इंडिया गेट, विक्टोरिया मैमोरियल, द गेटवे औफ इंडिया, चारमीनार, स्वर्णमंदिर, ताजमहल, बड़ा इमामबाड़ा, गंगाजमुना का संगम-इन तमाम चीजों में क्या समानता है? ये तमाम चीजें अलगअलग शहरों की पहचान हैं. किसी का भी नाम लो, उस शहर का नाम जबान पर आ जाता है. इंडिया गेट कहते ही आंखों में दिल्ली की तसवीर घूमने लगती है. स्वर्णमंदिर कहो तो अमृतसर आंखों में रक्स करने लगता है. दरअसल, किसी शहर की प्रोफाइल उस के किसी विशिष्ट लैंडमार्क से ही बनती है. यह लैंडमार्क उस शहर की आईडैंटिटी में इतना माने रखता है कि अगर उस शहर से उसे निकाल बाहर करें तो एक किस्म से उस शहर का वजूद ही शून्य हो जाता है. किसी शहर का ऐसा लैंडमार्क कोई सालदोसाल में नहीं सदियों में बनता है. मसलन, बनारस के बिंदास मिजाज की पहचान हो या लखनऊ की नफासत. ये पहचानें कोई एक दिन में नहीं बन गईं, सदियों लगे हैं.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी शहर की नई पहचान बनती ही न हो. कभी हैदराबाद, हैदराबादी बिरयानी और चारमीनार के लिए जाना जाता था. लेकिन आज हैदराबाद शहर साइबर सिटी के रूप में भी पहचाना जाता है. यही हाल बेंगलुरु का है. कभी वह द सिटी औफ मैडिसिन गार्डन के रूप में जाना जाता था, मगर आज भारत की सिलिकौन वैली बन चुका है. पुणे, जो कभी मराठी रंगशालाओं से अपनी पहचान पाता था, आज उच्च शिक्षा के गढ़ के रूप में विकसित हो चुका है. प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज और मैडिकल कालेज शहर की नई और पुख्ता पहचान है.

हद तो यह है कि जिस दिल्ली को मुगलों और अंगरेजों की उत्कृष्ट स्थापत्यकला के लिए जाना जाता था, अब उस को भी नई पहचान मिल चुकी है. देश की राजधानी दिल्ली को हाल के दशकों में मैट्रो रेल और अक्षरधाम मंदिर ने बिलकुल नई और आधुनिक पहचान दी है. अभी डेढ़ दशक पहले तक दिल्ली लालकिला और जामा मसजिद जैसी मुगलकालीन ऐतिहासिक इमारतों के लिए और राष्ट्रपति भवन व संसद भवन जैसी अंगरेजी सल्तनत की इमारतों के लिए ही जानी जाती थी. अभी भी दिल्ली के लिए अभिजात्यता को व्यक्त करने वाला मुहावरा, लुटियन जोन, प्रभावशाली है.

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