नए एंटीबायोटिक की खोज और मौजूदा एंटीबायोटिक दवाओं से नष्ट न होने वाले यानी दवाप्रतिरोधी बैक्टीरिया के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया है. वैज्ञानिक जीजान लगाए हुए हैं. वे समुद्र की अतल गहराइयों, जमीन के भीतर, पर्वतों, रेगिस्तानों और हर ऐसी जगह जहां सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवन होने की संभावना हो, ढूंढ़ रहे हैं. हमें शायद उस भयानक समस्या का बहुत कम एहसास है जिस की आगत की आशंका से चिकित्सा वैज्ञानिक आतंकित और हड़बड़ाए हुए हैं.
प्रयोगशालाओं में तो नए एंटीबायोटिक को तलाशा ही जा रहा है, उस के बाहर भी जोरों से तलाश जारी है. कारगर एंटीबायोटिक नहीं खोजी गई तो आशंका इस बात की है कि वर्ष 2050 तक मरने वालों की संख्या बढ़ कर सालाना 1 करोड़ हो सकती है. इस से जन की तो हानि होगी ही, धन के मामले में जो नुकसान आंका गया है, वह 100 ट्रिलियन डौलर से ज्यादा का है. इसे ऐसे समझें कि समूचे संसार के देशों की अर्थव्यवस्था में दर्शाई गई सकल घरेलू उत्पाद यानी उन के जीडीपी को एक कर दिया जाए तब भी इस की भरपाई नहीं होने वाली.
सब से बड़ी बात यह कि यदि कोई नया बैक्टीरिया प्रतिरोधक या दवा ईजाद न हुई तो हम अगले 2 दशकों में ही एक सदी पीछे की हालत में पहुंच जाएंगे. इस से एक बार फिर सामान्य सा संक्रमण भी जानलेवा बन सकता है. सच तो यह है कि सामान्य दस्त या उल्टी की समस्या यदि बिगड़ जाएगी तो कोई एंटीबायोटिक कारगर साबित नहीं होगा, स्थिति जानलेवा हो जाएगी. एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर सर्जरी और कैंसर का उपचार खतरे में पड़ जाएगा.
चिंता पर चिंता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एंटीबायोटिक के इस भयावह मुद्दे पर ध्यान दिया है. उस ने ‘एंटीबायोटिक : हैंडल विद केयर’ नाम का अभियान शुरू किया है. अमेरिका ने इस क्षेत्र में नया शोध संस्थान दिया. ब्रिटेन ने इस पर काम करने वाले कुछ संस्थान दिए हैं. कुछ देशों ने इस मामले में शोधकर्मी और अपना अंशदान दिया है. हमारे प्रधानमंत्री ने इस मामले को प्रमुखता से लिए जाने का बयान दिया है. तकरीबन 40 देश इस क्षेत्र में काम में लगे हैं. 80 विख्यात दवा कंपनियां नई पीढ़ी की जीवनरक्षक दवा और नया समर्थ बैक्टीरिया रोधी या एंटीबायोटिक विकसित करने में लगी हैं.
एक भारतीय वैज्ञानिक ने दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया से लड़ने के लिए नैनोथेरैपी की वकालत की है. यह गोली, कैप्सूल या इंजैक्शन अथवा पीने की दवा नहीं है, बल्कि नैनोपार्टिकल्स यानी हमारे बालों की मोटाई से 20 हजार गुना छोटे डौट्स हैं. प्रकाश-प्रेरित, चिकित्सकीय नैनोपार्टिकल्स को क्वांटम डौट्स भी कहा जाता है. ये प्रयोगशाला के वातावरण में 92 प्रतिशत दवा प्रतिरोधी जीवाणु कोशिकाओं को नष्ट करने में सक्षम होते हैं.
इस अध्ययन के सहलेखक भारतीय मूल के प्रशांत नागपाल हैं जो अमेरिका की कोलरैडो बाउल्डर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफैसर हैं. उन के अनुसार, अर्धचालक नैनोपार्टिकल्स केवल संक्रमित स्थानों को ही निशाना बनाएंगे. हलकी सक्रियता के गुणों की वजह से ये क्वांटम डौट्स खास तरह के घातक और दवारोधी बैक्टीरिया के संक्रमणों की चिकित्सा में प्रयोग किए जा सकते हैं.
भारत और एंटीबायोटिक
वर्ष 2010 में भारत ने समूचे संसार में सब से ज्यादा एंटीबायोटिक खाने वाले देश का तमगा हासिल किया था. तब विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, हर भारतीय साल में औसतन पहले नंबर पर 11 एंटीबायोटिक दवा खा रहा था. हम एंटीबायोटिक दवाओं का 1,300 करोड़ स्टैंडर्ड यूनिट (डोज) इस्तेमाल कर जाते थे जबकि 2 और महाशक्तियां चीन 1,000 करोड़ स्टैंडर्ड यूनिट का प्रयोग कर दूसरे और अमेरिका 700 करोड़ स्टैंडर्ड यूनिट एंटीबायोटिक दवाओं की खपत कर तीसरे नंबर पर थीं. सरकारी कोशिशों के नाकाफी व नाकामी के चलते देश ने यह तमगा आज तक बरकरार रखा है. हम ने इतनी एंटीबायोटिक गटक ली हैं कि अब कईर् तरह के बैक्टीरिया इन के इतने आदी हो चुके हैं कि उन पर ताकतवर से ताकतवर एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर होती जा रही हैं.
इस बात पर पहली चिंता भी तभी हुई थी जब वर्ष 2010 में टीबी के 4 लाख 40 हजार ऐसे नए रोगी सामने आए जिन पर एंटीबायोटिक दवा बेअसर थी. इन में से तकरीबन 2 लाख लोगों की मौत हो गई.
नई दिल्ली स्थित गंगाराम अस्पताल में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई थी कि 70 फीसदी मरीजों पर एंटीबायोटिक दवाओं ने असर नहीं किया. जाहिर है सर्दीजुकाम से ले कर फोड़ेफुंसी तक में एंटीबायोटिक का बेवजह, धुआंधार इस्तेमाल रंग ला रहा है. देश में एंटीबायोटिक दवाओं की ज्यादा खपत होने के कई मूलभूत कारण हैं.
भारत में किसी को भी संक्रमित होने की आशंका कुछ ज्यादा ही होती है क्योंकि यहां हवा, पानी, जमीन हर ओर बैक्टीरिया के पनपने, पोषण देने के लिए गंदगी मौजूद है. किसी भी व्यक्ति को संक्रमण यहां बारबार होता है क्योंकि ज्यादातर लोगों का इम्यून सिस्टम या कहें प्रतिरक्षा प्रणाली उचित पोषण व स्वस्थ जीवनशैली के न होने के चलते बेहतर नहीं है. देश में यदि स्वच्छता अभियान पूरी तरह सफल हो जाए तो सिर्फ इसी से एंटीबायोटिक के लिए चलने वाली जंग आधी से ज्यादा जीती जा सकती है.
देश में एंटीबायोटिक दवाएं अभी भी बिना पर्चे के कैमिस्ट से खरीदी जा सकती हैं. बहुत बार चिकित्सक की फीस दोबारा न देनी पड़े, इस से लोग पुराना पर्चा दिखा कर एंटीबायोटिक ले लेते हैं. कुछ लोग डाक्टर की सलाह के बजाय दूसरों की सलाह पर भी दवा खरीद कर खा लेते हैं. वैसे भी, देश में चिकित्सक बड़ी आसानी से एंटीबायोटिक दवाएं लिख भी देते हैं. बिना डाक्टरी सलाह के बारबार एंटीबायोटिक खाना और डोज पूरी किए बिना तबीयत थोड़े ठीक होती है. एंटीबायोटिक का सेवन बंद कर देना ऐसे बैक्टीरिया के तैयार होने में सहायता कर रहा है जिन पर दवाएं बेअसर रहें. एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में एंटीबायोटिक की 76 फीसदी खपत ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में है. पर मसला इन्हीं देशों तक सीमित नहीं है. यह विश्वव्यापी है.
खतरा नजदीक है
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने से दुनिया में प्रतिवर्ष 7 लाख से ज्यादा लोग मारे जाते हैं. इस के व्यापक और दीर्घकालिक दुष्परिणाम की कल्पना भी नामुमकिन है. ऐसा हुआ तो संक्रमित मरीजों और मौडर्न मैडिकल सिस्टम यानी एलोपैथी चिकित्सा प्रणाली का क्या होगा?
अगर प्र्भावी एंटीबायोटिक न ढूंढ़ा गया तो तकरीबन 15 तरह के अलगअलग जीवाणु प्रतिरोधक विकसित करने होंगे जो बेहद महंगा सौदा है और जो इलाज को भी खासा महंगा बना देगा. इस के अभाव में हर दिन कम से कम 200 अरब डौलर रोज खर्चने होंगे. सो, जनधन की भयानक हानि वाला यह खतरा काल्पनिक नहीं है, बल्कि वास्तविक है और बेहद नजदीक भी. अगर जल्द कुछ नहीं किया गया तो अगली पीढ़ी को दुर्दिन देखने होंगे.
बैक्टीरिया की प्रोटोज
बैक्टीरिया एक कोशिकीय जीव है. इस का आकार एक मिलीमीटर से ले कर कुछ मिलीमीटर तक का होता है. यह गोल या चक्राकार अथवा छड़ के आकार का हो सकता है. बैक्टीरिया पृथ्वी में तकरीबन हर जगह पाए जाते हैं. मिट्टी में, अम्लीय जलधाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, पानी में, यहां तक कि कार्बनिक पदार्थों में और पौधों व जानवरों के शरीर में भी पाए जाते हैं. बैक्टीरिया का आकार बहुत छोटा होता है और इन के विकास की संख्या बहुत तीव्र होती है. एक ग्राम मिट्टी में 4 करोड़ तक बैक्टीरिया हो सकते हैं. जबकि एक मिलीलिटर पानी में 10 लाख से भी ज्यादा बैक्टीरिया होते हैं.
बैक्टीरिया धरती में बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग हैं. ये कई तत्त्वों के चक्र में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में. हालांकि अभी तक बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन संभव नहीं हुआ है, फिर भी दुनिया की तकरीबन आधी प्रजातियां ऐसी हैं जिन्हें किसी न किसी प्रयोगशाला में पैदा किया जा चुका है. मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं हैं, उन की लगभग 10 गुना बैक्टीरिया हैं. इन में से अधिकांश बैक्टीरिया त्वचा तथा आहार नाल में पाए जाते हैं.
हानिकारक बैक्टीरिया इम्यून तंत्र के रक्षक प्र्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाते वरना तो एक दिन में ही आक्रामक बैक्टीरिया हमारे शरीर को चट कर जाएं. दुनिया में हर साल अकेले टीबी के रोग से 20 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं. टीबी का रोग खतरनाक बैक्टीरिया का ही
नतीजा होता है. सारे बैक्टीरिया नुकसानदायक नहीं होते. कई बैक्टीरिया फायदेमंद भी होते हैं. कुछ बैक्टीरिया सिर्फ प्रति जैविक विकसित कर के इंसान के स्वास्थ्य की रक्षा के काम ही नहीं आते बल्कि औद्योगिक उत्पादन में भी इन का बड़ा हाथ होता है. आज की तारीख में न जाने कितने उत्पाद बैक्टीरिया की देन हैं. बैक्टीरिया के किंडवन क्रिया द्वारा न सिर्फ दही से ले कर पनीर तक बल्कि तमाम औद्योगिक क्रियाएं भी इन के जरिए संभव होती हैं. बैक्टीरिया को सब से पहले एक डच वैज्ञानिक एंटनी वौन ल्यूवोनहुक ने 1676 में सूक्ष्मदर्शी के जरिए देखा था. यह सूक्ष्मदर्शी उन्होंने खुद ही बनाई थी. इस के बाद 1864 में फ्रैंच वैज्ञानिक लुई पास्चर ने दुनिया को बताया कि इन बैक्टीरिया से ही रोग फैलते हैं. लुई पास्चर ने ही 1889 में अपने प्रयोग द्वारा यह दिखाया था कि किंडवन की रासायनिक क्रिया सूक्ष्मजीवों द्वारा होती है. ये सूक्ष्म जीव बैक्टीरिया ही हैं. लुई पास्चर को बैक्टीरिया संबंधी अध्ययन का पितामह समझा जाता है.
रोग और प्रमुख कारक बैक्टीरिया
रोग बैक्टीरिया का नाम
टिटनैस क्लैस्ट्रडियम टेटनी
काली खांसी हैमोफिलस परटूसिस
डिप्थीरिया कोरिनोबैक्टीरियम डिप्थीरी
कोढ़ या कुष्ठ रोग माइकोबैक्टीरियम लेप्री
तपेदिक माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस
टाइफाइड टाइफि साल्मोनेला/साल्मोनेला टाइफि
गोनोरिया/सुजाक गोनोकौकस गोनोराही
प्लेग बैसिलस पैस्टिस
सिफलिस ट्रेपोनेमा पैलीडम
न्यूमोनिया डिप्लोकौकस न्यूमोनी
हैजा विब्रियो कौलरी
मेनिनजाइटिस निशेरिया मैनिनजाइटिडिस
मियादी बुखार सालमोनेला टाइफी
क्षय रोग माइकोबैक्टीरियम टयूबरकुलोसिस
स्वाइन फ्लू एच1 एन1 फ्लू विषाणु (अर्थोमिक्सोवायरस)
एबोला एबोला विषाणु (फाइलोंविषाणु)
फूड पौइजन क्लोस्ट्रीडियम बौट्यूलिनम
रिकेट्स संक्रमण रिकेट्सी
लाइम रोग बोरिलिया बर्गडोरफेरी
धुनस्तंभ क्लोस्ट्रीडियम टिटैनी
क्लैमाइडिया क्लैमाइडिया ट्रैकोमैटिस
लाल बुखार स्ट्रैप्टोकाकस
रोग और प्रमुख कारक प्रोटोजोआ (परजीवी)
रोग परजीवी का नाम
पायरिया एंटअमीबा जिंजीवैलिस
दस्त एंटअमीबा हिस्टोलिटिका
अतिसार या पेचिस जिआरडिया लैंबलिया
सुजाक तथा स्वेत प्रदर ट्राइकोमोनस वेजाइनेलिस
दस्त आइसोस्पेरा होमिनिस
काला-जार लीशमनिया
निद्रा ट्रिपैनोसोमा ग्रैंबियंस
मलेरिया प्लाज्मोडियम