याद है तुम्हें कितना गुस्सा हुए थे तुम
जब पलट कर देखना बंद कर दिया मैं ने
चुप रहने लगी थी अपनेआप में बंदबंद
तुम्हें देख कर भी अनदेखा कर देती थी
खिड़की जानबूझ कर बंद कर ली थी
कि तुम्हें देख न सकूं
हालांकि अपनी हर कोशिश के बाद
भर आता था मन
आंखों में चुभन से सने हुए आंसू लिए
सब से अलग चलने लगती थी
तेज कदमों से भीतर के तूफान के साथ
कदम से कदम मिलाते हुए
मुश्किल होता था तुम्हें अनदेखा कर देना
तुम्हें लगा, मैं अलग हो रही हूं तुम से
यह सोच लिया था तुम ने कैसे
तुम्हारा गुस्सा फूट पड़ा था मुझ पर
जब मैं अचानक सामने आई थी तुम्हारे
तुम ने अपना मुंह घुमा लिया था
तिरस्कृत मेरा मन बहुत देर तक
कुछ भी नहीं सोच पाया था
सिवा वितृष्णा के
जो तुम्हारे चेहरे पर पढ़ा था मैं ने
हार गई थी अपनी ही कोशिशों से
तुम्हें प्यार करने से खुद को रोकना
अपमानित करना था अपने अस्तित्व को
तुम ने नाराज हो कर
मुझे नाराज होने से रोक दिया था
प्रेम में धुत्त
अब मैं ने खोल दी थी वो खिड़की
जहां से गुजरते थे हमारे मूक संवाद.