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बाल बाल बचे

बात मेरी शादी के 4 दिन बाद की है. हम लोग घूमने गए थे. एक जगह एक सर्किल पर, जहां गांधीजी की मूर्ति बनी हुई थी, उस की मुंडेर पर बैठ गए. उस समय रात के 8 बजे थे. सड़क पर लोग आजा रहे थे. मैं सैंडिल उतार कर मुंडेर पर पैर लटका कर बैठ गई. थोड़ी देर बाद मेरे पति बोले, ‘‘चलो उठो, घर चलें.’’
मैं सैंडिल पहनने लगी, तभी मैं ने देखा कि एक लंबाचौड़ा आदमी कुरता व तहमत पहने हमारी तरफ आ रहा था. वह हम से बोला, ‘‘तुम लोग यहां क्यों बैठे हो?’’ और हमारे ऊपर जोरजोर से चिल्लाने लगा.
मेरे पति ने उस से कहा कि हम अभी फौरन यहां से जा रहे हैं. मगर उस ने चाकू निकाल लिया और मेरे गले पर हाथ मारा. मैं ने सोने का सैट पहन रखा था. इस पर मेरे पति व उस में कहासुनी होने लगी. मेरे पति ने मुझ से कहा, ‘‘तुम भाग जाओ,’’ मैं भागने लगी.
तब वह आदमी चिल्लाया, ‘‘कहां भागेगी. वहां मेरे 2 आदमी और खड़े हैं.’’ मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किस दिशा में भागूं. भागतेभागते घबराहट में गिर भी पड़ी. इतने में मेरे पति भी मौका देख कर भाग आए और मुझे उठा कर सही दिशा में ले भागे क्योंकि उन्होंने भी उन 2 आदमियों को देख लिया था. वे तीनों आदमी ट्रक से एकसाथ उतरे थे. उस दिन पति की सूझबूझ से हम बालबाल बचे.
आशा गुप्ता, जयपुर (राजस्थान)

मेरे भांजे की शादी थी. हम 20 लोग शादी में सम्मिलित होने नागपुर गए थे. शादी अच्छी तरह से संपन्न हुई. नागपुर से हम लोग सभी टे्रन से वापस हावड़ा के लिए रवाना हुए. दूसरे दिन सुबह 6 बजे के आसपास ट्रेन में बहुत जोरदार आवाज हुई. लगभग सभी सो रहे लोग हड़बड़ा कर उठे. देखा कि ट्रेन की 3-4 बोगियां पटरी से उतर कर टेढ़ी हो गई हैं.
हम लोग जिस डब्बे में थे वह भी टेढ़ा हो गया था. चारों ओर अफरातफरी मच गई. टे्रन जहां रुकी थी, वह जंगल का इलाका था. धीरेधीरे सभी यात्री उतरे.
गनीमत यह थी कि कोई भी गंभीर रूप से जख्मी नहीं हुआ था. थोड़ी देर में राहत सामग्री ले कर एक वैन पहुंच गई. अपनेअपने सामान के ऊपर बैठे सब लोग अंत्याक्षरी खेलने लगे. हलकीहलकी बारिश शुरू हो गई थी. जंगल में मंगल हो रहा था. करीब 3 घंटे बाद एक दूसरी टे्रन आई. उस में सब यात्री चढ़े. जमशेदपुर में रेलवे की तरफ से सब को गरमागरम खाना दिया गया. जब हम हावड़ा पहुंचे, सब के परिजन स्टेशन पर खड़े थे. सब को सकुशल देख कर रिश्तेदारों ने राहत की सांस ली.
सुमंत मोहंता, कोलकाता (प. बंगाल)

स्वस्थ जीवनशैली बने जीवन का आधार

खुशहाल जिंदगी के लिए स्वास्थ्य से बढ़ कर कुछ नहीं, इस बात को जीवन का आधार बना कर दैनिक जीवन में छोटीछोटी बातों में बदलाव ला कर कैसे पाएं बेहतर स्वास्थ्य, जानें इस लेख में.

आज की जटिल जीवनशैली व खानपान की बदलती आदतों के कारण स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना एक जरूरी जरूरत बन गई है. दैनिक जीवन में छोटीछोटी बातों में बदलाव ला कर स्वस्थ रहा जा सकता है क्योंकि स्वस्थ रहना काफी हद तक स्वयं हमारे हाथ में होता है. दिल्ली के कौंस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित परफैक्ट हैल्थ मेले में मौजूद तकरीबन सभी विशेषज्ञों ने माना कि जीवनशैली में बदलाव से सिर्फ हृदय संबंधी बीमारियों से ही नहीं बचा जा सकता है, बल्कि मधुमेह, ब्लडप्रैशर, डिप्रैशन और कैंसर जैसी बीमारियों से भी बचा जा सकता है.

मेले में मेदांता अस्पताल के न्यूरोलौजिस्ट डा. विपुल गुप्ता, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स के डा. विनय गोयल और मूलचंद अस्पताल के सीनियर कार्डियोलौजिस्ट कृष्ण कुमार अग्रवाल ने संयुक्त रूप से कहा कि स्ट्रोक को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. यदि लकवा मार जाए तो साढ़े 4 घंटे से कम समय के अंदर अगर मरीज अस्पताल पहुंच जाएं तो लकवे का सही इलाज किया जा सकता है. 40 की उम्र के बाद पहली बार एसिडिटी और अस्थमा के अटैक को नजरअंदाज न करें. ब्लैक टी और ब्लैक कौफी स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती हैं, अगर इन में दूध या चीनी न मिलाई जाए. अपना ब्लडप्रैशर 120/80 से कम रखें. ध्वनि प्रदूषण से बच कर रहें. हृदय रोगों का खुलासा होने में 10-20 साल लग जाते हैं. व्हाइट राइस, व्हाइट मैदा व व्हाइट शुगर के साथ ट्रांसफैट लेना भविष्य में हृदय रोगों का कारण बनता है.

सीपीआर यानी 10 मिनट के अंदर (जितनी जल्द संभव हो सके) मरे हुए आदमी की छाती पीटना चाहिए इस तकनीक से रोजाना केवल दिल्ली में 30 जिंदगियों को बचाया जा सकता है.

स्वास्थ्य के लिए ज्यादा वजन हानिकारक होता है. 18 की उम्र के बाद पुरुष और 20 की उम्र के बाद महिलाएं अपना वजन न बढ़ाएं, इस बात पर जोर देते हुए विशेषज्ञों ने हिदायत दी कि व्यक्ति को चाहिए कि वह 1 दिन में 15 मिलीलिटर से ज्यादा तेल, मक्खन या घी का सेवन न करे. एस्कोर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट के डा. समीर श्रीवास्तव ने कहा कि डाक्टरों को मौडर्न इनवैस्टीगेशन की अपडेटेड जानकारी रखनी चाहिए. आज सोशल मीडिया, एप्स के माध्यम से इमरजैंसी उपचार संभव है और लोगों को इस का लाभ उठाना चाहिए.   

बच्चों में खुद को बेहतर साबित करने की होड़

रेवती की परेशानी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. पहले तो उस की बेटी बबली काम के साथसाथ बड़ों का आदर करती थी, गलती हो जाने पर किसी से माफी भी मांग लेती थी, लेकिन कुछ समय से न जाने क्या हुआ है कि समझना और मानना तो दूर, डांटनेफटकारने, यहां तक कि पिटाई करने के बावजूद वह न तो मेहमानों को नमस्ते कहती है और न ही अपनी गलती पर किसी से माफी मांगती है.

शिखा बेटे की कारगुजारियों से परेशान है. वह कुछ ज्यादा ही बिगड़ चुका है. न जाने क्यों उस ने चोरी करनी भी शुरू कर दी है. एक बार पकड़े जाने पर शिखा ने उस की पिटाई भी की थी, लेकिन अपनी गलती के लिए उस ने माफी नहीं मांगी. क्या आप भी बच्चों के ऐसे व्यवहार से परेशान हैं? समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें?

परिवार की संरचना

समाज में न्यूक्लियर फैमिली का चलन बढ़ता जा रहा है, जहां बच्चे केवल मातापिता का साथ पा कर पलबढ़ रहे हैं. ऐेसे परिवारों में पेरैंट्स अपने बच्चों को ले कर ओवरकंसंर्ड हो जाते हैं. बच्चों का जरूरत से ज्यादा ध्यान रखते हैं. उन की हर चाहीअनचाही मांग पूरी करते हैं. जिस से बच्चों में  छोटीबड़ी हर डिमांड की पूरी होने की आदत हो जाती है. कुछ समय बाद उन्हें इस बात का घमंड होने लगता है कि वे जो भी चाहते हैं वह पूरा हो जाता है.

चाइल्ड साइकोलौजिस्ट डा. धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘बच्चों को गर्व और घमंड के बीच का अंतर मालूम नहीं होता और उन्हें यह अंतर समझा पाना आसान भी नहीं होता. व्यस्त दिनचर्या की वजह से पेरैंट्स उन्हें ज्यादा समय नहीं दे पाते या पेरैंटिंग स्किल्स की कमी की वजह से बच्चों को वे इस बारे में समझा नहीं पाते. टीचर्स की नैतिक जिम्मेदारी होती है या यों कहें कि उन का कर्तव्य होता है कि बच्चों को इस बारे में समझाएं, लेकिन लापरवाही या फिर क्लास में बच्चों की अधिक संख्या की वजह से शिक्षक इस ओर ध्यान नहीं दे पाते.’’

क्या करें

मातापिता को पेरैंटिंग स्किल्स की क्लासेस लेनी चाहिए या चाइल्ड साइकोलौजिस्ट से मिल कर अपनी परेशानियों का हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए. इस से बच्चों की मानसिकता को न सिर्फ समझने में उन्हें आसानी होगी बल्कि वे उन्हें अच्छी तरह हैंडल भी कर पाएंगे. शिक्षकों को चाहिए कि समयसमय पर स्कूल में लाइफ स्किल्स प्रोग्राम चलाएं. ऐसे कार्यक्रमों के दौरान एक ही क्लास के बच्चों को कई अलगअलग ग्रुप्स में बांट दिया जाता है ताकि हर बच्चे पर वे पूरापूरा ध्यान दे सकें.

मीडिया

आज टैलीविजन, रेडियो, इंटरनैट व पत्रपत्रिकाओं के जरिए बच्चों को इतना मीडिया ऐक्सपोजर दिया जाने लगा है कि उन्हें पढ़ने और देखने वाले पेरैंट्स अपने बच्चों को भी ऐसी ही जगह देखने की चाहत पालने लगे हैं. डा. धीरेंद्र कुमार आगे कहते हैं, ‘‘ऐसी चाहत मातापिता को अपने बच्चों को हर तरह की जानकारी से लबरेज कर देने की कोशिश में लगा देती है क्योंकि इस से समाज में उन्हें वैल्यू मिलती है. कम उम्र में ही बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करने के लिए उन के साथ जबरदस्ती भी की जाने लगती है. नतीजतन, कम उम्र में ही बच्चे बड़ों की तरह व्यवहार करने लगते हैं, जो कभी तो हमें आश्चर्यजनक खुशी देता है लेकिन कभीकभार बुरी तरह से परेशान भी कर देता है.’’

इस बाबत जानेमाने मनोवैज्ञानिक डा. समीर पारिख कहते हैं, ‘‘बच्चे कहीं न कहीं बड़ों से ही सीखते हैं या फिर आसपास के माहौल से. मीडिया भी इस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. कई बार हमें मालूम भी नहीं होता, लेकिन टैलीविजन पर प्रसारित किए जा रहे कार्यक्रमों या फिल्मों से बच्चे बहुतकुछ सीखने लगते हैं.

यहीं से कब उन में घमंड की प्रवृत्ति आ जाती है, हमें पता भी नहीं चल पाता. घमंड की वजह से इस कारण धीरेधीरे उन के दोस्त भी कम होते जाते हैं. किसी से उन की बनती नहीं और ज्यादातर लोगों से उन का झगड़ा हो जाता है.

‘‘घमंड की वजह से बच्चा ओवरकौन्फिडैंट होता जाता और मेहनत कम करने लगता है. यही वजह है कि काफी हद तक आज के बच्चों के घमंडी होने के लिए मैं फिल्मों को दोषी मानता हूं. बच्चों में फिल्में देखने की प्रवृत्ति को भी मैं सही नहीं मानता.’’

क्या करें

बच्चों से बातचीत करें. उन का व्यवहार रियलिस्टिक बनाएं. उन्हें सहीगलत का अंतर समझाएं, बताएं कि उन से कहां और क्या गलती हुई है. गलतियों से बचने के उपाय सुझाएं और गलती हो जाने पर क्या करें, यह भी बताएं.

दोहरी प्रवृत्ति

मीडिया ऐक्सपोजर के परिणामस्वरूप पेरैंट्स खुद अपने बच्चों में बनावटीपन भरने लगे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक समाज के इस बदलते स्वरूप की वजह से अपने बच्चों को हम आज के माहौल के मुताबिक बनाने की जुगत में भिड़ गए हैं. कम उम्र में ही बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करना सिखाने लगे हैं, जैसे कैमरे या दूसरों के सामने सीधे खड़े रहना, जोर से मत बोलना, दांत दिखा कर नहीं हंसना वगैरह. जबकि घर पर सभी लोग इस अंदाज से अलग मस्त हो कर रहते हैं और रिलैक्स हो कर जीते हैं. बच्चों को यह दोगलापन कुछ उलझा देता है.

इस तरह ज्यादा या बेहतर दिखाने की कोशिश में मातापिता अपने बच्चों से कई चीजें छिपाने के लिए कहते हैं. ये बातें बच्चों के मन में घर करने लगती हैं. उन्हें समझते देर नहीं लगती कि सिचुएशन के हिसाब से उन्हें कभी कुछ तो कभी कुछ और नजर आना सीखना या जानना है.

डा. धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘ऐसी बातों का असर उन पर इतना ज्यादा होता है कि 2 अलगअलग जगहों पर वे 2 अलगअलग तरीके से व्यवहार करने लगते हैं, जो अपनेआप में डिफरैंट टास्क हैं. उन्हें यह बात समझ आ चुकी होती है कि उन्हें खुद को दूसरों से बेहतर साबित कर के दिखाना है. नतीजतन, अपने नए स्कूल, नए दोस्त या किसी भी नई जगह पर वे खुद को औरों से बेहतर दिखाने की कोशिश में कई बार कुछ गलत काम करने से भी नहीं हिचकते. इस तरह अपने आत्मसम्मान यानी इमेज को बचाए रखने के लिए बच्चे खुद को ओवरशो करने लगते हैं. वे कुछ इस तरह से व्यवहार करने लगते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए जिस का कई बार परिणाम घातक देखने को मिलता है.

‘‘बच्चों में धीरेधीरे घमंड आने लगता है. खुद को कहीं भी कमतर आंकना उन्हें रास नहीं आता. मुश्किलें तब आती हैं जब पहली बार कोई दूसरा उन्हें कमतर साबित कर देता है, चाहे परीक्षा में उन से ज्यादा नंबर्स ला कर हो या फिर गेम्स में उन से बेहतर कर के. अपनी इमेज को इतना बड़ा धक्का लगता देख वे खुद पर कंट्रोल नहीं कर पाते, जिस के दो बहुत बुरे परिणाम देखने को मिलते हैं, या तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं या फिर मारपीट और झगड़े पर उतारू हो जाते हैं.’’

खुद को सब से बेहतर साबित करने की होड़ में औरों के बीच वे इतना झूठ बोल चुके होते हैं कि कभीकभार उन्हें शक होने लगता है कि किस के पास उन्होंने कौन सा झूठ कहा था या फिर अपनी साख बचाए रखने के लिए वे सभी झूठ को अच्छी तरह याद रखना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, कहीं न कहीं वे असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहते हैं. उन्हें डर रहता है कि उन की पोल न खुल जाए. इस वजह से अकसर उन का दिमाग कुछ भी क्रिएटिव करने के बजाय गलत चीजों या बातों को व्यवस्थित करने में ही व्यस्त रहने लगता है. कहीं न कहीं इस का प्रभाव उन की पर्सनैलिटी डैवलपमैंट और लाइफ पर भी देखने को मिलता है.

भारत भूमि युगे युगे

गर्व की राजनीति
हर एक औसत भारतीय की तरह राहुल गांधी को भी हक है कि वे अपने पूर्वजों व परिवार के साथ अपने गोत्र तक पर भी गर्व करें. राजस्थान के चूरू में राहुल ने बड़े इमोशनल अंदाज में कहा कि ‘उन्होंने’ मेरी दादी व पिता को मार डाला. मैं भी मौत से घबराता नहीं हूं. सार्वजनिक रूप से व्यक्त किए गए इस गर्व व त्याग का मतलब साफ था कि इस के बदले हमें वोट दो.
आजकल जनता पहले सी भावुक नहीं रही. उस के सामने बड़ी झंझटें हैं. प्याज खरीदना तक रोजमर्राई चुनौती बन गई है. ऐसे में गांधी परिवार की शहादत पर गर्व करने में आंसू आएं न आएं, आंखें तो भर ही आती हैं. लोग भोर से ले कर देर रात तक कमाने में लगे हैं, बचाखुचा वक्त टीवी खा जाता है. यानी फख्र करने के लिए भी वक्त का टोटा है. फिर भी राहुल अपनी खानदानी कुर्बानी की याद दिलाने में कामयाब रहे. असर भले ही चंद घंटे रहा हो, क्या फर्क पड़ता है.


कानूनी प्रतिशोध
तथाकथित बड़े लोगों की बेइज्जती भी बड़ी होती है. वरिष्ठ भाजपाई नेता और अधिवक्ता राम जेठमलानी को मई के महीने में भाजपा ने बाहर किया था. उन पर आरोप अनुशासनहीनता का था. यह निष्कासन, दरअसल, अपमान है, इस की अनुभूति 5 महीने बाद जेठमलानी को अक्तूबर के तीसरे हफ्ते में हुई. उन्होंने आव और ताव दोनों देख कर भाजपा संसदीय बोर्ड पर 4.5 करोड़ रुपए का मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया.
12 सदस्यीय बोर्ड में से जेठमलानी ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को शायद सीनियर सिटीजन होने का डिस्काउंट दे दिया और नरेंद्र मोदी को इसलिए बख्श दिया कि उन्होंने ही उन के हक में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के खिलाफ बयानबाजी की थी. मामला दिलचस्प है. अदालत शायद ही किसी राजनीतिक दल के संविधान में दखल देना पसंद करे और दिया तो आइंदा किसी
को पार्टी से निकालने से पहले उन अधिवक्ताओं की राय महत्त्वपूर्ण हो जाएगी जो बैठेठाले मुकदमामुकदमा का प्रिय खेल वक्त गुजारने के लिए खेला करते हैं.


नोटों का गद्दा
नोटों के बिस्तर पर सोने की इच्छा हर किसी की होती है. इस का अपना अलग मनोविज्ञान है. त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता समर आचार्य ने अपनी यह हसरत पूरी कर ली तो उन्हें पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.
समर ने, देखा जाए तो गलत कुछ नहीं किया था, उन्होंने अपने बैंक खाते से 20 लाख रुपए निकाले और बिस्तर पर बिछा कर सो गए. अगर यह पैसा कालानीला नहीं था तो यह उन का हक है. कई नेता मंच पर और शादी के वक्त दूल्हा भी नोटों की माला पहनता है, गले में पड़ी सोने की चैन भी नोटों से ही आती है. निकाले जाने के बाद समर ने एक कायदे की बात कह ही डाली कि वे उन ढोंगी नेताओं में से नहीं हैं जिन के पास अकूत दौलत है पर वे गरीब होने का दिखावा करते हैं. मामला आयागया हो गया पर मेट्रैस कंपनियों को संदेशा छोड़ गया कि वे स्प्रिंग और फोम के साथसाथ नोटों के गद्दे भी बना कर बेच सकती हैं.


तो कहां मांगें वोट
5 राज्यों के विधानसभा चुनाव पर इस बार चुनाव आयोग ने इस तरह लगाम कस रखी है कि उम्मीदवार भयभीत हैं कि कहीं सपने में भी आचारसंहिता का उल्लंघन न हो जाए. शादीविवाह, लंगर और मृत्युभोज में वे वोट नहीं मांग सकते.
आजकल पारिवारिक समारोहों पर भी चुनाव आयोग नजर रखेगा तो दिक्कत तो नेताओं को होगी जो पूरे 5 साल ऐसे समारोहों में शिरकत महज वोटों की गरज से ही करते हैं. हालत कुछ ऐसी है कि गंगाजी तक जाओ पर डुबकी मत लगाओ.
बेहतर तो यह होगा कि चुनाव आयोग अब राजस्व बढ़ाने के लिए वोट मांगने वालों से फीस वसूलनी शुरू कर दे, जिस से आम आदमी पर चुनावी खर्चे की मार कम पड़े. मसलन, श्मशान में श्रद्धांजलि भाषण देने के प्रति नेता शुल्क 21 हजार रुपए रखा जाए तो तमाम आयोजनों से तगड़ी आमदनी होगी.

आम आदमी की जेब पर डाका

बाजार और खरीद के बदलते तेवरों के बीच आज छुट्टे पैसे यानी सिक्कों की किल्लत धीरेधीरे बड़ी समस्या के तौर पर सामने आ रही है. आम झड़पों से गंभीर झगड़ों तक जहां ये सिक्के कलह का कारण बन रहे हैं वहीं आम आदमी के जेब पर इन की किल्लत के चलते किस तरह डाका डाला जा रहा है, बता रही हैं साधना शाह.

काफी समय से रेजगारी की किल्लत के कारण बाजार से ले कर हाट तक, सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट से ले कर परचून व मौल तक में छुट्टे पैसों के बदले कहीं कूपन तो कहीं टौफी, कहीं कैरम की गोटियां तो कहीं प्लास्टिक व रबर के सिक्कों का उपयोग आर्थिक लेनदेन में हो रहा है. कुल मिला कर गलीमहल्ले से ले कर डिपार्टमैंटल स्टोर व मौल तक में एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल निकली है.

इस सामानांतर व्यवस्था को ले कर देशभर की सड़कोंबाजारों में आएदिन आम आदमी के साथ हर जगह झड़पें हो रही हैं, कभीकभी तो जान तक पर भी बन जाती है. पिछले दिनों छुट्टे पैसों के सवाल पर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस इलाके में एक आटोचालक ने ब्लेड से यात्रियों के चेहरे पर हमला ही नहीं किया, बल्कि गले की नली तक काट डाली.

महंगाई की मार पहले से झेल रही जनता को छुट्टे के बदले टौफी, शैंपू के सैशे, पानमसाला जैसी वस्तुएं जबरन खरीदनी पड़ रही हैं. यह समस्या इस कदर विकराल हो गई कि इस को ले कर कलकत्ता हाईकोर्ट में पिछले दिनों एक जनहित याचिका दायर की गई थी. यह याचिका एक स्वयंसेवी संस्था की ओर से राजीव सरकार ने दायर की. मामले की सुनवाई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र और जयमाल बागची की खंडपीठ कर रही है. पिछले दिनों सुनवाई के दौरान केंद्र, राज्य और रिजर्व बैंक के वकीलों से खंडपीठ ने इस समानांतर अर्थव्यवस्था पर हैरानी जताते हुए प्रश्न किया कि ‘यह सब क्या चल रहा है?’ सुनवाई के बाद इस आरोप के सिलसिले में न्यायाधीशों ने राज्य वित्त विभाग, परिवहन विभाग समेत केंद्रीय वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक से हलफनामा तलब किया है.

दरअसल, इन दिनों बस, रिकशा, आटोरिकशा, मैट्रो रेल, रेलवे टिकट काउंटर, रेलवे आरक्षण काउंटर, दुकानबाजार, डिपार्टमैंटल स्टोर हर जगह छुट्टे पैसों की समस्या है. इस समस्या से पूरा देश जूझ रहा है. छुट्टा कह लीजिए या चिल्लर, यह ऐसी नायाब चीज बन गई है जिस की हर कोई मांग करता है, पर यह मिलती है बमुश्किल से. ये छुट्टे पैसे महंगाई की मार झेल रहे आम आदमी की जेब पर चुपके से डाका भी डाल रहे हैं.

बसों, आटो के बाद सब से अधिक दिक्कत ब्रिज या हाईवे, ऐक्सप्रैसवे आदि में टोल टैक्स देने में पेश आ रही है. छुट्टे के अभाव में गाडि़यों की लंबी कतारें लग जाती हैं और समय की कहें तो कम से कम आधे घंटे का चूना लगना आम है. छुट्टे की किल्लत के चक्कर में ही बहुत जगहों पर ‘राउंड फिगर’ में पैसे वसूलने का चलन शुरू हो गया है. वहीं, 4 रुपए के किराए के लिए 5 रुपए और 8 रुपए किराए के लिए 10 रुपए चुकाने की मजबूरी हो गई है. टैक्सी वाले तो पहले ही 2 रुपए से ले कर 5 रुपए तक राउंड फिगर करते रहे हैं. पहले ही महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है, उस पर ‘राउंड फिगर’ का कहर जेब पर अलग डाका डाल रहा है. इतना ही नहीं, छुट्टे पैसे के बदले कभी टौफी, माचिस, शैंपू से ले कर जलजीरा और पानमसालों के सैशे आदि जबरन ले कर हिसाब पूरा करना पड़ रहा है.

रिजर्व बैंक का दावा

रिजर्व बैंक औफ इंडिया का कहना है कि पिछले 2 सालों में छुट्टे पैसे की कोई किल्लत नहीं है. पर्याप्त मात्रा में सिक्के जारी हो रहे हैं. रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि साल 2010-2011 में 74 करोड़ 40 लाख 10 हजार सिक्कों की आपूर्ति की गई है. वहीं, साल 2011-2012 में 77 करोड़ 10 लाख 90 हजार सिक्के आरबीआई कौइन वेंडिंग मशीन और राष्ट्रीयकृत बैंकों के 211 खुदरा विनिमय केंद्रों के जरिए जारी किए गए हैं. यही नहीं, समयसमय पर देश के कई हिस्सों में रिजर्व बैंक ने शिविर लगा कर भी सिक्के बांटे हैं. पर सवाल उठता है कि फिर हमें सिक्कों की कमी का सामना क्यों करना पड़ रहा है?

सिक्कों की कालाबाजारी

दरअसल, सिक्कों की कमी के पीछे कारण इस की कालाबाजारी है. बड़े पैमाने पर इस की तस्करी और कालाबाजारी हो रही है. रिजर्व बैंक के सिक्कों में जिस धातु का उपयोग होता है वह उम्दा किस्म का स्टेनलैस स्टील होता है, जो जंगरोधी है. इसलिए इन सिक्कों को गला कर इस का उपयोग बरतन से ले कर नकली जेवर और ब्लेड बनाने में हो रहा है, क्योंकि इन सिक्कों में प्रयुक्त धातु की कीमत सिक्कों की कीमत से कहीं अधिक हो गई है. बताया जाता है कि यही कारण है कि रिजर्व बैंक द्वारा जारी गए सिक्कों का 30 प्रतिशत इस्तेमाल इन्हीं गैरकानूनी कामों में हो रहा है.

सिक्कों की तस्करी

हाल ही में कोलकाता पुलिस ने सिक्कों की तस्करी के बड़े मामले का परदाफाश किया है. रात के अंधेरे में संदिग्ध साइकिल वैन को पुलिस ने रोका. चालक साइकिल वैन को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने वैन को अपने कब्जे में ले लिया. बोरियों में 50 पैसे से ले कर 5 रुपए तक के सिक्के पाए गए. इस से पहले भी कोलकाता पुलिस ने 2 सिक्का तस्करों को धर दबोचा था. पूछताछ से पता चला कि पड़ोसी देश बंगलादेश में भारतीय सिक्कों की बहुत अधिक मांग है, वहां सिक्कों को गला कर ब्लेड बनाया जाता है. यहां तक कि बंगाल के सीमांत क्षेत्र के गांवों में ब्लेड बना कर बंगलादेश भेजे जाते हैं. हालांकि इस के लिए

1 रुपए, 2 रुपए और 5 रुपए के सिक्कों का उपयोग होता है. पुलिस के खुफिया विभाग ने जांच में पाया कि 1 रुपए के एक सिक्के से जिस पैमाने पर स्टेनलैस स्टील धातु प्राप्त होता है उस से कम से कम 3 ब्लेड तैयार होते हैं.

देश भर के बड़ेबड़े बस अड्डों व गुमटियों में खुदरा व छुट्टे पैसों पर बट्टे यानी कमीशन का कारोबार चलता है. स्थानीय भाषा में छुट्टे को ‘रेजगारी’ कहते हैं. आटो रिकशा चालक से ले कर छोटेबड़े दुकानदार ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी ‘रेजगारी’ को कमीशन पर बेचती हैं. कमीशन के तौर पर 8 प्रतिशत से ले कर 25 प्रतिशत की दर से सिक्कों की बिक्री होती है.

दलालों का बोलबाला

कोलकाता पुलिस के खुफिया विभाग के पल्लव कांति घोष का कहना है कि सिक्कों की कमी का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि इस के पीछे एक गिरोह काम कर रहा है. गिरोह पिरामिड की तरह काम करता है. बाजार में छुट्टे पैसों की किल्लत से निबटने के लिए बीचबीच में रिजर्व बैंक द्वारा ‘कौइन फेयर’ यानी सिक्कों के मेले का भी आयोजन किया जाता है. लेकिन वहां भी दलालों का बोलबाला रहता है. जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले ही सिक्के खत्म हो जाते हैं.

असली से नकली सिक्का

सिक्कों को गला कर बरतन और नकली जेवर के साथ दूसरे सिक्के भी बनाए जाते हैं. 1 किलो सिक्कों से प्राप्त धातु को गलाने में महज 20-25 रुपए का खर्च पड़ता है. लेकिन इस धातु से बने जेवर, मूर्ति और बरतन से 300 रुपए से ले कर 3,000 रुपए तक का फायदा होता है. असली सिक्कों को गला कर नकली सिक्का बनाने का धंधा भी किया जाता है. इन नकली सिक्कों को गांवदेहातों में चला दिया जाता है.

सिक्के का चोखा धंधा

हाल ही में गाजियाबाद के पास 6 क्ंिवटल सिक्के एक कार से बरामद किए गए. इस सिलसिले में 2 लोगों की गिरफ्तारी हुई. पूछताछ में पता चला कि 100 रुपए के सिक्के के लिए वे 150 रुपए देते थे. जाहिर है कि नकली 5 रुपए का सिक्का चला कर ऐसे लोग देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

इसी साल अप्रैल महीने में कानपुर में नकली जेवर बनाने वाले गिरोह का पता चला. गिरोह के एक सदस्य को 7 बोरी सिक्कों के साथ पकड़ा गया था, जिस में लगभग 2 लाख रुपए के सिक्के थे. इन बोरियों में 1, 2 और 5 रुपए के सिक्के थे. गिरोह वाले 100 रुपए के सिक्कों पर 10 रुपए का कमीशन दिया करते थे. वे गांव और कसबे के छोटे दुकानदारों से सिक्के इकट्ठा किया करते थे.

बहरहाल, सिक्कों के मामले में कानून का सहारा लेने पर अदालत ने राज्य व केंद्र की सरकारों समेत रिजर्व बैंक से जवाब मांगा है, लेकिन देशवासी तो पलपल सिक्कों की मार झेल रहे हैं. अदालत तो कानूनी कार्यवाही करने को तत्पर दिखती है लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या कानून के रखवाले व लागू करवाने वाले सिक्कों की कालाबाजारी व तस्करी को रोकने के लिए ईमानदारी से कदम उठाएंगे या रिश्वत ले कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही देंगे?

शिक्षा के बदलते नियम बेहतर या कमतर

स्नातक के लिए अब तक 3 साल खर्च करने वाले छात्रों को एक झटका मिला है दिल्ली विश्वविद्यालय से. दरअसल डीयू ने स्नातक की डिगरी देने के नियमों में तबदीली की है. इस के तहत अब छात्र खुद तय करेंगे कि उन्हें अपनी डिगरी 2 साल में चाहिए या 3 या फिर 4 साल में. तबदीली के इस दौर में महंगी शिक्षा प्रणाली और लचर व्यवस्था इस नए प्रावधान को किस रूप में लेगी, जानने के लिए पढ़ें मेघा जेटली का लेख.

परिवर्तन के साथ तरक्की के सिद्धांत में दम है लेकिन कहींकहीं परिवर्तन नुकसानदेह भी हो सकता है. थोपे जाने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन से अंतत: हर स्तर की जनता का प्रभावित होना लाजिमी है. बदलावों के दौर में आज शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव किए जा रहे हैं. शिक्षा के नियमों में बदलाव का एक बड़ा उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू द्वारा स्नातक की पढ़ाई को 3 से बढ़ा कर 4 साल कर दिया जाना है. डीयू के इस फैसले की खूब आलोचना हुई, वहीं इसे प्रोत्साहन भी मिला.

जुलाई 2013 से ग्रेजुएशन का 3 वर्षीय डिगरी कोर्स 4 साल का कर दिया गया, जिस के तहत मुख्य परिवर्तन यह है कि छात्रों को अलग तरह की डिगरियां 4 सालों में दी जाएंगी, जैसे एसोसिएट स्तर (2 साल बाद), स्तर (3 साल बाद) और औनर्स के साथ स्तर (4 साल बाद). 4 वर्षीय स्नातक डिगरी के तहत छात्रों को शुरुआत में 11 आधार पाठ्यक्रम लेने अनिवार्य होंगे.

डीयू के डिप्टी डीन संगीत रागी बताते हैं कि दूसरे और तीसरे साल के अंत में छात्र को कोर्स छोड़ कर जाने का विकल्प दिया जाएगा. पूरे होने के बाद छात्र को एक सहयोगी डिप्लोमा मिलेगा. तीसरे वर्ष के अंत में छात्र स्नातक की डिगरी ले कर जा सकता है और पूरे 4 साल होने के बाद सम्मान के साथ स्नातक की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा. जो छात्र दूसरे और तीसरे साल के बाद छोड़ कर जाने के विकल्प लेंगे वे 8 साल की अवधि के अंतराल में वापस लौट कर विश्वविद्यालय में शामिल हो कर आगे की पढ़ाई कर सकेंगे. खालसा कालेज में पढ़ाने वाली एक अध्यापिका के अनुसार, एक डिप्लोमा लेने के लिए छात्र को कम से कम 40 फीसदी अंक लाने होंगे जबकि स्नातक की डिगरी और सम्मान के साथ स्नातक की डिगरी के लिए कम से कम 50 फीसदी अंक अनिवार्य हैं.

विरोध क्यों?

छात्र, शिक्षकों और मातापिता ने स्नातक कोर्स को 4 साल का किए जाने के निर्णय के खिलाफ काफी विरोध किया. कमला नेहरू कालेज में अंगरेजी पढ़ाने वाले सनम खन्ना के अनुसार, नए सिलेबस के हिसाब से छात्रों के ऊपर दबाव बढ़ेगा जिस से वे गाइड पर निर्भर हो जाएंगे. इस से डिगरी के मूल्य को खतरा है. सीखे हुए से ज्यादा वे याद किए हुए ज्ञान पर निर्भर होंगे जिस का नतीजा छात्रों के लिए अच्छा नहीं होगा.

दिल्ली विश्वविद्यालय के कई शिक्षकों का कहना है कि न तो उन से 4 साल के डिगरी कोर्स के बारे में कोई सलाह ली गई और न ही उन्हें बताया गया. डीयू से संबद्ध खालसा कालेज में पढ़ने वाली छात्रा नेहा का कहना है कि पहले ही इतनी प्रतिस्पर्धा है और अगर 3 साल की डिगरी हम 4 साल में पूरी करेंगे तो कहीं न कहीं भीड़ में पीछे रह जाएंगे. यह समय की बरबादी के अलावा कुछ नहीं है.

डीयू में पढ़ने वाले एक छात्र के पिता राधेसिंह का कहना है कि पहले ही बच्चों को पढ़ाने में बहुत खर्चा हो रहा है ऊपर से स्नातक में 1 साल और बढ़ा देने का बोझ हम मध्यवर्ग वाले कैसे उठा पाएंगे. फीस के अलावा रोजाना आनाजाना, किताबें, फाइल पर भी बहुत खर्च हो जाता है.

विश्वविद्यालय प्रशासन की तरफ से तर्क यह दिया जा रहा है कि अमेरिका में भी 4 साल का स्नातक कोर्स होता है और इसे यहां शुरू करने से विद्यार्थियों की गुणवत्ता बढ़ेगी लेकिन विरोधियों के अनुसार यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया है. इस से छात्रों की या शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.

अमेरिकी शिक्षा प्रणाली के अनुसार, छात्र यदि चाहें तो 4 साल डिगरी कोर्स चुन सकते हैं वरना उन के पास अन्य कई विकल्प होते हैं. अमेरिकी व्यवस्था बहुत बेहतर है. शिक्षा के चयन में बहुत लचीलापन है, जिसे यहां पूरी तरह लाने की आवश्यकता है.

3 साल की शिक्षा प्रणाली में असाइनमैंट, डिबेट व प्रोजैक्ट आदि होते हैं जबकि 4 साल के डिगरी कोर्स की प्राथमिकता में लिखित कार्य और समूह परियोजना पर जोर दिया जाएगा. छात्र 2 साल बाद एसोसिएट स्तर का डिप्लोमा डिगरी ले कर पढ़ाई छोड़ सकता है लेकिन वह छात्र कई कंपनियों में नौकरी पाने के लिए योग्य नहीं होगा. ऐसे में उसे कोई फायदा नहीं होगा. पहले ही स्कूल की महंगी फीस भर कर पढ़े हुए विषय यदि फिर पढ़ाए जाएंगे तो मातापिता का महंगाई के दौर में बच्चों की फीस का और भार उठा पाना मुश्किल होगा.

4 वर्षीय स्नातक के लाभ

4 साल के स्नातक का हालांकि जम कर विरोध हुआ लेकिन कुछ आवश्यक चीजों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है. 4 साल का स्नातक कोर्स अमेरिकी शिक्षा प्रणाली से मेल खाता है जिस में छात्र प्रारंभिक वर्ष में शुद्ध विज्ञान, वाणिज्य और कला भी सीख पाएगा. 3 साल पूरे होने पर मिलने वाली डिगरी को स्नातक (बीए) या (बीएस) कहा जाता है. जो छात्र अपनी आगे की पढ़ाई विदेश में करना चाहते हैं उन के लिए यह अत्यंत उपयोगी साबित होगी.

दरअसल, भारत में इस नई प्रणाली के प्रति जागरूकता कम होने के कारण विरोध ज्यादा है. शिक्षा संस्थानों को 4 साल के कार्यक्रम का महत्त्व समझाने के लिए कई सेमिनार करवाए जाने की आवश्यकता है. इस 4 साल के कार्यक्रम में 9 सेमेस्टर होंगे जिस में छात्रों को नियमित रूप से विज्ञान विषयों के अलावा मानविक मूल्यों में भी पारंगत किया जाएगा.

यह सत्य है कि एक ही प्रणाली के लगातार रहने से उस में कुछ बदलाव बेहतर हो सकते हैं. जब संस्थानों ने सेमेस्टर प्रणाली शुरू करने का फैसला किया था विरोध की आंधी तो तब भी उठी थी.

इस 4 साल के कोर्स के पीछे उपकुलपति दिनेश सिंह का तर्क यह है कि 3 साल के विशिष्ट कोर्सों में छात्र लगभग कुछ नहीं सीख पाते. 8 सेमेस्टरों का यह कोर्स उन्हें केवल हिंदी या फिजिक्स या पौलिटिकल साइंस न पढ़ा करर एक बड़ा कैनवास देगा. कहने को यह उद्देश्य अच्छा है पर यह 4 साल का कोर्स जनता पर भारी पड़ेगा. शिक्षक तो वह रहेंगे न जिन की मानसिकता है कि गुरु के चरणों का सान्निध्य ही ज्ञान है. गुरुसेवा की लालसा रखने वाले शिक्षक 3 साल साथ रहें या 4 साल, शिक्षा का स्तर बदलेगा नहीं.

4 साल का कोर्स मूलत: व्यर्थ इसलिए है कि उस की जड़ में अंगरेजी माध्यम रहेगा जिसे पचाना अंगरेजी माध्यम से 12 कक्षा पढ़ कर आए बच्चों के लिए भी संभव नहीं है. वे बड़ी मुश्किल से 3 साल काटते हैं, 4 साल तो उन के लिए पहाड़ हो जाएंगे. 4 साल का कोर्स हो जाने के बाद यह सोचना कि 2 या 3 साल बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले भी कुछ प्रमाणपत्र ले कर निकलेंगे, मूर्खता है. उन्हें कौर्पोरेट जगत निखट्टू और असफल समझेगा इसलिए ये 4 साल तो हरेक को ढोने ही होंगे.

इस का बोझ कालेजों के भवनों, शिक्षकों की संख्या, छात्र के परिवहन पर पड़ेगा जिस की कीमत करदाताओं को करों के रूप में देनी पड़ेगी.  

बच्चा गोद लेने पर भी मातृत्व अवकाश की सुविधा

आप कामकाजी महिला हैं, यदि बच्चा गोद लेने की सोच रही हैं और आप को लगता है कि छोटे बच्चे के घर पर आने से उस की देखभाल में औफिस से छुट्टी नहीं मिलेगी और दिक्कत होगी तो आप गलत सोच रही हैं. बच्चा गोद लेने के बाद कानूनी स्तर पर आप को वही सुविधाएं मिलेंगी जिन की हकदार एक मां होती है. यह अच्छी पहल है और इस से उन माताओं का सम्मान भी बढे़गा जिन्होंने अपने बुढ़ापे के सहारे के लिए बच्चे को गोद लिया है.

जरूरी यह है कि आप को कानूनी प्रक्रिया पूरी कर के ही यह काम करना पड़ेगा. जैसे ही आप कानून के अनुसार बच्चे को गोद लेती हैं तो आप के नियोक्ता को आप को वही सब सुविधाएं देनी पड़ेंगी जिन की हकदार एक मां होती है. मतलब कि बच्चा गोद लेने के बाद आप को मातृत्व अवकाश मिलेगा और इस दौरान आप का वेतन भी नहीं कटेगा. इतना ही नहीं, यह सुविधा बच्चे के पिता को भी मिलेगी. सुविधा हालांकि उतनी ही होगी जितनी सरकारी स्तर पर दी जा रही है लेकिन आप को यह हक बच्चे का कानूनी पिता बनने के बाद मिल पाएगा.

अब तक यह व्यवस्था सिर्फ सरकारी कार्यालयों में ही थी और सरकारी कर्मचारियों में यह सुविधा खूब चर्चा में रही है लेकिन अब निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों ने भी इस को अपना लिया है. निजी क्षेत्र के टाटा समूह, रिलायंस, ब्रिटानिया इंडस्ट्री, आरपीजी समूह, गोदरेज आदि कंपनियां ने यह सुविधा देनी शुरू की है. इन कंपनियों में कर्मचारी को 2 माह के वेतन के साथ मातृत्व अवकाश दिया जाएगा.

कुछ कंपनियां तो इस अवकाश को 8 सप्ताह से बढ़ा कर 16 सप्ताह कर रही हैं और इस दौरान अपने कर्मचारी को पूरा वेतन दे रही हैं. यह मानवीय पहल है और इस का स्वाभाविक रूप से सर्वत्र स्वागत किया जाना चाहिए. इस से बच्चे के प्रति मां का और फिर बच्चे का मां के प्रति ऐसा ही लगाव बढ़ेगा जो एक जन्मदात्री मां का अपने बच्चे के साथ होता है.

यह नितांत असाधारण मानवीय पहल है और सभी निजी क्षेत्र की कंपनियों को इस का पालन करना चाहिए. इस से कर्मचारी में अपने संस्थान के प्रति लगाव बढ़ेगा और वह अपना काम समझ कर संस्थान के साथ जुड़ा रहेगा. निसंदेह ठेका प्रथा से कर्मचारी और संस्थान के बीच की भावनात्मक दूरी बढ़ी है और इस के दुष्परिणाम आने वाले समय में जरूर सामने आएंगे. कर्मचारी और संस्थान जब एकदूसरे के पूरक बनेंगे तो कार्यक्षमता बढ़ेगी और उस का लाभ कर्मचारियों के साथ संस्थान को भी होगा.

सरकारी बैंकों की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में जब बैंकों को पूंजीपतियों और महाजनों के चंगुल से छुड़ा कर उन का राष्ट्रीयकरण किया था तो आर्थिक जगत में सवाल उठ रहे थे कि ढीली सरकारी मशीनरी के हाथों चुस्तदुरुस्त बैंकिंग कारोबार आते ही ढह जाएगा और उस की गति ढीली पड़ जाएगी. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो श्रीमती गांधी की इस पहल का जबरदस्त स्वागत कर रहे थे और उन्होंने कह दिया था कि राष्ट्रीयकरण होने के बाद बैंकों का कायापलट हो जाएगा और देश का बैंकिंग तंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हो जाएगा.

आखिरकार, तत्कालीन सरकार का कदम सही साबित हुआ. उस के कदम से देश में बैंकिंग तंत्र को नई गति ही नहीं मिली बल्कि आम जनजीवन बैंकिंग नैटवर्क से इस कदर जुड़ता गया कि धीरेधीरे उस के लिए यह तंत्र महत्त्वपूर्ण हो गया. उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा आएगा जब देश का आम नागरिक जेब को नोटों के वजन से भारी रखने के बजाय एटीएम का इस्तेमाल इस स्तर पर करेगा कि वह दैनिक खर्च के लिए भी एटीएम का ही सहारा लेगा. इस के कई फायदे हुए. एक तो जेब में बड़ी रकम रखने का जोखिम घटा, दूसरा, बैंकिंग प्रणाली हमारे दैनिक जीवन का अहम हिस्सा बन गई.

तब शायद यह भी सोचना ठीक रहा होगा कि 2013 तक देश के प्रमुख बैंकों की जिम्मेदारियां महिलाएं संभाल रही होंगी. पिछले दिनों 57 वर्षीय अरुंधती भट्टाचार्य को जब देश के सब से बड़े स्टेट बैंक औफ इंडिया के शीर्ष पद पर नियुक्त करने की खबर आई तो देश में महिला राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की घोषणा की तरह ही यह खबर भी चौंकाने वाली लगी. देश के सब से बड़े बैंक की वे पहली महिला प्रमुख बन गईं. उन से पहले विजयलक्ष्मी अय्यर सरकारी क्षेत्र के बैंक औफ इंडिया की मुख्य प्रबंध निदेशक और सुब्बालक्ष्मी, दूसरे सरकारी बैंक, इलाहाबाद बैंक की मुख्य प्रबंध निदेशक बनी हैं. लेकिन इतने ऊंचे ओहदे पर स्टेट बैंक ने ही एक महिला को बैठाया है.

निजी क्षेत्र में देश के सब से बड़े बैंक आईसीआईसीआई बैंक की महाप्रबंधक और मुख्यकार्यकारी अधिकारी भी एक महिला चंदा कोचर हैं जबकि शिखा शर्मा निजी क्षेत्र के प्रमुख बैंक ऐक्सिस बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं. इन सब से अलग, नैना लाल किदवई विदेशी बैंक एचएसबीसी की कंट्री प्रमुख हैं.

 

शेयर बाजार 3 साल के उच्चतम स्तर की तरफ

भारतीय शेयर बाजार में इस बार पंख लग गए. पंख लगने की वजह विदेशी बाजार की अच्छी स्थिति है. अमेरिका में कर्ज की अवधि बढ़ाने के संसद में पारित प्रस्ताव से कोषागार में भुगतान का संकट छा गया और एक पखवाड़े से अधिक समय तक रही तालाबंदी के कारण सरकारी दफ्तरों की फाइलों पर जमी धूल साफ करने का काम शुरू हुआ तो उस का असर पूरी दुनिया के बाजारों में देखने को मिला.

इसी बीच, चीन में आर्थिक विकास का आंकड़ा सामने आया. भारत में रिजर्व बैंक ने वित्तीय स्थिति दुरुस्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाने के जो संकेत दिए उस का बाजार पर सकारात्मक असर देखने को मिला और 18 अक्तूबर को बाजार 3 साल के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ. बाजार के जानकारों का कहना है कि इस की बड़ी वजह कंपनियों के तिमाही परिणाम बेहतर रहना है. आसियान देशों के शिखर सम्मेलन के साथ ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिक विकास के लिए वैश्विक मंच पर दिखाई गई सक्रियता भी महत्त्वपूर्ण है.

बड़ी बात यह है कि पिछले दिनों महंगाई की दर में इजाफा हुआ है और ओडिशा में चक्रवाती तूफान के चलते कई हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने देश की आर्थिक विकास दर को बहुत कम बताया है तथा रेटिंग एजेंसी ने भारत की साख को कम कर के दिखाया है. इन विपरीत स्थितियों में भी बाजार में तेजी रहने को महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में बाजार में मजबूती का माहौल रहेगा. शेयर बाजार सूचकांक के 21 हजार की तरफ बढ़ने और नैशनल स्टौक ऐक्सचैंज में भी तेजी रहने की एक वजह रुपए में 3 माह में सब से अधिक मजबूती को बताया जा रहा है.

 

दलितों को मिला मोक्ष?

इस देश में आस्था एक नशा, वहम और बीमारी की तरह धर्मांध लोगों की नसों में उतर चुकी है. इसी आस्था का जानलेवा जहर मध्य प्रदेश के रतनगढ़ में उस समय कई लोगों की जान ले गया, जब दलितों का बड़ा जत्था मोक्ष की आस में भगदड़ में रौंदा गया. अंधविश्वासी दलितों को कैसा मोक्ष मिला, पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट में.

मध्य रेलवे के 2 बड़े जंक्शनों, ग्वालियर व झांसी के बीच स्थित दतिया रेलवे स्टेशन पर काफी कम रेलें रुकती हैं. मध्य प्रदेश के सब से छोटे और पिछड़े 5 जिलों में एक जिला दतिया भी है. यहां के लोग अपने शहर को बड़े फख्र से मिनी वृंदावन भी कहते हैं, क्योंकि शहर में इफरात से मंदिर हैं. दतिया से संबंध रखती एक और दिलचस्प बात स्थानीय लोगों का फोन पर हैलो की जगह ‘जय माई की’ संबोधन इस्तेमाल करना है.

यह माई यानी देवी शहर के बीचोंबीच बने मंदिर पीताम्बरा शक्ति पीठ में विराजती है जहां कोई न कोई तांत्रिक अनुष्ठान बारहों महीने चलता रहता है. रसूखदार नेता, अभिनेता, उद्योगपति, व्यापारी और खिलाड़ी भी पीताम्बरा के दर्शन के लिए खासतौर से आते हैं और महंगे अनुष्ठान करवाते हैं. कहा जाता है कि इस सिद्ध क्षेत्र में अनुष्ठान करवाने से मनोरथ पूरे होते हैं.

पीताम्बरा पीठ के बारे में यहां के लोग बगैर किसी हिचक के स्वीकारते हैं कि यह वीआईपी लोगों यानी पैसे वालों के लिए है. दरिद्रों और शूद्रों के मनोरथ पूरे करने के लिए दतिया से 55 किलोमीटर दूर जंगल में बना है रतनगढ़ देवी का मंदिर, जहां 13 अक्तूबर को पुल पर मची भगदड़ में लगभग 200 श्रद्धालु मारे गए.

भेदभाव की आस्था

रामनवमी के दिन रतनगढ़ के मुकाबले पीताम्बरा पीठ में जुटी भीड़ यानी श्रद्धालुओं की संख्या न के बराबर ही कही जाएगी. इस के बाद भी पीताम्बरा पीठ में सुरक्षा और शांति के मद्देनजर 100 पुलिसकर्मी तैनात थे. इस के उलट रतनगढ़, जहां लगभग 4 लाख श्रद्धालु थे, को महज दर्जनभर जवान दिए गए थे.

यह भेदभाव क्यों? इस का जवाब बेहद साफ है कि रतनगढ़ आने वाले श्रद्धालु छोटी जाति के थे जिन की जानमाल की परवा न पहले कभी की गई थी न आज की जाती है. पर दोनों ही मंदिरों में जुटी भीड़ हिंदुओं की बताई जाती है, नीची और ऊंची जाति का एक शाश्वत फर्क यहां से शुरू होता है या फिर यहां आ कर खत्म होता है, यह तय कर पाना मुश्किल है.

रतनगढ़ हादसे में मरने वाले शतप्रतिशत लोग चूंकि दलित, आदिवासी समुदाय के थे जिन्हें फख्र से आज भी गंवार, चमार और अछूत कहा जाता है, इसलिए उन की मौत पर हायहाय न के बराबर हुई, मानो आदमी नहीं, बरसाती कीड़ेमकोड़े मरे हों.

रतनगढ़ में इस भीड़ का घिरना अपनेआप में शक पैदा करने वाली बात क्यों और कैसे है, इस के पहले यह जान लेना जरूरी है कि हादसा क्या था, कैसे हुआ और इस के असल जिम्मेदार लोग कौन होते हैं.

क्या था हादसा

दूसरे धार्मिक हादसों के मुकाबले रतनगढ़ का हादसा कतई पेचीदा नहीं है. 13 अक्तूबर को लाखों की भीड़ यहां उमड़ी थी. अधिकांश श्रद्धालु बुंदेलखंड, चंबल आदि इलाकों से यहां देवीदर्शन के लिए आ रहे थे. वाहनों की लंबी कतार दतिया से ही दिखनी शुरू हो गई थी. पैदल चल कर आने वालों की तादाद भी कम नहीं थी.

रतनगढ़ पहुंचने के लिए यहां बहने वाली सिंधु नदी पर बने पुल से हो कर जाना पड़ता है, जो मंदिर से 2 किलोमीटर पहले पड़ता है. जब यह पुल नहीं बना था तब साल 2006 में भी पानी के तेज बहाव में काफी श्रद्धालु बह कर मर गए थे.

इस पुल पर यातायात नियंत्रण के कोई इंतजाम नहीं किए गए थे. 2 अधिकारी और 4 कर्मचारी पुल की निगरानी के नाम पर उमड़ते सैलाब को देखते अपने को कोस रहे थे कि बुरे फंसे, त्योहार के दिन भी ड्यूटी बजानी पड़ती है, इन्हें क्या जरूरत धर्मकर्म की, इस से इन की जाति और गति तो सुधरने से रही.

सेवढ़ा अनुभाग के तहत आने वाले इस इलाके का नजारा नवमी ही नहीं पूरे नवरात्रों में देखने लायक होता है. सिर पर माता के नाम की लपेटी गई लाल चुनरिया सुबह 8 बजे कफन बन गई जब 2 वाहनों की टक्कर में पुल पर जाम लग गया. वहां मौजूद नाममात्र की पुलिस ने भीड़ को तितरबितर करने के लिए अपने विवेक, जो हाथ में पकड़े डंडे में था, से काम लिया और उदारतापूर्वक बेवक्त ड्यूटी बजाने की अपनी भड़ास श्रद्धालुओं पर निकाली. इस गैरजरूरी और अघोषित लाठीचार्ज से भी काम न बना तो अफवाह यह उड़ा दी गई कि पुल टूट रहा है.

भक्ति का भूत मौत के डर के चलते गायब हुआ तो देखते ही देखते पुल श्रद्धालुओं की भीड़ से पट गया. लोग एकदूसरे को धकियातेकुचलते दौड़ने लगे. इस भगदड़ में बूढ़ों, बच्चों व औरतों की शामत ज्यादा आई जो कमजोरी के कारण पैरों तले रौंदे गए. अधिकांश लोगों को जान बचाने के लिए पुल से नीचे कूदना मुफीद लगा, कइयों ने हाथ में आए कपड़े और औरतों के शरीर से खींची गई साडि़यों की रस्सी बना कर पुल से उतर कर अपनी जान बचाई. भगदड़ का क्षेत्र महज 2 किलोमीटर तक रहा जहां 1 घंटे में 200 लोग मर चुके थे.

मंत्रीजी का आगमन

पुलिस ने लाठीचार्ज क्यों और किस के आदेश पर किया इस पर इसी विभाग के एक सब इंस्पैक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘हमें खबर मिली थी कि मंत्रीजी व उन के घर वाले आने वाले हैं, इसलिए जरूरी था? कि उन्हें रास्ता साफ मिले. लिहाजा, पुलिस ने भीड़ छांटने की कोशिशभर की थी.’

मंत्रीजी यानी पंडित नरोत्तम मिश्रा, जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं, भारतीय जनता पार्टी के इस इलाके के ही नहीं, बल्कि राज्य के भी वे कद्दावर नेता हैं और दतिया विधानसभा सीट से इस बार भाजपा के उम्मीदवार भी हैं. शायद ही नहीं बल्कि तय है कि रतनगढ़ आने वाले वे दूसरे ब्राह्मण रहे होेंगे. वरना अछूतों के नाम कर दिए गए इस जंगल में बने मंदिर में ब्राह्मण तो दूर, ऊंची जाति का कोई भी जाना गंवारा नहीं करता.

वजह जो भी रही हो, भगदड़ मची, लोग दबेकुचले मरे, हल्ला मचा तो पूरा देश थर्रा उठा कि हे भगवान, यह क्या हो गया, एक और हादसा धर्मस्थल पर हो गया.

16 अक्तूबर तक लाशें गिनी जा रही थीं. सिंधु नदी इक्कादुक्का लाशें उगल रही थी. सुबह 10 बजे जब हम  रतनगढ़ पहुंचे तो कुछ अधिकारी वहां मुस्तैदी

से मीडियाकर्मियों को बड़े गर्व से बता रहे थे कि यह भीड़ तो कुछ भी नहीं, असल भीड़ तो दीवाली के बाद दूज के दिन इकट्ठी होगी. लग यों रहा था मानो हम देश के लगभग बीचोंबीच स्थित शहर दतिया के रतनगढ़ देवी मंदिर में नहीं बल्कि किसी सरहद पर हों जहां शत्रुसेना हमला करने वाली हो और चंद मुलाजिम सैनिकों की तरह देश की लाज बचाने के लिए अपनी जान कुरबान कर देंगे.

दरअसल, सरकार ऐसे हादसों के तुरंत बाद किए जाने वाले अपने 2 प्रिय काम कर चुकी थी. पहला, मुआवजे की घोषणा का और दूसरा, अधिकारी- कर्मचारियों को बर्खास्त करने का. चूंकि मध्य प्रदेश में भी 25 नवंबर को मतदान होना है इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ये दोनों काम निर्वाचन आयोग की अनुमति से करने पड़े. तीसरी रस्म एक जांच आयोग गठित करने की भी अदा की गई.

एकसदस्यीय यह जांच आयोग कई बिंदुओं पर जांच करेगा, जिस में यह बिंदु शामिल नहीं है कि वे लोग कौन हैं जो गांवगांव जा कर धर्म का, चमत्कारों का प्रचार कर देहातियों को धर्मस्थलों पर आने के लिए उकसाते हैं और इस के पीछे उन की मंशा क्या रहती है.

अंधश्रद्धा

हादसे के बाद भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला जारी रहा, मानो 2 दिन पहले कुछ हुआ ही न हो. जो हुआ वह भाग्य और दैवीय प्रकोप था. श्रद्धालुओं का ऐसा मानना था. ये श्रद्धालु रोजाना की तरह जत्थों में आते रहे और वही ‘जय माता दी’, ‘चलो बुलावा आया है’ सरीखे नारे लगा रहे थे. अब तक 13 अक्तूबर को मारे गए व घायलों की सूची भी प्रशासन ने जारी कर दी थी जिस में एक भी सवर्ण का नाम या उपनाम नहीं था.

हादसे पर कुदरती तौर पर राजनीति हुई. कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साधा कि पुलिस वालों द्वारा ट्रैक्टरट्रौलियों के दाखिले के एवज में 200 रुपए की घूस लिए जाने की वजह से हादसा हुआ तो शिवराज सिंह चौहान सकपकाए से यही कह पाए कि हादसा चूंकि दुखद है इसलिए इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए.

ध्यान खींचने वाली बात सिर्फ बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने कही कि सरकार मृतकों व घायलों को दी जाने वाली मुआवजा राशि बढ़ाए. मायावती की दिलचस्पी मध्य प्रदेश के इस धर्मस्थल के हादसे में बेवजह नहीं है. हकीकत में मृतकों में उत्तर प्रदेश के लोग भी बराबरी से थे और सभी दलित थे. रतनगढ़, सेवड़ा विधानसभा क्षेत्र में आता है जहां से पिछली दफा बसपा जीती थी. उस के उम्मीदवार राधेलाल बघेल को यहां के दलित तबके ने हाथोंहाथ लिया था. बसपा इस दफा भी इस सीट से उम्मीद लगाए बैठी है.

यह राजनीति कतई उल्लेखनीय नहीं होती अगर इस में हिंदूवादी संगठनों की कोई भूमिका न होती. इस इलाके की हर एक सीट पर मजबूती से सभी को टक्कर दे रहे बहुजन संघर्ष दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष फूलसिंह बरैया का कहना है, ‘‘आरएसएस के लोग दूरदराज के इलाकों में त्रिशूल और धार्मिक साहित्य सामग्री बांटते रहते हैं. इन का मकसद अपनी दुकानदारी चलाए रखना है. अब ये दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराते गांवगांव घूमते देवीदेवताओं की बातें करते हैं.’’

बरैया की बात में दम इस लिहाज से है कि ज्यादा नहीं अब से कोई 15-20 साल पहले तक अछूतों यानी दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था. 15-17 सालों में चमत्कार कैसे हो गया कि दलित और आदिवासी अचानक भारी तादाद में मंदिरों की तरफ भागने लगे.

धर्म के नाम पर वोटबैंक

अब से 12 साल पहले कांग्रेसी नेता और मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री महेंद्र बौद्ध ने एक भव्य और खर्चीला यज्ञ इस इलाके में करवाया था जिस की खूबी यह थी कि इस में मौजूद अधिकांश लोग दलित तबके के थे. खुद बौद्ध भी इसी समुदाय के थे. इसलिए भीड़ देख उत्साहित थे कि अब उन का वोटबैंक भाजपा की तरह, धर्म के नाम पर ही सही, पक्का हो गया.

पर हुआ उलटा. चमत्कारी तरीके से दलित वोटबैंक भाजपा के खाते में चला गया. यज्ञहवन की आहुतियों का जो रास्ता महेंद्र बौद्ध ने दिखाया था उसे हिंदूवादी संगठनों ने इस कदर हथियाया कि दलित खुद को गर्व से हिंदू कहने लगा. मुमकिन है कि आरएसएस को दलितप्रेम की प्रेरणा इसी आयोजन से मिली.

इसी दौरान, संघ ने हिंदुओं के धर्म पर दोबारा बवाल मचाना शुरू किया, प्रचार यह किया गया कि क्रिश्चियन मिशनरियां हमारे भोलेभाले आदिवासी भाइयों को जबरन या लालच दे कर ईसाई बना रही हैं. हम उन की वापसी हिंदू धर्म में करेंगे और उन का शुद्धिकरण भी करेंगे. छत्तीसगढ़ में दिलीप सिंह जूदेव जैसे जमीनी नेताओं ने तो संघ के सहयोग से बाकायदा इस बाबत धर्मवापसी की मुहिम भी चलाई थी.

चंबल के भिंड, मुरैना, दतिया और विंध्य के रीवा, सतना जिलों में बसपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दलितों पर डोरे डाले गए. प्रचार यह किया गया कि अब दलितों के लिए भी मंदिरों के दरवाजे खुले हैं और वे तनमनधन से धर्मकर्म कर सकते हैं. इस में वेदपुराण, ब्राह्मण और पंडे बाधा नहीं बनेंगे बल्कि उन का हृदय से स्वागत करेंगे.

यह स्वागत साल दर साल नवरात्रि के दिनों में खासतौर से देखने में आया. दलित और आदिवासी बाहुल्य इलाकों से पैदल चल कर मंदिर आनेजाने वाले श्रद्धालुओं के स्वागतसत्कार के लिए जगहजगह फलाहार और स्वल्पाहार के स्टौल सजाए जाने लगे. भगवा झंडे और तंबू तले बैठ कर 9 दिन व्रत करता भूखाप्यासा दलित सागूदाने की खिचड़ी खाने मात्र से कथित तौर पर खुद को महज धर्म के आधार पर मुख्यधारा में शामिल समझने लगा. और इसे, बराबरी समझ ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा.

पुराना धंधा, नए ग्राहक

90 का दशक धर्म और पंडिताई के लिहाज से भी बदलाव का रहा जो किसी को नजर नहीं आया. हुआ यह कि ऊंची जाति वालों के बच्चे तकनीकी शिक्षा की डिगरी ले कर बड़े शहरों में जा कर नौकरी करने लगे जिस की मार कारोबारी पंडे बरदाश्त नहीं कर पाए. खुद ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय, बनियों और कायस्थों की पूरी पीढ़ी महानगरों में आ कर बसने लगी तो शहरी पुरोहित और देहाती पंडे भुखमरी की कगार पर आ कर खुद के आरक्षण की मांग करने लगे. इन की बड़ी तकलीफ यह भी थी कि जिन घरों में साल में 4 दफा उन्हें धार्मिक समारोहों में बुलाया जाता था वहां 4 साल में 1 दफा भी बुलावा आना बंद हो गया.

सवर्णों की कंप्यूटरी पीढ़ी अपने बच्चों का मुंडन जैसा अनिवार्य धार्मिकसंस्कार भी करवाने से कतराने लगी. इस से ज्यादा चिंता की बात यह थी कि वह अपने बापदादों की तरह पूर्णिमा, अमावस्या और हिंदू पंचांग भी भूलने लगी. 14-16 घंटे नौकरी करती इस पीढ़ी को समझ आ गया कि धर्म के नाम पर लुटने से कोई फायदा नहीं, न ही ज्यादा बच्चे पैदा करना फायदे की बात है. इसी दौरान, सवर्ण लड़कियां भी तेजी से नौकरियों में जाने लगीं जिन्हें धर्मकर्म और कर्मकांडों से कोई खास लगाव नहीं रहा.

इस घाटे की पूर्ति करने के लिए धर्म के दुकानदारों का ध्यान पिछड़े वर्ग की तरफ गया. जल्द ही पंडे उन के यहां जा कर पूजापाठ करने लगे और एवज में खासी दक्षिणा भी पाने लगे पर हैरतअंगेज तरीके से पिछड़ों ने सवर्णों के मुकाबले ज्यादा और जल्द तरक्की की. उन के बच्चे भी सवर्णों की तरह पढ़ कर महानगरों की तरफ भागने लगे.

ऐसे में हिंदूवादियों को झख मार कर वंचित तबके के लोगों को ग्राहक बनाना पड़ा. उस वर्ग के लोगों को धर्म की घुट्टी पिलाई जाने लगी. जिसे कल तक दुत्कारा जाता था, छोटी जाति में उस के जन्म को पूर्वजन्म के पापों का फल कहा जाता था, वेदों में उसे सेवक कहा गया है, इस तरह का प्रचार कम किया गया बल्कि उस के माथे पर तिलक लगाया जाने लगा. ऐसा सिर्फ पैसों के लिए किया गया. इस से न तो छुआछूत बंद हुई न ही दलित अत्याचार कम हुए.

इस का असर हुआ और वाकई चमत्कारी ढंग से हुआ. सदियों से सवर्णों से पिटता और दुत्कारा जाता रहा एक बड़ा वर्ग खुद को हिंदू महसूस करने लगा, शर्त दक्षिणा चढ़ाने, भीड़ बढ़ाने पूजापाठ करने और व्रत करने की थी. वह यह सब करने लगा. आज दलितों का उत्साह रतनगढ़ देवी जैसे मंदिरों में हर कहीं देखा जा सकता है.

देवीदेवताओं के चमत्कारी किस्से जोर पकड़ने लगे, इसे हिंदूवादी संगठनों ने आस्था का सैलाब कह कर प्रचारित किया. आरएसएस जैसे कट्टरवादी संगठनों का फायदा यह था कि दलित उन के जरिए भाजपा से जुड़ने लगे और पंडों के पांव भी छूने लगे. भगवा सरकारों ने इस के एवज में जम कर रेवडि़यां संघ और उस के अनुयायी संगठनों को बांटीं.

एक मिसाल भोपाल की है, जहां के एक पौश और व्यावसायिक इलाके एमपी नगर में वनवासी कल्याण परिषद का दफ्तर करोड़ों की जमीन पर बना है. वहां एक आदिवासी मंदिर भी बना दिया गया है.

मगर यह सोचना सरासर बेवकूफी की बात है कि इस से छुआछूत, भेदभाव और जातिगत तिरस्कार बंद हो गए, फर्क सिर्फ इतना आया कि इन नवागंतुक हिंदुओं से धर्म की कीमत वसूली जाने लगी. पंडों को नोट मिले, भाजपा को वोट और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को ताकत मिली जिस के बल पर उस ने नरेंद्र मोदी जैसे मनुवादी हिंदू नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा डाला.

आरएसएस को तगड़ा पैसा, जमीनें और सहूलियतें भाजपा से मिलती हैं. वह भी एक तरह की दक्षिणा ही है. आरएसएस की पैरवी से भाजपा को गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में सत्ता मिलने लगी. उत्तर प्रदेश के हालात भिन्न रहे क्योंकि यहां के जातिगत समीकरण बसपा संस्थापक कांशीराम 80 के दशक से ही बदलने में कामयाब होने लगे थे. राम मंदिर के एक धक्के के बाद भाजपा औंधेमुंह वहां गिरी और कांशीराम की बोई फसल मायावती अभी तक काट रही हैं.

दलित अगर हिंदू माना जाने लगा है तो बसपा और मायावती कमजोर क्यों नहीं हो रहे, इस सवाल का जवाब भी बेहद साफ है कि अभी भी दलित समुदाय पूर्व के सवर्ण अत्याचार को भूला नहीं है और अपनी इकलौती दलित नेता को मजबूत बनाए रखने के लिए बसपा को वोट देता रहता है. मायावती और मुलायम सिंह यादव दोनों की गिनती मनुवाद के विरोधियों में होती है. मुलायम सिंह अपनी सहूलियत के मुताबिक पैंतरा बदलते रहते हैं और प्रधानमंत्री पद के लिए कभी भी, किसी से भी कोई भी, कैसा भी समझौता कर सकते हैं. मौका मिला तो मायावती भी ऐसा करने से हिचकिचाएंगी नहीं और दुहाई दलित और उस के हितों को ही देंगी.

इन राजनीतिक समीकरणों का सामाजिक हालात से गहरा नाता है. अकेले रतनगढ़ में नहीं बल्कि देश के सभी, खासतौर से पश्चिम, मध्य और उत्तरी राज्यों में इस नवरात्रि पर गरीबों, जो हकीकत में दलित हैं, ने जम कर महंगी झांकियां लगाईं और अपनी बस्तियों में भंडारे आयोजित किए. अपने स्तर पर गरबा कर धर्म का मजा सवर्णों की तरह लूटा. फर्क इतना था कि दलितों के गरबे खुले मैदानों में हुए और सवर्णों के भव्य पंडालों व महंगे होटलों में.

हिंदू धर्म के ठेकेदारों और दुकानदारों को यह बात भी समझ आ गई कि दलित आदिवासियों को बहलाने के लिए चमत्कारों के छोटेमोटे किस्सेकहानी काफी हैं जो कभी सवर्णों को फंसाने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे. अब सवर्ण ब्रैंडेड बाबा पालनेमानने लगे हैं. धर्म को दर्शन और आध्यात्म से जोड़ते हुए लुटने के ठौरठिकाने और तरीके उन्होंने बदल लिए हैं.

रतनगढ़ देवी मंदिर में दीवाली के बाद दूज पर लाखों दलित इकट्ठा होते हैं. मान्यता यह है कि किसी को सांप काट ले तो तुरंत रतनगढ़ देवी का नाम ले कर काटे गए स्थान पर पट्टी बांध लो, जान बच जाएगी.

दरअसल, इस नशे,  बीमारी और वहम का कोई इलाज नहीं है जिसे आस्था कह कर प्रचारित किया जा रहा है. वह हकीकत में अंधविश्वास है. और दलितों को जकड़े रखने के लिए यह जरूरी भी है ताकि वे शिक्षित न हो पाएं, पैसा लुटाते रहें, भीड़ बढ़ाते रहें. और मुद्दे की बात यह कि आज भी वे बड़ी जाति वालों के घर के सामने से गुजरें तो जूतियां पैरों से उतार कर सिर पर रख लें.

यह दृश्य आज भी देहातों में आम है पर रतनगढ़ जैसे मंदिरों में नहीं, जहां हिंदूवादी संगठनों के उकसावे में आ कर लाखों दलित उन्मादियों की तरह टूट पड़ते हैं, भगदड़ मचती है तो मारे जाते हैं. इस पर तरस खाने वाली बात प्रचार का करना है कि यह तो मोक्ष है, देवी की मरजी है जिस पर किसी का जोर नहीं.

इस पूरे खेल, जिसे साजिश कहा जाना बेहतर होगा, में चिंता की इकलौती बात दलित आदिवासियों की बदहाली व पिछड़ापन है जिस पर अब हिंदू मिशनरियां अपनी रोटी सेंक रही हैं. पूजापाठ और यज्ञहवन से तरक्की होती तो 40 फीसदी यह आबादी तो दूर की बात है, देश का भला तो कभी का हो गया होता.

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