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भारत के खिलाफ डब्लूटीओ जाएगा अमेरिका

सौर ऊर्जा के मामले में भारत के कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. लोगों के घरों और संस्थानों की बिजली जरूरत बड़े स्तर पर सौर ऊर्जा से पूरी हो रही है. ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों के लिए सौर ऊर्जा वरदान बनी हुई है. बिजली के तारों के जाल से बहुत दूर बसे लोगों के लिए ऊर्जा का यह आधार उन की जीवनचर्या में नए सोपान जोड़ रहा है और धीरेधीरे इस के इस्तेमाल का दायरा आधुनिक तकनीकी विस्तार के साथ बढ़ रहा है. अमेरिका को भारत की यह खुशहाली रास नहीं आ रही. वह भारत की इस तरक्की में बाधक बनना चाहता है और इस बार उस ने सौर ऊर्जा के मुद्दे पर भारत को घेरने का प्रयास भी किया है.

अमेरिका का कहना है कि भारत को सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करना उसी ने सिखाया है. उस का आरोप है कि भारत की सौर ऊर्जा नीति के कारण यह सौर ऊर्जा महंगी हो रही है. उस का कहना है कि पहले भारत में सौर ऊर्जा का उत्पादन अमेरिकी सामान से होता था. अमेरिका ने उस के लिए सब्सिडी भी दी थी. इस सब्सिडी से भारत का सौर ऊर्जा क्षेत्र विकास करने लगा और उस का कारोबार भी बढ़ने लगा लेकिन अब भारत ने सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए अपने देश में ही बने उपकरणों की खरीद को अनिवार्य कर दिया है.

राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन ने स्थानीय स्तर पर निर्मित उपकरणों के इस्तेमाल से ही सौर ऊर्जा के उत्पादन की नीति बनाई है. अमेरिकी उपकरण निर्माता भारत के इस फैसले से दुखी हैं और उन्होंने विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ में जाने की यह कहते हुए धमकी दी है कि भारत ने घरेलू उत्पादों के अनिवार्य इस्तेमाल की नीति अपनाकर मानकों का उल्लंघन किया है. जब उसे जरूरत थी तो वह हमारे पास आया, सब्सिडी पर उपकरण खरीदता रहा और मजबूत स्थिति होने पर स्थानीय स्तर पर बने उपकरण की नीति अपना रहा है.

भारत का कहना है कि वह बाध्य नहीं है इसलिए हम अधिकारों का अपने हिसाब से इस्तेमाल करेंगे. भारत का यह भी कहना है कि उस ने निजी उत्पादकों के लिए नियम नहीं बनाया है. अमेरिका चाहे तो उन्हें उपकरण बेचे लेकिन सरकारी स्तर पर सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए?भारत अपने ही देश में बने उपकरणों का इस्तेमाल करेगा.

 

उथलपुथल बाजार में

शेयर बाजार में बजट 2013-14 के एक सप्ताह बाद जबरदस्त उथलपुथल का माहौल रहा. पहले तो बाजार में एकाएक तेजी आई और सूचकांक 19 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया. बाद में अचानक बाजार में सुस्ती का माहौल बन गया. बिकवाली के दबाव व रिजर्व बैंक की ब्याज दरों को ले कर जारी अटकलों के कारण बाजार में गिरावट का महौल बन गया.

हालात ऐसे थे कि 15 मार्च को समाप्त सप्ताह के पहले 3 कारोबारी दिनों में बाजार में लगातार गिरावट का रुख रहा और 13 मार्च को बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 202 अंक गिर गया. 1 माह में यह 1 दिन की सूचकांक की सब से बड़ी गिरावट थी. नैशनल स्टौक ऐक्सचेंज यानी निफ्टी में भी ऐसे ही हालात रहे और सूचकांक 63 अंक गिर कर 5851 अंक पर बंद हुआ. बुधवार को भी बाजार पहले दिनोंकी तरह ही गिरावट पर बंद हुआ लेकिन गुरुवार को अचानक दोबारा माहौल बदला और सूचकांक 208 अंक बढ़ कर बंद हुआ. बाजार में दिनभर उथलपुथल रही. सप्ताह के आखिरी दिन बाजार फिर गया और सूचकांक 142 अंक नीचे आ गया.

जानकारों का कहना है कि काले धन पर सरकार की सख्त नीति, तेल के दाम में बढ़ोतरी व ऋण की ब्याज दर में असमंजस की स्थिति का बाजार पर नकारात्मक असर रहा. उस के अलावा विदेशी बाजारों में जारी गिरावट का भी बाजार पर दबाव देखा गया. चालू बचत खाता घाटा कम करने के लिए विदेशी निवेश पर सरकार की सक्रियता नहीं बढ़ने के कारण भी बाजार में कमजोरी का रुख रहा. विकास दर अच्छी रहने की उम्मीद में बाजार में जल्द तेजी की आशा है.

शी जिनपिंग

विश्व की दो उभरती महाशक्तियों में शुमार किए जाने वाले भारत और चीन कमोबेश एक जैसे हालात से गुजर रहे हैं. चीन भी भ्रष्टाचार की जबरदस्त गिरफ्त में है. अमीरगरीब के बीच खाई गहरी होती जा रही है. ऐसे में चीन के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा. साथ ही भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से भी उन की भूमिका अहम होगी. जायजा ले रहे हैं जितेंद्र कुमार मित्तल.

चीन की राजनीति में अभी तक सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी पर उस पुरानी पीढ़ी के नेताओं का आधिपत्य रहा था जो माओ के क्रांतिकारी आंदोलन से बहुत करीब से जुड़े रहे थे, लेकिन इस बार के सत्ता परिवर्तन में पहली बार इस से अगली पीढ़ी के किसी व्यक्ति को देश का राष्ट्रपति चुना गया है. चीन के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने देश की उस अपेक्षाकृत नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद पैदा हुई.

चीन की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक क्रांति के दौरान शी ने अपने जीवन के 7 साल घोर गरीबी से ग्रस्त शांक्शी प्रांत में बिताए और उन के पिता शी झोंगशुन, जो कम्युनिस्ट क्रांति के अग्रणी नेताओं में से एक थे, को माओ के कोप का भाजन बनना पड़ा और उन्हें पार्टी से बाहर खदेड़ दिया गया.

वर्ष 1969 में 15 वर्षीय शी को किसानों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक गांव भेज दिया गया, जहां उन्होंने खाद व कोयला ढोने का काम किया. इस दौरान एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें व उन के गांव के दूसरे लोगों को पेड़ की छाल तथा घासफूस खा कर अपना पेट भरना पड़ा और महिलाओं व बच्चों को भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा.

कुछ लोगों का यह मानना है कि शी के पिता के माओ के साथ सैद्धांतिक मतभेद होने के कारण पार्टी से बाहर निकाले जाने के बाद शी को भी सबक सिखाने के लिए ही यह सबकुछ किया गया और उन से बदला लेने के लिए उन्हें 20 साल की उम्र तक कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी नहीं बनाया गया. इस दौरान उन्होंने पार्टी की सदस्यता हासिल करने के इरादे से 10 बार अपना प्रार्थनापत्र पार्टी के कार्यालय में भेजा, लेकिन हर बार उसे नामंजूर कर दिया गया.

अपने उन दिनों के बारे में शी के मन में कोई कड़वाहट नहीं है. आज से 13 साल पहले उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘इस सब से मैं कभी निराश नहीं हुआ और न कभी मेरे मन में किसी हीन भावना ने जन्म लिया. मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा कि पार्टी में खराब लोगों के बजाय अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है. जिस तरह छुरी को पत्थर पर घिस कर पैना किया जाता है उसी तरह लोग भी विपरीत परिस्थितियों में ही मजबूत बनते हैं.’

अब जब शी चीन के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं, उन का देश भी उन के बचपन व जवानी के दिनों की भुखमरी व गरीबी से ग्रस्त एक देश से ऊपर उठ कर दुनिया का दूसरे नंबर का खुशहाल देश बन चुका है और अगले दशक में वह दुनिया की सब से बड़ी व खुशहाल अर्थव्यवस्था वाले मुल्क में परिवर्तित होने की कगार पर खड़ा है.

आज चीन भी भारत की ही तरह नेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार से बुरी तरह ग्रस्त है. जब पिछले साल नवंबर में 59 वर्षीय शी को कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव व चीन की सेना का प्रमुख बनाया गया था तो उस समय इन निहित हितों वाले राजनीतिज्ञों ने शायद यह सोचा होगा कि शी उन के हितों की रक्षा करेंगे और वे कभी भी उन की राजनीतिक दुकानदारी में हस्तक्षेप नहीं करेंगे लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपना जो पहला बयान दिया उस ने इन सभी लोगों को चौकन्ना कर दिया. उन्होंने यह ऐलान किया है कि पार्टी व सरकार को जनता से जोड़े रखने के लिए यह जरूरी है कि भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म किया जाए.

शी व प्रधानमंत्री ली ने सत्ता की बागडोर ऐसे कठिन समय में संभाली है जब आंतरिक दबाव बहुत ही बढ़ गए हैं. धनवान व गरीब वर्ग के बीच की दिनोंदिन गहरी होती खाई, घोर भ्रष्टाचार में गले तक डूबा सरकारी तंत्र, अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दूषित पर्यावरण, धीमी पड़ती आर्थिक विकास की दर और इन सारी समस्याओं के बीच चीन की एक बड़ी तादाद में युवा पीढ़ी, जिस की महत्त्वाकांक्षाएं इंटरनैट के द्वारा पूरी दुनिया से जुड़ जाने के कारण दिनबदिन बढ़ती जा रही हैं, इन सब चीजों ने देश में विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है. अगर जल्दी ही इन समस्याओं का कोई कारगर हल नहीं निकाला गया तो मुमकिन है कि चीन का गरीब तबका देश की युवा पीढ़ी के साथ मिल कर एक बार फिर किसी दूसरी क्रांति का बिगुल बजाने के लिए मजबूर हो जाए.

अब चूंकि शी सेना, पार्टी तथा सरकार, इन तीनों के प्रमुख बन गए हैं और सत्ता के सभी सूत्र उन के हाथ में आ गए हैं, उन से यह उम्मीद की जाती है कि वे चीन को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे और बरसों तक फलनेफूलने वाली अर्थव्यवस्था में जो धीमापन तथा ठहराव आ गया है उसे वे फिर से गति प्रदान कर सकेंगे. शी सरकार व अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और सुधार के हिमायती हैं.

नवनियुक्त प्रधानमंत्री ली केशियांग ने उन के विचारों का समर्थन करते हुए यह घोषणा की है कि वे सरकारी खर्च पर लगाम लगाने के लिए कर्मचारियों के वेतन में तो कटौती करेंगे ही, साथ ही अधिकारियों की विदेश यात्राओं व ऐसे ही दूसरे गैरजरूरी खर्चों पर पाबंदी भी लगाएंगे. उन्होंने कहा, ‘‘केंद्रीय सरकार इस दिशा में एक उदाहरण पेश करेगी और सभी राज्य सरकारों को उस का अनुसरण करना होगा.’’

राष्ट्रपति शी व प्रधानमंत्री ली को मिल कर चीन को सस्ते माल का बड़े स्तर पर उत्पादन करने वाले उद्योगों से निकाल कर विश्व के बाजार में चीन के उत्पादनों की साख स्थापित करनी होगी और वित्त, सेवाओं व पर्यटन जैसे दूसरे क्षेत्रों में विकास के नए दरवाजे खोलने होंगे.

शी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी मजबूत बनाना चाहते हैं, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि पदग्रहण के तुरंत बाद उन्होंने घोषणा की कि वे अमेरिका व एशिया के दूसरे देशों के साथ अपने रिश्तों को और मजबूत बनाने का प्रयास करेंगे और वे इन रिश्तों को चीन के हित में मानते हैं. ‘ब्रिक्स’ देशों के पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने भारत के संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया कि भारत व चीन के बीच का सीमा विवाद इतिहास की एक ऐसी जटिल विरासत है जिस का हल निकालना आसान नहीं होगा. इतनी साफगोई से इस समस्या को स्वीकार करने वाले वे शायद चीन के पहले नेता हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘‘दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण बातचीत जारी रख कर ही इस समस्या का कोई ऐसा सही व न्यायसंगत हल निकाला जा सकेगा जो दोनों देशों को मान्य होगा.’’

शी का मानना है कि सीमा विवाद से जुड़ी तकनीकी समस्याओं के साथसाथ कुछ संवेदनशील तथा भावनात्मक चीजें भी इस से जुड़ी हैं. अरुणाचल प्रदेश के जिस इलाके पर चीन अपना हक जता रहा है, वहां लोगों की एक बहुत बड़ी आबादी है. वार्ताकारों को दोनों देशों के आम आदमियों की भावनाओं का भी ध्यान रखना पड़ेगा. शी ने भारतचीन संबंधों को एक नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए दोनों देशों के बीच सभी क्षेत्रों में निकट सहयोग का आह्वान करते हुए कहा कि दोनों देशों को सीमा से लगे इलाकों में शांति बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए और सीमा विवाद से ऊपर उठ कर हमें अपने रिश्तों के चहुंमुखी विकास का प्रयास करना चाहिए. उन्होंने दोनों देशों के संबंधों को मजबूत बनाने के लिए नए पंचशील के सिद्धांत पर जोर दिया.

तिब्बत का मसला

तिब्बत हमेशा भारत और चीन के रिश्तों में तनाव की एक वजह रहा है. चीन तिब्बत पर नियंत्रण का दावा करता है पर तिब्बत का कहना है कि वह शुरू से स्वायत्त रहा है इसलिए उस की स्वतंत्रता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए. 1962 में भारत और चीन के बीच तिब्बत और अक्साई चिन क्षेत्रों को ले कर युद्ध हुआ. इस युद्ध में भारत हार गया था. इस से पहले तिब्बत राजाओं के अधीन रहा था. बाद में कुछ समय ब्रिटिशर्स के नियंत्रण में रहा लेकिन 1951 तक तिब्बत ने अपनी स्वायत्तता को बनाए रखा. हालांकि सैन्य संघर्ष द्वारा तिब्बत को चीन में मिलाने के प्रयास चलते रहे. 1959 में तिब्बत विद्रोह विफल हो गया तो दलाई लामा भारत भाग आए. तब से वे यहां धर्मशाला में रह कर निर्वासित सरकार चला रहे हैं.

दरअसल, दलाई लामा 1959 में चीन के शासन के खिलाफ एक असफल क्रांति के बाद?भारत में पलायन कर गए तो भारत सरकार ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक मदद भी की. चीन ने दशकों तक लामा के खिलाफ प्रचार किया कि वह इस हिमालयी क्षेत्र को चीन के शासन से अलग करना चाहते हैं पर दलाई लामा की दलील यह थी कि वे तिब्बत के लिए केवल अधिक स्वायत्तता चाहते हैं.

दरअसल, तिब्बत का मसला ब्रिटिश शासन के समय से और उस के बाद की कुछ परिस्थितियों की वजह से लगातार अनसुलझा बना रहा और दोनों देशों के बीच रिश्तों में कड़वाहट पैदा करता रहा. हालांकि 1979 से दलाई लामा के नुमाइंदों और चीनी सरकार के दूतों के बीच बातचीत की प्रक्रिया चलती रही है. दोनों के बीच आखिरी बातचीत 2010 में हुई थी पर दलाई लामा के सीधी बात करने से इनकार कर देने से चीन ने तिब्बत मसले पर होने वाली प्रगति में अडं़गा डाल दिया. वैसे चीन ने पहले ही अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी कि वह दलाई लामा से कोई समझौता नहीं करेगा.

असल में चीन नहीं चाहता कि दलाई लामा तिब्बत की जमीन पर कदम रखें क्योंकि वह जानता है कि ऐसा हुआ तो लामा आसानी से तिब्बती अस्मिता के केंद्र बन जाएंगे. इसलिए चीन रणनीतिक तौर पर तिब्बत पर सैन्य दबाव कायम कर रहा है. तिब्बत के पठार पर जिस तरह से चीन ने सैन्यीकरण कर लिया है वह भी भारत और चीन के जटिल रिश्तों के बीच एक अहम पेच है.

शी के पंचशील के इन सिद्धांतों में सामरिक महत्त्व के विषयों पर बातचीत का दरवाजा हमेशा खुला रखना, एकदूसरे की क्षमताओं को समझते हुए इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना, सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत बनाना व दोनों देशों के लोगों के बीच के मैत्रीपूर्ण रिश्तों को और मधुर बनाना, विकासशील देशों के हितों की रक्षा करने व वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए पारस्परिक सहयोग को बढ़ाना और आखिर में पारस्परिक मूलभूत समस्याओं को समझ कर एकदूसरे के साथ सहयोग करना व दोनों देशों के बीच की समस्याओं के हल के लिए सतत प्रयत्नशील रहना शामिल है.

अगर भारतीय दृष्टिकोण से चीन व भारत के पारस्परिक संबंधों पर गौर करें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि चीनी चीजों का आयात करना व चीनी वित्तीय संस्थाओं से कर्जा लेना बहुत सरल है, लेकिन भारत से चीजों व सेवाओं का निर्यात करना बहुत कठिन बन गया है.

यही वजह है कि दोनों देशों का पारस्परिक व्यापार बहुत असंतुलित हो गया है. ऐसी हालत में हमारी सरकार को शी व उन के साथियों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे अपने बाजार हमारे लिए खोल दें जिस से दोनों देशों के व्यापार में संतुलन स्थापित किया जा सके.

दोनों देशों के बीच की दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के पानी के इस्तेमाल की है. चीन यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है कि उस के द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर हर नया बांध बनाने के साथ ही यह समस्या और अधिक गंभीर होती चली जा रही है. अब तक भारत कई बार इस समस्या पर चीन से बात करने की कोशिश कर चुका है. लेकिन चीन की तरफ से इस दिशा में खोखले आश्वासनों के अलावा और कुछ नहीं मिला है.

भारत में चीनी कंपनियां

निवेश के उद्देश्य से भारत ने चीनी कंपनियों को आमंत्रित किया. इन कंपनियों को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजैक्ट जैसे डैडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर, सबवे लाइंस, स्पैशल इकोनौमिक जोन के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मौडल के तहत बुलाया गया. भारत में ढांचागत सुविधाओं के निर्माण में कुछ कंपनियां काम कर रही हैं.

भारत में 9 चीनी कंपनियां जौइंट वेंचर में 556 मिलियन डौलर की 6 हाईवे परियोजनाओं पर काम कर रही हैं. इन में से 3 हाईवे प्रोजैक्ट पूरे हो चुके हैं. इन के अलावा चीनी आटोमोबाइल और इलैक्ट्रौनिक्स कंपनियां भी भारत में काम कर रही हैं.

पिछले डेढ़ दशक से भारत और चीन के बीच व्यापार कई गुणा बढ़ गया है. आंकड़ों के मुताबिक, चीन भारत का सब से बड़ा व्यापार सहयोगी बन गया है. भारत चीन के लिए 7वां सब से बड़ा निर्यातक व 9वां सब से बड़ा आयातक देश है. भारत ने 2015 तक चीन के साथ व्यापार में 100 बिलियन डौलर की वृद्धि करने का लक्ष्य रखा है.

अरुणाचल प्रदेश को चीन अपना क्षेत्र मानता आया है. समयसमय पर अरुणाचल प्रदेश में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं. दोनों देशों के बीच यह सीमा विवाद दशकों पुराना है. हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने मैकमोहन रेखा के रूप में सीमा तय की थी पर चीन इस की वैधता को नहीं मानता. चीन ने अवैध रूप से सीमा रेखा के आसपास करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर नियंत्रण कर रखा है. यही नहीं, चीन अरुणाचल प्रदेश के अधिकारियों को चीनी वीजा देने से इनकार करता है.

भारत और चीन की सामरिक प्रतिस्पर्धा

भारत और चीन के बीच सामरिक होड़ पिछले वर्षों में तेजी से बढ़ी है. दोनों देशों के बीच बढ़ते आर्थिक और सामरिक संबंधों के बावजूद कई मुद्दों पर तनाव चलता रहा है. लंबे समय से सीमा विवाद चला आ रहा है. दोनों देशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में निर्मित सैन्य बुनियादी ढांचे तनाव के कारण बने हैं.

इस के अलावा भारत के पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना दावा जताता आया है. चीन विश्व के 5 बड़े हथियार निर्यातकों में से एक है जबकि भारत खरीदारों में सब से ऊपर है. चीन की सैन्य शक्ति भारत के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है. अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो चीन ने 2010 में 1518, 2011 में 1506 और 2012 में 1783 बिलियन डौलर के हथियार विश्व के देशों को बेचे हैं जिन में भारत भी एक है.

भारत ने 2010 में 2883, 2011 में 3511 और 2012 में 4764 बिलियन डौलर के हथियार खरीदे. चीन का सैन्य खर्च 129,270,000,000 डौलर सालाना है और मिलिटरी खर्च के मामले में यह विश्व का दूसरा सब से बड़ा देश है. भारत सैन्य खर्च के मामले में 8वें नंबर पर है. चीनी सेना दुनिया का सब से बड़ा सैन्य बल है. भारत के साथसाथ चीन भी परमाणु संपन्न देश है. चीन ने जहां अपने परमाणु हथियारों को परिष्कृत किया है वहीं भारत अपने परमाणु हथियार के परिवहन के लिए अग्नि-3 मिसाइल परीक्षण कर आगे निकलने की होड़ कर रहा है.

भारत ने अब तक 1974 और 1998 में 2 बार परमाणु परीक्षण किए पर चीन अब तक 45 बार परमाणु परीक्षण कर चुका है. चीन में 22 लाख 85 हजार के करीब सक्रिय सैनिक और लगभग 8 लाख रिजर्व जवान हैं जबकि भारतीय सेना में करीब 13 लाख, 25 हजार सक्रिय और लगभग 11 लाख 55 हजार रिजर्व सैनिक हैं. भारत और चीन दोनों देशों में लगातार सैन्य बजट बढ़ाया जा रहा है.

इस समृद्ध राज्य पर दावे की दृष्टि से चीन अपनी सीमा में इस से सट कर सड़कें, रेल निर्माण के कार्य करा रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी पर भी 3 बांधों के निर्माण की योजना है. भारत इस का विरोध कर रहा है.

शी ने अपनी पंचशील के सिद्धांतों में अंतर्राष्ट्रीय जगत में पारस्परिक सहयोग की बात तो की है लेकिन वे सिर्फ अपने हितों की रक्षा में भारत से सहयोग की अपेक्षा करते हैं, दूसरी तरफ भारत की संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मसला सिर्फ चीन के विरोध के कारण ही आज तक अधर में लटका हुआ है.

शी को यह समझना होगा कि पारस्परिक संबंध एकतरफा नहीं हो सकते. इस के लिए चीन को भी आगे बढ़ कर भारत के हितों की रक्षा में तहेदिल से उस का साथ देना होगा. यह उम्मीद की जानी चाहिए कि डरबन में ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान शी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के बीच हुई हाल ही की मुलाकात के बाद भारतचीन रिश्तों में एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकेगी.  

चीन और बच्चा नीति

चीन ने दावा किया है कि 1980 के दशक में उस के कम्युनिस्ट तानाशाहों ने जो ‘1 बच्चा’ नीति लागू की थी, आर्थिक चमत्कार उसी का परिणाम है. यह बात चाहे पश्चिम के मानव अधिकार सुधारकों को न पचे पर यह सत्य से दूर नहीं है. चीन ने बच्चों के  कम होने पर आबादी का दबाव ही कम नहीं सहा, उस की जनता को काम करने का ज्यादा समय भी मिला.

बच्चे मां का ही नहीं, पिता का भी पूरा ध्यान मांगते हैं. कम बच्चे हों तो मातापिता 5-7 साल बाद बच्चों की जिम्मेदारी से लगभग मुक्त हो जाते हैं और अपने काम पर समय व शक्ति लगा सकते हैं, चाहे काम खेतों में हो या कारखानों या फिर दफ्तरों में. कम बच्चे होने पर पारिवारिक बचत बढ़ जाती है जो देश की पूंजी बनती है.

हमारे यहां ‘बच्चे बस 2 या 3’ या फिर ‘हम 2 हमारे 2’ के नारे आपातकाल के भूकंप में बह गए क्योंकि जनता ने बैडरूम में सरकार का दखल स्वीकार नहीं किया. फिर भी हमारे यहां उस नीति के परिणाम जब दिखने लगे तो परिवारों ने अपनेआप बच्चे सीमित करने शुरू कर दिए.

शादी हो और 100 बच्चे हों का धर्म का नारा परिवारों को सुख देने के लिए कभी नहीं रहा. उस का ध्येय तो सिर्फ यह है कि धर्म का पेट भरने वालों की कमी न हो.

इसलाम और ईसाई धर्म बच्चों की कमी पर नाराज होते हैं क्योंकि उन्हें ऐसे युवाओं की जरूरत रहती है जिन को घर में न खाना मिले न इज्जत और वे धर्म के नाम पर कुरबानी देने को तैयार रहें. इसीलिए जितने कट्टर धर्म हैं वे परिवार नियोजन और गर्भपात के विरोधी हैं. मजेदार बात है कि ये समाज गरीबों, बीमारों, निकम्मों, अपराधियों और नशेडि़यों से भरे हैं.

चीन की 1 बच्चा नीति का विरोध नहीं करना चाहिए और?भारत को देश में इस का जम कर प्रचार करना चाहिए.

राहुल गांधी की फिक्र

राहुल गांधी ने जीवन के 2 बड़े आकर्षणों को त्यागने की घोषणा की. उन्हें न सत्ता से प्यार है न स्त्री से. वे तो देशसेवा करेंगे. वे न प्रधानमंत्री बनेंगे न विवाह करेंगे. कारण चाहे उन्होंने कुछ भी बताए हों पर भावी प्रधानमंत्रियों में से एक का रेस से निकल जाना व्यक्तिपूजक देश के लिए थोड़ा चौंकाने वाला है क्योंकि यहां तो सब सोचे बैठे हैं कि जब तक गांधी परिवार है, देश की राजनीति उन के हाथों में है, चाहे वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर.

राहुल गांधी ने सत्ता में दिलचस्पी न दिखा कर वही किया है जो देश के लाखों संन्यासी करते हैं. कहने को वे मायामोह से दूर होते हैं पर भव्य मंदिरों और आश्रमों में रहते हैं, औरतों से घिरे रहते हैं, निजी हवाई जहाजों में चलते हैं, उन के साथ सेवकों का लावलश्कर होता है. राहुल गांधी की कांग्रेस बहुमत में हो या अल्पमत में, प्रधानमंत्री को उन की इच्छानुसार चलना ही होगा क्योंकि देशभर में कई राज्यों में कांग्रेसी सरकारें अवश्य होंगी और संसद में उन की उपस्थिति कम न होगी.

राहुल गांधी ने वैसे अब तक अपनी राजनीतिक विलक्षणता नहीं दिखाई है पर दुनिया के कितने ही देशों के शासक अब बौने साबित हो रहे हैं. चीन के नए राष्ट्रपति शी जिनपिंग कोई विशेष सोच नहीं रखते. इंगलैंड के डेविड कैमरून बस नेता हैं. जापान के प्रधानमंत्रियों के तो नाम भी याद रखना कठिन है क्योंकि साल में 1-2 तो बदल ही जाते हैं.

बराक हुसैन ओबामा (अमेरिका) या ब्लादिमीर पुतिन (रूस) या एंजिला मार्केल (जरमनी) जैसे अपनी सोच वाले शासक अब कम ही हैं. मनमोहन सिंह भी लुंजपुंज शासकों में गिने जाएंगे पर चूंकि उन की सोच पर सोनिया गांधी का दबदबा है, सोनिया को मौलिक विचारों का श्रेय दिया जा सकता है जिस का राहुल गांधी में पूरी तरह अभाव है.

राहुल गांधी का सत्ता या स्त्री के लिए ना करना देश की सेहत पर कोई असर न डालेगा. देश के राजनीतिक इतिहास में वैसे भी राहुल गांधी का असर आधी लाइन का होता नजर आ रहा है.

नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन कर देश पर हिटलरी शासन थोपने के सपनों पर फिलहाल काला साया पड़ने लगा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली में रैली कर के साफ कर दिया कि गुजरात का कट्टर हिंदूवादी, मुसलिम व दलित विरोधी तथा अमीरप्रेमी मौडल देश को भाए, यह जरूरी नहीं है. उन्होंने बिहार की गरीबी की चिंता जरूर की पर यह बताने से नहीं चूके कि पश्चिम बंगाल व ओडिशा जैसे राज्य भी बिहार की तरह हैं. गुजरात तो दंभ में अपने को अनूठा समझता है.

नीतीश कुमार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को कई तरह से चुनौती दे सकते हैं. बिहारी देशभर में फैले हुए हैं और लगभग पूरे देश में उन्हें नीचा, गरीब समझ कर अपमानित किया जाता है. गुजराती भी कई राज्यों में हैं पर सेठों की तरह हैं जो बिहारियों को नौकर रखते हैं. वे अपनी श्रेष्ठता का बखान करे बगैर नहीं मानते. राजनीति में दंभ नहीं चलता पर नरेंद्र मोदी इन्हीं गुजराती सेठों के दंभ पर देश पर राज करना चाह रहे हैं.

बिहार देश का सब से गरीब राज्य है क्योंकि पिछली 2 सदियों में इसे जमींदारों, सामंतों, सेठों, शासकों ने बुरी तरह लूटा है. यहां की कानून व्यवस्था खराब रही क्योंकि यहां सब लूटने में लगे थे. जब भी आम जनता ने इस का विरोध किया, उसे अपराधी बता कर इस तरह दुष्प्रचार किया गया है कि उस की बोलती ही बंद हो गई. अब नीतीश कुमार अगर प्रधानमंत्री बनने का सपना ले कर आगे आ रहे हैं तो सारे देश में बिहारी उन्हें वह समर्थन दे सकते हैं जो गुजरात के नरेंद्र मोदी को नहीं मिल सकता.

देश में विकास मेहनत से आता है, किसी की दया से नहीं. लोग बाहर से आ कर बिहार में पूंजी न भी लगाएं तो भी वह पंजाब की तरह अमीर हो सकता है जहां सिर्फ खेती के बल पर पैसा बरसा. बाहरी कंपनियों के पैसों से केवल कुछ को लाभ होता है. आंकड़े चाहे जो दिखाए जाएं, आम आदमी गरीब ही रहता है. मुंबई देश का सब से अमीर शहर है पर सब से ज्यादा गरीब भी इसी शहर में बसते हैं.

नरेंद्र मोदी का फार्मूला धर्म की कट्टरता पर आधारित है और धर्मांध मीडिया उन्हें बुरी तरह उछाल रहा है और बारबार उन को प्रधानमंत्री पद के सपने दिखा रहा है. हाथों में कलेवा बांधे संपादक, प्रकाशक, लेखक, संवाददाता नरेंद्र मोदी का गुणगान करने में लगे हैं और यह पक्का है कि जो ज्यादा दिखता है वह ज्यादा बिकता है.

नीतीश कुमार इस मामले में कमजोर पड़ेंगे. उन को समर्थन देने के लिए दिल्ली के सेठ श्रीराम द्वारा स्थापित श्रीराम कालेज औफ कौमर्स के अमीर घरों के छात्र उन्हें नहीं बुलाएंगे. नीतीश कुमार प्रचार की कमी से कैसे निबटेंगे, यह तो अभी पहेली है.

वृंदावन की विधवाआं से होली का स्वांग

विधवाओं को ले कर समाज हमेशा से दोहरा मापदंड अपनाता रहा है. धर्म के ठेकेदारों ने उन को खुशियों के रंग से महरूम कर दिया है. धर्म की नगरी वृंदावन में भी उन के साथ होता है परंपरागत पाखंड. खुलासा कर रही हैं बुशरा.

एक विधवा की अंतिम सांस निकलते ही अन्य विधवाएं सफाई कर्मचारी को बुलाती हैं. सफाई कर्मचारी आ कर शव को कई टुकड़ों में काट कर उसे बोरी या पौलिथीन बैग में भर कर कहीं फेंक आता है, क्योंकि साबुत शव को बोरे में भरना मुश्किल होता है…चौंकिए मत! कड़वा है, पर है सत्य. यह इसी सभ्य समाज की एक कड़वी हकीकत और दरिंदगी है जहां स्त्री को पूजनीय तो बताया जाता है लेकिन उस के साथ जानवरों से बदतर सुलूक होता है. सभ्य कहलाने वाले समाज के सियाह पहलू और बदरंग तसवीर को करीब से देखना है तो एक बार वृंदावन, मथुरा और बनारस (काशी) के विधवा आश्रमों का रुख कीजिए, जहां स्त्री जीवन की दर्दनाक दास्तानें अंधेरी कोठरियों की काली दीवारों पर चस्पां मिलेंगी. चलतीफिरती इन ठटरियों को न तो सम्मान का जीवन नसीब है और न सुकून की मौत.

नारकीय जीवन जी रही वृंदावन की इन विधवाओं के शव को कफन और चिता की आग भी मुहैया नहीं करवाई जाती है. दलाल इन को मिलने वाली सरकारी सुविधाएं बीच में ही हड़प कर जाते हैं.

नजीजतन, इन के शवों को जलाने के स्थान पर टुकड़ों में काट कर बोरी में भर कर इसलिए फेंका जाता है क्योंकि इन असहाय और अनाथ महिलाओं के मरने के बाद उन के अंतिम संस्कार के लिए वित्तीय प्रावधान नहीं है और यदि जो विधवाएं अपने अंतिम संस्कार के लिए कुछ पैसा जोड़ कर सफाईकर्मियों के पास जमा करा देती हैं उसे गटक लिया जाता है. यह है इस धर्म की नगरी का एक असली चेहरा जिसे देख कर भी हम आंखें मूंद लेते हैं.

धर्म के आदेशानुसार रंगों और खुशियों से दूर रहने की हिदायत के साथ बेरंग और बेगाना जीवन गुजार रही ये महिलाएं मांग उजड़ जाने के बाद अब तक सिर्फ अपने ‘ठाकुर जी’ (कृष्ण) के साथ होली खेलती थीं लेकिन जब सुलभ इंटरनैशनल की ओर से इन्हें इस लंबी परंपरा को तोड़ कर फूलों से होली खेलने का अवसर दिया गया तो प्रचार किया गया कि उन के ठहरे हुए जीवन में एक बार फिर से बहाव आ गया है.

4 दिनों तक चले इस होली महोत्सव में करीब 800 विधवाओं ने हिस्सा लिया. यह एक अच्छी पहल है लेकिन दुखद यह है कि उन्हें आज भी न तो रंगों से रंगने की इजाजत है और न ही अपनी कोठरियों से बाहर की दुनिया के लोगों के साथ होली खेलने की. अचंभा यह है कि दूसरे धर्म के ठेकेदारों को विधवाओं का फूलों से होली खेलना भी बरदाश्त नहीं हुआ और उन्होंने धर्म और परंपरा का डंडा दिखा कर उन्हें धमकाने का प्रयास शुरू कर दिया ताकि  वे अपनी लक्ष्मणरेखा में रहें जो धर्म ने उन के लिए खींची है.

एक मंदिर के पुजारी का साफ कहना है कि यह हमारी पुरातन संस्कृति का उल्लंघन है. रामलीला में अभिनय करने वाले एक कलाकार ने समारोह की आलोचना करते हुए कहा, ‘‘यह बेहतर होता यदि इन विधवा महिलाओं ने ठाकुर जी को रंग और गुलाल अर्पित किया होता. जिस तरह उन्होंने एकदूसरे के साथ होली खेली वह ठीक नहीं है.’’

ये वे आलोचक हैं जो स्वयं होली पर लुटिया भरभर भांग पी कर नशे में धुत्त हो जाते हैं. धर्म के इन दकियानूसी ठेकेदारों की नींद उस समय नहीं खुलती जब विधवाओं के शवों पर आरा चलाया जा रहा होता है, लेकिन जब ये परंपराओं और धर्म की जंजीरों से निकलने की कोशिश करती हैं तो धर्म के ठेकेदारों के पेट में दर्द शुरू हो जाता है.

रूढि़वादी परंपराओं के नाम पर उन्हें यह तो मंजूर है कि इन विधवाओं के शवों के टुकड़े कर फेंक दिए जाएं लेकिन यह गवारा नहीं कि ये कंकाल जैसे शरीर किसी खुशी का एहसास भी कर सकें.

यही कारण है कि हाल ही में जब वृंदावन की विधवाओं ने मात्र फूलों की होली खेली तो धर्म के इन ठेकेदारों की त्यौरियां चढ़ गईं. सुधारकों की असली हिम्मत तो तब मानी जाती जब वे उन्हें आम औरतों की तरह रंगों से किसी से भी होली खेलने का न्योता देते.

धर्म के ठेकेदारों में खलबली

विद्वानों का मानना है कि किसी संस्कृति को अगर समझना है तो सब से आसान तरीका है कि आप उस संस्कृति में स्त्रियों के हालात को समझने की कोशिश करें. 

भारत की स्त्रियों की दशा समझने के लिए किसी इतिहास को टटोलने की जरूरत नहीं. इन विधवाओं की दुर्दशा सबकुछ स्वयं बयां कर देती है. ये सदियों पहले भी धर्माधिकारियों के चंगुल में फंसी थीं और आज भी उन्हीं पुरानी रूढि़यों का दंश झेल रही हैं. आखिर क्यों विधवाओं को अंधेरी कोठरियों में सड़नेमरने के लिए छोड़ दिया जाता है? इन का क्या दोष होता है? स्वयं इन के परिवार वाले और समाज इन के प्रति इतने संवेदनहीन और कठोर क्यों बने रहते हैं? इन सवालों के जवाब हमारे धर्मग्रंथों में विस्तार से दिए गए हैं.

रामचरितमानस इस बात का प्रबल समर्थक है कि पति के न रहने पर स्त्री के लिए संसार यमराज की यातना के समान है.      (अयोध्याकांड, 65-2,3)

आग और स्त्री का रिश्ता मानो सदियों से नारी को घुट्टी में पिलाया जाता रहा है. रामचंद्र एक बार सीता को निर्देश देते हैं, ‘जब तक मैं राक्षसों का नाश करूं तब तक तुम अग्नि में निवास करो.’             (अरण्यकांड, 42-1)

यह मानसिक व व्यावहारिक रिवाज सदियों से चला आया है और स्त्री अकसर इस का शिकार हुई है, कभी मूर्ख बन कर तो कभी अबोध रह कर. 

धर्मशास्त्रीय साहित्य में परलोक संबंधी अनेक प्रलोभन दिखा कर स्त्री को आत्महत्या के लिए उकसाया गया है :

तिस्र: कोद्योर्द्धकोटी च यानि
लोमानि मानवे,
तावत्काल वसेत् स्वर्गे भर्तारं
याह्यनु गच्छति
व्यालग्राही यथाव्याल बलादुद्धरते
बिलांत् एवं स्त्री पतिमुधृत्य
तेनैव सह मोदते.

जो स्त्री पति के साथ उस की चिता पर मरती है वह साढ़े 3 करोड़, जितने कि मनुष्य के शरीर पर रोम होते हैं, वर्षों तक पति के साथ स्वर्ग में रहती है.

(पराशरस्मृति, आ. 4, ब्रह्मपुराण एवं गौतमी माहात्म्य 10/76,74, दक्षस्मृति, 4/18-19, गरुड़पुराण 10/51)

कहने का तात्पर्य है कि यदि पत्नी अपने पति के शव के साथ नहीं जलती तो वह बारबार नारी के रूप में जन्म लेती है. यानी नारी रूप को इतना अधिक पापयुक्त माना गया है कि इस पाप से मुक्ति का रास्ता पति के साथ जल कर मर जाने को बताया गया है.

अर्थात स्त्रियों के लिए पति की चिता पर जल मरना सब पापों का नाश करने वाला और नरक से बचाने वाला है. इस तरह के पारलौकिक भय और प्रलोभन दिखाने के बाद भी धर्म की कू्ररता शांत नहीं हुई. गरुड़पुराण सती न होने वाली नारियों को गालियां देते हुए कहता है कि जो नारी इतने लाभ की परवा न कर के क्षण भर के जलने के दुख के कारण सती नहीं होना चाहती, वह मूर्ख है.

सुधार की उम्मीद

वृंदावन में रहने वाली विधवाओं की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का जायजा लेने के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त 7 सदस्यों की समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ये विधवाएं बेहद दयनीय हालत में जी रही हैं. न्यायमूर्ति डी के जैन की पीठ को सौंपी गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि  विभिन्न गैर सरकारी संगठन इन विधवाओं का शोषण कर रहे हैं और विधवाओं के कल्याण के लिए किए गए उपायों का लाभ उन तक नहीं पहुंच रहा है, दूसरे लोग इन का लाभ उठा रहे हैं.

साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट में लीगल सर्विस अथौरिटी की ओर से दायर एक शपथपत्र में मथुरा के जिला जज ने कहा था कि विधवाओं का उचित अंतिम संस्कार न होने की जांच की गई थी. जांच के दौरान ही एक विधवा ने गवाही दी थी जिस में उस ने कहा, ‘‘आश्रम में रह रही कोई विधवा जब मर जाती है तो इतना पैसा नहीं होता कि उस क ा अंतिम संस्कार हो सके. विधवा महिलाएं इस के लिए सफाईकर्मी को बुलाती हैं जो शव को कई टुकड़ों में काट कर उसे बोरी में भरता है और फिर कहीं फेंक देता है क्योंकि साबुत शव को वह बोरी में नहीं ले जा सकता.’’ 

विधवा महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए किया गया आयोजन एकदम अधूरा है. इन विधवाओं के खिलाफ सामाजिक पूर्वाग्रह को समाप्त करने की दिशा में यह कोई कारगर कदम नहीं है. इसे क्रांतिकारी नहीं, परंपरावादी ढकोसला ही कहा जा सकता है.

सदियों की देन

हमारे समाज में आज खुलेआम लड़कियों के साथ छेड़छाड़, उन का बलात्कार, पति द्वारा पत्नियों के साथ मारपीट, उन का अपमान, विधवाओं को नारकीय जीवन जीने पर मजबूर करना आदि कोई एक दिन की बात नहीं है, इस की जड़ें सदियों पुरानी उस जमीन की उपज हैं जहां धर्म ने स्त्री के तिरस्कार के बीज बोए थे और  पुरुषों के द्वारा स्त्रियों के जीने के नियमकायदे बनाए थे. उन में विधवा स्त्री की हालत सब से बदतर रखी गई.

विधवा यदि हंसे तो कुलटा है, चुपचाप रहे तो वह मनहूस है. हिंदू विधवा भारतीय समाज में सब से अधिक निराश्रित प्राणी है. उस के लिए संसार अंधकारमय होता है. वैधव्य की कालिमा उस के जीवन के अस्तित्व को ढक देती है. इस अंधकार में वह स्वयं नहीं जान पाती कि वह कहां जाए.

सती न होने वाली स्त्रियों को अभागिनी व पापिनी नाम से पुकारा जाता था. सुहागिन स्त्रियां उन की परछाईं से दूर भागती थीं. लोग उन्हें व्यभिचारिणी और दुराचारिणी तक की संज्ञा दे देते थे. उस का उपभोग करने का प्रयास किया जाता था. उसे डायन, हत्यारिन कहा जाता था. 

ग्रंथों के अनुसार विधवा के लिए साजसज्जा, शौक की वस्तुएं, गहने, अच्छे कपड़े आदि का पहनना मना है. इसी के चलते यदि कभी कोई विधवा थोड़े अच्छे कपड़े पहन ले या सही ढंग से बाल संवार ले तो वह लोगों के बीच चर्चा का विषय बन जाता है. हालांकि वर्ष 1829 में ब्रिटिश शासकों ने सती प्रथा को समाप्त कर दिया था. यह हिंदू स्त्री के प्रति होने वाले अन्यायों को आंशिक रूप से मिटाने का प्रयत्न था. फिर भी विधवाओं पर अत्याचार होते रहे, क्योंकि यह एक प्रथा बन चुकी थी. पति की मृत्यु पत्नी के पिछले जन्म के पापों के कारण होती है, यह धारणा व्यापक रूप से प्रचलित थी.

संवेदनहीन क्यों है समाज

वक्त की मार झेली, अपनों ने गहरे जख्म दिए, उपेक्षा की शिकार हुईं और अंत में वृंदावन में ला कर छोड़ दी गईं. वृंदावन, करीब 500 वर्षों से विधवाओं के लिए आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है. यहां विधवाएं अपनी अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा ले कर आती हैं.

वे यहां फटेहाल, भीख मांग कर अपना पेट भरती हैं या भजनाश्रमों में भजन करने के बदले उन्हें 2 रुपए प्रतिदिन दिए जाते हैं. इस के लिए भी उन्हें मंदिरों के पुजारियों के हाथपैर जोड़ने पड़ते हैं ताकि भजनकीर्तन  में उन का नंबर आ सके.

एक आंकड़े के मुताबिक, वृंदावन में करीब 5-6 हजार विधवाएं सरकारी और गैरसरकारी आश्रमों में रहती हैं. फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों, मंदिरों की चौखट पर पड़ी रहने वाली व वहीं दम तोड़ देने वाली बूढ़ी विधवाओं की गणना कभी नहीं की गई. आश्रम संचालक आपसी मिलीभगत से इन विधवाओं को मिलने वाला पैसा हड़प लेते हैं और उन के इस भ्रष्टाचार की भनक बाहर किसी कोे न लगे, इस के लिए इन विधवाओं को आश्रम में कैद कर के रखा जाता है.

ठिठुरती ठंड और चिलचिलाती धूप में विधवाएं झुकी कमर के साथ मीलों चल कर भजन आश्रमों तक भजन करने जाती हैं ताकि इस के बदले में मिले 2 रुपए से दालभात खा कर पेट भर सकें.

इन की दुर्दशा की कहानी यह भी है कि जब ये ठटरियां भूख से मर जाती हैं तो कईकई दिनों तक इन के शव सड़क पर पड़े रहते हैं. इन्हें उठाने वाला कोई नहीं होता.

वृंदावन में आने वाले छोटेबड़े व्यापारी और अन्य देशी व विदेशी पर्यटक वृंदावन के मंदिरों व भजनाश्रमों में लाखोंकरोड़ों का चढ़ावा चढ़ाते हैं इस उद्देश्य से कि इस से यहां अपने जीवन के अंतिम समय में आए वृद्ध स्त्रीपुरुषों व विधवाओं का पालनपोषण होता रहे. लेकिन यह सारा चढ़ावा मंदिरों व भजनाश्रमों के पंडों, पुजारियों की तिजोरियों में चला जाता है. सरकारी पैंशन और अन्य सुविधाएं दलाल इन अनपढ़ विधवाओं तक पहुंचने से पहले ही मिलबांट कर खा जाते हैं और इन्हें जानवरों की तरह सड़कों पर मरने के लिए छोड़ देते हैं.

इन की ऐसी स्थिति देख कर लोगों का खून उबाल जरूर मारता है लेकिन हम में से कितने लोग हैं जो अपने बुजुर्गों को सम्मान देने व उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं? ये विधवाएं एक तरफ धर्म की शिकार हैं तो दूसरी तरफ अपनों और समाज की संवेदनहीनता झेल रही हैं. यह सिलसिला आखिर कब थमेगा?

क्यों कोई सूरज नहीं पहुंचता इन की अंधेरी कोठरियों तक? वह कौन सी रोशनी होगी जो बरसों से जमे गाढ़े अंधेरे को काट पाएगी? जरूरत औरत को पूजने की नहीं है बल्कि उसे इंसान रहने देने की है. उन्हें समाज से जोड़ना है तो पाखंड न किया जाए, पूरी तरह जोड़ा जाए. होली खिलवाना था तो आम औरत का दरजा दे कर खिलवाते.

रातभर

नींद पलकों पर बैठी रही रातभर
याद में तेरी सोया नहीं रातभर

तू हवा की तरह बस महकती रही
मुझ को बहला के जाती रही रातभर

पल गए, छिन गए, रात भी कट गई
पास तू छिप के हंसती रही रातभर

मेरी आंखों में जुगनू चमकते रहे
तू भी पूनम सी जगती रही रातभर

ख्वाब तकिए के नीचे छिपे थे कहीं
तू उन्हें गुदगुदाती रही रातभर

रातभर मैं तुझे देखता ही रहा
तू सजतीसंवरती रही रातभर.

वो खिड़की

याद है तुम्हें कितना गुस्सा हुए थे तुम

जब पलट कर देखना बंद कर दिया मैं ने

चुप रहने लगी थी अपनेआप में बंदबंद

तुम्हें देख कर भी अनदेखा कर देती थी

खिड़की जानबूझ कर बंद कर ली थी

कि तुम्हें देख न सकूं

हालांकि अपनी हर कोशिश के बाद

भर आता था मन

आंखों में चुभन से सने हुए आंसू लिए

सब से अलग चलने लगती थी

तेज कदमों से भीतर के तूफान के साथ

कदम से कदम मिलाते हुए

मुश्किल होता था तुम्हें अनदेखा कर देना

तुम्हें लगा, मैं अलग हो रही हूं तुम से

यह सोच लिया था तुम ने कैसे

तुम्हारा गुस्सा फूट पड़ा था मुझ पर

जब मैं अचानक सामने आई थी तुम्हारे

तुम ने अपना मुंह घुमा लिया था

तिरस्कृत मेरा मन बहुत देर तक

कुछ भी नहीं सोच पाया था

सिवा वितृष्णा के

जो तुम्हारे चेहरे पर पढ़ा था मैं ने

हार गई थी अपनी ही कोशिशों से

तुम्हें प्यार करने से खुद को रोकना

अपमानित करना था अपने अस्तित्व को

तुम ने नाराज हो कर

मुझे नाराज होने से रोक दिया था

प्रेम में धुत्त

अब मैं ने खोल दी थी वो खिड़की

जहां से गुजरते थे हमारे मूक संवाद.

स्टैच्यू औफ लिबर्टी

सितंबर 2001 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका की यात्रा सैलानियों और छात्रों के लिए एक बुरा स्वप्न सी हो गई है. सुरक्षा जांच के नाम पर होने वाली जटिल व सघन प्रक्रिया किस तरह से अमेरिका को विदेशी यात्रियों से दूर कर रही है, बता रहे हैं महेंद्र राजा जैन.

11सितंबर, 2001 को लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे. इस दिन आतंकवादियों ने भले ही न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आक्रमण कर उसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया हो, उस के परिणाम आज 12 वर्ष बाद भी पूरी दुनिया में, विशेषकर हर देश के हवाई अड्डों पर देखे जा सकते हैं. आजकल हवाई जहाज से यात्रा करने वालों की हवाई अड्डों पर जिस प्रकार सघन जांचपड़ताल की जाती है, उड़ान के लिए निर्धारित समय से 2 या 3 घंटे पूर्व तक एअरपोर्ट पहुंचना पड़ता है, सामान चैक कराने के बाद हवाई जहाज पर चढ़ने के पूर्व जिस प्रकार तलाशी ली जाती है और पासपोर्ट पर आप का फोटो होने के बाद भी जिस तरह आप के चेहरे को किसी आत्मघाती आतंकवादी के चेहरे से मिलाने की कोशिश की जाती है, इस की सामान्य जन कल्पना भी नहीं कर सकते. भुक्तभोगी ही इसे जान सकते हैं. ये सब देख कर इच्छा हो उठती है कि भविष्य में फिर कभी हवाई जहाज से यात्रा नहीं की जाए. पर नहीं, इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं है.

इसे भी क्या संयोग ही कहा जाना चाहिए कि ब्राजील की यात्रा से लौटे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि बेटे ने कहा, अमेरिका चलना है. यद्यपि 3 वर्ष पूर्व मैं अमेरिका जा चुका था पर उस बार लास एंजिल्स, हौलीवुड, लास वेगास की तरफ गया था. इस बार न्यूयार्क, वाश्ंिगटन, फ्लोरिडा, आरलेंडो जाना था.

न्यूयार्क में जेएफके एअरपोर्ट पर हवाई जहाज उतरे डेढ़ घंटे से ऊपर हो चुका था और अभी तक हम इमिग्रेशन काउंटर से आगे नहीं बढ़ पाए थे. लंदन में भी हवाई जहाज पर चढ़ने के पूर्व अच्छी तरह तलाशी ली जा चुकी थी, चैकिंग हो चुकी थी. गंतव्य पर पहुंचने के बाद फिर वैसी ही नहीं बल्कि उस से भी ज्यादा गहन चैकिंग का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था. बोर्डिंग यानी प्लेन पर चढ़ते समय चैकिंग के कारण हुई देरी की बात तो समझ में आती थी पर हवाई जहाज से उतरने के बाद पासपोर्ट आदि कागजात ठीक होने के बावजूद एअरपोर्ट से बाहर निकलने में इतनी देर होने का कोई औचित्य समझ में नहीं आ रहा था. हम लोग ही नहीं, सभी यात्री ऐसा ही सोच रहे थे.

इस समय जान पड़ता है कि अमेरिका ने सारी दुनिया में ‘फ्रीडम’ यानी स्वतंत्रता निर्यात करने का ठेका लिया हुआ है. शायद इसी कारण उसे पहले अफगानिस्तान, फिर इराक में वह सब करना पड़ा जिस के विषय में पहले कभी किसी ने कुछ  सोचा क्या, कल्पना भी नहीं की होगी. पर आज स्वयं अमेरिका में वहां के लोग कितने स्वतंत्र हैं, यह वहां पहुंच कर ही पता चलता है.

आज पूरा अमेरिका ‘पैट्रिऔट’ ऐक्ट की गिरफ्त में है. वैसे तो अंगरेजी में पैट्रिऔट का अर्थ होता है देशभक्त, पर यहां इस का अर्थ होता है आतंकवाद अंतररोधन करने या रोकने के लिए उपयुक्त साधनों को सुलभ करना. कहने का अर्थ यही है कि आज अमेरिका में जो कुछ भी हो रहा है या किया जा रहा है, वह आतंकवाद को रोकने, उस पर अंकुश लगाने के लिए ही किया जा रहा है. पर मैं तो इसे आतंकवाद के नाम पर परेशान करना ही कहना चाहूंगा. यह अमेरिका में जितना अधिक उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देखा जा सकता है वैसा शायद किसी अन्य क्षेत्र में नहीं.

यदि हवाई जहाज से यात्रा करने वाले इस बात के शुक्रगुजार हैं कि अभी तक कोई भी यात्री नहीं पकड़ा गया है जिस के पास हथियार हों या जो आतंकवादी हो तो अमेरिका के विश्वविद्यालयों के अधिकारियों के लिए यह बुरी खबर है. आमतौर पर वे इसे अपने लिए अभिशाप मानते हैं कि 11 सितंबर, 2001 की घटना के लिए जिम्मेदार सऊदी आतंकवादी अमेरिका का ‘स्टूडैंट वीजा’ ले कर आए थे. शायद यही वजह है कि आज पैट्रिऔट ऐक्ट का शिकंजा जिस मजबूती से अमेरिकी विश्वविद्यालयों पर है वैसा अन्यत्र नहीं. सुरक्षा की आड़ में आज कैंपस की पुलिस एफबीआई के प्रति जिम्मेदार कर दी गई है यानी एफबीआई से संपर्क बनाए रख कर ही कैंपस की पुलिस कुछ कर सकती है. यही स्थिति अमेरिकी कालेजों के पुस्तकालयाध्यक्षों की है. अली, मुहम्मद, रजा या फारूख किन विषयों की पुस्तकें पढ़ते हैं, यह सूचना एफबीआई को पुस्तकालयों से ही तो मिलेगी.

आज विश्वविद्यालयों के लिए सरकारी आदेश के तहत यह आवश्यक कर दिया गया है कि मुसलिम और अरब विद्यार्थियों (विशेषकर उन देशों से आए विद्यार्थी जिन के अलकायदा से अच्छे संबंध हैं या जो जाहिर तौर पर इस संगठन को सहायता देते हैं) के संबंध में इमिग्रेशन विभाग को विश्वस्त सूचनाएं दें.

फरवरी 2003 में अमेरिका की आईएनएस (इमिग्रेशन ऐंड नैचुरलाइजेशन सर्विस) ने कुछ खास अरब व मुसलिम देशों के 44 हजार से अधिक लोगों के फिंगर प्रिंट लिए थे. इन में छात्रों की संख्या ही अधिक थी. कुछ ऐसे लोगों से मिलने पर पता चला कि उन्होंने अपने साथ इस प्रकार का व्यवहार किए जाने पर खुद को बहुत अपमानित महसूस किया.

मुसलिम और अरब देशों के छात्रों पर अब शिकंजा और भी कसता जा रहा है. सितंबर 2003 से सभी कालेजों के लिए आवश्यक कर दिया गया कि सेवी यानी स्टूडैंट ऐंड ऐक्सचेंज विजिटर इन्फौरमेशन के प्रावधानों के अंतर्गत वे अपने यहां पढ़ने वाले सभी विदेशी छात्रों के संबंध में पूरी सूचना सरकारी कार्यालयों में दर्ज कराएं. कहा तो यही गया कि इस का उद्देश्य अमेरिका में विदेशी विद्यार्थियों की सूची तैयार करना है, लेकिन न्यूयार्क विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस आदेश पर इस आधार पर आपत्ति की है कि न्यूयार्क शुरू से ही अमेरिका में विदेशी छात्रों के लिए खुला द्वार रहा है.

इसलिए इस से बुरी बात और क्या हो सकती है. अब तो स्थिति यह है कि छात्रों को अपने वीजा के नवीनीकरण में भी कठिनाई हो रही है. पर्याप्त कागजात न होने का कारण बता कर भी अब बहुत से छात्रों को देश छोड़ने का आदेश दे दिया गया है. जो लोग अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए बाहर से यानी अपने देश से आवेदन करते हैं उन की स्थिति तो और भी बदतर है. ‘सेवी’ में शामिल होने के लिए आवेदनकर्ताओं को पहले अपने देश में अमेरिकी अधिकारियों (दूतावास के कर्मचारियों) के समक्ष साक्षात्कार देना होता है. पर उस में भी तरहतरह की बाधाएं हैं. उन सभी बाधाओं को पार करने में करीब 1 वर्ष का समय लग जाता है. यह नियम केवल मुसलिम और अरब आतंकवादियों के संदेह वाले देशों पर ही नहीं वरन सभी देशों के लिए है.

कुछ समय पूर्व न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट स्कूल औफ आर्ट्स ऐंड साइंस की डीन कैथरीन स्ंिटप्सन का एक लेख छपा था, ‘विदेशी छात्र आवेदन नहीं करें.’ इस लेख में उन्होंने लिखा था कि हमारे कुछ बहुत ही प्रतिभाशाली आवेदनकर्ताओं का आवेदन बिना कोई कारण बताए 5 मिनट से भी कम समय के साक्षात्कार के बाद अस्वीकृत कर दिया गया है. यदि छात्रों की शैक्षणिक योग्यता पर ध्यान न दे कर उन्हें इसी प्रकार अस्वीकृत कर दिया जाता रहा तो ‘सेवी’ की सेवा पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है.

अपने कार्यालय से बाहर कैथरीन स्ंिटप्सन को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर की दोनों मीनारों की खाली जगह अच्छी तरह दिखाई देती है, पर सेवी में रहते हुए वे अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं. खासतौर से एक शिक्षाविद होने के नाते वे अपने को और भी गरीब महसूस करती हैं. स्ंिटप्सन के अनुसार, अमेरिका के एक-तिहाई नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका में पैदा नहीं हुए थे. इंजीनियरिंग जैसे विषयों के 50 प्रतिशत से अधिक ग्रेजुएट ‘अंतर्राष्ट्रीय’ रहे हैं. आज यह देख कर दुख होता है कि अपनी जिन विशेषताओं के कारण अब तक यह देश ‘बड़ा’ कहलाया जाता रहा है, आज उन्हीं का वहां हनन हो रहा है. ऐसी स्थिति में क्या यह उचित नहीं होगा कि ‘स्टैच्यू औफ लिबर्टी’ का नाम बदल कर ‘स्टैच्यू औफ सिक्योरिटी’ कर दिया जाए?

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