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‘मैं कालेज कैंटीन में खा लूंगी. पर तुम्हारा पेट भरा होना ज्यादा जरूरी है. अब फटाफट खा लो. और ये लो पैसे टिकट आदि के लिए. पता नहीं कहां जरूरत पड़ जाए.’

‘ठीक है. पर लौटाने आऊंगा,’ मैं ने उन का नाम-पता नोट कर लिया था.

वह मेरी उन से पहली मुलाकात थी. वे वहीं कालेज में पढ़ाती थीं. मैं ने सोचा तो यही था कि अगले दिन ही पैसे लौटा आऊंगा पर आलस्यवश यह काम टलता रहा. एक दिन किसी पब में दोस्तों के साथ मौजमस्ती करते मेरी नजरें आंटी से जा टकराईं. ‘आंटी यहां?’ सोचते हुए मेरा हाथ उन के पैसे लौटाने के उद्देश्य से अपनी जेब में चला गया था. पर जेब तो मौजमस्ती में पहले ही खाली हो चुकी थी.

मैं ने खिसियाते हुए नजरें घुमा ली थीं. पर आंटी पहचान कर पास चली आई थीं. ‘पवन, तुम यहां क्या कर रहे हो? मैं तो यहां किसी के बुलाने पर आई हूं. और अभी मैं ने पुलिस को भी बुला लिया है. तुम लोग जल्दी से निकल जाओ वरना पुलिस के पचड़े में फंस जाओगे. यहां चोरीछिपे गैरकानूनी धंधा चल रहा है.’ देखतेदेखते पुलिस ने पब को चारों ओर से घेर लिया था. पर आंटी ने हमें सुरक्षित निकल जाने दिया था. मैं एक बार फिर से उन का एहसानमंद हो गया था. अगले दिन ही मैं पैसे लौटाने पहुंच गया था उन के घर. दरवाजा खोलने वाली शायद उन की परिचारिका थी.

‘कौन है?’ अंदर से किसी लड़की का स्वर उभरा था.

‘कोई लड़का है. दीदी से मिलना है.’ वह अंदर चली गई थी.

‘लो, मांगने वाले अब मुंह उठाए घर तक भी आने लगे. मां को अच्छे से इमोशनली ब्लैकमेल कर लिया होगा उस ने. लूट मचा रखी है सब ने. मुझे तो लगता है मां एक दिन अपनी सारी जायदाद निराश्रितों और विधवाओं के नाम कर जाएंगी. पूरी दुनिया की समाजसेवा का ठेका ले रखा है उन्होंने.’

‘बेबी रानी, वह बैठक में ही है, सुन लेगा.’

‘अरे, तो मैं कौन किसी से डरती हूं. सुन लिया है तो मुंह उठा कर चलता बने यहां से. पर मांगने वालों में इतनी गैरत कहां होती है? न ये सुधर सकते हैं, न मां. बीसियों बार धोखा खाने के बावजूद मां हर किसी पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेती हैं. यदि मां ने जल्दी ही यह सब नहीं छोड़ा न, तो मैं ही किसी दिन यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी.’ मेरे लिए वहां बैठना दूभर हो गया था. मैं ने चुपचाप जेब से रुपयों का लिफाफा निकाल कर टेबल पर रखा और बाहर निकल गया था. कितना अंतर होता है माता, पिता और संतति की सोच में. क्या इतने बरसों बाद भी मां-बेटी में विचारों का वैसा ही टकराव होगा? उमा आंटी तो बदली नहीं हैं. उन की सोच तो आज भी वैसी ही है. तो क्या बेटी? विचारों की उड़ान घर पहुंचने के साथ ही थम सकी थी. उमा आंटी से फिर मुलाकात नहीं हुई.

आज एक उद्घाटन के सिलसिले में इधर आना हुआ. लौट रहा था तो उमा आंटी का खयाल आ गया. इधर पास ही तो रहती हैं वे. उन से किया अपना चाय का वादा भी याद आ गया. मैं ने आगेपीछे चल रही गाड़ियों को मंत्रालय पहुंचने का मैसेज करवाया और ड्राइवर से अपनी गाड़ी उमा आंटी के घर की ओर मुड़वा ली. मेरे साथ मेरी प्रैस सचिव मिस जोशी भी थी.

‘मिस जोशी, इधर मेरे कोई मिलने वाले रहते हैं. उन से थोड़ी देर मिल कर चलते हैं. आप को कोई काम तो नहीं?’

‘नहींनहीं सर, आप आराम से मिलिए. मैं गाड़ी में ही बैठी हूं. लैपटौप पर अभी किए उद्घाटन समारोह का प्रैसनोट तैयार कर लेती हूं. सर, इधर आप के मिलने वाले कौन हैं?’ मिस जोशी ने उत्सुकता जताई है, एक परिचित, बेहद आत्मीय,’ मैं मन ही मन उमा आंटी के चेहरे पर आने वाले आश्चर्य और खुशी के मिलेजुले उद्गारों की कल्पना करने लगा था, वाकई ऐसा ही हुआ.

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