है, यार? बहुत दिनों से देखा नहीं उसे,’ रूम में चारों ओर देखते हुए ललक कर पूछा.
‘बेटे को देखा नहीं, बहुत दिनों से? क्या कह रहे हैं? रोज ही तो सामने बैठा होमवर्क करता रहता है, जी,’ उर्मि विस्मय से बोली.
‘आभासी दुनिया की तंद्रा में दृष्टि ससुरी यंत्रीकृत सी हो गई थी. तुम, वो, ये सारा परिवेश
सामने होते हुए भी आंखों से ओझल रहते. आज तंद्रा टूटी तो तुम्हें देखा. आज ही उसे देखूंगा. उस का होमवर्क मैं कराऊंगा, ठीक.’
‘पड़ोस में खेलने गया है, आता होगा. अब किचेन में चलती हूं, बहुत काम है,’ उर्मि उठती हुई बोली तो पीयूषजी मनुहार कर उठे, ‘प्लीज, कुछ देर रुको न, जी नहीं भरा देखने से.
खूबसूरती को भासी दुनिया में लाख विचर ले कोई, लौटना तो आखिरकार यथार्थ पर ही होता है, खाली हाथ. कितना मूर्खतापूर्ण गुजरा वह समय. जेहन में महादेवी वर्मा की पंक्तियां कौंध गईं.. विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना. परिचय इतना, इतिहास यही... महादेवीजी ने ये पंक्तियां उन जैसों के लिए लिखी होंगीं शायद.
अब छोड़िए भी. रात के खाने की तैयारी करनी है,’ उर्मि उन की बांहों से छूटने का प्रयास करती बोली, ‘देर हो जाएगी, बहुत काम है, मेरी हंसी देखने के लिए ढेर समय मिलेगा मिस्टर अग्रवाल.’
पर पीयूषजी के भीतर का प्रेमी आज वियोग सहने को तैयार न था. उर्मि के साथ के एकएक पल को जी लेने को मचल रहा था उन का मन. ‘तो ऐसा करते हैं कि मैं भी किचेन में चलता हूं. तुम सब्जी बनाना, मैं आटा गूंथ दूंगा.’
पीयूषजी ने भोलेपन से कहा. उर्मि पति की अदा पर फिदा हो गई. पहले वाले दिन याद हो आए जब पीयूषजी उस के इर्दगिर्द बने रहने और चुहल करने का कोई बहाना नहीं छोड़ते थे.
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