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वह सोचा करती थी कि जब उस का विवाह होगा तो उस का पति होगा, छोटा सा एक घर होगा, जिस में हर वस्तु कलात्मक और सुंदर होगी. घर में फूलों से भरी क्यारियां होंगी, हमेशा हरेभरे रहने वाले पौधे होंगे. घर की हवा ताजगी और खुशबुओं से भरी होगी पर अब उसे ऐसा लग रहा था, जैसे जेठ की तपती धूप ने उस के सारे फूलों को जला डाला है और किसी भीषण आंधी ने उस के छोटे से घर की हर कलात्मक, खूबसूरत चीज को धूल से ढक कर एकदम बदरंग कर दिया है.

उसे यह दयाशंकर शर्मा की याद दिलाता था, जिस के मांबाप ने सुजाता का हाथ मांगा था पर वह जानती थी कि दयाशंकर एक नंबर का निकम्मा है. जब दयाशंकर ने उसे दिनेश के साथ घूमते देखा तो एक दिन एक छोटे रैस्तरां, जहां दोनों चाय पी रहे थे, में आ धमका और दिनेश से कहने लगा कि वह अपनी औकात में रहे. उसे भी धमकी दे गया कि यदि उस ने जाति से बाहर कदम रखा तो बवाल करा देगा. यह तो दिनेश के दोस्तों की देन थी कि वे दयाशंकर को सही से सम झाने आए थे और दोनों का विवाह हो गया.

कई बार सुजाता सोचती कि क्या उस की अपनी जाति का दयाशंकर उसे ढंग से रखता पर जब वह दयाशंकर की बड़ी भाभी से मिली तो साफ हो गया कि उस घर में तो हर समय क्लेश रहता है. हर जना गरूर में रहता है और कोई भी मेहनत से कमाना ही नहीं जानता. हरेक को मुफ्तखोरी की आदत पड़ी थी. कुछ महीने पहले उस ने दयाशंकर को कुछ लफंगों के साथ बाजार में एक आम बेचने वाले को पीटते देखा था, जो उन से पूरे पैसे मांगने की हिमाकत कर चुका था. उसे अपने फैसले पर पूरा गर्व हो उठा था.

वह अपने सपनों के टूटे टुकड़ों को फेंक कर जो पा सकी है, उसे ले कर जीवन सार्थक मान ले या इस परिवाररूपी वृक्ष की एक डाली यहां से कहीं दूर ले जा कर अपने सपनों की बगिया को सजा ले. बहुत सोचने पर भी उसे कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था. बहुत सम झनेसोचने पर उसे लगा कि वह दोनों ही काम करने में असमर्थ है. न तो वह अपने सपनों को कभी मन से निकाल सकेगी और न ही इतनी इज्जत देने वाले सासससुर, ननददेवरों को छोड़ कर पति के साथ नई गृहस्थी बना कर ही सुखी रह सकेगी.

उसे अपने सपनों को इसी घर में रह कर पूरा करना होगा. इन्हीं लोगों के साथ रह कर विरोधों को  झेल कर, उसे धीरेधीरे बहुतकुछ बदलना होगा. उस ने अपनी चचेरी बहनों की दुर्गति देखी थी, जो उसी जाति में ब्याही गईं पर रातदिन दहेज पर कमैंट सुनतीं, जराजरा सी बात पर उन की सांसें तुनक जातीं.

मित्रों के साथ ताश और गपबाजी में दिनेश का समय गुजरे, यह बात सुजाता को बहुत सताती. एक दिन मित्रों की बुलाहट होने पर दिनेश उठा ही था कि सुजाता ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मैं भी चलूंगी आप के साथ,’’ सुजाता हंसती हुई बोली.

दिनेश अचकचा गया, ‘‘वहां, मेरे मित्रों में?

‘‘पर वहां तो एक भी औरत नहीं होती है. तुम बोर हो जाओगी और फिर माताजी और पिताजी क्या कहेंगे?’’

‘‘यही कि नववधू को अकेला छोड़ कर मित्रों के पास बैठना आप को शोभा नहीं देता.’’

‘‘बस, मैं अभी आता हूं. जब आ ही गए हैं तो कुछ देर बैठ ही लें.’’

सुजाता मचल उठी, ‘‘नहींनहीं, मैं आप को आज नहीं जाने दूंगी. हम लोगों ने पिक्चर चलने का प्रोग्राम बनाया है. आज तो मित्रों को विदा करना ही पड़ेगा.’’

दिनेश को सुजाता के हठ के आगे  झुकना ही पड़ा और धीरेधीरे उस की सारी शामें सुजाता की हो गईं.

गुड्डू तिमाही इम्तिहान में हमेशा की तरह फेल हो गया था. पिताजी और महेश से अच्छी तरह पिटने के बाद वह सुबक रहा था.

सुजाता का दिल उमड़ पड़ा. बेचारे बालक का दोष ही क्या था? यह सब घर वालों की उस के प्रति लापरवाही का ही नतीजा था. वह इसी तरह पढ़ेगा तो कितना पढ़ पाएगा? उस का भविष्य क्या होगा? नतीजा खराब निकलने पर मारपीट करने तक की जिम्मेदारी तो सब लेते हैं, परंतु पढ़ाने की जिम्मेदारी लेने का अवकाश किसी को नहीं जाता. स्कूल नहीं जाता, इसलिए पढ़ाई नहीं कर पाता. शायद यह एक चक्कर था, जो घूम रहा था. क्या वह भी उस की बरबादी की दर्शिका बन कर रह जाए? क्या वह इस अबोध बालक की कोई सहायता नहीं कर सकती?

गुड्डू की परीक्षा लेने पर उसे पता

चला कि वह शिक्षा के हर पहलू

से अनजान है और उस की अधूरी शिक्षा को पहली सीढ़ी से शुरू करना पड़ेगा. उसे एक ध्येय मिल गया था. वह पूरे उत्साह से उस में जुट गई. उस ने पूरे 10 दिन की अस्पताल से छुट्टी ले ली. सारा दिन उसे पढ़ाया. बचे समय में उस ने घर पर ध्यान देना शुरू किया.

धीरेधीरे घर में पौधों पर गमलों का प्रवेश होने लगा था. आंगन की सीमेंट तोड़ कर, ईंटें निकाल कर किनारेकिनारे क्यारियां बना दी गईं. अब तो दिनेश ने स्वयं इस काम में सुजाता की सहायता की थी. सब लोगों ने पढ़ीलिखी सम झदार घर की बहू की उस की सनक सम झा पर जब नन्हेनन्हे पौधे हरेहरे दिखने लगे तो सब को अच्छा लगा. उसे पता था किसी दिन इन बेजान से पौधों से पत्ते निकलेंगे और फूल खिलेंगे, फिर उन में से रंग उभरेंगे और खुशबू की लहरें उठेंगी पर यह सब धीरेधीरे होगा. उसे बड़े धैर्य से उन की देखभाल करनी होगी.

सुजाता ने सास की  झाड़ू तो नहीं उठाई, परंतु जब समय मिलता वह घर में फैले हुए कपड़ों, बरतनों और फर्नीचर को सहेजने में लग जाती थी. घर की व्यवस्था सुधारने का हर छोटा सा प्रयत्न उस के लिए संतोष का विषय हो गया था.

खूंटी, अलगनी और गुसलखाने में पुराने स्टाइल से लटके रतना के नए से नए डिजाइन के कपड़े देखरेख के अभाव में बहुत जल्दी अपना रूपरंग खो देते थे. पुरानों को फेंक रतना नए कपड़ों के ढेर लगाती रहती. उस के कपड़ों और दर्जी का बढ़ता बिल घर में तनातनी का विषय बना रहता.

इस बात को ले कर काफी चखचख और बहस भी होती. कभी खुशामद कर के, कभी रोधो कर रतना किसी न किसी तरह नए कपड़े सिलवाने के लिए रुपए पा ही लेती थी.

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