विश्व की दो उभरती महाशक्तियों में शुमार किए जाने वाले भारत और चीन कमोबेश एक जैसे हालात से गुजर रहे हैं. चीन भी भ्रष्टाचार की जबरदस्त गिरफ्त में है. अमीरगरीब के बीच खाई गहरी होती जा रही है. ऐसे में चीन के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा. साथ ही भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से भी उन की भूमिका अहम होगी. जायजा ले रहे हैं जितेंद्र कुमार मित्तल.

चीन की राजनीति में अभी तक सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी पर उस पुरानी पीढ़ी के नेताओं का आधिपत्य रहा था जो माओ के क्रांतिकारी आंदोलन से बहुत करीब से जुड़े रहे थे, लेकिन इस बार के सत्ता परिवर्तन में पहली बार इस से अगली पीढ़ी के किसी व्यक्ति को देश का राष्ट्रपति चुना गया है. चीन के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने देश की उस अपेक्षाकृत नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद पैदा हुई.

चीन की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक क्रांति के दौरान शी ने अपने जीवन के 7 साल घोर गरीबी से ग्रस्त शांक्शी प्रांत में बिताए और उन के पिता शी झोंगशुन, जो कम्युनिस्ट क्रांति के अग्रणी नेताओं में से एक थे, को माओ के कोप का भाजन बनना पड़ा और उन्हें पार्टी से बाहर खदेड़ दिया गया.

वर्ष 1969 में 15 वर्षीय शी को किसानों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक गांव भेज दिया गया, जहां उन्होंने खाद व कोयला ढोने का काम किया. इस दौरान एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें व उन के गांव के दूसरे लोगों को पेड़ की छाल तथा घासफूस खा कर अपना पेट भरना पड़ा और महिलाओं व बच्चों को भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा.

कुछ लोगों का यह मानना है कि शी के पिता के माओ के साथ सैद्धांतिक मतभेद होने के कारण पार्टी से बाहर निकाले जाने के बाद शी को भी सबक सिखाने के लिए ही यह सबकुछ किया गया और उन से बदला लेने के लिए उन्हें 20 साल की उम्र तक कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी नहीं बनाया गया. इस दौरान उन्होंने पार्टी की सदस्यता हासिल करने के इरादे से 10 बार अपना प्रार्थनापत्र पार्टी के कार्यालय में भेजा, लेकिन हर बार उसे नामंजूर कर दिया गया.

अपने उन दिनों के बारे में शी के मन में कोई कड़वाहट नहीं है. आज से 13 साल पहले उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘इस सब से मैं कभी निराश नहीं हुआ और न कभी मेरे मन में किसी हीन भावना ने जन्म लिया. मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा कि पार्टी में खराब लोगों के बजाय अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है. जिस तरह छुरी को पत्थर पर घिस कर पैना किया जाता है उसी तरह लोग भी विपरीत परिस्थितियों में ही मजबूत बनते हैं.’

अब जब शी चीन के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं, उन का देश भी उन के बचपन व जवानी के दिनों की भुखमरी व गरीबी से ग्रस्त एक देश से ऊपर उठ कर दुनिया का दूसरे नंबर का खुशहाल देश बन चुका है और अगले दशक में वह दुनिया की सब से बड़ी व खुशहाल अर्थव्यवस्था वाले मुल्क में परिवर्तित होने की कगार पर खड़ा है.

आज चीन भी भारत की ही तरह नेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार से बुरी तरह ग्रस्त है. जब पिछले साल नवंबर में 59 वर्षीय शी को कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव व चीन की सेना का प्रमुख बनाया गया था तो उस समय इन निहित हितों वाले राजनीतिज्ञों ने शायद यह सोचा होगा कि शी उन के हितों की रक्षा करेंगे और वे कभी भी उन की राजनीतिक दुकानदारी में हस्तक्षेप नहीं करेंगे लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपना जो पहला बयान दिया उस ने इन सभी लोगों को चौकन्ना कर दिया. उन्होंने यह ऐलान किया है कि पार्टी व सरकार को जनता से जोड़े रखने के लिए यह जरूरी है कि भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म किया जाए.

शी व प्रधानमंत्री ली ने सत्ता की बागडोर ऐसे कठिन समय में संभाली है जब आंतरिक दबाव बहुत ही बढ़ गए हैं. धनवान व गरीब वर्ग के बीच की दिनोंदिन गहरी होती खाई, घोर भ्रष्टाचार में गले तक डूबा सरकारी तंत्र, अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दूषित पर्यावरण, धीमी पड़ती आर्थिक विकास की दर और इन सारी समस्याओं के बीच चीन की एक बड़ी तादाद में युवा पीढ़ी, जिस की महत्त्वाकांक्षाएं इंटरनैट के द्वारा पूरी दुनिया से जुड़ जाने के कारण दिनबदिन बढ़ती जा रही हैं, इन सब चीजों ने देश में विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है. अगर जल्दी ही इन समस्याओं का कोई कारगर हल नहीं निकाला गया तो मुमकिन है कि चीन का गरीब तबका देश की युवा पीढ़ी के साथ मिल कर एक बार फिर किसी दूसरी क्रांति का बिगुल बजाने के लिए मजबूर हो जाए.

अब चूंकि शी सेना, पार्टी तथा सरकार, इन तीनों के प्रमुख बन गए हैं और सत्ता के सभी सूत्र उन के हाथ में आ गए हैं, उन से यह उम्मीद की जाती है कि वे चीन को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे और बरसों तक फलनेफूलने वाली अर्थव्यवस्था में जो धीमापन तथा ठहराव आ गया है उसे वे फिर से गति प्रदान कर सकेंगे. शी सरकार व अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और सुधार के हिमायती हैं.

नवनियुक्त प्रधानमंत्री ली केशियांग ने उन के विचारों का समर्थन करते हुए यह घोषणा की है कि वे सरकारी खर्च पर लगाम लगाने के लिए कर्मचारियों के वेतन में तो कटौती करेंगे ही, साथ ही अधिकारियों की विदेश यात्राओं व ऐसे ही दूसरे गैरजरूरी खर्चों पर पाबंदी भी लगाएंगे. उन्होंने कहा, ‘‘केंद्रीय सरकार इस दिशा में एक उदाहरण पेश करेगी और सभी राज्य सरकारों को उस का अनुसरण करना होगा.’’

राष्ट्रपति शी व प्रधानमंत्री ली को मिल कर चीन को सस्ते माल का बड़े स्तर पर उत्पादन करने वाले उद्योगों से निकाल कर विश्व के बाजार में चीन के उत्पादनों की साख स्थापित करनी होगी और वित्त, सेवाओं व पर्यटन जैसे दूसरे क्षेत्रों में विकास के नए दरवाजे खोलने होंगे.

शी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी मजबूत बनाना चाहते हैं, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि पदग्रहण के तुरंत बाद उन्होंने घोषणा की कि वे अमेरिका व एशिया के दूसरे देशों के साथ अपने रिश्तों को और मजबूत बनाने का प्रयास करेंगे और वे इन रिश्तों को चीन के हित में मानते हैं. ‘ब्रिक्स’ देशों के पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने भारत के संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया कि भारत व चीन के बीच का सीमा विवाद इतिहास की एक ऐसी जटिल विरासत है जिस का हल निकालना आसान नहीं होगा. इतनी साफगोई से इस समस्या को स्वीकार करने वाले वे शायद चीन के पहले नेता हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘‘दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण बातचीत जारी रख कर ही इस समस्या का कोई ऐसा सही व न्यायसंगत हल निकाला जा सकेगा जो दोनों देशों को मान्य होगा.’’

शी का मानना है कि सीमा विवाद से जुड़ी तकनीकी समस्याओं के साथसाथ कुछ संवेदनशील तथा भावनात्मक चीजें भी इस से जुड़ी हैं. अरुणाचल प्रदेश के जिस इलाके पर चीन अपना हक जता रहा है, वहां लोगों की एक बहुत बड़ी आबादी है. वार्ताकारों को दोनों देशों के आम आदमियों की भावनाओं का भी ध्यान रखना पड़ेगा. शी ने भारतचीन संबंधों को एक नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए दोनों देशों के बीच सभी क्षेत्रों में निकट सहयोग का आह्वान करते हुए कहा कि दोनों देशों को सीमा से लगे इलाकों में शांति बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए और सीमा विवाद से ऊपर उठ कर हमें अपने रिश्तों के चहुंमुखी विकास का प्रयास करना चाहिए. उन्होंने दोनों देशों के संबंधों को मजबूत बनाने के लिए नए पंचशील के सिद्धांत पर जोर दिया.

तिब्बत का मसला

तिब्बत हमेशा भारत और चीन के रिश्तों में तनाव की एक वजह रहा है. चीन तिब्बत पर नियंत्रण का दावा करता है पर तिब्बत का कहना है कि वह शुरू से स्वायत्त रहा है इसलिए उस की स्वतंत्रता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए. 1962 में भारत और चीन के बीच तिब्बत और अक्साई चिन क्षेत्रों को ले कर युद्ध हुआ. इस युद्ध में भारत हार गया था. इस से पहले तिब्बत राजाओं के अधीन रहा था. बाद में कुछ समय ब्रिटिशर्स के नियंत्रण में रहा लेकिन 1951 तक तिब्बत ने अपनी स्वायत्तता को बनाए रखा. हालांकि सैन्य संघर्ष द्वारा तिब्बत को चीन में मिलाने के प्रयास चलते रहे. 1959 में तिब्बत विद्रोह विफल हो गया तो दलाई लामा भारत भाग आए. तब से वे यहां धर्मशाला में रह कर निर्वासित सरकार चला रहे हैं.

दरअसल, दलाई लामा 1959 में चीन के शासन के खिलाफ एक असफल क्रांति के बाद?भारत में पलायन कर गए तो भारत सरकार ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक मदद भी की. चीन ने दशकों तक लामा के खिलाफ प्रचार किया कि वह इस हिमालयी क्षेत्र को चीन के शासन से अलग करना चाहते हैं पर दलाई लामा की दलील यह थी कि वे तिब्बत के लिए केवल अधिक स्वायत्तता चाहते हैं.

दरअसल, तिब्बत का मसला ब्रिटिश शासन के समय से और उस के बाद की कुछ परिस्थितियों की वजह से लगातार अनसुलझा बना रहा और दोनों देशों के बीच रिश्तों में कड़वाहट पैदा करता रहा. हालांकि 1979 से दलाई लामा के नुमाइंदों और चीनी सरकार के दूतों के बीच बातचीत की प्रक्रिया चलती रही है. दोनों के बीच आखिरी बातचीत 2010 में हुई थी पर दलाई लामा के सीधी बात करने से इनकार कर देने से चीन ने तिब्बत मसले पर होने वाली प्रगति में अडं़गा डाल दिया. वैसे चीन ने पहले ही अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी कि वह दलाई लामा से कोई समझौता नहीं करेगा.

असल में चीन नहीं चाहता कि दलाई लामा तिब्बत की जमीन पर कदम रखें क्योंकि वह जानता है कि ऐसा हुआ तो लामा आसानी से तिब्बती अस्मिता के केंद्र बन जाएंगे. इसलिए चीन रणनीतिक तौर पर तिब्बत पर सैन्य दबाव कायम कर रहा है. तिब्बत के पठार पर जिस तरह से चीन ने सैन्यीकरण कर लिया है वह भी भारत और चीन के जटिल रिश्तों के बीच एक अहम पेच है.

शी के पंचशील के इन सिद्धांतों में सामरिक महत्त्व के विषयों पर बातचीत का दरवाजा हमेशा खुला रखना, एकदूसरे की क्षमताओं को समझते हुए इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना, सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत बनाना व दोनों देशों के लोगों के बीच के मैत्रीपूर्ण रिश्तों को और मधुर बनाना, विकासशील देशों के हितों की रक्षा करने व वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए पारस्परिक सहयोग को बढ़ाना और आखिर में पारस्परिक मूलभूत समस्याओं को समझ कर एकदूसरे के साथ सहयोग करना व दोनों देशों के बीच की समस्याओं के हल के लिए सतत प्रयत्नशील रहना शामिल है.

अगर भारतीय दृष्टिकोण से चीन व भारत के पारस्परिक संबंधों पर गौर करें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि चीनी चीजों का आयात करना व चीनी वित्तीय संस्थाओं से कर्जा लेना बहुत सरल है, लेकिन भारत से चीजों व सेवाओं का निर्यात करना बहुत कठिन बन गया है.

यही वजह है कि दोनों देशों का पारस्परिक व्यापार बहुत असंतुलित हो गया है. ऐसी हालत में हमारी सरकार को शी व उन के साथियों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे अपने बाजार हमारे लिए खोल दें जिस से दोनों देशों के व्यापार में संतुलन स्थापित किया जा सके.

दोनों देशों के बीच की दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के पानी के इस्तेमाल की है. चीन यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है कि उस के द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर हर नया बांध बनाने के साथ ही यह समस्या और अधिक गंभीर होती चली जा रही है. अब तक भारत कई बार इस समस्या पर चीन से बात करने की कोशिश कर चुका है. लेकिन चीन की तरफ से इस दिशा में खोखले आश्वासनों के अलावा और कुछ नहीं मिला है.

भारत में चीनी कंपनियां

निवेश के उद्देश्य से भारत ने चीनी कंपनियों को आमंत्रित किया. इन कंपनियों को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजैक्ट जैसे डैडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर, सबवे लाइंस, स्पैशल इकोनौमिक जोन के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मौडल के तहत बुलाया गया. भारत में ढांचागत सुविधाओं के निर्माण में कुछ कंपनियां काम कर रही हैं.

भारत में 9 चीनी कंपनियां जौइंट वेंचर में 556 मिलियन डौलर की 6 हाईवे परियोजनाओं पर काम कर रही हैं. इन में से 3 हाईवे प्रोजैक्ट पूरे हो चुके हैं. इन के अलावा चीनी आटोमोबाइल और इलैक्ट्रौनिक्स कंपनियां भी भारत में काम कर रही हैं.

पिछले डेढ़ दशक से भारत और चीन के बीच व्यापार कई गुणा बढ़ गया है. आंकड़ों के मुताबिक, चीन भारत का सब से बड़ा व्यापार सहयोगी बन गया है. भारत चीन के लिए 7वां सब से बड़ा निर्यातक व 9वां सब से बड़ा आयातक देश है. भारत ने 2015 तक चीन के साथ व्यापार में 100 बिलियन डौलर की वृद्धि करने का लक्ष्य रखा है.

अरुणाचल प्रदेश को चीन अपना क्षेत्र मानता आया है. समयसमय पर अरुणाचल प्रदेश में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं. दोनों देशों के बीच यह सीमा विवाद दशकों पुराना है. हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने मैकमोहन रेखा के रूप में सीमा तय की थी पर चीन इस की वैधता को नहीं मानता. चीन ने अवैध रूप से सीमा रेखा के आसपास करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर नियंत्रण कर रखा है. यही नहीं, चीन अरुणाचल प्रदेश के अधिकारियों को चीनी वीजा देने से इनकार करता है.

भारत और चीन की सामरिक प्रतिस्पर्धा

भारत और चीन के बीच सामरिक होड़ पिछले वर्षों में तेजी से बढ़ी है. दोनों देशों के बीच बढ़ते आर्थिक और सामरिक संबंधों के बावजूद कई मुद्दों पर तनाव चलता रहा है. लंबे समय से सीमा विवाद चला आ रहा है. दोनों देशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में निर्मित सैन्य बुनियादी ढांचे तनाव के कारण बने हैं.

इस के अलावा भारत के पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना दावा जताता आया है. चीन विश्व के 5 बड़े हथियार निर्यातकों में से एक है जबकि भारत खरीदारों में सब से ऊपर है. चीन की सैन्य शक्ति भारत के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है. अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो चीन ने 2010 में 1518, 2011 में 1506 और 2012 में 1783 बिलियन डौलर के हथियार विश्व के देशों को बेचे हैं जिन में भारत भी एक है.

भारत ने 2010 में 2883, 2011 में 3511 और 2012 में 4764 बिलियन डौलर के हथियार खरीदे. चीन का सैन्य खर्च 129,270,000,000 डौलर सालाना है और मिलिटरी खर्च के मामले में यह विश्व का दूसरा सब से बड़ा देश है. भारत सैन्य खर्च के मामले में 8वें नंबर पर है. चीनी सेना दुनिया का सब से बड़ा सैन्य बल है. भारत के साथसाथ चीन भी परमाणु संपन्न देश है. चीन ने जहां अपने परमाणु हथियारों को परिष्कृत किया है वहीं भारत अपने परमाणु हथियार के परिवहन के लिए अग्नि-3 मिसाइल परीक्षण कर आगे निकलने की होड़ कर रहा है.

भारत ने अब तक 1974 और 1998 में 2 बार परमाणु परीक्षण किए पर चीन अब तक 45 बार परमाणु परीक्षण कर चुका है. चीन में 22 लाख 85 हजार के करीब सक्रिय सैनिक और लगभग 8 लाख रिजर्व जवान हैं जबकि भारतीय सेना में करीब 13 लाख, 25 हजार सक्रिय और लगभग 11 लाख 55 हजार रिजर्व सैनिक हैं. भारत और चीन दोनों देशों में लगातार सैन्य बजट बढ़ाया जा रहा है.

इस समृद्ध राज्य पर दावे की दृष्टि से चीन अपनी सीमा में इस से सट कर सड़कें, रेल निर्माण के कार्य करा रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी पर भी 3 बांधों के निर्माण की योजना है. भारत इस का विरोध कर रहा है.

शी ने अपनी पंचशील के सिद्धांतों में अंतर्राष्ट्रीय जगत में पारस्परिक सहयोग की बात तो की है लेकिन वे सिर्फ अपने हितों की रक्षा में भारत से सहयोग की अपेक्षा करते हैं, दूसरी तरफ भारत की संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मसला सिर्फ चीन के विरोध के कारण ही आज तक अधर में लटका हुआ है.

शी को यह समझना होगा कि पारस्परिक संबंध एकतरफा नहीं हो सकते. इस के लिए चीन को भी आगे बढ़ कर भारत के हितों की रक्षा में तहेदिल से उस का साथ देना होगा. यह उम्मीद की जानी चाहिए कि डरबन में ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान शी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के बीच हुई हाल ही की मुलाकात के बाद भारतचीन रिश्तों में एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकेगी.  

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