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लेखिका-अमृता पांडे

पिछली वर्ष ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद सविता अब घर में रह कर ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. साथ ही, पोस्ट ग्रेजुएशन भी पूरा हो रहा था. उस की छोटे से कसबे में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने के लिए कुछ खास व्यवस्था नहीं थी. हां, दूसरे गांवमहल्लों की तरह एक या दो कोचिंग सेंटर अवश्य खुल गए थे, परंतु वहां पर कोचिंग का वह स्तर नहीं था, जो वह दिल्ली में देख कर आई थी. ग्रेजुएशन वह दिल्ली विश्वविद्यालय से कर के आई थी. वहीं पर रुक कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने की योजना थी उस की, परंतु बीच में कोरोना ने जो दस्तक दे दी, उस की वजह से सारे कोचिंग संस्थान बंद हो गए और लौकडाउन घोषित हो गया, इसलिए जल्दबाजी में वह अपने घर आ गई थी और यहीं रह कर स्वाध्याय के माध्यम से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. कल बरेली में उस की परीक्षा थी, तो उस ने एक दिन पहले ही वहां पर पहुंचना उचित समझा, ताकि परीक्षा का सेंटर भी देख ले.

रेली में उस के कुछ रिश्तेदार रहते थे, जिन्हें अपने आने की बात उस ने पहले ही बता दी थी. उस के पिता भी साथ जाना चाहते थे, मगर उस ने यह कह कर मना कर दिया, "मुझे तो परीक्षा देने कई बार जाना पड़ेगा. आप कहांकहां मेरे साथ आएंगे. मैं अकेली ही चली जाऊंगी."

तभी मां ने मंदिर से ला कर दही और बताशे की कटोरी उस के हाथ में पकड़ाई और पूजा की थाली से पिठ्या और अक्षत उस के माथे पर लगाया. उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में किसी भी यात्रा या शुभ काम में जाने से पहले यह शगुन हर घर में किया जाता है.

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