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उमा आंटी और सावित्रीजी दोनों ही मुझे देख कर गदगद हो उठी थीं. ‘आप से चाय का वादा किया था, तो आज पीने चला आया हूं.’

‘हांहां, मैं अभी बना कर लाती हूं,’ सावित्रीजी चली गईं तो मैं आंटी की ओर मुखातिब हुआ, ‘कैसी हैं आप, समाजसेवा कैसी चल रही है आप की?’

‘अब तो चाह कर भी ज्यादा काम नहीं कर पाती. पर हां, यह भरोसा आश्वस्त किए रहता है कि तुम जैसे लोग मेरे दिखाए रास्ते पर चल रहे हो.’

‘आप की बेटी नजर नहीं आ रही? कहीं बाहर गई है?’

‘कौन, अरुणा? वह अब यहां नहीं रहती.’

‘क्यों?’ मैं बुरी तरह चौंक उठा था. मांबेटी का वैचारिक मतभेद सचमुच इस अंजाम तक पहुंच गया? मैं सिहर उठा था.

‘उस ने अपने औफिस के उधर ही मकान ले लिया है.’

‘पर?’ मैं अभी भी इस तर्क से आश्वस्त नहीं था.

‘दीदी, कम से कम इन से तो सच मत छिपाइए,’ सावित्रीजी चाय ले कर आ गई थीं.

‘आप नहीं जानते, दीदी आप से बेटे जैसा स्नेह रखती हैं. जब भी आप को टीवी पर देखती हैं या समाचारपत्र में आप के बारे में पढ़ती हैं, आप से जुड़ी यादें दोहराने लगती हैं.’

‘छोड़ न सावित्री. क्या किस्सा ले बैठी?’ उमा आंटी ने रोकना चाहा.

‘नहीं दीदी, आज हमें बोल लेने दीजिए. हर कोई आप की भावनाओं से खेलता ही रहा है. किसी ने आप को, आप की भावनाओं को, आप के आदर्शों को सही अर्थों में समझा और अपनी जिंदगी में उतारा है तो वे मंत्रीजी हैं. आप खुद ही तो इन के बारे में यह सब कहती रही हैं. अब अरुणा बेबी आप को नहीं समझ पाई तो कोई क्या कर सकता है?’

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