लेखक : कृष्ण कुमार भगत 

सुनील के निश्छल प्रणय निवेदन को रोजी उर्फ सीमा ने बड़ी बेदर्दी से ठुकरा दिया. बीते वक्त के साथ उस की जिंदगी में आई अनिता. सुनील के टूटे दिल के जख्म फिर हरे होने लगे ही थे कि एक दिन अचानक हुआ सीमा का आगमन, जिस ने उस के दिलोदिमाग को झकझोर कर रख दिया.

सीमा के संदर्भ में मैं ने एक कविता संग्रह ‘आओ, इस जर्जर घड़ी को बदल डालें’ शीर्षक से लिखा था, जिस की याद अब मुझे आ रही है और अनिता अक्षरश: उसे सुनाने लगी. मेरे अपने ही शब्द आज मुझे कितने भोथरे महसूस हो रहे हैं.

‘‘जितनी जल्दी हो सके...आओ इस जर्जर घड़ी को बदल डालें. वरना हरगिज माफ नहीं करेंगी हमें...आने वाली हमारी नस्लें...’’

सीमा, यानी अनिता की पुरानी सहेली, इतनी जल्दी वह घर आ धमकेगी, वह भी मेरी गैरमौजूदगी में, यह तो बिलकुल न सोचा था. कल शाम को बाजार में शौपिंग करते हुए अचानक वह मिल गई तो मैं चौंक उठा, जबकि उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव न उभरा था.

‘‘सुनील, यह सीमा है,’’ अनिता ने परिचय दिया, ‘‘मेरी प्रिय सखी.’’

‘‘बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर,’’ औपचारिकता के नाते कहना पड़ा. कड़वा सच एकदम से उगला भी तो नहीं जाता.

‘‘किसी हसीन लड़की से साली का रिश्ता जुड़ जाने पर भला कौन खुश नहीं होगा,’’ निसंकोच सीमा ने कहा और हंस पड़ी. वही 3 साल पुराना चेहरा, वही रूपरंग, कातिल अदा, मोतियों से चमकते दांत, कुदरती गुलाबी होंठ और उसी तरह गालों को चूमती 2 आवारा लटें, कुछ भी तो न बदली थी वह. हां, उस का यह नाम जरूर पहली बार सुना और अपनी बात पर स्वयं ही खिलखिला उठना कतई न सुहाया. मन में दबी नफरत की चिंगारी भड़क उठी और ‘साली का संबोधन’ अंगारे की तरह अंदर जलाता चला गया.

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