थव्यवस्था की जिद देश को विकास के पथ पर नहीं ले जा सकती. क्योंकि चाहे जो कर लो सरकारी अफसरों को न उत्पाद से दिली मतलब है न सेवा से. सरकारी अफसर जनता पर राज करना चाहता है और वह भी निरंकुश और यही फार्मूला वह सरकारी उद्योगों में अपनाता है, जहां कर्मचारी और उपभोक्ता, जनता दोनों वे पक्ष हो जाते हैं, जिन्हें लूटना है, जिन की सेवा नहीं करनी. माकपाभाकपा इसे छोड़ने को कतई तैयार नहीं हैं. जबकि चीन के अनुभव ने बता दिया कि खुले बाजार की व्यवस्था यानी उत्पादन को सरकारी चंगुल से निकाल देना को अपनाकर किस तरह तेजी से प्रगति की जा सकती है. डेंग सियाओपिंग ने चीन के कम्युनिस्टों को सब से पहली बात तो यह समझाई कि साम्यवाद का मतलब गरीबी नहीं होता. साम्यवाद और समृद्धि का कोई बैर नहीं है. इसी संदर्भ में वे कहते थे कि जब तक बिल्ली चूहे पकड़ती है तब तक इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वह काली है या सफेद है.

नाकाम साम्यवाद

भारतीय  कम्युनिस्ट पार्टियां कभी  डेंग को समझ ही नहीं पाईं, इसलिए बंदरिया की तरह मरे हुए सिद्धांतों के बच्चों को छाती से लगा कर बैठी हैं. माकपा ने चीन के आर्थिक मौडल को सराहने के बजाय हमेशा उस की तीखी आलोचना की है और कहा कि इस के कारण चीन में असमानता और भ्रष्टाचार बढ़ा है. माकपा की दुविधा यह है कि सोवियत संघ बिखर गया. चीन साम्यवाद के रास्ते से भटक गया. वियतनाम और क्यूबा ने ऐसा कुछ कमाल किया नहीं जिसे मौडल माना जा सके. ऐसी स्थिति में किसी न किसी का अनुकरण करने वाली माकपा किसे अपना मौडल माने? हर बार की तरह उस ने इस बार भी कहा है कि वह भारत के लिए अपना अलग मौडल बनाएगी. लेकिन उस मौडल की कोई रूपरेखा नजर नहीं आती. उस के पास वितरण के न्याय का तो लंबाचौड़ा एजेंडा है लेकिन वितरण करने  के लिए पहले उत्पादन बढ़ाने और ऊंची विकास दर को हासिल करना जरूरी है, लेकिन उस का कोई एजेंडा पार्टी के पास नहीं है. एक बात तो स्पष्ट है कि साम्यवाद के तरीके कम से कम उत्पादन बढ़ाने के मामले में नाकाम साबित हो चुके हैं, इसलिए चीन को बाजारवाद की राह अपनानी पड़ी.

बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे खांटी कम्युनिस्ट भी आर्थिक सुधार आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण की बातें करने लगे. लेकिन माकपा ने कसम खा रखी है कि वह नहीं सुधरेगी. दरअसल, विकास जैसे मुद्दे पर माकपा की सोच बाबा आदम के जमाने की है. माकपा की विकास की सोच इतनी उलटी है कि उस ने औद्योगिक तौर पर उन्नत पश्चिम बंगाल को अपने शासनकाल में औद्योगिक रेगिस्तान बना दिया. सारे उद्योगधंधे खत्म हो गए. उस का सारा जोर कृषि के विकास पर ही केंद्रित रहा. नतीजतन, पश्चिम बंगाल का सारा विकास अवरुद्ध हो गया क्योंकि कृषि पर आधारित विकास की अपनी सीमाएं हैं. बुद्धदेव भट्टाचार्य के समय में फिर औद्योगिक विकास किए जाने की कोशिश शुरू हुई, जो कामयाब नहीं हो पाई. लेकिन यह सब माकपा की विकास के मामले में तुगलकी सोच का ही नमूना था. जिस तरह माकपा ने पश्चिम बंगाल और केरल का विकास नहीं होने दिया, वैसे ही अब वह उदारीकरण के कानूनों का विरोध कर के देश के विकास में अड़ंगे लगा रही है. ऐसी किसी पार्टी के प्रति लोग क्यों आकर्षित होंगे जो औद्योगिक विकास को ले कर इतनी लापरवाह है. ऐसी पार्टियों की जगह तो इतिहास के कूड़ेदान में होती है. हाल ही में पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव ने स्पष्ट कर दिया कि जनता माकपा को भूल चुकी है.

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