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एकएक कर के सभी चले गए.मेहमानों के शोरगुल से भरा घर सूना सा लगने लगा. दिनेश के पिता औफिस जाने लगे. रतना और महेश कालेज जाने के लिए किताबें समेटे सुबह घर से निकलने लगे. दिनेश की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं. वह भी उठते ही  झटपट नहाधो कर व खाना खा कर औफिस रवाना होने लगा. सुजाता ने भी औफिस फिर जौइन कर लिया पर सारे दिन उसे दिनेश की याद आती रही. जब घड़ी देखती तो उसे लगता, उस की घड़ी चलना भूल गई है. दिन था कि किसी तरह काटे नहीं कटता था. सारा ध्यान शाम के 7 बजने पर अटका रहता, जब उस का दिनेश से मिलना हो.

सुजाता और दिनेश का प्रेमविवाह था. सुजाता के पिता साधारण परिवार के थे पर ऊंची जाति थी. वे श्रेष्ठ ब्राह्मणों में से गिने जाते थे. दिनेश के परिवार के लोग कुर्मी थे पर दिनेश के पिता ने पढ़लिख कर एक निजी दफ्तर में नौकरी कर ली थी और सुजाता और दिनेश दोनों एक अस्पताल में पैरामैडिकल जौब करने लगे थे, जिस में ठीकठाक वेतन था. दोनों की शिफ्टें अलगअलग थीं.

पर धीरेधीरे उसे लगने लगा, जैसे उस के जीवन माधुर्य में कुछ कमी होने लगी है. शादी से पहले दोनों अपनी नौकरियों के बाद घंटों साथ रहते थे. अब अकेले में मिलने का सवाल ही नहीं था. रातें अलार्म घड़ी की कटु ध्वनि से टकरा कर बिखरने लगी हैं. दोनों अस्पतालों से लौट कर दोचार मिनट ही साथ व्यतीत कर पाते कि शीघ्र ही दिनेश के मित्रों की एक टोली उसे घेर लेती और उस की शामें मित्रों के हिस्से चली जाती हैं. ऐसा 10 वर्षों से हो रहा था और शादी के बाद अचानक दोस्ताना छोड़ना दिनेश के लिए मुश्किल हो चला था. प्रतीक्षा करती सुजाता का मन व्याकुलता से भर उठता कि पहले वे दोनों घंटों साथ रहते, अब बस बिस्तर पर थके से साथ होते.

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